डॉ. गजेंद्र सिंह तोमर
प्राध्यापक (शस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)
भारत में फसलोत्पादन की नाना प्रकार की परंपरागत कृषि पद्धितियों की श्रृंखला में से उतेरा या पैरा कृषि अथवा वेगबद्ध खेती एक महत्वपूर्ण पद्धति है । आधार फसल अर्थात धान की कटाई से पूर्व अन्य फसल की बुवाई आधार फसल की खड़ी अवस्था में करना ही उतेरा कृषि पद्धति कहलाता है तथा अनुवर्ती फसल उतेरा फसल कहलाती है । इस कृषि प्रणाली का प्रमुख उद्देश्य ख्¨त में उपस्थित नमी का उपय¨ग अनुवर्ती उतेरा फसल के अंकुरण तथा पौध वृद्धि के लिए करना है । छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में जहाँ की कृषि का बड़ा हिस्सा वर्षा पर आधारित है। यहाँ सिंचाई के सीमित साधन होने के कारण धान कटाई के पश्चात रबी मौसम में या तो ज्यादातर खेत परती पड़े रहते है या फिर कुछ खेतों में उतेरा पद्धति अपनाई जाती है जिसे वर्षा आधारित क्षेत्रों में द्विफसली खेती हेतु उपयोगी विकल्प कहा जा सकता है । उतेरा कृषि पद्धति से प्रायः सभी किसान परिचित रहते है, परन्तु उससे जुड़े वैज्ञानिक पहलुओं तथा आधुनिक सस्य क्रियाओं के अभाव के कारण वे उतेरा फसल से काफी कम उत्पादन ले पाते है । अतः प्रति इकाई उत्पादन वढ़ाने के लिए उतेरा खेती की वैज्ञानिक विधियों का व्यापक उपयोग अत्यन्त आवश्यक है । आधार फसल की ब¨वाई के समय ही उतेरा फसल के लिए भी य¨जना बना ल्¨ना चाहिए । उतेरा खेती से निम्नलिखित लाभ है:
- उतेरा कृषि से सबसे बड़ा लाभ यही है कि रबी मौसम में जो खेत परती पड़े रहते है उनका समुचित उपयोग हो जाता है जिससे क्षेत्र की फसल सघनता में भी वृद्धि होती है।
- उतेरा कृषि अन्य दोहरी फसल वाली खेती की अपेक्षा सस्ती एवं सरल फसल पद्धति है ।
- इस पद्धति से धान की खेती के बाद बची नमीं का सदुपयोग हो जाता है ।
- सीमित संसाधनों एवं कम लागत से ही रबी दलहन तथा तिलहनी फसलों की अतिरिक्त उपज प्राप्त हो जाती है अर्थात अधिक आर्थिक लाभ प्राप्त होता है ।
- उतेरा कृषि के अन्तर्गत दलहनी फसलों की खेती से मिट्टी में नत्रज़न स्थरीकरण से इस तत्व की उपलब्धता बढ़ जाती है, जिससे किसान को अनुवर्ती अन्य फसल की खेती में नत्रज़न युक्त उर्वरकों की कम आवश्यकता पड़ती है।
- तिलहनी फसलों से तेल के अलावा खल्ली के रूप में कार्बनिक खाद भी प्राप्त हो जाती है ।
भूमि का चुनाव
उतेरा खेती के लिए भारी या मटियार दोमुट मिट्टी उपयुक्त पायी गई है । अतः उतेरा की सफल खेती के लिए मध्यम तथा निचली भूमि का चुनाव करना चाहिए । भारी मिट्टी में जल धारण क्षमता अधिक होती है साथ ही काफी लम्बे समय तक इस मिट्टी में नमी बरकरार रहती है । ऊपरी या टांड़ भूमि उतेरा फसल के लिए उपयुक्त नहीं ह¨ती है क्योंकि यह जल्दी ही सूख जाती है । उतेरा फसलों की बुआई के समय खेत में पानी का जमाव नहीं होना चाहिए । पानी के जमाव से बीज सड़ जाने का खतरा रहता है । अतः खेती से जल निकासी का प्रबन्ध कर लेना चाहिए ।
फसल एवं किस्मों का चयन
धान छत्तीसगढ की प्रमुख खरीफ फसल है जिसकी खेती मुख्यतः वर्षा पर आधारित है। धान के बाद अधिकांश खेत परती छोड़ दिया जाते है या फिर उनमे उतेरा फसलो की खेती की जाती है। निचली या मध्यम भुमिओं में लगाये गए धान के खेतों में नमी रहने पर ही उतेरा फसलें अच्छी हो सकती है। उतेरा के लिए धान को आधार फसल के रूप में लिया जाता है । उतेरा फसल के रूप में खेसारी (तिवड़ा), अलसी, मसूर, मटर, चना आदि का चुनाव किया जा सकता है ।आधार फसल (धान) की किस्म तथा प्रस्तावित अनुवर्ती उतेरा फसल के बीच समय का सामंजस्य अति आवश्यक है । दोनों फसलों के बीच समय का तालमेल इस प्रकार से हो कि हथिया नछत्र में पड़ने वाली वर्षा का लाभ दोनों फसलों को मिल जावे साथ ही उतेरा फसल वृद्धि एवं विकास के लिए पर्याप्त समय भी उपलब्ध हो जाए । अतः आधार फसल के लिए मध्यम अवधि वाली अर्थात 120 से 125 दिनों में पकने वाली उन्नत किस्मों (जैसे चन्द्रहासिनी, इंदिरा राजेश्वरी, क्रांति, अभया, इंदिरा एरोबिक-1,कर्मा महसूरी आदि ) का चयन करना चाहिए । लम्बी अवधि की आधार फसल का चुनाव करने से उतेरा फसल की वृद्धि और विकास के लिए कम समय मिलता है तथा नमी के अभाव के कारण उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है ।
उतेरा फसलों की बीज दर
उतेरा फसल के लिए बीज दर उस फसल की सामान्य अनुशंसित मात्रा से डेढ़ गुना अधिक रखना चाहिए ।उदाहरण के लिए अलसी की अनुशंसित बीज दर 20 किल¨ प्रति हेक्टेयऱ है । उतेरा ख्¨ती हेतु 20 किल¨ का डेढ़ गुणा अर्थात 30 किल¨ अलसी बीज प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता ह¨गी । प्रति इकाई उत्पादन बढ़ाने के लिए उतेरा फसलों की उन्नत किस्मों का चुनाव आवश्यक है ।
उतेरा फसल के लिए बीज दर उस फसल की सामान्य अनुशंसित मात्रा से डेढ़ गुना अधिक रखना चाहिए ।उदाहरण के लिए अलसी की अनुशंसित बीज दर 20 किल¨ प्रति हेक्टेयऱ है । उतेरा ख्¨ती हेतु 20 किल¨ का डेढ़ गुणा अर्थात 30 किल¨ अलसी बीज प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता ह¨गी । प्रति इकाई उत्पादन बढ़ाने के लिए उतेरा फसलों की उन्नत किस्मों का चुनाव आवश्यक है ।
आधार फसल धान तथा उतेरा फसलोन की उन्नत किस्में तथा बीज दर
धान की किस्में उतेरा फसल एवं किस्में बीज दर (किग्रा/हे.)
एमटीयू-1010 खेसारी- रतन, प्रतीक,महा तिवड़ा 85
आईआर-36 अलसी-दीपिका, इंदिरा अलसी-32 30
आईआर-64 मसूर-नूरी,जे.एल.-3 45
महामाया चना इंदिरा चना-1, वैभव, जे.जी.-14 110
पूसा बासमती मटर पारस, विकास, अम्बिका 115
कब और कैसे लगाएँ उतेरा
उतेरा फसलों की समय पर बुआई करना आवश्यक है। उचित समय से पहले या फिर विलम्ब से बुआई करने से उपज में गिरावट होती है। अच्छी उपज के लिए धान फसल में 50 प्रतिशत फूल आने के दो सप्ताह बाद अर्थात अक्टूबर माह के मध्य से नवम्बर के प्रथम सप्ताह के बीच उतेरा फसल की बुआई छिटकवां विधि से करना चाहिए । बुआई के समय खेती में अधिक नमी नहीं रहना चाहिए अन्यथा उतेरा फसलों का बीज सड़ सकता है । खेत में नमी इतनी रहें कि बीज गीली मिट्टी में चिपक जाएं । अतः आवश्यकता से अधिक पानी खेत से बाहर निकाल देना चाहिए अर्थात खेत में जल निकासी का उत्तम प्रबन्ध आवश्यक होता है।
खाद एवं उर्वरक
अन्य फसलों की भांति उतेरा के रूप में बोई जाने वाली दलहनी फसलों में खाद-उर्वरकों की आवश्यकता होती है। अच्छी उपज के लिए यूरिया 6 किलो डीएपी 50 किग्रा. डी ए पी तथा 15 किग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से बुआई के समय देना चाहिए । अलसी या अन्य तिलहनी फसलों में 25 किग्रा यूरिया की अतिरिक्त मात्रा बुआई के 20 दिन बाद देना लाभप्रद होता है ।
खरपतवार प्रबंधन
धान कटाई के 25-30 दिन बाद उतेरा फसल में एक निंदाई करना चाहिए । चना तथा खेसारी जैसी उतेरा फसलो की परम्भिक अवस्था के समय की शीर्ष शाखाओं की खुटाई कर भाजी के रूप में बाजार में बेच देना चाहिए अथवा पशुओं को खिलाना चाहिए । खुटाई करने से इनमें अधिक शाखाएँ बनती है जिससे उपज में बढ़ोत्तरी होती है। अलसी में खरपतवार नियंत्रण के लिए आइसोप्रोट्रोन धूल (25 प्रतिशत) का छिड़काव बोआई के 15 दिन बाद करने से नींदा नियंत्रित रहते है । दलहनी फसलों में खरपतवार नियंत्रण हेतु एलाक्लोर 50 ईसी का प्रयोग बोआई के 2 दिन बाद करना चाहिए ।
पौध संरक्षण
दलहनी फसलों जैसे चना, मटर, मसूर, खेसारी तथा तिलहनी फसल जैसे अलसी में उकठा रोग होने पर उक्त खेत में 2 से 3 साल तक इन फसलों की खेती रोक देनी चाहिए या फिर रोग रोधी किस्मों का प्रयोग करना चाहिए । मटर के फंफूदी रोग नियंत्रण हेतु कैराथेन (0.1 %) या सल्फेक्स (0.3 %) और डायथेन एम-45 (0.2 %) के मिश्रण का छिड़काव करना चाहिए । अलसी में गाल मीज का प्रकोप तथा दलहनी फसलों में फली छेदक से फसल सुरक्षा हेतु मिथाइल डिमेटान (10 मिली. प्रति 10 ली. पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए ।
उतेरा फसलों की कटाई और उपज
आधार फसल यानि धान की कटाई उतेरा फसल को बचाते हुए सावधानी से करनी चाहिए । किसान भाई यदि आधार फसल धान जैसे ही उतेरा फसल की खेती पर समुचित ध्यान दें तो निश्चित रूप से प्रति इकाई अधिकतम उपज ली जा सकती है । उतेरा खेती के मध्यम से काफी कम लागत में खेसारी से 7-10 क्विंटल, अलसी 6-8 क्विंटल, मसूर 2.5-3.5 क्विंटल, चना 3-5 क्विंटल, तथा मटर से 6-8 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त की जा सकती है ।
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