डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्राध्यापक (शस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)
कुट्टू (फेगोपाइरम एस्कुलेन्टम
एल.) अनाज नहीं है, लेकिन यह
अनाज की तरह ही प्रयोग किया जाता है। पोष्टिकता के हर मापदंड में यह गेहूं,
चावल, मक्का आदि से उत्कृष्ट है। उत्तर भारत
में व्रत के समय कुट्टू के आटे की बनी चीज़ें खाते हैं, जैसे की कुट्टू की पूरी और कुट्टू के पकौड़े आदि । कुट्टू को कहीं-कहीं ऊगल व फाफर के नाम से भी जाना जाता हैं। कुट्टू के आटे से चपाती, बिस्कुट, केक, नूडल्स
आदि पौष्टिक खाद्य पदार्थ बनाए जा रहे है। जापान में
इससे बने नूडल्स को महत्वपूर्ण डिस माना जाता है, यहाँ तक जापानीस इंटरनेशनल
फ्लाइट में यात्रिओं को नाश्ते में कुट्टू नूडल्स परोसे जाते है। पहाड़ी क्षेत्रों में कुट्टू से अनेक प्रकार के पेय पदार्थ और बियर, व्हिस्की आदि भी तैयार किये जाते है।
कुट्टू (बकव्हीट) का वानस्पतिक नाम फेगोपाइरम एस्कुलेन्टम एल. है
जो की पोलीगोनेसी कुल का सदस्य है तथा कूट अनाज की श्रेणी में आता है। यह सीधे
बढ़ने वाला और पोले तने वाला वार्षिक पौधा है जिसमे एकांतर क्रम में त्रिकोड़ीय आकर की पत्तिया
होती है। पौधों में सफ़ेद रंग के फूल आते है। बीज सफ़ेद-भूरे रंग के त्रिकोड़िय आकर के होते है।
पौष्टिकता और स्वास्थ्य
दृष्टि से बेजोड़ फसल
कूट्टू में गेंहूँ, चावल, मक्का और बाजरा में ज्यादा प्रोटीन होता है और इसमें लाइसीन और आरजिनीन
नामक अमाइनो एसिड्स प्रचुर मात्रा में होता है जबकि अन्य मुख्य अनाजों में इनकी
मात्रा बहुत कम होती है। इसमें ग्लूटीन नही होता है, अतः यह
उनके लिए भी उत्तम भोजन है जिन्हें ग्लूटेन से एलर्जी है या सीलियक रोग है। इसमें
अच्छे और संतुलित अमाइनो एसिड और भरपूर फाइबर होने के करण यह कोलेस्ट्रोल कम करता
है और खून में ग्लूकोज की मात्रा को काबू में रखता है। अतः डायबिटीज और स्थूलता के
रोगियों के लिए भी यह अच्छा आहार है। इसका शर्करा-सूचकांक गेहूं, चावल, मक्का आदि से काफी कम हाता है। कूट्टू में विटामिन्स व खनिज-लवण जैसे जिंक,
तांबा, मेंगनीज आदि प्रचुर मात्रा में होते
हैं। इसमें मौजूद फैट्स में मोनो-अनसेचूरेटेड वसा
का प्रतिशत ज्यादा होता है जो हृदय के लिए लाभप्रद है, हालांकि
इसमें अन्य अनाजों से कम फैट होते हैं। इसमें घुलनशील फाइबर अपेक्षाकृत अधिक होता
है, जो कोलेस्ट्रोल कम करता है और आंत के कैंसर
से बचाता है। इसमें विशेष प्रकार का अधुलनशील स्टार्च भी होता है जो आंतों को
स्वस्थ रखता है और रक्त में शर्करा के स्तर को काबू में रखता है। यह रक्तचाप, एल डी एल कॉलेस्ट्रोल को कम करता है और स्थूलता कम करता है। शोध परिणामों
से ज्ञात हुआ है कि कूटू में फेगोपाइरीटोल नामक एक अनूठा कार्बोहाइड्रेट होता है
जो रक्त-शर्करा के नियंत्रण में बहुत प्रभावशाली है। इस प्रकार सर्वगुण संपन्न कुट्टू
को सुपर फ़ूड कहा जा रहा है।
कृपया ध्यान रखें कुट्टू के दाने या आटा अधिक पुराना नहीं होना चाहिए। इन्हें किसी विश्वशनीय स्थान से ही ख़रीदे। इसका आटा ताजा पिसा होना चाहिए। अधिक पुराना अथवा मिलावटयुक्त आटा (10-12 दिन से अधिक) या दानों (एक वर्ष से अधिक) से बने खाद्य पदार्थ उपभोग करने से फ़ूड पोइज़निंग होने की संभावना हो सकती है। इससे तैयार पदार्थो का दही के साथ सेवन भी हानिकारक हो सकता है।
कृपया ध्यान रखें कुट्टू के दाने या आटा अधिक पुराना नहीं होना चाहिए। इन्हें किसी विश्वशनीय स्थान से ही ख़रीदे। इसका आटा ताजा पिसा होना चाहिए। अधिक पुराना अथवा मिलावटयुक्त आटा (10-12 दिन से अधिक) या दानों (एक वर्ष से अधिक) से बने खाद्य पदार्थ उपभोग करने से फ़ूड पोइज़निंग होने की संभावना हो सकती है। इससे तैयार पदार्थो का दही के साथ सेवन भी हानिकारक हो सकता है।
कुट्टू की खेती के और भी है फायदे
कुट्टू की खेती से ना केवल
पौष्टिक खाद्यान प्राप्त होगा वरन मधुमक्खी पालन के लिए सर्वश्रेष्ठ साध्य फसल है। कुट्टू एक पर परागित फसल है। इसकी खेती के साथ साथ किसान भाई मधुमक्खी पालन भी करते है तो कुट्टू फसल की उपज
में बढोत्तरी होने के साथ साथ उन्हें अतिरिक्त
आमदनी मिल सकती है। मधुमक्खियाँ इसके
फूलों से सर्वोत्तम किस्म का मधुरस
पैदा करती है। भारत के उत्तरपूर्वी
क्षेत्रों कुट्टू की मुलायम पत्तिओं का
भाजी के रूप में प्रयोग किया जाता है, जो की पौष्टिक और स्वास्थ्यवर्धक होती है। कुट्टू के पौधे शीघ्रता से भूमि को ढँक लेते है। अतः मृदा क्षरण से प्रभावित
क्षेत्रों में इसकी खेती फायदेमंद होती है। कुट्टू एक ऐसी फसल है
जिसकी खेती समुद्र तल से 4500 मीटर की ऊँचाई तक सफलता पूर्वक की जा सकती है और
इसलिए यह भारत के पहाड़ों में वसने वाले आदिवासिओ की प्रिय फसल है। इसकी खेती
पाकिस्तान, भारत, नेपाल, मैनमार के पहाड़ी इलाकों के अलावा चीन, जापान, कोरिया,
ईरान और अफगानिस्तान में की जाती है। भारत
के पहाड़ी राज्यों विशेषकर अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम, उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर राज्यों में इसकी खेती बड़े पैमाने पर की जाती है। छत्तीसगढ़ अंचल के सरगुजा-मैनपाट इलाके में भी कुट्टू की खेती प्रचलित है। इसकी
उपयोगिता को देखते हुए भारत के मैदानी क्षेत्रों की उच्च्हन भुमिओं में इस फसल के क्षेत्राच्छादन बढाने की आवश्यकता है। अग्र वर्णित शस्य तकनीक के माध्यम से किसान भाई कुट्टू की
फसल से अधिकतम उत्पादन और आर्थिक लाभ अर्जित कर सकते है।
जलवायु और भूमि का चयन
कुट्टू फसल में पुष्पन और बीज विकसित होते समय मध्यम ठंडी और नम जलवायु की आवश्यकता होती है। शीघ्र तैयार होने और सभी प्रकार की मृदाओं में कुट्टू की सफल खेती की जा सकती है। अतः फसल विविधिकरण के लिए यह एक आदर्श
फसल साबित हो सकती है इसकी खेती उचित जल निकास वाली सभी प्रकार की भूमियों में सरलता से की जा सकती है। अम्लीय
एवं बंजर भूमि में भी इसकी खेती की जा सकेती है। खेत की 1-2 बार जुताई कर कुट्टू की
बुआई की जा सकती है।
बुआई का समय
पहाड़ी क्षेत्रों में पानी की सुविधा होने पर इसकी बुआई मई-जून में की जा सकती है। मैदानी क्षेत्रों में
कुट्टू की बुआई मानसून आगमन के साथ अगस्त माह तक की जा सकती है।
बीज एवं बुवाई
कुट्टू के पौधों के तने कमजोर होने के कारण फसल में गिरने की समस्या आ सकती है . अतः खेत में पौध
संख्या अधिक रखना चाहिए। कुट्टू की अच्छी
उपज प्राप्त करने के लिए 35-40 किलोग्राम बीज प्रति हैक्टर की दर से प्रयोग करना चाहिए। बुआई हल के पीछे
अथवा पोरा विधि से 30 से.मी. की दूरी पर कतारों में कतारों में करना चाहिए। उपयुक्त जलवायु और मृदा में पर्याप्त
नमीं की उपलब्धता होने पर कुट्टू के बीज बुआई
के 4-5 दिन में अंकुरित हो जाते है।
फसल का पोषण प्रबंधन
उर्वरकों का प्रयोग मृदा परीक्षण के आधार पर करना चाहिए । जहां भूमि
की उर्वरता में कमी हो, वहां कुटटु की अच्छी पैदावार प्राप्त
करने के लिए 50 किलोग्राम नत्रजन , 20 किलोग्राम फॉस्फोरस
एवं 40 किलोग्राम पोटाश प्रति हैक्टेयर की दर
से बुआई के समय प्रयोग करना चाहिए। कुट्टू
की जैविक खेती के लिए उर्वरको के स्थान पर 4-5 टन गोबर की खाद खेत की अंतिम जुताई
के समय खेत में मिलाने से अच्छी पैदावार ली जा सकती है।
सिचाई और निराई- गुड़ाई
कुट्टू की फसल में सूखा सहन करने की क्षमता होती है . वर्षा ऋतु की
फसल होने के कारण फसल में सिचाई की आवश्यकता नहीं होती है। कुट्टू फसल की बुआई के
20 दिन के अन्दर घने पौधों की छटाई (पौध विरलन) का कार्य संपन्न कर पौधे से पौधे के मध्य 10 सेमी. का अंतर कायम कर
लेना चाहिए . खरपतवार प्रबन्धन के लिए आवश्यकतानुसार एक या दो गुड़ाई बुवाई के 20-40
दिन की अवधि में करना पर्याप्त होता है। दाना पड़ने की अवस्था के
दौरान फसल की पक्षिओं से सुरक्षा करना आवश्यक होता है।
उन्नत किस्में
कुट्टू की देशी प्रजातियां
देर से पकती है और उपज भी कम देती है। उन्नत किस्मों से अधिक उपज प्राप्त होती है। कुट्टू की प्रमुख उन्नत किस्मों का विवरण अग्र तालिका में प्रस्तुत है ;
कूटू की प्रजातियों की प्रमुख विशेषतायें
प्रजाति
|
पुष्पन का समय (दिन)
|
पकने का समय (दिन)
|
प्रोटीन की मात्रा (प्रतिशत)
|
औसत उपज (कुन्तल/हैक्टेयर)
|
वी. एल.- 7
|
34
|
72
|
10.8
|
8.0
|
हिमप्रिया
|
60
|
113
|
9.2
|
14.0
|
पी. आर. बी- 1
|
48
|
102
|
11.4
|
18.0
|
कटाई एवं उपज
अपरमित बढ़वार वाले पौधे होने की वजह से इस फसल के दाने एक साथ नहीं पकते
हैं। इसलिए दानों को झड़ने से बचाने के लिए विभिन्न अन्तराल
में फसल की कटाई करें अथवा जब फसल में लगभग 80 प्रतिशत दाने
पक जाने की स्थिति में फसल की कटाई करनी चाहिए। देर से कटाई करने पर दानों के झड़ने
का अंदेशा रहता है और अधिक परिपक्व फसल के दाने नमीं के संपर्क में आने से उनमें
अंकुरण प्राम्भ हो सकता है जिससे दानों की गुणवत्ता खराब होती है। अतः फसल की
कटाई सही वक्त पर करना आवश्यक है . फसल को काटने के बाद दो- चार दिन तक सूखाकर गहाई-मड़ाई
करनी चाहिए। शीघ्र पकने वाली किस्मों से 7-10 कुन्तल प्रति
हैक्टेयर तथा व देर से पकने वाली किस्मों से 10-12 कुन्तल प्रति हैक्टेयर तक उपज प्राप्त हो जाती
है।
नोट: यह लेख सर्वाधिकार सुरक्षित है। अतः बिना लेखक की आज्ञा के इस लेख को अन्यंत्र प्रकाशित करना अवैद्य माना जायेगा। यदि प्रकाशित करना ही है तो लेख में लेखक का नाम और पता देना अनिवार्य रहेगा। साथ ही प्रकाशित पत्रिका की एक प्रति लेखक को भेजना सुनिशित करेंगे।
नोट: यह लेख सर्वाधिकार सुरक्षित है। अतः बिना लेखक की आज्ञा के इस लेख को अन्यंत्र प्रकाशित करना अवैद्य माना जायेगा। यदि प्रकाशित करना ही है तो लेख में लेखक का नाम और पता देना अनिवार्य रहेगा। साथ ही प्रकाशित पत्रिका की एक प्रति लेखक को भेजना सुनिशित करेंगे।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें