डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर,प्रोफ़ेसर (एग्रोनोमी),
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
राज मोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,
अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)
वैदिक
काल से ही भारत में औषधीय महत्त्व के पौधों, लताओं और वृक्षों को पहचान कर
उनका इस्तेमाल विभिन्न रोगों के उपचार में किया जा रहा है। महर्षि चरक की
'चरक सहिंता' में पेड़-पौधों के औषधीय महत्त्व की गहन विवेचना की गई है। इसमें प्रत्येक पेड़-पौधे की जड़ से लेकर पुष्प, पत्ते एवं अन्य भागों के
औषधीय गुणों और रोग उपचार की विधियाँ वर्णित है। आयुर्वेद के देवता धन्वंतरि ने जड़ी-बूटियों के अलौकिक संसार से जगत का साक्षात्कार कराया है।
इन वनस्पतियों के चमत्कारिक प्रभाव को वैज्ञानिक धरातल पर भी जांचा-परखा
जा चूका है। एलोपैथिक दवाओं के दुष्प्रभाओं से घबराकर विश्व के जनमानस का
झुकाव अब वैकल्पिक जड़ी-बूटी की परम्परागत दवाओं (आयुर्वेद) की तरफ बढ़ने लगा
है। आयुर्वेदिक दवाओं और हर्बल उत्पादों की बाजार में बढती मांग को देखते
हुए तमाम राष्ट्रिय और बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने जड़ी-बूटी, औषधीय पौधों,
लताओं तथा वृक्षों से निर्मित दवाओं, केश निखार के शैम्पू, केश तेल, साबुन,
त्वचा को चमकाने के लोशन, चेहरे के आभा लाने वाली क्रीम, पाउडर, टूथ
पेस्ट, काजल, बाल रंगने वाले आदि उत्पादों को बाजार में पेश किया है। इसलिए
भारत से औषधीय महत्व के पौधों का निर्यात भी जोर पकड़ रहा है। हमारे
आस-पास, खेत और खलिहानों में बहुत से औषधीय महत्त्व के पेड़-पौधे
जड़ी-बूटियाँ अपने आप स्वतः उगती है, जिन्हें हम खरपतवार समझ कर उखाड़ फेंकते
है अथवा उन्हें नष्ट कर देते है। जनसँख्या दबाव,सघन खेती, वनों के
अंधाधुंध कटान, जलवायु परिवर्तन और
रसायनों के अंधाधुंध प्रयोग से आज बहुत सी उपयोगी वनस्पतीयां विलुप्त होने
की कगार
पर है। आज आवश्यकता है की हम औषधीय उपयोग की जैव सम्पदा का सरंक्षण और
प्रवर्धन
करने किसानों और ग्रामीण क्षेत्रों में जन जागृति पैदा करें ताकि हम अपनी
परम्परागत घरेलू चिकित्सा (आयुर्वेदिक) पद्धति में प्रयोग की जाने वाली
वनस्पतियों
को विलुप्त होने से बचा सकें. यहाँ हम कुछ उपयोगी खरपतवारों के नाम और उनके
प्रयोग
से संभावित रोग निवारण की संक्षिप्त जानकारी प्रस्तुत कर रहे है ताकि
उन्हें पहचान
कर सरंक्षित किया जा सके और उनका स्वास्थ्य लाभ हेतु उपयोग किया जा सकें। आप के
खेत, बाड़ी, सड़क किनारे अथवा बंजर भूमियों में प्राकृतिक रूप से उगने वाली
इन
वनस्पतियों के शाक, बीज और जड़ों को एकत्रित कर आयुर्वेदिक/देशी दवा
विक्रेताओं को
बेच कर आप मुनाफा अर्जित कर सकते है। फसलों के साथ उगी इन
वनस्पतियों/खरपतवारों का
जैविक अथवा सस्य विधियों के माध्यम से नियंत्रण किया जाना चाहिए.
इन
वनस्पतियों के महत्त्व को दर्शाने बावत हमने इनके कुछ औषधीय उपयोग बताये है परन्तु
चिकत्सकीय परामर्श/आयुर्वेदिक चिकित्सक की सलाह के उपरांत ही किसी भी रोग निवारण के लिए
इनका
प्रयोग करें। भारत के विभिन्न प्रदेशोंकी मृदा एवं जलवायुविक
परिस्थितियों में उगने वाले कुछ खरपतवार/वनस्पतियों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत
है।
इसे अंग्रेजी में कॉकिल बर, संस्कृत में सर्पक्षी तथा
हिंदी में छोटा गोखरू, आदासीसी, संखाहुली के नाम से जाना जाता है । वर्षा ऋतु में खेतों की मेंड़ों, बंजर भूमियों, सड़क एवं रेल पथ के किनारे यह
पौधा बहुवर्षीय खरपतवार के रूप में उगता है। इसकी पत्तियों से विशेष प्रकार की गंध आती है। इसका तना खुरदुरा, पत्तियां
ह्र्द्याकार, रोमिल तथा किनारे पर दांतेदार होती है। इसके पुष्प नलिकाकार एवं हल्के
बैगनी रंग के होते है। इसमें अंडाकार फली
सम्पुटकाये बनती है जो हुकनुमा काँटों से ढकी होती है। फली (एकीन) के ऊपर दो
चोंचनुमा कठोर सहपत्रों का आवरण होता है। इसकी पत्तियों का कटु पौष्टिक टॉनिक
मलेरिया बुखार में लाभदायक होता है। महिलाओं में श्वेत प्रदर एवं अनियमित मासिक
स्त्राव होने पर पत्तियों का काढ़ा फायदेमंद होता है। फोड़े-फुंसी, दर्द भरी सुजन,
घाव आदि में पत्ती एवं जड़ का प्रलेप लाभकारी होता है। गठिया वात एवं बच्चों में दुर्बलता होने पर जड़ों का काढ़ा
लाभकारी है। इसके फल मूत्रवर्धक, पौष्टिक एवं शीतल प्रकृति के होते है।
इस वनस्पति को अंग्रेजी में
हॉगवीड और पिगवीड तथा हिंदी में पुनर्नवा, गदहपर्णी कहते है। यह बीज से पनपने वाला
भूमि के सहारे बढ़ने वाला वर्षा ऋतु का खरपतवार है। यह पौधा फसलों के साथ, खली पड़ी
भूमियों, सडक एवं रेल पथ किनारे उगता है। भारत में इसकी चार प्रजातियाँ होती है जिनमे से सफ़ेद और लाल
पुनर्नवा प्रमुख है। सफ़ेद पुनर्नवा के पत्ते,डंठल एवं फूल सफ़ेद होते है। लाल पुनर्नवा की टहनियां एवं फूल गुलाबी-लाल रंग
के होते है। पुष्प पत्ती के अक्ष से गुच्छे में निकलते है। औषधीय के रूप में लाल प्रजाति का प्रयोग किया
जाता है जबकि सफेद पुनर्नवा को भाजी के रूप में
खाया जाता है। इसका साग, सब्जी
अथवा काढ़ा स्वास्थ्य के लिए बेहद लाभकारी होता है। पुनर्नवा के सम्पूर्ण पौधे को
औषधीय रूप में इस्तेमाल किया जाता है। इसे नव जीवन प्रदान करने वाली औषधि माना
जाता है। पुनर्नवा खाने में ठंडी, सूखी एवं हल्की होती है. कफ, पेट के रोग, जोड़ों
की सुजन, एनीमिया, ह्रदय रोग, लिवर, पथरी, खांसी, मधुमेह, शरीर दर्द निवारण एवं शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में
कारगर औषधि माना जाता है. इसकी पत्तियों का प्रलेप फोड़ा-फुंसी में लगाने से दर्द
और सुजन में आराम मिलता है। बच्चो में पीलिया होने एवं बलगम बनने पर इसकी पत्ती
एवं जड़ का रस देने से लाभ मिलता है। इस वनस्पति की जड़ सूखी खांसी, अस्थमा,कब्ज,
पीलिया, उदरशूल,ब्रोंकटाइटिस आदि के निदान में उपयोगी है। उदर कृमि,पेचिस तथा
शिथिलता में जड़ का काढ़ा देने से लाभ मिलता है। सर्पदंश में जड़ का प्रलेप घाव में लगाने से विष का प्रभाव कम होता
है।
इसे बाबची सीड्स तथा हिंदी में
बकूची, बाबची कहते है जो पड़ती भूमियों, सडक एवं रेल पथ के किनारों पर एक वर्षीय
एवं बहुवर्षीय खरपतवार के रूप में उगता
है। इसकी पत्तियां गोल हल्की हरी होती है तथा डंठल में दोनों सतहों पर काले रंग की
ग्रंथियां पाई जाती है जिनमे सुगन्धित तैलीय पदार्थ पाया जाता है। पत्तियों के
कक्ष से शीत ऋतु में पीताभ-बैगनी रंग के फूल गुच्छों में (मंजरियों) आते है। ग्रीष्म ऋतु में फली लगती है जिनमें काले रंग के बीज होते है। इसके बीज में सुगंध होती है। बाकुची
मधुर,कड़वी,रुचिकारी, दस्तावर, ह्रदय के लिए लाभदायक होने के साथ साथ रक्तपित्त,
श्वांस, प्रमेश, ज्वर तथा कृमि नाशक मानी जाती है। इसके फल पित्त्वर्धक, चिर्पिरे, कफ,वात,
स्वांस, खांसी तथा त्वचा रोग में लाभदायक माने जाते है। इसकी पत्तियों का अर्क
डायरिया एवं जड़ की दातून दांत-मसूड़ों के लिए लाभदायक होती है। इसके बीजों का काढ़ा
मूत्रवर्धक, कृमिहारी एवं मृदुरेचक होने के साथ साथ ल्यूकोडर्मा, लैप्रोसी तथा
अन्य चर्म रोगों में फायदेमंद पाया गया है। चर्म रोग एवं कुष्ठ की शिकायत होने पर
बीजों को पीसकर प्रलेप लगाने से आराम मिलता है। इसके तेल में जीवाणुनाशक गुण होते है।
अस्थमा वीड तथा हिंदी में बड़ी दुधी कहते है। यह वर्षा ऋतु की फसलों के
साथ, नम एवं शुष्क भूमियों, बाग़-बगीचों, बंजर भूमियों में उगने वाली एक वर्षीय छोटी शाक है। इसका
तना मुलायम लालिमा लिए हुए ताम्र रंग का होता है जो जमीन के सहारे फैलकर बढ़ता है। इसका
तना तोड़ने से दूध जैसा सफ़ेद पदार्थ निकलता है। पत्तियों के अक्ष से छोटे ताम्र-लाल
रंग के गोल पुष्प निकलते है। पुष्प अवस्था में इसके सम्पूर्ण पौधे में औषधीय गुण
विद्यमान होते है.इस समय इसके पौधों को सुखाकर विभिन्न रोगों के उपचार हेतु
इस्तेमाल किया जाता है। यह अस्थमा, ब्रोंकाइटिस, कफ,खांसी, उदरशूल एवं ह्रदय
स्पंदन में लाभकारी होता है। पेट दर्द, खांसी, अस्थमा एवं बच्चों में उदर कृमि
होने पर सम्पूर्ण पौधे का काढ़ा लाभकारी होता है। इसका दूध दाद-खाज एवं अन्य चर्म
रोगों में उपयोगी होता है।
इसे कॉमन पर्सलेन तथा हिंदी
में कुल्फा, बड़ी लुनिया कहते है जो वर्षा एवं ग्रीष्म ऋतु में बीज एवं टनेस से
उगने वाला बहु वर्षीय खरपतवार है। इसका पौधा मांसल होता है एवं भूमि के सहारे तेजी
से फैलता है। इसकी दूसरी प्रजाति ( पी.क्वाड्रीफ़ोलिया) (छोटा नुनिया) होती है. दोनों ही प्रजातियाँ फसलों
के साथ, बंजर भूमि एवं सड़क किनारे उगती है। इनकी पत्तियों में खट्टापण होता है।
इसकी मुलायम पत्तियों एवं टहनियों की भाजी खाई जाती है। नोनिया की मांसल शाखाएं
लालाभ बैगनी होती है जिन पर पर्ण वृंत
रहित मांसल पत्तियां निकलती है। इसमें पुष्प वृंत विहीन पीले रंग के फूल पत्तियों
के अक्ष से एकल रूप में निकलते है और टहनी के अग्र भाग पर गुच्छे के रूप में लगते
है. कुलफा का पौधा विटामिन सी से भरपूर एवं आरोग्यकारी माना जाता है। इसकी
पत्तियां पौष्टिक, मूत्र वर्धक एवं दाह नाशक होती है। यकृत विकार, मूत्र रोग,
स्कर्वी रोग एवं फेफड़ों आदि के रोगों में यह बहुत लाभकारी होता है।
जले-कटे भाग एवं त्वचा रोग में इसका प्रलेप लगाने से आराम मिलता है। इसके तने के
अर्क से घमोरियों में लाभ होता है। इसके बीज पौष्टिक,मूत्र वर्धक एवं शांतिप्रदायक
होते है जो दर्द भरी पेचिस एवं आंवयुक्त अतिसार में बहुत लाभदायक माने जाते है।
इसे ज्यूज मैली वीड तथा हिंदी
में चेंच भाजी कहते है। यह वर्षा ऋतु में बीज से उगने वाला एक वर्षीय
खरपतवार है। यह फसलों के साथ, सड़क किनारे
एवं बंजर भूमियों पर उगता है। इसकी पत्तियों को मसलने एवं पानी से धोने पर
लिसलिसाहट उत्पन्न होती है। इसकी पत्तियां हल्की हरी, खुरदुरी एवं शिरों पर
दांतेदार होती है। इसके मोटे पुष्पवृंत पर पीले
रंग के छोटे-छोटे पुष्प गुच्छे में आते है। इसकी मुलायम पत्तियों का साग
बनाया जाता है। इसकी पत्तियां पौष्टिक,क्षुदावर्धक, ज्वर एवं कृमिनाशक होती है। पेचिस, यकृतविकार एवं सुजाक
में इसकी पत्तियों का काढ़ा लाभदायक होता है। बच्चों में बुखार,
डायरिया,शर्दी-जुकाम चर्म विकार होने पर
इसकी सूखी पत्तियों का काढ़ा देना लाभप्रद होता है। इसकी सूखी जड़ एवं अर्ध
पकी फलियों का काढ़ा अतिसार एवं बुखार में हितकारी है। शरीर की किसी भाग में सूजन एवं फोड़ा-फुंसी में
कच्ची फलियों का प्रलेप लाभकारी रहता है। इसके बीज उदर रोग, अपच एवं न्युमोनिया
में काफी फायदेमंद पाए गए है। पत्तियों को पानी में भिंगोने से लसदार पदार्थ बनता
है जो पेचिस एवं आंत्रकृमि में लाभदायक
होते है।
20.छोटा गोखुरू (जेन्थियम
स्ट्रोमेरियम), कुल- एस्टरेसी
छोटा गोखुरू पौधा फोटो साभार गूगल |
21.जंगली तुअर (अटायलोसिया स्कर बेओइडस),कुल-फाबेसी
इसे अंग्रेजी में वाइल्ड पिजन
पी तथा हिंदी में वनतुअर/जंगली अरहर कहते है। यह समस्त भारत में पड़ती भूमियों एवं खेतों की मेड़ों पर
खरपतवार के रूप में उगने वाली वार्षिक/बहुवर्षीय शाक है। इसके बीज छोटे एवं काले
होते है। पौधों में सितम्बर से दिसंबर तक फूल और फल बनते रहते है। इसके सम्पूर्ण
पौधे का औषधि रूप में प्रयोग किया जाता है। इसके पौधे का इस्तेमाल पैरो के दर्द,
बुखार, जलने पर, घाव, चेचक, दस्त एवं सर्पदंश के उपचार में किया जाता है. जानवरों
में पोकनी रोग होने पर इसके पौधों को पीसकर उन्हें खिलाया जाता है।
22.जवासा (एल्ह्गी कैमलोरस)
कैमल्स थार्न हिंदी में जवासा
एवं दुर्लभा कहते है। यह शीत एवं ग्रीष्म ऋतु में भूमिगत प्रकंदों एवं जड़ों से
उगने वाला बहुवर्षीय खरपतवार है। शुष्क क्षेत्रों की उर्वर भूमियों एवं बंजर रेतीली भूमियों में यह
पौधा अधिक उगता है। इसके पौधे में कठोर कांटे होते है। इसके कांटो के अक्ष से लाल
रंग के पुष्प फरबरी से अप्रैल तक निकलते है। इसका पौधा मूत्रवर्धक एवं रेचक गुणों
से युक्त होता है। मुत्रअवरोध में इसका
ताजा रस देना लाभकारी होता है। पत्तियों एवं फूल का प्रलेप शिर दर्द, बवासीर में
उपयोगी होता है। इसका काढ़ा खांसी में लाभप्रद है। इसकी पत्तियों एवं तना से निकलने
वाले स्त्राव को मूत्रवर्धक एवं मलभेदक माना जाता है।
इस वनस्पति को अंग्रेजी में
इंडियन सोरेल तथा हिंदी में तिनपतिया कहा जाता है जो नम एवं छायादार भूमियों में
भूस्तारी कन्दीय जड़ों से पनपने वाला बहुवर्षीय खरपतवार है। यह भूमि के सहारे बढ़ने
वाला शाक है जिसकी एकांतर संयुक्त पत्ती
में हल्के हरे रंग के तीन ह्र्द्याकार पत्रक होते है। इसके प्रकन्द के केंद्र
से लंबे डंठल पर जनवरी-मार्च में
गुलाबी-पीले रंग के कीप के आकार के छोटे-छोटे पुष्प निकलते है। इसकी फली (कैप्सूल) बेलनाकार एवं हल्की धूसर
भूरी होती है जिनमे अनेक छोटे-छोटे बीज रहते है। इसकी मुलायम ताज़ी पत्तियों की
भाजी बनाई जाती है। इसकी पत्तियां शीतल, क्षुदावर्धक, पाचक एवं विटामिन सी से
परिपूर्ण होती है। मलेरिया, ज्वर,अतिसार, उदरपित्त एवं स्कर्वी रोग में पत्तियों
का काढ़ा लाभदायक होता है। त्वचा में रूखापन, लाल चकत्ते एवं चटखन होने पर पत्तियों
का अर्क घी के साथ मलने से लाभ होता है। फोड़ा-फुंसी एवं अन्य चर्म रोगों में
प्रकन्द (जड़) का प्रलेप फायदेमंद होता है।
24.दूब घास
(सायनोडॉन डेक्टिलॉन), कुल पोएसी
दूब को अंग्रेजी में बरमूडा ग्रास, संस्कृत में दुर्वा, अनंता, शतपर्वा के नाम से जाना जाता है। यह वर्ष पर्यंत सर्वत्र पायी जाने वाली एवं जमीन पर फैलकर बढ़ने वाली घास है जो
फसलों के साथ एवं पड़ती भूमियों में भूस्तारी प्रकंदों के माध्यम से खरपतवार के रूप में उगती है। इसके तने की
प्रत्येक गाँठ से जड़े निकलती है। हिन्दू समाज में सभी कार्यों में यथा पूजा-पाठ, शादी-विवाह, गृह प्रवेश आदि में दूब घास का इस्तेमाल किया जाता है। इसके अलावा दूब घास न केवल पशुओं के लिए सर्वथा उपलब्ध पौष्टिक हरा चारा है बल्कि मनुष्यों के लिए भी यह पौष्टिक आहार एवं स्वास्थ रक्षक बूटी है। इसमें प्रोटीन, कार्बोहाईड्रेट,खनिज एवं विटामिन प्रचुर मात्रा में पाए जाते है। अपने तमाम औषधीय गुणों के कारण आयुर्वेद में दूब को महौषधि कहा गया है। कफ एवं पित्त विकारों को दूर करने में इसका प्रयोग किया जाता है। यह दाह शामक, रक्तदोष, कान्ति वर्धक, अतिसार, रक्त पित्त,मूर्छा, उदर रोग, यौन रोग, पीलिया,मूत्र विकारों के उपचार में अत्यंत लाभकारी है। पेचिस, बवासीर में रक्तस्त्राव, गर्मी और दौरा पड़ने
पर इसके पौधे का काढ़ा लाभकारी होता है। इसके रस को हरा रक्त कहा जाता है जिसे पीने से एनीमिया ठीक हो जाता है। शरीर में घाव, खरोंच, बवासीर तथा नाक से
खून आने पर इसका रस या प्रलेप लाभकारी होता है। मूत्राशय में जलन, मूत्र नाली में
पथरी होने पर एवं मधुमेह में इसका काढ़ा फायदेमंद पाया गया है। आँख आने पर एवं मोतियाबिंद में इसका
अर्क लाभदायक होता है।दूब में रक्त के ग्लूकोज स्तर एवं कोलेस्ट्राल को कम करने की क्षमता होती है। अतः मधुमेह एवं ह्रदय रोगियों के लिए यह लाभप्रद है। यह घास में शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में सहायक होती है। दूब के हरे-भरे लॉन में नंगे पैर चलने से नेत्र ज्योति बढ़ने के साथ साथ अनेक फायदे होते है।
25.पुनर्नवा (बोरहैविया डिफ्यूजा),
कुल- निक्टाजिनेसी
पुनर्नवा पौधा फोटो साभार गूगल |
इसे सेस्सिल जॉय वीड तथा हिंदी
में गरुंडी साग, कांटेवाली संथी एवं फुलनी के नाम से जाना जाता है। इसके पौधे नम
एवं उर्वरा भूमियों में अधिक पनपते है। धान के खेतों की मेंड़ों, चारागाह,नहरों,
नालियों के किनारे, बाग़-बगीचों में तथा फसलों के साथ खरपतवार के रूप में जमीन में रेंगकर अथवा अन्य
पौधों के सहारे तेजी से बढ़ते है। इसके
पौधे बहुशाखीय होते है जिनमे वर्ष भर छोटे
सफ़ेद फूल आते रहते है। नीचे की शाखाओं में
जड़े फूटती है। फुलनी की मुलायम पत्तियों एवं कोमल टहनियों की भाजी बनाई जाती है।
इसके पौधे में प्रोटीन,रेशा एवं खनिज तत्व पर्याप्त मात्रा में पाए जाते है। इसके
सम्पूर्ण पौधे में औषधीय गुण पाए जाते है। इसके पौधे मूत्रवर्धक. शीतल टॉनिक और रेचक गुण
वाले होते है। इसकी पत्तियों का ताजा रस अथवा काढ़ा अस्थमा, कफ, बुखार,आँखों के रोगों और रतौंधी
रोग के उपचार में लाभकरी होता है। इसके
3-4 ताजे फूल सुबह चबाने से आँखों की
रौशनी बढती है एवं रतौंधी की रोकथाम होती है। खूनी उल्टी होने पर जड़ों के काढ़े में
नमक मिलाकर देने से लाभ होता है। इसके पौधों का
एक चम्मच काढ़ा प्रति दिन खाली पेट लेने से बवासीर एवं पीलिया रोग में आराम
मिलता है। इसकी पत्तियों के रस को गाय के
दूध में मिलाकर पीने से शरीर में उर्जा एवं स्फूर्ति आती है। इसके अलावा औषधीय केश
तेल और काजल बनाने में पत्तियां एक घटक के रूप में इस्तेमाल की जाती है। जानवरों
को इसका चारा खिलाने से दूध उत्पादन बढ़ता है।
27.बकूची (Psoralea corylifolia)
बकुची पौधा फोटो साभार गूगल |
28.बड़ी दुधी (यूफोर्बिया हिर्टा),
कुल- यूफोर्बियेसी
बड़ी दुधी फोटो बालाजी फार्म, अहिवारा, सी.जी. |
29.बड़ी लूनिया (Portulaca
oleracea L.)
कुल्फ़ा पौधा फोटो साभार गूगल |
पथरचूर पौधा फोटो साभार गूगल |
30.पथरचूर (कोलिअस एम्बॉयनिकस)
इसे इंडियन बोरिज़ तथा हिंदी
में पथरचूर एवं पाषाण भेदी कहते है। यह बरसात में उगने वाला बहुवर्षीय पौधा है जो
सडक और रेल पथ के किनारे एवं कंकरीली-पथरीली भूमियों में ज्यादा उगता है । इसका तना
एवं शाखाएं पीली हरी एवं रोमिल होती है। इसकी पत्तियां मांसल, मुलायम एवं
ह्र्दयाकार होती है। इसकी शाखाओं से फरबरी-मार्च में लम्बी पुष्प मंजरी निकलती है
जिनमें हल्के नीले या बैगनी रंग के छोटे-छोटे फूल खिलते है। इसकी पत्तियों में
कैल्शियम आक्जेलेट एवं ग्लूकोसाइड सुगन्धित तैलीय पदार्थ पाया जाता है। इसका पौधा खाने में खट्टा और स्वाद में हल्का
नमकीन और स्वादिष्ट होता है। इसके पत्तों में भी जड़ का विकास हो जाता है। पथरचूर को इसके तने, जड़ अथवा पत्ती से गमलों में भी लगाया जा सकता है।
इसके पौधे में बहुत से औषधीय गुण विद्यमान होते है। आयुर्वेद में पत्थर चटा को
प्रोस्टेट ग्रंथि और किडनी स्टोन से जुडी समस्याओं के लिए रामवाण औषधि माना गया
है । इसे आंतरिक और बाहरी रूप से प्रयोग में लाया जाता है। सिर दर्द, खून बहने, घाव
होने पर, फोड़े-फुंसी होने पर एवं जलने पर
पत्तियों को मसलकर लगाने से आराम मिलता है। बच्चो में कफ, ब्रोंकाईटिस, पेट दर्द
तथा मूत्र विकार होने पर इसका सुगन्धित अर्क शहद के साथ देने से लाभ होता है। पेट
में अल्सर होने पर इसके पत्ते लाभदायक माने जाते है।रक्तचाप कम करने में इसकी
कन्दीय जड़ें उपयोगी होती है। प्रति सप्ताह इस वनस्पति के 1-2 पत्ते कच्चे अथवा सब्जी में डालकर सेवन करना स्वास्थ्य के लिए लाभकारी माना गया है।
नोट : मानव शरीर को स्वस्थ्य रखने में खरपतवारों/वनस्पतियों के उपयोग एवं महत्त्व को हमने ग्रामीण क्षेत्रों के वैद्य/बैगा/ आयुर्वेदिक चिकित्स्कों के परामर्श तथा विभिन्न शोध पत्रों/ आयुर्वेदिक ग्रंथों एवं स्वयं के अनुभव से उपयोगी जानकारी हमने उक्त वनस्पतियों के सरंक्षण एवं जनजागृति के उद्देश्य से प्रस्तुत की है। अतः किसी वनस्पति का रोग निवारण हेतु उपयोग करने से पूर्व आयुर्वेद चिकित्सक से परामर्श अवश्य लेवें। किसी भी रोग निवारण हेतु इनकी अनुसंशा नहीं करते है। अन्य उपयोगी वनस्पतियों के बारे में उपयोगी जानकारी के लिए हमारा अगला ब्लॉग देख सकते है। कृपया ध्यान रखें: बिना लेखक/ब्लोगर की आज्ञा के बिना इस लेख को अन्यंत्र प्रकाशित करना अवैद्य माना जायेगा। यदि प्रकाशित करना ही है तो लेख में ब्लॉग का नाम,लेखक का नाम और पता देना अनिवार्य रहेगा। साथ ही प्रकाशित पत्रिका की एक प्रति लेखक को भेजना सुनिशित करेंगे।
नोट : मानव शरीर को स्वस्थ्य रखने में खरपतवारों/वनस्पतियों के उपयोग एवं महत्त्व को हमने ग्रामीण क्षेत्रों के वैद्य/बैगा/ आयुर्वेदिक चिकित्स्कों के परामर्श तथा विभिन्न शोध पत्रों/ आयुर्वेदिक ग्रंथों एवं स्वयं के अनुभव से उपयोगी जानकारी हमने उक्त वनस्पतियों के सरंक्षण एवं जनजागृति के उद्देश्य से प्रस्तुत की है। अतः किसी वनस्पति का रोग निवारण हेतु उपयोग करने से पूर्व आयुर्वेद चिकित्सक से परामर्श अवश्य लेवें। किसी भी रोग निवारण हेतु इनकी अनुसंशा नहीं करते है। अन्य उपयोगी वनस्पतियों के बारे में उपयोगी जानकारी के लिए हमारा अगला ब्लॉग देख सकते है। कृपया ध्यान रखें: बिना लेखक/ब्लोगर की आज्ञा के बिना इस लेख को अन्यंत्र प्रकाशित करना अवैद्य माना जायेगा। यदि प्रकाशित करना ही है तो लेख में ब्लॉग का नाम,लेखक का नाम और पता देना अनिवार्य रहेगा। साथ ही प्रकाशित पत्रिका की एक प्रति लेखक को भेजना सुनिशित करेंगे।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें