बुधवार, 29 मार्च 2017

ग्रीष्म और वर्षा काल में तिल की फसल से अधिकतम पैदावार

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर 
प्राध्यापक, शस्य विज्ञान
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़ )

तिलहनी फसलों में सबसे पहले तिल की खेती प्रारंभ हुई  जिसके दानों का  प्रयोग भारत के  धार्मिक अवसरों पर (पितर पूजाहवन सामग्री)अति प्राचीन काल  से किया जा रहा है। संसार में सबसे अधिक क्षेत्रफल में तिल की खेती  भारत  में होती है  इसके दानों में 45-50 % तेल और 20 प्रतिशत प्रोटीन पाई जाती है। तिल के 100 ग्राम बीजों से 592 कैलोरी ऊर्जा प्राप्त होती है। तिल के कुल उत्पादन का 77 प्रतिशत भाग तेल निकालने तथा 20 प्रतिशत भाग मीठे व्यंजन (गजक, तिलकुट,रेवड़ी  आदि) बनाने में प्रयोग किया जाता है।  इसके तेल का उपयोग खाने में, साबुन, सौन्दर्य  प्रसांधनों, सुगन्धित तेल के निर्माण आदि में किया जाता है। इसका तेल मीठा होता है जिसमे कोई गंध नही होती है। खूशबूदार फूलों को तेल में मिलाकर रखने से यह उनकी गन्ध को शोषित कर लेती है। इसमें सीसेमोल नामक पदार्थ होता है जिससे तेल को अधिक समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है। तिल की खली को पशु आहार एंव कार्बनिक खाद के रूप में  प्रयोग किया जाता है। भारत में तिल की खेती लगभग 1774 हजार हे.  क्षेत्रफल में  की जाती है जिससे 453 किग्रा. प्रति हे. औसत मान से लगभग 803 हजार टन उत्पादन होता है। अन्य तिल उत्पादक देशों की अपेक्षा भारत में तिल की औसत उपज काफी कम है जिसे बढ़ाने के लिए खेती की उन्नत शस्य विधियाँ व्यवहार में लाने की आवश्यकता है ।  तिल से अधिकतम उत्पादन लेने हेतु  विज्ञान सम्मत तकनीक इस ब्लॉग पर प्रस्तुत है 

उपयुक्त जलवायु

          तिल फसल की समुचित वृद्धि के लिए ऊँचा तापमान तथा औसत आर्द्रता की आवश्यकता होती है।लम्बे तथा गर्म मौसम का होना, जबकि तापमान 21-30 से. हो, आर्दश माना गया है। कम तापमान पर अंकुरण अच्छा नहीं होता तथा फसल की उचित बढ़वार नहीं हो पाती और संपुट अविकसित रह जाती है। इसकी अच्छी उपज के लिए 60-100 सेमी. वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्र अच्छे माने जाते हैं। अधिक वर्षा फसल वृद्धि के लिए हानिकारक होती है। प्रायः इसकी खेती खरीफ में की जाती है परन्तु सिंचाई की सुविधा होने पर ग्रीष्म और शरद ऋतु में भी उगाया जाता है। 

उपयुक्त मृदा और भूमि की तैयारी

          अच्छे जल निकास वाली, जीवांश युक्त बलुआर दोमट भूमि तिल की खेती के लिए सर्वोत्तम है।  यह फसल कछारी भूमि में भी अच्छी उपज देती है। मध्यप्रदेश में तिल की खेती काली एंव राकर मिट्टि में भी की जाती है। इसे धान की मेड़ों पर भी लगाया जा सकता है। खेती के लिए मृदा अभिक्रिया 5.5-8.0 उत्तम रहती है। एक जुताई मिट्टि पलटने वाले हल से करके 2-3 जुताइयाँ देशी हल या हैरो से करनी चाहिये। पाटा चलाकार मिट्टि को महीन व समतल बना लेना चाहिए। बुआई करने से पहले नींदानाशक ब्यूटाक्लोर 2.5से 3.0 लीटर प्रति हे. की दर से मिट्टि में छिड़काव करने से खरपतवार समस्या कम होती है।

उन्नत किस्में

          तिल की किस्में दो प्रकार की काले व सफेद रंग की होती हैं। सफेद बीज वाली किस्मों में तेल प्रतिशत अधिक होता है तथा बाजार भाव भी अच्छा मिलता है। भारत के विभिन्न राज्यों के लिए तिल की प्रमुख उन्नत किस्में है-
उत्तर प्रदेश: टा-4, टा-12, टा-10, टा-22 एंव आरटी-46
बिहार: एम.3-2, एम.3-3, पूसा-2, नीलम, श्वेता, शुभ्रा।
पंजाब एंव हरियाणा: टा-5, टा-22, पंजाब तिल-1, टीसी-289, टा-12-24
मध्य प्रदेश: जेटी-7, न. 148, जी-35, एन-32, ग्वालियर-5, जेआई-7, कृष्णा, टीकेजी-306
छत्तीसगढ़: रमा सलेक्शन-5, टीकेजी-21, टीकेजी-22, जेटी-7, कृष्णा
राजस्थान: प्रताप, टी-13, टीसी-25
मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त तिल की  उन्नत किस्मों की विशेषताएँ
किस्में                  अवधि             उपज             तेल              प्रमुख  विशेषताएँ
                          (दिन)           (क्विंटल/हे.)        (%)     
टी.के.जी. -21          80               5-6              56.0            खरीफ व ग्रीष्मकाल के लिये।
टी.के.जी. -22          84               6-7              50.3            खरीफ व ग्रीष्म के लिए।
रमा सलेक्शन -5      90               7-8              42.0            खरीफ व ग्रीष्म के लिये।
न. 148                 100              6-7              50.0            बीज हल्के भूरे, नर्मदा घाटी।
ग्वालियर-5             95               5-6              52.0            सफेद बीज, ग्वालियर।        
ग्वालियर -35          95               5-6              52.0            सफेद बीज, बुन्देलखंड।
एन -32                  96               7-8             54.0            बीज सफेद, नर्मदा क्षेत्र।
जे. टी. -7                85               7-8             53.0            सम्पूर्ण म.प्र. व छत्तीसगढ़।
कृष्णा                   100               8-9              47.0            काला बीज, छत्तीसगढ़ व म.प्र.।
टीकेजी-306          100               7-8              50.0            सफेद बीज, म.प्र. के लिए।

बोआई का समय

          सिचाई की सुविधा होने पर तिल की खेती सभी ऋतुओं में की जा सकती है । खरीफ में तिल की फसल जून के प्रथम सप्ताह से जुलाई के प्रथम सप्ताह तक बोई जाती है। पलेवा देकर अप्रैल-मई में भी बोनी की जा सकती है। अगेती बोआई में वानस्पतिक वृद्धि अधिक तथा खरपतवार प्रकोप कम होता है, जबकि देर से बोई गई फसल में फूल आने की अवस्था बढ़ जाती है। रबी की फसल मध्य अक्टूबर से नवम्बर के प्रथम सप्ताह तक बोई जाती है। सिंचित क्षेत्रों में फरवरी-मार्च से लेकर मई-जून तक तिल की बोआई की जा सकती है।

बीज दर एंव बीजोपचार

          अच्छी उपज के लिए बीज की उचित मात्रा का प्रयोग  करना आवश्यक है। तिल की शुद्ध फसल के लिए 3-5 किलो बीज तथा मिश्रित फसल के लिए 1-1.5 किग्रा. बीज एक हेक्टेयर के लिये पर्याप्त होता है। बोने से पहले बीज को फफूँदनाशक दवा जैसे-थायरम या केप्टान या बाविस्टीन की 3 ग्राम मात्रा प्रति किलो बीज के हिसाब से उपचारित करें। ऐसा करने से जड़ व तना सड़न रोग से बचाव होता है एंव पौधे स्वस्थ रहते हैं।

बोआई की विधि

           आमतौर पर किसान तिल की बुआई छिटका पद्धति से करते है जिससे उन्हें इसकी बहुत कम उपज मिल पाती है  तिल से  अधिकतम उपज प्राप्त करने के लिए बुआई की  कतार विधि  सर्वोत्तम है। इस विधि में बीज हल के पीछे कूँड़ों में अथवा छोटे बीज बोने वाले सीड ड्रिल द्वारा पंक्तियों में बोये जाते हैं। पंक्तिों के मध्य की दूरी 30-45 सेमी. तथा पौधों के मध्य की दूरी 10-15 सेमी. रखने से अच्छी उपज मिलती है।
          अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में तिल  की बुवाई मादा कूँड पद्धति से करना लाभकारी पाया गया है। इसमें प्रत्येक मादा की दूरी आपस में 30-70 से.मी. रखी जाती है। तथा बोनी मादा के ऊपर कतार विधि से करना चाहिए । तिल की फसल को पानी के जमाव से अधिक नुकसान होता है। मादा -कूडँ पद्धति में, प्रत्येक मादा के बाद उपलब्ध कूँड से जल निकास अच्छा होता है। बीज को अधिक गहरा नहीं बोना चाहिए। यदि बीज बोने की गहराई 2.5-3.5 सेमी. रखी जाए तो अंकुरण अच्छा होता है। बोने के पूर्व प्रति किलो बीज को 10-15 किलो बारीक बुरादा, राख, कोढ़ा या बालू में मिलाकर बोने से बिजाई समान रूप से होती है। पौध संख्या अधिक होने पर बोआई के बाद 2-3 सप्ताह तक घने पौधों को निकाल कर पौधों से पौधों की उचित दूरी स्थापित कर लेनी चाहिए।

खाद एंव उर्वरक

          आमतौर पर तिल की खेती मिश्रित फसल के रूप में की जाती है। जिससे मिश्रण में बोई गई फसल से अधिकतर पोषक तत्वों  की पूर्ति हो जाती है। शुद्ध फसल में संतुलित उर्वरक उपयोग से उपज में बढ़ोत्तरी होती है। प्रति हेक्टेयर 12 क्ंिव. उपज देने वाली तिल की फसल भूमिसे 62 कि. ग्रा. नाइट्रोजन, 24 कि.ग्रा. फाॅस्फोरस, 64 कि.ग्रा. पोटैशियम तथा 14 कि.ग्रा. सल्फर का अधिग्रहण करती है। तिल की अच्छी उपज  के लिए खेत की अंतिम जुताई के समय गोबर खाद 20-25 गाड़ी (10-12 टन) प्रति हे. के हिसाब से मिट्टी में मिलाना चाहिये। रासायनिक खादों में नत्रजन 30 कि.ग्रा. स्फुर 30 कि.ग्रा. तथा पोटाॅश 20 कि.ग्रा. का उपयोग प्रति हेक्टेयर की दर से करना चाहिए। स्फुर एंव पोटॅाश की पूरी मात्रा तथा नत्रजन की आधी मात्रा तथा जुताई के समय उपयोग करना चाहिये। शेष नत्रजन की आधी निंदाइ-गुडाई के समय दें। भाटा जैसी भूमि में गोबर या कम्पोस्ट खाद अच्छे उत्पादन के लिऐ आवश्यक हैं।

खरपतवार नियंत्रण

          तिल बोने के 15-20 दिन केे अंदर निंदाई-गुड़ाई कर खेत को खरपतवार से मुक्त रखना होता है। इसी समय अतिरिक्त पौधों को उखाड़कर खेत में उचित पौध संख्या स्थापित करते हैं। रासायनिक खरपतवार निंयत्रण के लिए पौध उगने से पहले बेसालिन 1 किग्रा प्रति हे. को 800-1000 लीटर पानी में घोलकर बुआई से पहले छिड़ककर मिट्टि में अच्छी तरह मिला देना चाहिए।

सिंचाई एवं जलनिकास 

         खरीफ में बोई गई  तिल को सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती है। अवर्षा अथवा सूखे की स्थिति में 1-2 सिंचाइयाँ करने से उपज में बढ़ोत्तरी होती है । रबी और ग्रीष्मकालीन फूल और  फल लगते समय  सिंचाई करने से फल्लियों का समुचित विकास होता है। अधिक वर्षा की स्थिति में खेत से जल निकास की उचित व्यवस्था करना आवश्यक रहता है।

कटाई एंव गहराई    

          तिल की फसल 80-110 दिन में तैयार हो जाती है। जब पत्तियँा, तने तथा फल्लियाँ पीली पड़ जाये तथा नीचे की पत्तियाँ गिरने लगे तो कटाई करना चाहिए। फसल की कटाई पूर्णतः पकने से कुछ पहले ही कर लेनी चाहिए अन्यथा फल के चटकने से बीजों के बिखरने की संभावना रहती है। सर्वप्रथम पौधे के निचले भाग से फल्लियों का पकना प्रारम्भ होता है।पौधों को हसियाँ से काट लेते हैं या उखाड़ लेते हैं। फसल काटने के बाद गट्ठे बाँधकर खलियान में फैलाकर सुखाया जाता है। लगभग एक सप्ताह बाद फल्लियाँ सूखने पर डंडों से पीटकर गहाई (दाने अलग करने की क्रिया) की जाती है। दानों को भूसे से ओसाई द्वारा साफ कर लेते है।

उपज एंव भण्डारण


          खरीफ फसल से औसतन 3-5 क्विंटल   प्रति हे. दाना प्राप्त होता है। ग्रीष्मकालीन फसल की उपज 4-7 क्विंटल  प्रति हे. तक ली जा सकती है। बीजों को अच्छी तरह धूप में सूखाये और जब नमी 5-7 प्रतिशत रह जाये तो उन्हें  हवा रहित कोठिओं में भंडारित करें। 


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