डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर,प्रोफ़ेसर (एग्रोनोमी),
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
राजमोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,
अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)
वनस्पति
का परिचय एवं औषधीय उपयोग
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वनस्पति
का फोटो
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7. कंटीली
चौलाई (अमरैन्थस
स्पाइनोसस),
कुल- अमरेन्थेसी
इसे
अंग्रेजी में स्पाइनी अमरेंथ तथा हिंदी
में कंटीली चौलाई कहते है। यह वर्षा एवं शरद ऋतु का प्रमुख खरपतवार है जो फसलों
के साथ तथा खाली पड़ी बंजर भूमि में बीज से उगता है। इसकी पौधे एवं पत्तियों के
डंठल के आधार पर कांटे होते है। इसकी मुलायम पत्तियों एवं कोमल टहनियों की भाजी
पकाई जाती है. इसकी पत्ती के अक्ष से अगस्त
से जनवरी तक मंजरी निकलती है जिन पर सफ़ेद रंग के छोटे पुष्प लगते है।
फलों में काले चमकीले बीज बड़ी मात्रा में बनते है। इसकी पत्तियों में ऑक्जेलिक
अम्ल तथा ल्यूटिन पाया जाता है। चौलाई
भाजी क्षुदावर्धक, कफ नाशक, मृदुरेचक तथा मूत्रवर्धक गुणों से परिपूर्ण होता है.
इसकी भाजी स्वास्थ के लिए विशेषकर
गर्भवती माताओं के लिए बहुत फायदेमंद होती है. प्रदर रोग, अनियमित मासिक
स्त्राव, अतिसार, उदरशूल आदि में पूरे पौधे का काढ़ा लाभप्रद होता है। स्त्रियों
में रक्ताल्पता, योनी विकार आदि में इसका रस बहुत लाभकारी होता है. चर्म रोगों,
अस्थमा, लैप्रोसी आदि में पत्तियों का ताजा रस लाभप्रद होता है। सर्पदंश, जलने
एवं कटने पर इसकी जड़ों का प्रलेप लगाने से लाभ होता है।
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8. कलमी साग (आइपोमिया एक्वेटिका),कुल कानवलवुलेसी
इसे
अंग्रेजी में स्वाम्प कैबेज/वाटर
स्पिनाच तथा हिंदी में कलमी साग और
नरकुल के नाम से जाना जाता है जो
कन्वोल्वुलेसी कुल का सदस्य है l वर्षा ऋतु में नम
एवं जल भराव वाले क्षेत्रों में बीज से पनपने वाला यह एकवर्षीय सदाबहार खरपतवार
है। ग्रामीण क्षेत्रों में यह तालाबों के किनारे एवं पानी के गड्ढो एवं नालियों
में भी उगता है। इसकी मुलायम पत्तियों एवं टहनियों से भाजी बनाई जाती है। इसका
तना मुलायम-खोखला एवं मोटा होता है। इसके तने के अग्र भाग से पत्तियों के अक्ष
से लम्बे पुष्प वृंत युक्त कीप के आकार के बैगनी-सफ़ेद पुष्प निकलते है। गीली
मिट्टी के संपर्क में आने से इसके तने की प्रत्येक गाँठ से जड़े निकल आती है।
इसकी फलियों में काले रंग के अनेक चिकने बीज बनते है। इसकी पत्तियों का अर्क
वमनकारी एवं दस्तावर होता है। महिलाओं में तंत्रिका एवं सामान्य कमजोरी होने पर
सम्पूर्ण पौधे का काढ़ा देने से लाभ होता है। इसके बीज विरेचक होते है।
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9. कसौंदी
(केसिया ओक्सिडेंट लिस),कुल-फाबेसी
इसे
अंग्रेजी में कॉफ़ी सेना तथा हिंदी में
कसौंदी या कसिंदा कहते है, जो सिसलपिनेसी कुल का वार्षिक पौधा है। वर्षा ऋतु में
खाली पड़ी जमीनों, सड़क किनारे तथा जंगलों में उगने वाला खरपतवार है। इसके पुरे
पौधे में औषधीय गुण पाए जाते है। इसकी पत्तियों का अर्क अथवा काढ़ा पीलिया, बलगम
युक्त खांसी, हिचकी आदि में लाभप्रद होती है। यह ज्वरनाशक एवं मूत्रवर्धक होता
है। बिच्छू दंश तथा अन्य विषैले कीड़ों के काटने पर इसकी ताज़ी जड़, नई कोपलें एवं
फलियों का लेप डंक वाले स्थान पर लगाने से आराम मिलता है। पूरे पौधे के काढ़े से
कुल्ला करने पर मसूड़ों का दर्द और खून आना बंद हो जाता है। ऐसा माना जाता है कि
इसकी जड़ घर में रखने से सर्प आने का भय नहीं रहता है।
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10. कालमेघ
(एण्ड्रोग्रेफिस
पैनिकुलेटा),
कुल- अकेन्थेसी
किंग
ऑफ़ बिटर,द क्रेट तथा हिंदी में कालमेघ,
किरायत के नाम से प्रसिद्ध है। यह सीधा बढ़ने वाला शाकीय खरपतवार है जो ग्रामीण क्षेत्रों एवं पड़ती भूमियों एवं
वनों में पेड़ों के नीचे बहुतायत में
उगता है। यह सीधा बढ़ने वाला मिर्च जैसा पौधा है। बागानों में हेज के रूप में भी
लगाया जाता है.इसके पत्ते दोनों किनारे पर नुकीले होते है। इसके पुष्पक्रम पर
छोटे सफ़ेद/गुलाबी रंग के पुष्प बनते है। इसका सम्पूर्ण पौधा औषधीय गुणों से
परिपूर्ण होता है जिसमे कालमेगिन एवं एण्द्रोग्राफ़ोलाइड नामक कटु क्षाराभ पाया
जाता है। इसकी पत्तियां कडवी होती है. इसका पौधा ज्वरनाशी, कृमिनाशी,
क्षुदावर्धक होता है। भूख की कमी, पेट में गैस बनने, पेचिस, अतिसार में पत्तियों
का रस सेवन करने से लाभ होता है। इसका रस देने से पेट के कीड़े बाहर निकल जाते
है। घमोरियों तथा कीड़ों के काटने पर पत्तियों का लेप फायदेमंद होता है। मलेरिया
बुखार, पेचिस तथा कमजोरी होने पर पत्तियों का काढ़ा पीने से लाभ मिलता है।
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11. कुप्पी
(अकेलिफा
इण्डिका),
कुल- यूफोर्बियेसी
इसे
इंडियन एकेलिफा तथा हिंदी में हरित कुप्पी, खोकली जो युफ़ोर्बिएसी कुल का सीधे
बढ़ने वाला वार्षिक शाक है. यह पौधा
वर्षा ऋतु में फसलों के साथ, बंजर भूमि, सड़क एवं रेल पथ के किनारे
विशेषकर छायादार स्थानों पर खरपतवार के
रूप में बीज से उगता है। पत्तियां एकांतर,अंडाकार तीन शिराओं युक्त किनारों पर
दांतेदार होती है। पुष्प व फल-जून से
सितम्बर तक होता है। पुष्पन के समय सम्पूर्ण पौधा औषधीय गुणों से परिपूर्ण होता
है। इसमें एकेलिफिन क्षाराभ एवं सायनो जेनेटिक ग्लूकोसाइड प्रचुर मात्रा में
पाया जाता है। इसका सम्पूर्ण पौधा औषधीय
गुणों से परिपूर्ण होता है। यह कफनाशक, मूत्र वर्धक होता है। ब्रोंकाइटिस, दमा,
गठियावात में इसका चूर्ण लाभकारी होता है। इसका प्रलेप लगाने से सर्पदंश और
कीड़ों का विष प्रभाव कम हो जाता है। पुराने घाव एवं अल्सर में पत्तियों का पेस्ट
लगाने से आराम मिलता है। पत्तियों के रस को तेल में मिलाकर लगाने से आर्थराइटिस
में लाभ मिलता है। पत्तियों का रस कान दर्द में भी प्रयोग किया जाता है।
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12. कृष्णनील (अनागेलिस अर्वेन्सिस), कुल-प्रिमुलेसी
इसे
अंग्रेजी में कॉमन पिम्परनेल तथा हिंदी में कृष्णनील और जोंकमारी के नाम से जाना
जाता है । यह शीत ऋतु में फसलों के साथ,
बाग-बगीचों एवं पड़ती भूमियों में पनपता है। इसके पौधे नम भूमियों में तेजी से
बढ़ते है। कृष्णनील का तना शाकीय, मुलायम तथा बिन्दुदार ग्रंथियों युक्त होता
है। इसके पौधों में अक्टूबर से मार्च तक
फूल और फल लगते है। पत्तियों के कक्ष से पुष्पवृंत वाले नीले रंग के पुष्प लगते
है। बीज त्रिकोडीय एवं भूरे रंग का होता है। इसके सम्पूर्ण पौधे में औषधीय गुण
होते है। इसका पौधा ग्रंथिवात, लेप्रोसी, मिरगी, पागलपन एवं सर्पदंश में उपयोगी
है। पागल कुत्ते के काटने से होने वाले रोग, मिरगी की दौरे, लैप्रोसी एवं गठिया
वात होने पर पौधे का ताजा रस सेवन करने से लाभ होता है। कुष्ठ रोग, ग्रंथिवात
एवं सर्पदंश में जड़ का प्रलेप लगाने से आराम मिलता है।
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नोट : किसी भी वनस्पति/पौधे का रोग निवारण हेतु उपयोग करने से पूर्व आयुर्वेद चिकित्सक से परामर्श अवश्य लेवें। हम किसी भी रोग निवारण हेतु इनकी अनुसंशा नहीं करते है। अन्य महत्वपूर्ण वनस्पतियों के बारे में उपयोगी जानकारी के लिए हमारा अगला ब्लॉग देख सकते है।
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