डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर,प्रोफ़ेसर (एग्रोनोमी),
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
राज मोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,
अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)
वैदिक काल से ही भारत में औषधीय महत्त्व के पौधों, लताओं और वृक्षों को पहचान कर उनका इस्तेमाल विभिन्न रोगों के उपचार में किया जा रहा है। महर्षि चरक की 'चरक सहिंता' में पेड़-पौधों के औषधीय महत्त्व की गहन विवेचना की गई है। इसमें प्रत्येक पेड़-पौधे की जड़ से लेकर पुष्प, पत्ते एवं अन्य भागों के औषधीय गुणों और रोग उपचार की विधियाँ वर्णित है। आयुर्वेद के देवता धन्वंतरि ने जड़ी-बूटियों के अलौकिक संसार से जगत का साक्षात्कार कराया है। इन वनस्पतियों के चमत्कारिक प्रभाव को वैज्ञानिक धरातल पर भी जांचा-परखा जा चूका है। एलोपैथिक दवाओं के दुष्प्रभाओं से घबराकर विश्व के जनमानस का झुकाव अब वैकल्पिक जड़ी-बूटी की परम्परागत दवाओं (आयुर्वेद) की तरफ बढ़ने लगा है। आयुर्वेदिक दवाओं और हर्बल उत्पादों की बाजार में बढती मांग को देखते हुए तमाम राष्ट्रिय और बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने जड़ी-बूटी, औषधीय पौधों, लताओं तथा वृक्षों से निर्मित दवाओं, केश निखार के शैम्पू, केश तेल, साबुन, त्वचा को चमकाने के लोशन, चेहरे के आभा लाने वाली क्रीम, पाउडर, टूथ पेस्ट, काजल, बाल रंगने वाले आदि उत्पादों को बाजार में पेश किया है। इसलिए भारत से औषधीय महत्व के पौधों का निर्यात भी जोर पकड़ रहा है। हमारे आस-पास, खेत और खलिहानों में बहुत से औषधीय महत्त्व के पेड़-पौधे जड़ी-बूटियाँ अपने आप स्वतः उगती है, जिन्हें हम खरपतवार समझ कर उखाड़ फेंकते है अथवा उन्हें नष्ट कर देते है। जनसँख्या दबाव,सघन खेती, वनों के अंधाधुंध कटान, जलवायु परिवर्तन और
रसायनों के अंधाधुंध प्रयोग से आज बहुत सी उपयोगी वनस्पतीयां विलुप्त होने की कगार
पर है। आज आवश्यकता है की हम औषधीय उपयोग की जैव सम्पदा का सरंक्षण और प्रवर्धन
करने किसानों और ग्रामीण क्षेत्रों में जन जागृति पैदा करें ताकि हम अपनी
परम्परागत घरेलू चिकित्सा (आयुर्वेदिक) पद्धति में प्रयोग की जाने वाली वनस्पतियों
को विलुप्त होने से बचाया जा सकें। यहाँ हम कुछ उपयोगी खरपतवारों के नाम और उनके प्रयोग
से संभावित रोग निवारण की संक्षिप्त जानकारी प्रस्तुत कर रहे है ताकि उन्हें पहचान
कर सरंक्षित किया जा सके और उनका स्वास्थ्य लाभ हेतु उपयोग किया जा सकें। आप के
खेत, बाड़ी, सड़क किनारे अथवा बंजर भूमियों में प्राकृतिक रूप से उगने वाली इन
वनस्पतियों के शाक, बीज और जड़ों को एकत्रित कर आयुर्वेदिक/देशी दवा विक्रेताओं को
बेच कर आप मुनाफा अर्जित कर सकते है। फसलों के साथ उगी इन वनस्पतियों/खरपतवारों का
जैविक अथवा सस्य विधियों के माध्यम से नियंत्रण किया जाना चाहिए।
इन
वनस्पतियों के महत्त्व को दर्शाने बावत हमने इनके कुछ औषधीय उपयोग बताये है परन्तु
चिकत्सकीय परामर्श/आयुर्वेदिक चिकित्सक की सलाह के उपरांत ही किसी भी रोग निवारण के लिए
इनका
प्रयोग करें। भारत के विभिन्न प्रदेशोंकी मृदा एवं जलवायुविक
परिस्थितियों में उगने वाले कुछ खरपतवार/वनस्पतियों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत
है।
इस वनस्पति को डे फ्लावर तथा हिंदी में कैना, कनकौआ के नाम से जाना जाता
है। यह वनस्पति वर्षा ऋतु की फसलों के
साथ, जल भराव एवं नम भूमियों में एक वर्षीय/बहुवर्षीय खरपतवार के रूप में जमींन में सीधे तथा रेंगकर बढ़ता है। इस पौधे को विश्व के सबसे अधिक खतरनाक खरपतवारों में शामिल किया गया है। इसका तना मुलायम एवं मांसल होता है, जो मसलने पर लिस लिसा एवं स्वाद में कसैला-खट्टा होता है । इसका तना
टूटकर जमीन में गिरने से नई जड़े निकल आती है। कैना के कोमल तने एवं पत्तियों को भाजी के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है। पौधे के अग्र भाग पर पत्तियों के अक्ष से बैगनी-सफ़ेद रंग के छोटे-छोटे सुन्दर पुष्प निकलते
है। कैना के सम्पूर्ण पौधे में औषधीय गुण पाए जाते है। इसका पौधा कटु, शीतल प्रकृति, दाहनाशक एवं कुष्ठनाशक होता है। इसकी पत्तियों को पीसकर पानी के साथ घोलकर सेवन करने से डायरिया एवं दस्त में लाभ होता है। घमौरी, घाव
एवं फोड़ा-फुंसी होने पर पत्तियों का अर्क
लगाने से लाभ होता है। पेट संबंधी समस्यां,बुखार एवं जलन होने पर जड़ का काढ़ा हितकारी होता है। सर्प दंश
में जड़ का प्रलेप लाभकारी पाया गया है।
इस पौधे को अंग्रेजी में थुम्बा, हिंदी में गोफा, एवं छोटा हल्कुसा एवं संस्कृत में द्रौणपुष्पी के
नाम से जाना जाता है। यह एक वर्षीय खरपतवार है जो वर्षा ऋतु में उपजाऊ खेतों एवं
बंजर भूमियों में बीज से उगता है। इसकी पत्तियों से विशेष प्रकार (तुलसी के पत्तों जैसी) की गंध आती है। इसका पौधा रोमयुक्त तथा पत्तियां शाधारण, भालाकार एवं किनारे पर दांतेदार होती है। इसकी लम्बी पुष्प
मंजरिका में गुच्छे में सफ़ेद या धूसर सफ़ेद रंग के फूल निकलते है। इसके बीज
भूरे-काले रंग के होते है। पौधों में पुष्पन एवं फलन नवम्बर से फरबरी तक होता है। ग्रामीण क्षेत्रों में इसकी कोमल पत्तियों एवं टहनियों का साग पकाकर खाया जाता है। द्रौणपुष्पी के पौधे औषधीय गुणों से परिपूर्ण होते है। पाचन संबंधी विकारों के उपचार में इसकी भाजी गुणकारी है। इसका पौधा कटु, उष्ण, कफ एवं पित्त नाशक, ज्वर नाशक, उत्तेजक, स्वेदक तथा कीटनाशक होता
है। यह ज्वर, शर्दी-खांसी,जुखाम, सिर दर्द, यकृत से सम्बंधित रोगों, पीलिया आदि रोगों के उपचार में इसकी पत्तियों एवं पुष्पों का काढ़ा लाभप्रद होता है। रक्त विकार में इसके पौधे का रस उपयोगी है। नाक
में सूजन होने या खून आपने पर पत्तियों का अर्क डालने से आराम मिलता है। खसरा,
सोरिओसिस, घाव तथा त्वचा के चटकने पर पत्तियों का अर्क/प्रलेप लगाने से लाभ होता है। गठिया
वात, सिर दर्द एवं सर्प दंश में पत्तियों का प्रलेप लगाने से फायदा होता है। सांप
के काटने पर पौधे का रस देने से जहर का असर कम हो जाता है। इसके सूखे पौधे जलाकर
धुआं करने से मच्छर भाग जाते है।
15.छोटा धतूरा(अकंथोस्पर्मम हिस्पीडम) कुल कम्पोसिटी
छोट्टा धतूरा फोटो साभार गूगल |
इस पौधे को अंग्रेजी में पंक्चर वाइन तथा हिंदी में
गोखरू कहते है जो वर्ष पर्यन्त पनपने वाला बहुवर्षीय खरपतवार है। यह पौधा शुष्क एवं बंजर
भूमियों में सतह पर फैलकर बढ़ता है। यह एक धूसर रंग का रोयेंदार शाक है। इसकी
पत्तियों के डंठल के विपरीत कोण पर पीले रंग के पुष्प एकल रूप में लगते है। इसका
फल मटर के दाने के बराबर पंचकोणीय एवं
कठोर होता है जिस पर कठोर कांटे पाए जाते है। इसका सम्पूर्ण पौधा औषधीय गुणों वाला
माना जाता है। इसके ताजे पौधों को पानी में डालने से लिसलिसाहट उत्पन्न होती है।
यह घोल शीतल, शांतिप्रदायक, बलवर्धक एवं मूत्रवर्धक होता है। पुराने सुजाक, मूत्र रोग,पौरुष
दुर्बलता एवं मूत्राशय में पथरी होने पर इसका चूर्ण या घोल पानी के साथ लेने से
लाभ होता है। पत्तियों के अर्क से घाव व फोड़े धोने से लाभ होता है। इसके फूल एवं
फल शीतल, मूत्रल होते है जिनका अर्क पौरुष कमजोरी, स्वप्न दोष, नपुंसकता तथा
मूत्राशय विकारों में लाभदायक होता है। इसके फलों का प्रलेप ग्रंथिवात, सुजाक तथा
वृक्क विकारों में लाभकारी माना जाता है।
इस पौधे को फैटिड केसिया तथा हिंदी में चकवड़, पंवाड़, चकोड़ा एवं चक्रमर्द के नाम से पुकारा जाता
है। इसके पौधे वर्षा ऋतु में खेत, बंजर भूमि, सडक एवं रेल पथ किनारे खरपतवार
के रूप में समूह में उगता है। इसकी पत्तियां सूर्यास्त होते ही जोड़े में एक दुसरे
से चिपक जाती है और सूर्योदय पर फिर खुल जाती है। इसके पत्तों में विशेष प्रकार की
दुर्गन्ध होती है। इसके फूल पीले रंग के पत्ती के अक्ष से जोड़ो में निकलते है। इसकी फल्लियाँ लम्बी (15-20 सेमी) एवं अग्र भाग में नुकीली होती है। फली में मैंथी के दानों जैसे बीज बनते है।
इसके सम्पूर्ण पौधे में औषधीय गुण पाए जाते है। यह कृमिनाशी, दर्दहरी एवं दाद-खाज
निवारक होता है। सर्प दंश एवं ददोड़ों में ताज़ी जड़ का लेप लगाने से आराम मिलता है।
इसकी पत्तियों का काढ़ा ज्वर, मलेरिया, उदरकृमि एवं पेट साफ़ करने में लाभप्रद होता
है। शरीर में दाद,अकौता, चकत्ता, घमौरी आदि चर्म रोग होने पर इसकी ताज़ी पत्तियों
तथा बीजों का प्रलेप लगाने से राहत मिलती है। फोड़ा न पकने पर पत्तियों एवं फूलों
का गर्म प्रलेप बाँधने से फोड़ा फूट जाता है। बीज का चूर्ण पीलिया एवं डायबिटीस
रोगों में लाभकारी है।इसकी जड़ के चूर्ण को देशी घी, मिश्री के साथ मिलाकर प्रतिदिन एक चम्मच लेने से रक्त शुद्ध होता है और शरीर में शक्ति का संचार होता है।
18.चिरचिटा
(अकाइरेन्थस अस्पेरा),
कुल- अमरेन्थेसी
18.चिरचिटा
(अकाइरेन्थस अस्पेरा),
कुल- अमरेन्थेसी
चिरचिटा फोटो बालाजी फार्म, अहिवारा (छत्तीसगढ़) |
नोट : किसी भी वनस्पति का रोग निवारण हेतु उपयोग करने से पूर्व आयुर्वेद चिकित्सक से परामर्श अवश्य लेवें। किसी भी रोग निवारण हेतु इनकी अनुसंशा नहीं करते है। अन्य उपयोगी वनस्पतियों के बारे में उपयोगी जानकारी के लिए हमारा अगला ब्लॉग देख सकते है।
कृपया ध्यान रखें: बिना लेखक/ब्लोगर की आज्ञा के बिना इस लेख को अन्यंत्र प्रकाशित करना अवैद्य माना जायेगा। यदि प्रकाशित करना ही है तो लेख में ब्लॉग का नाम,लेखक का नाम और पता देना अनिवार्य रहेगा। साथ ही प्रकाशित पत्रिका की एक प्रति लेखक को भेजना सुनिशित करेंगे।
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