गुरुवार, 30 मार्च 2017

अजोला और नील हरित शैवाल से बढ़ेगा धान उत्पादन

डॉ. गजेंद्र सिंह तोमर प्राध्यापक (शस्य विज्ञान)
इंदिरा  गाँधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)


सघन खेती में रासायनिक उर्वरकों के लगातार इस्तेमाल से भूमि की उर्वरता का ह्रास होने के अलावा फसल उत्पादकता में एक तरह का ठहराव देखा जा रहा है।  इसके अलावा रासायनिक उर्वरको के अंधाधुंध प्रयोग से पर्यावरण को भी भारी क्षति हो रही है। इसलिए रासायनिक उर्वरकों के साथ साथ अब जैविक खाद और जैव उर्वरकों  इस्तेमाल की सिफारिश की जा रही है ताकि टिकाऊ खेती का मार्ग प्रशस्त हो सकें। पर्यावरण सम्मत  टिकाऊ फसलोत्पादन में जैविक खाद (गोबर खाद, कम्पोस्ट, वर्मी कम्पोस्ट आदि ) के  अलावा अनेक प्रकार के जैव उर्वरकों का भी इस्तेमाल किया जाने लगा है।  धान उत्पादन बढ़ाने  और भूमि की उर्वरा शक्ति कायम रखने के लिए एजोला और नील हरित काई जैसे जैव उर्वरकों की महत्वपूर्ण भूमिका है।
अजोला का परिचय: एजोला पानी  पनपने  वाला एक प्रकार का  जलीय  फर्न है। इसका रंग गहरा हरा-लाल या कत्थई होता है।  एजोला की पंखुड़ियों में  नील हरित काई की जाति एक सूक्ष्मजीव  (एनाबिना) विद्यमान होता है सूर्य के प्रकाश में  वायुमण्डलिय   नाइट्रोजन  का यौगिकीकरण कर हरे खाद के रूप में फसल को नत्रजन उपलब्ध कराता है। अनुकूल वातावरण और सही प्रबंधन से अजोला 5-6 दिनों में बढ़कर दो-गुना हो जाता है।  धान की फसल में इसके प्रयोग से फसल को प्रति हैक्टर 40-60 किलोग्राम नाइट्रोजन उपलब्ध हो जाती  है। धान की जैविक खेती में एजोला का इस्तेमाल  यूरिया जैसे नाइट्रोजन उर्वरकों का विकल्प बन सकता है। नाइट्रोजन के अतिरिक्त कुछ हद तक इसमें कैल्शियम मैग्नीशियम फास्फोरस एवं पोटाश आदि की भी मात्रा उपलब्ध होती है। अजोला को पूरे वर्ष बढ़ने दिया जाए तो यह 300 टन/हेक्टेयर  सेन्द्रिय खाद पैदा हो सकती है। इसमें 3.5 % नत्रजन के अलावा अन्य कार्बनिक पदार्थ पाए जाते है जो भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ाते है।  आज कल पौष्टिक पशु चारे के रूप में भी अजोला का इस्तेमाल किया जा रहा है। 
नील हरित काई का परिचय: नील हरित शैवाल (बी.जी.ए.) को  साइनोबैक्टोरिया भी कहते हैं। यह सूक्ष्म पौधा है जो अधिकतर नम तथा अल्प क्षारीय क्षेत्रों में पाया जाता है। इसकी कुछ जातियों में नाइट्रोजन स्थिरीकरण की क्षमता होती है। धान की फसल में इसका विकास सुगमतापूर्वक होता है।  अतः धान की खेती में इसके प्रयोग से फसल को नाइट्रोजन तत्व उपलब्ध कराने के  साथ ही भूमि के अघुलशील फास्फेट को भी घुलनशील बनाता है जिससे भूमि में फास्फोरस की उपलब्धता बढ़ जाती  है । 
हरी काई उपयोगी नहीं : ध्यान रखें कि शैवाल की सभी प्रजातियां लाभकारी नहीं होती। धान के खेत में स्वमेव पैदा होने वाली हरी काई फसल को नुकसान पहुंचाती हैं। अतः यथासंभव इसे  खेत से बाहर निकाल देना चाहिए यदि इसकी बढ़वार अधिक हो तो प्रति हैक्टर चार किलोग्राम नीले थोथा का प्रयोग सिंचाई के पानी के साथ करना चाहिए।  
 अजोला कल्चर तैयार करने की विधि
               राज्य कृषि विश्वविद्यालयो अथवा कृषि विभाग के माध्यम से इनके मातृ  कल्चर प्राप्त करने के बाद किसान भाई स्वयं कल्चर तैयार कर उन्हें धान की खेती में इस्तेमाल कर सकते हैं । एजोला कल्चर तैयार करने के लिए आंशिक छायादार स्थान जैसे पेड़ के नीचे 20 मीटर लम्बा एवं 2 मीटर चौड़ा  तथा 15-20 सेमी0 गढ्ढा बनाकर इसकी तलहटी में गड्ढे के आकार से बड़ी मोटी एवं काली पाॅलीथीन शीट बिछा देते है। इसके बाद गड्ढ़ो में 5 किलोग्राम प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से छनी हुई भुरभुरी मिट्टी समान रूप से फैला देते हैं। मिट्टी को समान रूप से फैलाने के बाद रात भर के लिए गड्ढे में 10-15 सेमी पानी भर देते हैं दूसरे दिन प्रातःकाल में 0.5 से 1 किलोग्राम तक प्रति वर्ग मीटर की दर से ताजे एवं स्वच्छ एजोला कल्चर को अच्छी तरह पानी के ऊपर छिड़क देते हैं। इसके बाद अच्छी बढ़वार के लिए थोड़ी-थोड़ी मात्रा में  सिंगल सुपर फास्फेट को चार दिन के अन्तराल पर 2-3 बार छिड़कते हैं। कीड़े मकोड़ों की आशंका की स्थिति में  1  मिली। मेलाथियान या 3 ग्राम कारबोफ्यूरान 3  ग्राम प्रति वर्ग मीटर के हिसाब  से एक सप्ताह बाद गड्ढे में डाला जा सकता है। इसके 15-20 दिन बाद एजोला विकसित होकर पूरे गड्ढ़े में भर जाता है। गड्ढ़े के दो तिहाई एजोला को धान के खेत में रोपाई के 10 दिन बाद डाला जा सकता है। इसके 15-20 दिन बाद पुनः  गड्ढ़े  से एजोला प्राप्त किया जा सकता है।  शुद्ध जैविक खेती के प्रयोजन से तैयार किये जाने वाले एजोले के लिए कीटनाशी एवं सिंगल सुपर फास्फेट के बदले 10 किलोग्राम ताजे गोबर को पानी में घोलकर गड्ढे में डालते हैं। 
नील हरित काई तैयार करने की विधि 
                    नील हरित शैवाल के प्रांरभिक कल्चर से अधिक मात्रा में नील हरित शैवाल तैयार करने के लिए मार्च से जून माह का समय उपयुक्त पाया गया  है । इसे तैयार करने हेतु धूप वाले स्थान में 40 वर्ग मीटर का 10-15 गहरा गड्ढा खोदते हैं।  अजोला  की भांति गड्ढे की तैयारी के बाद प्रति वर्गमीटर 3-4 किलोग्राम भुरभुरी काली मिट्टी फैलाकर प्रतिमीटर 100 ग्राम सिंगल  सुपर फास्फेट एवं 2 मिली। मैलाथियान मिट्टी एवं पानी में मिला देते हैं दूसरे दिन 100 ग्राम प्रति  वर्गमीटर की दर से नील हरित शैवाल का प्रारंभिक कल्चर पानी के ऊपर छिडक़ दिया जाता है। उचित तापमान की स्थिति में 7 से 10 दिन के भीतर काई की मोटी परत तैयार होने लगती है। आवश्यकता के अनुरूप बीच-बीच में  गड्ढे में पानी देते  रहना चाहिए।  काई की अधिक मोटी परत बन जाने पर पानी देना बन्द कर देना चाहिए । अच्छी तरह सूखने बाद काई की पपड़ी को  गड्ढे से निकालकर धान के  खेतों में प्रयोग करना चाहिए।  इसके बाद गड्ढे में पुनः पानी भर कर उसमे  कल्चर का  छिड़काव  कर दुबारा  नील हरित काई तैयार की जा सकती  है । 
अजोला और नील हरित काई प्रयोग मात्रा : धान की फसल में एजोला के ताजे एवं जीवित कल्चर का प्रयोग 0.5 से 1 टन प्रति हैक्टर की दर से रोपाई के 7-10 दिन बाद दो इंच पानी के जमाव की स्थिति में किया जाता है। इसके साथ-साथ 30-40 किग्रा. सिंगल सुपर फॉस्फेट का छिड़काव करने से अजोला की अच्छी वृद्धि होती है। नील हरित शैवाल का प्रयोग भी पौध रोपाई के एक सप्ताह बाद पानी भरे खेत  में  10-15 किग्रा0 प्रति हैक्टेयर की दर से किया जानाचाहिए।
सावधानिया :  इनके प्रयोग के बाद धान के खेत में पानी (10-15 सेमी.) बना रहना चाहिए।  खेत में एजोला अधिक मात्रा में  होने पर सिंचाई रोककर इन्हें मिट्टी के सम्पर्क में आने देकर सड़ने देना चाहिए ताकि ये   पौधों को नाइट्रोजन उपलब्ध कराने में मददगार हो सके । अजोला या नील हरित काई का उत्पादन 30-35 डिग्री तापमान  और पर्याप्त सूर्य  के प्रकाश में  अच्छा होता है। इनके उत्पादन के लिए उदासीन अथवा हल्की क्षारीय मृदायें श्रेष्ठ होती है।   नील हरित शैवाल को एक ही खेत में लगातार तीन वर्ष प्रयोग करने के बाद इसके प्रयोग की जरूरत नहीं होती क्योंकि बाद में यह स्वतः उत्पन्न होने लगता है।

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