गुरुवार, 30 मार्च 2017

सगंधीय फसल नींबू घांस की सफल खेती के सूत्र

डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर
प्राध्यापक (शस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)


नीबू घास  जिसे लेमन ग्रास और  चायना ग्रास भी कहते है। यह  एक लम्बी बहुवर्षीय मधुरगन्धी घास होती है जो 1-2 मीटर तक ऊँची होती है। यह तना रहित या छोटे तने वाली घास है  जिसमे पत्तियां रेखीय, लगभग 125 सेमी लंबी और 1.7 सेमी चौड़ी होती है।  इसके पुष्पगुच्छ बड़े, लटके हुए भूरे से हरे रंग के होते है जिन पर जामुनी रंग की आभा बिखरी होती है।  इसके पौधों में सितम्बर-नवम्बर माह में फूल आते है।  इस घास में सूखा सहन करने की क्षमता होती है।नीबू घास का महत्व उसकी सुगंधित पत्तियों के कारण है। इस घास का तेल सिम्बोपोगान की प्रजातियों-सिम्बोपोगाॅनफ्लेक्सुओसस और सिम्बोपोगाॅन सिट्रेटस की पत्तियों से प्राप्त किया जाता है। इसके तेल में तीव्र (लेमन) जैसी तीव्र सुगंध पायी जाती हैइसलिए इसे लेमन ग्रास कहा जाता है। विश्व में उत्पन्न होने वाले महत्वपूर्ण सुगंधित तेलों में से एक लेमन ग्रास का तेल भी है। इस तेल का मुख्य घटक सिट्रल (80-90 %) है। सिट्रल को एल्फा-आयोनोन और बीटा आयोनोन में परिवर्तित किया जाता है। वीटा-आयोनोन गंध द्रव्य के रूप में प्रयोग होता है तथा इससे विटामिन ’ संश्लेषित किया जाता है। एल्फा आयोनोन से गंध द्रव्य अनेक सगंध रसायन संश्लेषित किये जाते हैं। पत्तियों से वाष्प आसवन के द्वारा तेल प्राप्त होता है। जिसका उपयोग इत्र मेंसौन्दर्य प्रसाधनोंविभिन्न प्रकार के साबुनोंकीटनाशक एवं दवाओं के निर्माण में किया जाता है। इसके अलावा यह तेल पारम्परिक   औषधियों में भी प्रयोग होता है। 

लेमन ग्रास की ताज़ी हरी पत्तियां चाय में डालकर पीने से ताजगी के साथ साथ सर्दी जुखाम आदि से भी रहत देती है। लेमन ग्रास एंटी ऑक्सिडेंट,एंटी इनफ्लामेन्ट्री और एंटीसेप्टिक गुणों से परिपूर्ण होती है, जो अनेक प्रकार की  स्वास्थ्य जनक समस्याओं को दूर करने में सहायक होती है।  शरीर के विभिन्न हिस्सो के दर्द, सिरदर्द और जोड़ो के दर्द के लिए फायदेमंद  बताई जाती है।  
          लेसन घास की तीन प्रजातियाँ प्रचलित है - सिम्बोपोगाॅन फ्लेक्सुओसससिम्बोपोगाॅन सिट्रेटस और सिम्बोपोगाॅन पैन्डूलस है। इनमें से सिम्बोपोगाॅन फ्लेक्सुओसस की खेती भारत में काफी प्रचलित है। इसकी दूसरी प्रजाति सिम्बोपोगाॅन सिट्रेटस ज़िसकी खेती मेडागास्करब्राजीलचीनइण्डोनेशिया आदि देशों में प्रमुखता से की जा रही है। तीसरी प्रजाति सिम्बोपागाॅन पैन्डूलस को जम्मू लेमन ग्रास भी कहते है जिसका उपयोग लेमन ग्रास तेल की प्राप्ति के लिए किया जाता है। भारत में 6 हजार हेक्टेयर में इसकी खेती प्रचलित है जिससे 250 टन तेल का उत्पादन प्रति वर्ष होता है। इसमें से लगभग 70 टन तेल का निर्यात किया जाता है। इस ब्लॉग में हम प्रस्तुत कर रहे है नीबूं घास की खेती के विज्ञान सम्मत सूत्र जिनके व्यवहार से आप भी इस बहुपयोगी घास से अधिकतम उत्पादन और मुनाफा अर्जित कर सकते है। 

उपयुक्त जलवायु

          नीबू घास उष्ण एवं समशीतोष्ण दोनों प्रकार की जलवायु में सुचारू रूप से वृद्धि करती है। ऐसे क्षेत्र जहाँ की जलवायु गर्म और आर्द्र हो तथा पर्याप्त धूप पड़ती होइसकी खेती के लिए उपयुक्त होते है। समान रूप से वितरित 250 से 300 सेमी.  वार्षिक वर्षा अथवा सिंचाई के पर्याप्त साधनों वाले क्षेत्र इसके लिए उपयुक्त होते है। कम वर्षा वाले क्षेत्रों एवं ढालू जमीनों में भी इसकी खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है। अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में इसकी खेती करने पर पौधों में तेल तथा साइट्रल कम बनता है। उत्तरी भारत में ठंड का मौसम लम्बा होने के कारण लेमन ग्रास की उपज दक्षिण भारत की अपेक्षा काफी कम आती है।

भूमि का चुनाव एवं  खेत की तैयारी

          इस घास की खेती चिकनी बलुई मिट्टी से लेकर गैर उपजाऊ लैटेराइट जैसी सभी प्रकार की मिट्टीयों में की जा सकती है परंतु अच्छे जल निकास वाली भूमि का चयन करना आवश्यक होता है। दोमट मृदा इसकी खेती के लिए बहुत उपयुक्त होती है। ढलान वाले क्षेत्रों में इसकी रोपाई करने से मृदाक्षरण रूक जाता है। मृदा पी. एच. 9 तक इसकी खेती की जा सकती है। यह पहाड़ों की ढलानों के बंजर क्षेत्र में भी उगाई जा सकती हैै जहाँ पर अन्य फसलें नहीं उगाई जा सकती।
          लेमन ग्रास बहुवर्षीय फसल है तथा लम्बे समय तक खेत में रहती है। अतः खेत की जुताई अच्छी तरह से करना आवश्यक रहता हैै। इसके लिए मिट्टी पलटने वाले हल से एक गहरी जुताई करने के बाद 2 - 3 बाद देशी हल या हैरो से आड़ी - तिरछी (क्राॅस) जुताई करना चाहिए। मृदा जन्य कीट जैसे दीमक आदि के प्रकोप से फसल की रक्षा हेतु अंतिम जुताई के समय खेत में क्लोरपायरीफास धूल 20 - 25 किग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से मिलाना चाहिए। तदुपरांत पाटा चलाकर खेत को समतल कर लेना चाहिए।

उन्नत किस्में

          नीबू घास की विभिन्न प्रजातियों एवं उनकी विकसित किस्में निम्न प्रकार है -
          नीबू घास की प्रजातियां                                         उन्नत किस्में
1.      सिम्बोपोगाॅन फ्लेक्सुओसस                         : कृष्णाकावेरीप्रगतिनीमा
2.      सिम्बोपोगाॅन पेन्डूलस                                : चिरहरित, प्रमाण 
3.      सिम्बोपोगाॅन खासियेनस व पेन्डूलस (क्रास)     : सी. के. पी. - 25
          सिम्बोपोगाॅन फ्लेक्सूओसस की किस्म कृष्णा है। इसकी लीफ सीथ ट्यूब बादामी लाल रंग की होती है तथा पत्तियों की मुख्य शिरा में भी बादामी रंग प्रतीत होता है। सिम्बोपोगाॅन पेन्डूलस (किस्म चिरहरित) की स्लिप की लीफ शीथ ट्यूब हल्के रंग की तथा पत्तियाँ हरे रंग की होती है। तीसरी प्रजाति सिम्बोपोगाॅन खासियेरस एवं सिम्बोपोगाॅन पेन्डूलस का क्रास (सी. के. पी. - 25) है। यह पूरी तरह से हरी दिखाई देती हैलेकिन इसकी लीफ सीथ ट्यूब काफी पतली एवं पत्तियाँ छोटी एवं कम चौड़ी होती है। केन्द्रीय औषधीय एवं सगंध पौधा संस्थान द्वारा प्रगति, प्रमाणचिरहरितकृष्णा एवं नीमा किस्में विकसित की गई हैं जो कि अधिक शाक तथा तेल देती है। इसके अलावा ओ. डी. 19 ओडाक्कलीअरनाकुलम केरल से लाल रंग की किस्म  विकसित कि गई है। इससे 80-200 किग्रा/हेक्टेयर तेल प्राप्त होता है जिसमे  80-88% सिट्राल होता है। 

बुआई का समय

          सिंचित क्षेत्रों में नीबू घास की बुआई वर्ष में कभी भी (अधिक गर्मी के समय को छोड़कर) की जा सकती है। अधिक उपज के लिए बुआई का सर्वोत्तम समय फरवरी - मार्च तथा जुलाई - अगस्त का होता है। फरवरी - मार्च में लगाई गई फसल में प्रथम वर्ष में 15 - 20 प्रतिशत अधिक पैदावार मिलती है।

प्रशारण (प्रबर्धन)

          नीबू घास का प्रसारण या प्रवर्धन बीजों तथा स्लिप द्वारा किया जाता है।
1.बीज द्वारा प्रसारण: दक्षिणी प्रान्तों में नीबू घास में नवम्बर - दिसम्बर में फूल आते है एवं जनवरी - फरवरी मे बीज पक कर तैयार हो जाते है। दक्षिणि भागों मुख्यतः केरल प्रान्त में इस की व्यावसायिक खेती बीज द्वारा की जाती है। एक हेक्टेयर में रोपाई करने हेतु नर्सरी (पौध) तैयार करने हेतु 2 - 3 किग्रा. बीज की आवश्यकता होती है। बीज से नर्सरी में पौध तैयार कर खेत में रोपाई की जाती हैै । नींबू घास की अप्रेल- मई में नर्सरी तैयार करते है। क्यारियाँ तैयार करके बीज बोना चाहिए ।  एक सप्ताह में बीज उग आता है। पौध को 60 दिन तक रोपणी में तैयार करके जुलाई में रोपाई करते है।
2.जड़दार कलमों (स्लिप) से पौध रोपण: जड़दार कलमों द्वारा बुआई उपयोगीलाभकारी तथा सुविधाजनक होती है। सबसे पहले पुराने परिपक्व पौधों (जुड़ों) को उखाड़कर उनके साथ लगी पत्तियों तथा पुरानी जड़ों को काट देना चाहिए। बाद में इन जूड़ों से एक - एक स्लिप को अलग किया जाता हे। रोपने के लिए लगभग प्रति हेक्टेयर 35 - 40 हजार स्लिप्स की आवश्यकता होती है। जड़दार कलमों को 60 सेमी. कतार - से - कतार तथा 35 - 40 हजार सेमी. पौध - से - पौध  दूरी पर रोपा जाना चाहिए। इसके लिए छोटी कुदाल से 5 - 8 सेमी. गहरे गड्डे करके रोपाई की जाती है। बुआई के पूर्व स्लिप के साथ लगी पत्तियों तथा पुरानी जड़े काट देना चाहिए। गड्डे में स्लिप को अच्छी तरह खड़ी करके रोपने के बाद स्लिप के निचले हिस्से को मिट्टी से पूरी तरह दबा देना चाहिए। अधिक गहराई पर लगाने से जड़े सड़ जाती है। रोपने के तुरंत बाद यदि वर्षा न हो तो सिंचाई करना आवश्यक होता है।

खाद एवं उर्वरक

          खाउ एवं उर्वरक की मात्रा मृदा के उपजाऊपन पर निर्भर करती है। खेत की अंतिम जुताई करते  समय 10 - 12 टन गोबर की खाद मिट्टी में  मिला देना चाहिए। सामान्य मृदा में 75: 30: 30 कि. ग्रा. क्रमशः नत्रजनस्फुर, पोटाश  प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष की दर से देना आवश्यक है। रोपण के पहले खेत तैयार करते समय नत्रजन की आधी मात्रा तथा स्फुर व पोटाश की संम्पूर्ण मात्रा देना चाहिए। शेष नत्रजन की आधी मात्रा दो बार (एक बार पहली कटाई के लगभग 1 माह पहले तथा दूसरी खुराक पहली कटाई के बाद) में कूड़ों में देना चाहिए।

खरपतवार नियंत्रण

          फसल की प्रारंभिक अवस्था  (45 दिन तक)  में खेत खरपतवार मुक्त रहना चाहिए।  अतः आवश्यकता नुसार निंदाई गुड़ाई करते रहें । उसके बाद घास अधिक बढ़ जाती है  जिससे खरपतवार नहीं पनप पाते है। नींदानाशक दवाओं जैसे आक्सफ्लोरोफेन 0.5 कि. ग्रा. प्रति हे. या डाययूरान 1.5 कि. ग्रा./ हे. से उपचार करके नींदा नियंत्रित किये जा सकते है।

अधिक उत्पादन के लिए सिंचाई

          फसल स्थापित होने के पश्चात इस फसल को सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है परन्तु अधिक उत्पादन लेने हेेतु  शुष्क ऋतुओं में सिंचाई करना आवश्यक है। प्रत्येक कटाई के बाद सिंचाई करने से उपज बढ़ती है। ग्रीष्म काल में 15 दिन के अंतर से सिंचाई करें।

फसल की कटाई

          पहली कटाई रोपाई के 90 - 100 के बाद की जाती है। उसके बाद 60 - 75 दिन के अंतराल सें अन्य कटाईयाँ की जाती है। एक वर्ष में प्रायः 3 - 4 कटाईयाँ प्राप्त की जा सकती है। एक बार नीबू घास लगा देने पर यह फसल 5 वर्षों तक लगातार उत्पादन देती रहती है। मृदा के उपजाऊपन तथा उर्वरक की मात्रा के आधार पर कटाई की संख्या बढ जाती है। फसल हँसिया की सहायता से काटी जाती है। हँसिया से पौधे अपने आधार के निकट भूमि के लगभग 10 से.मी. ऊपर से काटे जाने चाहिए। असिंचित दशा में ग्रीष्म काल में कटाई नहीं ली जा सकती है।

घांस की उपज

          हरी घास का उपयोग तेल निकालने में होता है। इसकी पत्तियोंतना व पुष्प क्रम में तेल पाया जाता है अतः पूरा ऊपरी भाग आसवन के लिए उपयोगी है। लेमन घास के पौधें की उम्र भूमि तथा जलवायु पर निर्भर करती है। इसके पौधे की सामान्यतौर  पर आयु 6 वर्ष की होती है। इन 6 वर्षोें में से प्रथम वर्ष में तेल का उत्पादन कम होता हैद्वितीय वर्ष से यह बढ़कर चतुर्थ वर्ष तक अधिकतम होता है। इसके बाद उत्पादन में धीरे-धीरे कमी आने लगती है । उपयुक्त जलवायु और सही प्रबंधन से  प्रति हेक्टेयर औसतन  10 से 25 टन हरी घास पैदा होती है।

शाक का प्रसंस्करण


          नींबू घास के शाक का जल आसवन या वाष्प-आसवन विधि से तेल प्राप्त किया जाता है। फसल काटने के उपरांत कुछ समय तक मुरझाने हेतु शाक के खेत में ही अथवा किसी छायादार स्थान पर छोड़ देना चाहिए। एकत्र घास को छोटे - छोटे टुकड़ों में काटकर आसवन टैंक में दबाकर भरा जाता है। अब स्टिल (टैंक) में 18 - 32 किलो दाब परभाप प्रवाहित की जाती है। जल वाष्प तथा लेमन घास के तेल की वाष्पों का मिश्रण सघनित्र में पहुँचता है। पानी में अघुलनशील तथा हल्का होने के कारण तेलपानी के ऊपर तैरता रहता है जिसे लगातार अलग करते रहते है। उसके बाउ तेल को गिराकर छान लिया जाता है। घास के सम्पूर्ण आसवन में 3 - 4 घंटे लगते है। प्राप्त तेल को काँच के बर्तनों को सुरक्षित रखा जाता है। प्रथम वर्ष  में औसतन चार कटाइयों से 75 - 100 किग्रा./हेक्टेयर  तेल प्राप्त होता है। इसके बाद 250-300 किग्रा. तेल प्रति हेक्टेयर तक प्राप्त किया जा सकता है  प्रायः पत्तियों में 0.5 - 1.0 प्रतिशत तेल की मात्रा प्राप्त होती है। लेमन ग्रास की ओ. डी.- 19 किस्म तेल तथा साइट्रल प्रतिशत दोनों ही उद्देश्य से सर्वाेत्तम पाई गई है। नींबू घास की उपज और तेल की मात्रा मौसम और अपनाई गई शस्य तकनीक पर निर्भर होती है 


नोट: यह लेख सर्वाधिकार सुरक्षित है।  अतः बिना लेखक की आज्ञा के इस लेख को अन्यंत्र प्रकाशित करना अवैद्य माना जायेगा। यदि प्रकाशित करना ही है तो लेख में लेखक का नाम और पता देना अनिवार्य रहेगा। साथ ही प्रकाशित पत्रिका की एक प्रति लेखक को भेजना सुनिशित करेंगे।

कोई टिप्पणी नहीं:

काबुली चने की खेती भरपूर आमदनी देती

                                                  डॉ. गजेन्द्र सिंह तोमर प्राध्यापक (सस्यविज्ञान),इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषि महाव...