गुरुवार, 30 मार्च 2017

औषधीय फसल-सफेद मूसली की वैज्ञानिक ढंग से खेती


            सफेद मूसली  (क्लोरोफाइटम बोरिविलिएनमली) लिलीयेसी कुल का एक कंदयुक्त पौधा है जिसकी अधिकतम ऊँचाई 45 सेमी. तक होती है तथा इसकी कंदिल जड़ें (कंद या फिंगर्स) जमीन से अधिकतम 25 सेमी. तक नीचे जाती है। इसके बीज बहुत छोटे, काले रंग के प्याज के बीज के समान होते है।इसका उपयोग बलवीर्य एवं पुरूषत्व वर्धक के रूप में होता है। सफेद मूसली में किसी भी कारण से आई शरीरिक शिथिलता को दूर करने की क्षमता पाई जाती है। इसमें एंटीऑक्सीडेंट और विटामिन-सी भरपूर मात्रा में पाए जाते। है।  इसके सेवन से शरीर में कोलेस्ट्रॉल स्तर संतुलित रहता है और शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। शुगर के मरीजो के लिए मूसली उत्तम दवा मानी जाती है।  इसका इस्तेमाल लगभग  सभी आयुर्वेदिक टानिकों जैसे च्यवप्राश आदि तैयार करने में किया जाता है । इसके अलावा माताओं का दुध बढ़ानेप्रसवोपरान्त होने वाली बीमारियों,  शारीरिक शिथिलता को दूर करने व मधुमेह आदि जैसे असाध्य रोगों के उपचार में आने वाली विभिन्न औषधि निर्माण में सफेद मसली का प्रयोग किया जाता है। अत्यधिक पौष्टिक तथा बलवर्धक होनेे के कारण इसे दूसरे शिलाजीत की संज्ञा दी गई है। चीन और अमेरिका में पाये जाने वाले पौधे जिन्सेंग (पेनेक्स) जितना बलवर्धक माना गया है। विश्व बाजार में सफेद मसूली की अत्यधिक माँग होने के कारण इसकी खेती के अन्तर्गत क्षेत्र विस्तार और प्रति इकाई उत्पादन बढ़ाने की आवश्यकता है।  

सफ़ेद मूसली की उपयोगी प्रजातियां 

सफेद मूसली की विश्व में  लगभग 175 प्रजातियाँ पाई जाती हैपरन्तु औषधीय गुण वाली प्रमुख चार जातियाँ है :
1. क्लोरोफाइटम बोरिविलिएनम: यह प्रजाति सामान्यतः सागौन के वनों में छत्तीसगढ़ में बहुतायत में पाई जाती है। इसकी जड़ों की मोटाई प्रायः एकसमान, बेलनाकार ही होती है तथा नीचे की ओर क्रमशः पतली होती जाती है। इसकी मूल गुच्छे में आधार पर संलग्र रहती है। इसकी लम्बाई 10 - 15 सेमी. होती है। अधिक खाद देने पर ये 20 - 25 सेमी. लंबी  हो जाती है।
2. क्लोरोफाइटम लेक्सम: क्लोरोफाइटन लेक्सम की मूल भी आधार से गुच्छे के रूप में निकलती है परंतु प्रारंभ में ये धागे के समान पतली होती है और अंत में ये एकाएक फूल जाती है तथा छोर पर पुनः धागे के समान पतली हो जाती है। इन फुली हुइ जड़ों पर झुर्रियाँ होती है।
3. क्लोरोफाइटम अरून्डीनेशियम: इसकी मूल भी लेक्सम के समान ही होती है परंतु इसकी मूल का फूला हुआ हिस्सा चिकना होता है उसमें लेक्सम के सदृश्य झूरियाँ नहीं होती हैं तथा उसकी तुलना में मूल का आकार बड़ा होता है। यह प्रजाति छत्तीसगढ़ के साल वृक्ष के जंगलों में अधिक पाई जाती है।
4. क्लोरोफाइट ट्रयूबरोजम: इसकी मूल भी आधार से गुच्छों के रूप में निकलती है परंतु आधार से निकलकर से धागे के समान पतली होती हैं। इस पतले हिस्से की लंबाई अरून्डीनेशियम एवं लेक्सम प्रजाति की तुलना में अधिक होती है तथा अंत में फूला हुआ हिस्सा दोनों प्रजातियों की तुलना में अधिक बड़ा तथा इसकी सतह चिकनी होती है पर्ण लंबे व अन्य प्रजातियों की तुलना में चैड़े होते हैं।
          सफ़ेद मूसली की गुणवत्ता  के आधार पर इसकी क्लोरोफाइट अरूनडीनेशियम प्रजाति सबसे अच्छी मानी जाती है परन्तु क्लोरोफाइट बोरिविलिएनम प्रजाति की  खेती अधिक प्रचलित है। भारत के विभिन्न प्रदेशो जैसे- बिहार, झारखण्ड, मणिपुर, उउ़ीसा, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, महाराष्ट्र केरल, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ के शुष्क एवं उष्ण मिश्रित वनों में प्राकृतिक रूप से सफ़ेद मूसली उगती  है। मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ के जंगलों में यह पौधा बरसात में स्वतः उग जाता है जिसे उखाड़कर आदिवासी लोग बाजार में बेते हैं। जंगलो की निरंतर कटाई और वनोषधियों की बढ़ती मांग के कारण जंगलो से इनका अवैद्य दोहन होने लगा है जिसके कारण अनेको औषधीय प्रजातियां विलुप्ति के कगार पर है।  सफ़ेद मूसली की स्वास्थ्य के क्षेत्र में  निरंतर  बढ़ती  मांग के कारण इसकी  व्यवसायिक स्तर पर खेती  की  जाने लगी है। सफ़ेद मूसली से प्रति इकाई अधिकतम उपज प्राप्त करने के लिए इस ब्लॉग पर प्रस्तुत शस्य तकनीक का अनुशरण करना चाहिए।  

खेती के लिए उपयुक्त जलवायु

            सफ़ेद मसूली एक कंदरूपी पौधा है जो कि छत्तीसगढ़ व अन्य प्रदेशों के जंगलों में प्राकृतिक रूप से उगता है। यह समशीतोष्ण जलवायु वाले वन क्षेत्रों में प्राकृतिक रूप से पाई जाती है। इसको 800 से 1500 मि.मी. वर्षा वाले क्षेत्रों में वर्षा पर आधारित फसल के रूप उगाया जा सकता है। इसे छितरी छाया अधिक नमी वाली  उर्वरा भूमि की आवश्यकता होती है। सफ़ेद  मसूली की फसल को तेज धूप व तेज हवाओं से सुरक्षित करना आवश्यक होता है ।

भूमि का चुनाव और खेत की तैयारी

            उपयुक्त जल निकास वाली हल्की, रेतीली, दोमट, लाल  वाली भूमि इसकी खेती के लिए अच्छी मानी गई। पथरीली मिट्टी में जड़ों की वृद्धि कम होती है। यह पहाड़ों के ढलानों तथा अन्य ढालू भूमि में भी सफलता पूर्वक उगाई जा सकती है। भूमि का पी.एच. 6-7 होना चाहिए।  रबी की फसल काटने के बाद ग्रीष्म ऋतु में  जैविक खाद डालने के बाद  मोल्ड बोल्ड प्लाऊ से खेत की गहरी जुताई करनी चाहिये। जुताई करने के बाद 2 बार कल्टीवेटर चलायें जिससे खरपतवार व उनकी जड़ें सूख जाय। उसके बाद डिस्क हैरो  चलाकर खेत की मिट्टी भुरभुरी कर लेनी चाहिए। तदोपरांत पाटा चलाकर खेत को समतल कर लिया जाता है। उसके बाद 2 मी. चौड़ी तथा 10 मी. लंबी एवं 20 सेमी. ऊँची  क्यारियाँ बना लेना चाहियेे। एक  क्यारी से दूसरे के बीच में 50 सेमी. का अंतर रखने से निंदाई-गुड़ाई कार्य में आसानी होती है। जल निकास हेतु आवश्यक नालियाँ भी बनाना आवश्यक होता है।

उर्वरकों की जगह जैविक खाद का इस्तेमाल 

           जैविक पद्धति से उगाई गई सफ़ेद मूसली का बाजार में बेहतर भाव मिलता है।  उत्तम गुणवत्ता की सफेद मसूली प्राप्त करने के लिए जैविक खाद का प्रयोग किया जाता है। अच्छी प्रकार से सड़ी हुई गोबर की खाद या कम्पोस्ट अधिक-से-अधिक मात्रा में देने से अधिक मूल की उपज ली जा सकती है। सामान्यतः ग्रीष्म ऋतु में 10 से 15 टन गोबर की खाद/हेक्टेयर खेत में समान रूप से डालकर खेत तैयार  करना चाहिए। कच्ची खाद डालने से मूल में सड़न/गलन रोग का प्रकोप हो जाता है तथा पौधे मर सकते हैं। केंचुआ खाद या हरी खाद के प्रयोग से  सफेद मसूली का अच्छा उत्पादन लिया जा सकता है।

रोपाई के उपयुक्त समय 


            मानूसन की वर्षा प्रारंभ होने पर जुलाई में इसकी रोपाई संपन्न कर लेना चाहिए  है। शीत या ग्रीष्म ऋतु में सफ़ेद मूसली  सुसुप्ता अवस्था में रहती है अतः इन ऋतुओं में इसे नही लगाना चाहिए। वर्षा प्रारंभ होते ही पत्तियाँ निकल आती हैं व पौधे  वृद्धि करने लगते है। प्रसुप्ति काल समाप्त होते ही भंडारित ट्सूबर्स (फिंगर्स) की कलियों की वृद्धि प्रारंभ हो जाती हैजिसे उनके रोपण का उपयुक्त समय समझना चाहिए।

उपयुक्त बीज और बुआई 

            सफेद मसूली का प्रवर्धन (प्रसारण) इसके घनकन्दों द्वारा होता है। इसकी डिस्क या अक्ष में जो कलियाँ होती हैं उन्ही को बीज के रूप में उपयोग करते हैं। पूर्व की फसल से निकाले गये कंदों का उपयोग भी किया जा सकता है। बीज के लिए फिंगर्स (ट्यूर्बस) का उपयोग करते हुए यह बात अवश्य ध्यान में रखे कि फिंगर्स के साथ पौधे की डिस्क का कुछ भाग अवश्य साथ में लगा रहे तथा फिंगर (ट्यूबर) का छिलका भी क्षतिग्रस्त नहीं होना चाहिए अन्यथा पौधे के उगने में कठिनाई होगी। अच्छी फसल लेने के लिए ट्यूबर (फिंगर) का वजन 5-10 ग्राम होना चाहिए। अच्छी फसल के लिए उत्तम गुणवत्ता वाला प्रामाणिक बीज किसी विश्वसनीय संस्थान से लेना चाहिए। एक हेक्टेयर के लिए  लगभग 2 लाख (लगभग 10-15 क्विण्टल) बीज (क्राउनयुक्त फिंगर्स) पर्याप्त रहता है। इतना अधिक बीज (फिंगर्स) एक बार खरीदने में अधिक खर्च आता है। अतः प्रथम बार केवल 1/4 एकड़ अथवा 1000 वर्ग मीटर क्षेत्र में रोपाई की जा सकती है। इससे लगभग 6 क्विंटल  नये पौधे तैयार हो जाते हैं जिन्हें आगामी वर्ष रोपने हेतु उपयोग में लाया जा सकता है।

रोपाई करने की विधि

            सफेद मसूली के बीज (फिंगर्स) को 20 सेमी. कतारों -से-कतारों की दूरी पर तथा बीज-से-बीज 15 सेमी. की दूरी पर लगाना आवश्यक है। ध्यान रहे कि रोपने की गहराई उतनी ही हो जितनी मूल की लंबाई हो जो अक्ष का भाग मूल से संलग्र रहता है। वह भूमि की ऊपरी सतह के बराबर हो उसको मृदा से ढँकना नहीं चाहिये। केवल मूल ही मृदा के अंदर रहे। लगाते समय क्यारी में कुदाली से 5-6 सेमी. गहरी लाइनें 20 सेमी. के अंतर से बना ले। मूल या पूरी डिस्क लगाने के बाद उसके चारों तरफ मिट्टी भरकर दबा देना चाहिए। ध्यान रहे फिंगर पूरी तरह मिट्टी के अंदर न हो उसकी प्रसुप्त कलिकायें भूमि की सतह पर होना चाहिए।

सिंचाई और निंदाई-गुड़ाई 

            सफ़ेद मूसली रोपने के बाद यदि वर्षा नहीं होती है तब सिंचाई की आवश्यकता होती है अन्यथा इसकी फसल को सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती। यदि 15 सितम्बर के बाद वर्षा न हो तब अक्टूबर के प्रथम सप्ताह में एक सिंचाई करनी चाहिए। सिंचाई करने हेतु खेत में खुला पानी दे सकते हैं। स्प्रिकलर के द्वारा सिंचाई करना अधिक उपयुक्त होता है। असमान्य वर्षा होने पर दो बार सिंचाई की आवश्यकता सितम्बर के मध्य या अक्टूबर माह में होती है। मसूली के खेत को खरपतवार से मुक्त रखना चाहिए। इसके लिए कम-से-कम 2-3 निराई गुड़ाई करना आवश्यक है। इसकी निंदाई-गुड़ाई  30 दिन व 45 दिन की अवस्था पर करें। निंदाई हेंड हो या खुरपी की सहायता से करें परंतु ध्यान रखे कि  पौधों की जड़ें प्रभावित न हो।

सफेद मसूली की खुदाई एवं उपज 

            सफेद मसूली की फसल मौसम के अनुसार 180-200  दिनों में तैयार हो जाती है। इस फसल के पत्तों का सूख जाना, फसल के तैयार हो जाने का सूचक है। परन्तु पत्तों के सूख कर गिर जाने के उपरान्त भी 30-35 दिनों तक कन्दों को जमीन में ही रहने दिया जाना चाहिये तथा हल्का पानी देते रहना चाहिए। प्रारम्भ में कंदों का रंग सफेद होता है। जब कंद पूर्णतया पक जाते हैं तो इनका रंग गहरा भूरा हो जाता है। प्रायः कन्द निकालने का कार्य मार्च अप्रैल में किया जाता है। खुदाई के 2 दिन पहले स्प्रिंकलर से हल्की सिंचाई करने से मूसली  खोदने में  आसानी होती है। खुदाई कुदाली या खुरपी की मदद से सावधानी पूर्वक करना चाहिए, जिससे इसके कंद क्षतिग्रस्त न होने पाएं । सफेद मसूली की अच्छी फसल से औसतन 20-25 ग्राम वजन वाले कन्द होते हैं तथा एक पौधे से 10-12 फिंगर्स प्राप्त होते हैं। आमतौर पर बोये गये बीज की तुलना में सफेद मसूली का 5-10 गुना अधिक उत्पादन प्राप्त होता है।
            ताजा सफेद मसूली का उत्पादन 50 से 55 क्विण्टल/हेक्टेयर होता है जो सूखने पर 9 से 10 क्विण्टल  रह जाती है। शुष्क सफेद मसूली का बाजार भाव उपज की गुणवत्ता पर निर्भर करता है।

प्रसंस्करण व सुखाना

            मूसली की खुदाई करने के बाद सफाई करना आवश्यक है। यदि मसूली में मिट्टी लगी है तो उसको पानी से धो कर साफ करने के बाद मसूली को डिस्क से तोड़कर पृथक् कर लेते हैं। बाद में मसूली के ऊपरी सतह से छिलके निकालना चाहिए। छिलका चाकू या खुरदरे पत्थर आदि से घिस कर साफ करें व सूखने के लिये धूप में डालें। साफ करने के बाद मसूली को सफेद नये कपड़े/पालीथीन पर सुखाना चाहिए। अन्यथा मसूली का रंग सफेद नहीं होगा। अतः सफाई व सुखाई का कार्य सावधीपूर्वक करना आवश्यक है। मसूली में फफूँद आदि का आक्रमण नहीं होना चाहिए। छोटी मूसली को डिस्क सहित छाया में रेत के अंदर भंडारित कर अगली वर्ष की फसल रोपने के काम में लेना चाहिए ।

उचित भंडारण


            प्रसंस्कृत की हुई शुष्क मूल को पालीथीन की थैलियों या नायलान की बोरियों में पैक करके शुष्क स्थान में भंडारित चाहिए। सफेद मसूली की उपज को आवश्यकतानुसार बाजार में बेचा जा सकता है। बीज रोपने हेतु एक दो छोटी मूल सहित डिस्क का भंडारण रेत में छायादार कमरे में करते हैं। यदि खेत में ही खोदते समय डिस्क के साथ संलग्न एक दो छोटी मसूली को छोड़ दिया जाय तो पृथक् रूप से भंडारण की आवश्यकता नहीं होती है। वे शीत व ग्रीष्म काल में खेत में ही पड़ी रहकर अगले वर्ष बीज का काम करती है। बीज के लिए छोड़ी गई डिस्क सहित मूल में सिचाई  नहीं करना चाहिए ।


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सगंधीय फसल नींबू घांस की सफल खेती के सूत्र

डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर
प्राध्यापक (शस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)


नीबू घास  जिसे लेमन ग्रास और  चायना ग्रास भी कहते है। यह  एक लम्बी बहुवर्षीय मधुरगन्धी घास होती है जो 1-2 मीटर तक ऊँची होती है। यह तना रहित या छोटे तने वाली घास है  जिसमे पत्तियां रेखीय, लगभग 125 सेमी लंबी और 1.7 सेमी चौड़ी होती है।  इसके पुष्पगुच्छ बड़े, लटके हुए भूरे से हरे रंग के होते है जिन पर जामुनी रंग की आभा बिखरी होती है।  इसके पौधों में सितम्बर-नवम्बर माह में फूल आते है।  इस घास में सूखा सहन करने की क्षमता होती है।नीबू घास का महत्व उसकी सुगंधित पत्तियों के कारण है। इस घास का तेल सिम्बोपोगान की प्रजातियों-सिम्बोपोगाॅनफ्लेक्सुओसस और सिम्बोपोगाॅन सिट्रेटस की पत्तियों से प्राप्त किया जाता है। इसके तेल में तीव्र (लेमन) जैसी तीव्र सुगंध पायी जाती हैइसलिए इसे लेमन ग्रास कहा जाता है। विश्व में उत्पन्न होने वाले महत्वपूर्ण सुगंधित तेलों में से एक लेमन ग्रास का तेल भी है। इस तेल का मुख्य घटक सिट्रल (80-90 %) है। सिट्रल को एल्फा-आयोनोन और बीटा आयोनोन में परिवर्तित किया जाता है। वीटा-आयोनोन गंध द्रव्य के रूप में प्रयोग होता है तथा इससे विटामिन ’ संश्लेषित किया जाता है। एल्फा आयोनोन से गंध द्रव्य अनेक सगंध रसायन संश्लेषित किये जाते हैं। पत्तियों से वाष्प आसवन के द्वारा तेल प्राप्त होता है। जिसका उपयोग इत्र मेंसौन्दर्य प्रसाधनोंविभिन्न प्रकार के साबुनोंकीटनाशक एवं दवाओं के निर्माण में किया जाता है। इसके अलावा यह तेल पारम्परिक   औषधियों में भी प्रयोग होता है। 

लेमन ग्रास की ताज़ी हरी पत्तियां चाय में डालकर पीने से ताजगी के साथ साथ सर्दी जुखाम आदि से भी रहत देती है। लेमन ग्रास एंटी ऑक्सिडेंट,एंटी इनफ्लामेन्ट्री और एंटीसेप्टिक गुणों से परिपूर्ण होती है, जो अनेक प्रकार की  स्वास्थ्य जनक समस्याओं को दूर करने में सहायक होती है।  शरीर के विभिन्न हिस्सो के दर्द, सिरदर्द और जोड़ो के दर्द के लिए फायदेमंद  बताई जाती है।  
          लेसन घास की तीन प्रजातियाँ प्रचलित है - सिम्बोपोगाॅन फ्लेक्सुओसससिम्बोपोगाॅन सिट्रेटस और सिम्बोपोगाॅन पैन्डूलस है। इनमें से सिम्बोपोगाॅन फ्लेक्सुओसस की खेती भारत में काफी प्रचलित है। इसकी दूसरी प्रजाति सिम्बोपोगाॅन सिट्रेटस ज़िसकी खेती मेडागास्करब्राजीलचीनइण्डोनेशिया आदि देशों में प्रमुखता से की जा रही है। तीसरी प्रजाति सिम्बोपागाॅन पैन्डूलस को जम्मू लेमन ग्रास भी कहते है जिसका उपयोग लेमन ग्रास तेल की प्राप्ति के लिए किया जाता है। भारत में 6 हजार हेक्टेयर में इसकी खेती प्रचलित है जिससे 250 टन तेल का उत्पादन प्रति वर्ष होता है। इसमें से लगभग 70 टन तेल का निर्यात किया जाता है। इस ब्लॉग में हम प्रस्तुत कर रहे है नीबूं घास की खेती के विज्ञान सम्मत सूत्र जिनके व्यवहार से आप भी इस बहुपयोगी घास से अधिकतम उत्पादन और मुनाफा अर्जित कर सकते है। 

उपयुक्त जलवायु

          नीबू घास उष्ण एवं समशीतोष्ण दोनों प्रकार की जलवायु में सुचारू रूप से वृद्धि करती है। ऐसे क्षेत्र जहाँ की जलवायु गर्म और आर्द्र हो तथा पर्याप्त धूप पड़ती होइसकी खेती के लिए उपयुक्त होते है। समान रूप से वितरित 250 से 300 सेमी.  वार्षिक वर्षा अथवा सिंचाई के पर्याप्त साधनों वाले क्षेत्र इसके लिए उपयुक्त होते है। कम वर्षा वाले क्षेत्रों एवं ढालू जमीनों में भी इसकी खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है। अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में इसकी खेती करने पर पौधों में तेल तथा साइट्रल कम बनता है। उत्तरी भारत में ठंड का मौसम लम्बा होने के कारण लेमन ग्रास की उपज दक्षिण भारत की अपेक्षा काफी कम आती है।

भूमि का चुनाव एवं  खेत की तैयारी

          इस घास की खेती चिकनी बलुई मिट्टी से लेकर गैर उपजाऊ लैटेराइट जैसी सभी प्रकार की मिट्टीयों में की जा सकती है परंतु अच्छे जल निकास वाली भूमि का चयन करना आवश्यक होता है। दोमट मृदा इसकी खेती के लिए बहुत उपयुक्त होती है। ढलान वाले क्षेत्रों में इसकी रोपाई करने से मृदाक्षरण रूक जाता है। मृदा पी. एच. 9 तक इसकी खेती की जा सकती है। यह पहाड़ों की ढलानों के बंजर क्षेत्र में भी उगाई जा सकती हैै जहाँ पर अन्य फसलें नहीं उगाई जा सकती।
          लेमन ग्रास बहुवर्षीय फसल है तथा लम्बे समय तक खेत में रहती है। अतः खेत की जुताई अच्छी तरह से करना आवश्यक रहता हैै। इसके लिए मिट्टी पलटने वाले हल से एक गहरी जुताई करने के बाद 2 - 3 बाद देशी हल या हैरो से आड़ी - तिरछी (क्राॅस) जुताई करना चाहिए। मृदा जन्य कीट जैसे दीमक आदि के प्रकोप से फसल की रक्षा हेतु अंतिम जुताई के समय खेत में क्लोरपायरीफास धूल 20 - 25 किग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से मिलाना चाहिए। तदुपरांत पाटा चलाकर खेत को समतल कर लेना चाहिए।

उन्नत किस्में

          नीबू घास की विभिन्न प्रजातियों एवं उनकी विकसित किस्में निम्न प्रकार है -
          नीबू घास की प्रजातियां                                         उन्नत किस्में
1.      सिम्बोपोगाॅन फ्लेक्सुओसस                         : कृष्णाकावेरीप्रगतिनीमा
2.      सिम्बोपोगाॅन पेन्डूलस                                : चिरहरित, प्रमाण 
3.      सिम्बोपोगाॅन खासियेनस व पेन्डूलस (क्रास)     : सी. के. पी. - 25
          सिम्बोपोगाॅन फ्लेक्सूओसस की किस्म कृष्णा है। इसकी लीफ सीथ ट्यूब बादामी लाल रंग की होती है तथा पत्तियों की मुख्य शिरा में भी बादामी रंग प्रतीत होता है। सिम्बोपोगाॅन पेन्डूलस (किस्म चिरहरित) की स्लिप की लीफ शीथ ट्यूब हल्के रंग की तथा पत्तियाँ हरे रंग की होती है। तीसरी प्रजाति सिम्बोपोगाॅन खासियेरस एवं सिम्बोपोगाॅन पेन्डूलस का क्रास (सी. के. पी. - 25) है। यह पूरी तरह से हरी दिखाई देती हैलेकिन इसकी लीफ सीथ ट्यूब काफी पतली एवं पत्तियाँ छोटी एवं कम चौड़ी होती है। केन्द्रीय औषधीय एवं सगंध पौधा संस्थान द्वारा प्रगति, प्रमाणचिरहरितकृष्णा एवं नीमा किस्में विकसित की गई हैं जो कि अधिक शाक तथा तेल देती है। इसके अलावा ओ. डी. 19 ओडाक्कलीअरनाकुलम केरल से लाल रंग की किस्म  विकसित कि गई है। इससे 80-200 किग्रा/हेक्टेयर तेल प्राप्त होता है जिसमे  80-88% सिट्राल होता है। 

बुआई का समय

          सिंचित क्षेत्रों में नीबू घास की बुआई वर्ष में कभी भी (अधिक गर्मी के समय को छोड़कर) की जा सकती है। अधिक उपज के लिए बुआई का सर्वोत्तम समय फरवरी - मार्च तथा जुलाई - अगस्त का होता है। फरवरी - मार्च में लगाई गई फसल में प्रथम वर्ष में 15 - 20 प्रतिशत अधिक पैदावार मिलती है।

प्रशारण (प्रबर्धन)

          नीबू घास का प्रसारण या प्रवर्धन बीजों तथा स्लिप द्वारा किया जाता है।
1.बीज द्वारा प्रसारण: दक्षिणी प्रान्तों में नीबू घास में नवम्बर - दिसम्बर में फूल आते है एवं जनवरी - फरवरी मे बीज पक कर तैयार हो जाते है। दक्षिणि भागों मुख्यतः केरल प्रान्त में इस की व्यावसायिक खेती बीज द्वारा की जाती है। एक हेक्टेयर में रोपाई करने हेतु नर्सरी (पौध) तैयार करने हेतु 2 - 3 किग्रा. बीज की आवश्यकता होती है। बीज से नर्सरी में पौध तैयार कर खेत में रोपाई की जाती हैै । नींबू घास की अप्रेल- मई में नर्सरी तैयार करते है। क्यारियाँ तैयार करके बीज बोना चाहिए ।  एक सप्ताह में बीज उग आता है। पौध को 60 दिन तक रोपणी में तैयार करके जुलाई में रोपाई करते है।
2.जड़दार कलमों (स्लिप) से पौध रोपण: जड़दार कलमों द्वारा बुआई उपयोगीलाभकारी तथा सुविधाजनक होती है। सबसे पहले पुराने परिपक्व पौधों (जुड़ों) को उखाड़कर उनके साथ लगी पत्तियों तथा पुरानी जड़ों को काट देना चाहिए। बाद में इन जूड़ों से एक - एक स्लिप को अलग किया जाता हे। रोपने के लिए लगभग प्रति हेक्टेयर 35 - 40 हजार स्लिप्स की आवश्यकता होती है। जड़दार कलमों को 60 सेमी. कतार - से - कतार तथा 35 - 40 हजार सेमी. पौध - से - पौध  दूरी पर रोपा जाना चाहिए। इसके लिए छोटी कुदाल से 5 - 8 सेमी. गहरे गड्डे करके रोपाई की जाती है। बुआई के पूर्व स्लिप के साथ लगी पत्तियों तथा पुरानी जड़े काट देना चाहिए। गड्डे में स्लिप को अच्छी तरह खड़ी करके रोपने के बाद स्लिप के निचले हिस्से को मिट्टी से पूरी तरह दबा देना चाहिए। अधिक गहराई पर लगाने से जड़े सड़ जाती है। रोपने के तुरंत बाद यदि वर्षा न हो तो सिंचाई करना आवश्यक होता है।

खाद एवं उर्वरक

          खाउ एवं उर्वरक की मात्रा मृदा के उपजाऊपन पर निर्भर करती है। खेत की अंतिम जुताई करते  समय 10 - 12 टन गोबर की खाद मिट्टी में  मिला देना चाहिए। सामान्य मृदा में 75: 30: 30 कि. ग्रा. क्रमशः नत्रजनस्फुर, पोटाश  प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष की दर से देना आवश्यक है। रोपण के पहले खेत तैयार करते समय नत्रजन की आधी मात्रा तथा स्फुर व पोटाश की संम्पूर्ण मात्रा देना चाहिए। शेष नत्रजन की आधी मात्रा दो बार (एक बार पहली कटाई के लगभग 1 माह पहले तथा दूसरी खुराक पहली कटाई के बाद) में कूड़ों में देना चाहिए।

खरपतवार नियंत्रण

          फसल की प्रारंभिक अवस्था  (45 दिन तक)  में खेत खरपतवार मुक्त रहना चाहिए।  अतः आवश्यकता नुसार निंदाई गुड़ाई करते रहें । उसके बाद घास अधिक बढ़ जाती है  जिससे खरपतवार नहीं पनप पाते है। नींदानाशक दवाओं जैसे आक्सफ्लोरोफेन 0.5 कि. ग्रा. प्रति हे. या डाययूरान 1.5 कि. ग्रा./ हे. से उपचार करके नींदा नियंत्रित किये जा सकते है।

अधिक उत्पादन के लिए सिंचाई

          फसल स्थापित होने के पश्चात इस फसल को सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है परन्तु अधिक उत्पादन लेने हेेतु  शुष्क ऋतुओं में सिंचाई करना आवश्यक है। प्रत्येक कटाई के बाद सिंचाई करने से उपज बढ़ती है। ग्रीष्म काल में 15 दिन के अंतर से सिंचाई करें।

फसल की कटाई

          पहली कटाई रोपाई के 90 - 100 के बाद की जाती है। उसके बाद 60 - 75 दिन के अंतराल सें अन्य कटाईयाँ की जाती है। एक वर्ष में प्रायः 3 - 4 कटाईयाँ प्राप्त की जा सकती है। एक बार नीबू घास लगा देने पर यह फसल 5 वर्षों तक लगातार उत्पादन देती रहती है। मृदा के उपजाऊपन तथा उर्वरक की मात्रा के आधार पर कटाई की संख्या बढ जाती है। फसल हँसिया की सहायता से काटी जाती है। हँसिया से पौधे अपने आधार के निकट भूमि के लगभग 10 से.मी. ऊपर से काटे जाने चाहिए। असिंचित दशा में ग्रीष्म काल में कटाई नहीं ली जा सकती है।

घांस की उपज

          हरी घास का उपयोग तेल निकालने में होता है। इसकी पत्तियोंतना व पुष्प क्रम में तेल पाया जाता है अतः पूरा ऊपरी भाग आसवन के लिए उपयोगी है। लेमन घास के पौधें की उम्र भूमि तथा जलवायु पर निर्भर करती है। इसके पौधे की सामान्यतौर  पर आयु 6 वर्ष की होती है। इन 6 वर्षोें में से प्रथम वर्ष में तेल का उत्पादन कम होता हैद्वितीय वर्ष से यह बढ़कर चतुर्थ वर्ष तक अधिकतम होता है। इसके बाद उत्पादन में धीरे-धीरे कमी आने लगती है । उपयुक्त जलवायु और सही प्रबंधन से  प्रति हेक्टेयर औसतन  10 से 25 टन हरी घास पैदा होती है।

शाक का प्रसंस्करण


          नींबू घास के शाक का जल आसवन या वाष्प-आसवन विधि से तेल प्राप्त किया जाता है। फसल काटने के उपरांत कुछ समय तक मुरझाने हेतु शाक के खेत में ही अथवा किसी छायादार स्थान पर छोड़ देना चाहिए। एकत्र घास को छोटे - छोटे टुकड़ों में काटकर आसवन टैंक में दबाकर भरा जाता है। अब स्टिल (टैंक) में 18 - 32 किलो दाब परभाप प्रवाहित की जाती है। जल वाष्प तथा लेमन घास के तेल की वाष्पों का मिश्रण सघनित्र में पहुँचता है। पानी में अघुलनशील तथा हल्का होने के कारण तेलपानी के ऊपर तैरता रहता है जिसे लगातार अलग करते रहते है। उसके बाउ तेल को गिराकर छान लिया जाता है। घास के सम्पूर्ण आसवन में 3 - 4 घंटे लगते है। प्राप्त तेल को काँच के बर्तनों को सुरक्षित रखा जाता है। प्रथम वर्ष  में औसतन चार कटाइयों से 75 - 100 किग्रा./हेक्टेयर  तेल प्राप्त होता है। इसके बाद 250-300 किग्रा. तेल प्रति हेक्टेयर तक प्राप्त किया जा सकता है  प्रायः पत्तियों में 0.5 - 1.0 प्रतिशत तेल की मात्रा प्राप्त होती है। लेमन ग्रास की ओ. डी.- 19 किस्म तेल तथा साइट्रल प्रतिशत दोनों ही उद्देश्य से सर्वाेत्तम पाई गई है। नींबू घास की उपज और तेल की मात्रा मौसम और अपनाई गई शस्य तकनीक पर निर्भर होती है 


नोट: यह लेख सर्वाधिकार सुरक्षित है।  अतः बिना लेखक की आज्ञा के इस लेख को अन्यंत्र प्रकाशित करना अवैद्य माना जायेगा। यदि प्रकाशित करना ही है तो लेख में लेखक का नाम और पता देना अनिवार्य रहेगा। साथ ही प्रकाशित पत्रिका की एक प्रति लेखक को भेजना सुनिशित करेंगे।

स्वाद, स्वास्थ्य और समृद्धि के लिए अदरक की खेती

डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर 
प्रोफ़ेसर (एग्रोनॉमी)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यलाय, रायपुर (छत्तीसगढ़)

स्वाद और स्वास्थ्य के लिए उपयोगी मसाले वाली  फसलों में अदरक का महत्वपूर्ण स्थान है। अदरक के कंदों को कच्चा अथवा  सुखाकर सोठ के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। अदरक के कंद  में तीव्र गंध जिन्जिविरेन नामक रसायन के कारण होती है जो उसके वाष्पशील तेल में पाया जाता है। अदरक का प्रयोग चटनी, आचार बनाने, विभिन्न पेय पदार्थ बनाने में,  सब्जी और चाय का जायका बढाने में किया जाता है।  स्वास्थ्य की दृष्टि से अदरक गर्म, क्षुधावर्धक,दस्तावार, उत्तेजक, वातनाशक, कृमिनाशक, ह्रदय और गले के लिए उपयोगी है .काफ और वात,अस्थमा,बुखार,जलन, श्वेत कुष्ठ, खून के रोग में भी अदरक का सेवन लाभदायक बताया जाता है. फसल विविधिकरण और प्रति इकाई अधिकतम मुनाफा अर्जित करने के लिए अदरक एक महत्वपूर्ण कन्दीय फसल है। अदरक की खेती से अधिकतम उत्पादन प्राप्त करने के लिए आधुनिक शस्य तकनीक अग्र प्रस्तुत है .

उपयुक्त जलवायु एवं मृदा 

अदरक की अच्छी फसल के लिए गर्म और नम जलवायु उत्तम रहती है।   बेहतर  फसल के वातावरण का तापमान 19-28 डिग्री सेल्शियस तथा आद्रता 70-90 % होना अच्छा मन गया है।  इस फसल को कृषि वानिकी के तहत भी यानि छायादार स्थानों पर भी उगाया जा सकता है .अदरक की खेती के लिए अच्छे जल निकास वाली जीवांशयुक्त दोमट भूमि  उपयुक्त  पाई गई है । मृदा का पी एच मान 6-6.5 अच्छा माना।  भारी भूमि इसकी खेती के लिए अच्छी नहीं रहती है . मार्च-अप्रैल माह में खेत की अच्छी तरह से जुताई करके उसमें आवश्यकतानुसार सड़ी गोबर की खाद मिलानी चाहिए। सम्पूर्ण खेत को छोटी-छोटी क्यारियों में बाॅट लिया जाता है। इन क्यारियों में 2-2.5 मीटर लम्बी मेड़ बनाते हैं तथा अदरक की बुआई मेड़ पर की जाती है। अदरक की खेती बार-बार एक ही खेत में नहीं करना चाहिए।
सुप्रभा : यह किस्म 230 दिन में तैयार होती है जिसकी उत्पादन क्षमता 16-17 टन (ताजे कंद) प्रति हेक्टेयर होती है।
सुरुचि:  यह किस्म 218  दिन में तैयार होती है जिसकी उत्पादन क्षमता 11 -12  टन (ताजे कंद) प्रति हेक्टेयर होती है।
सुरभि :यह किस्म 225  दिन में तैयार होती है जिसकी उत्पादन क्षमता 17 -18  टन (ताजे कंद) प्रति हेक्टेयर होती है।
हिमगिरि:यह किस्म 230 दिन में तैयार होती है जिसकी उत्पादन क्षमता 12 -13  टन (ताजे कंद) प्रति हेक्टेयर होती है।
इनके अलावा कार्तिका, अथिरा, आई.आई.एस.आर. महिमा,आई.आई.एस.आर. वरदा अन्य उन्नत किसमे है जो की 200 दिन में तैयार होकर 22-23 टन उत्पादन देती है।

बुआई का उचित समय 

अदरक की उन्नत किस्मों जैसे  सुप्रभा, सुरुचि, सुरभि आदि  का चयन करें
अदरक की  बुआई फरवरी से लेकर मई  माह तक की जा सकती  है। वैसे अदरक लगाने का उपयुक्त समय मार्च से अप्रैल रहता है। इसकी शीघ्र बुआई से करने से फसल में कीट-रोग का आक्रमण काम होता है और उत्पादन में भी बढ़ोत्तरी होती है।  बुआई के समय खेत में पर्याप्त नमी होना आवश्यक है।

बीज (प्रकन्द) एवं बुआई   

बुआई के लिए उन्नत किस्मों के रोगमुक्त प्रकन्दों का चयन करना चाहिए।   कंदो के  2.5-5.0  सेमी आकार (20-25 ग्राम वजन) में इस प्रकार से काटें ताकि प्रत्येक कंद  में 1-2 आँखे अवश्य रहे।   बुआई से पहले प्रकन्द को 2 ग्राम कार्बेन्डाजिम या 2.5 ग्राम मैनकोजेब  प्रति लीटर पानी के घोल में 15-20 मिनट तक उपचारित करके छायादार स्थान में सुखाने के पश्चात बुआई करनी चाहिए। प्रति हैक्टर 20-25  कुन्तल प्रकन्द की आवश्यकता होती है । बुआई मेड़ पर 25-30 सेमी. लाइन से लाइन तथा 20 सेमी. प्रकन्द से प्रकन्द की दूरी पर 5-10 से.मी. की गहराई पर की जानी चाहिए। बुआई के समय प्रकन्दों को मिट्टी से ढकने के बाद पलवार से ढकना आवश्यक है । पलवार की मोटाई 5 से 7 से.मी. होनी चाहिए जिससे कि सूर्य का प्रकाश मिट्टी की सतह तक न पहॅुच सके। 

खाद एवं उर्वरक  

खेत की तैयारी के समय 10-20  टन गोबर की सड़ी खाद या कम्पोस्ट खाद प्रति हैक्टर की दर से खेत की अंतिम जुताई के समय मिट्टी  में मिलाना चाहिए। इसके अतिरिक्त अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए 100 कि.ग्रा. नत्रजन, 50 कि.ग्रा. फास्फोरस तथा 50 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हैक्टर प्रयोग करना चाहिए। उर्वरक का प्रयोग मिट्टी के परीक्षण के अनुसार करना लाभकारी होता है। फास्फोरस तथा पोटाश की पूरी मात्रा तथा नत्रजन की एक तिहाई मात्रा अन्तिम जुताई के समय मिट्टी में मिलानी चाहिए। नत्रजन की शेष मात्रा को दो भागों में बाॅटकर बुआई के 30-35  दिन और 50-60  दिन बाद कूंडों में  दी जानी चाहिए।

अदरक में आवश्यक है सिंचाई 

कंद लगाने के बाद खेत में हल्की सिचाई करें इसके बाद वर्षा ऋतु आने के पूर्व 10-12 दिन के अंतराल से सिचाई करना चाहिए । बरसात में सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती, परन्तु जलनिकास का उचित प्रबन्ध होना चाहिए। खुदाई से लगभग एक माह पूर्व सिंचाई बन्द कर देनी चाहिए। इस समय अदरक की पत्तियाॅ पीली पड़ने लगती हैं।

पलवार प्रयोग,निराई-गुड़ाई तथा मिट्टी चढ़ाना    

अदरक की फसल में कार्बनिक पलवार डालने से काफी लाभ होता है। पेड़ों की पत्तियाॅ, गन्ने की सूखी पत्तियाॅ, खरपतवार, धान की पुवाल आदि पलवार के रुप में प्रयोग की जा सकती है।  पलवार डालने से मिट्टी में नमी संचित रहने के साथ तापमान पर उचित नियंत्रण रहता है। साथ ही खरपतवार की अधिक समस्या नहीं रहती। 
अदरक के पौधों पर मिट्टी चढ़ाना अच्छा होता है। पूरी बढ़वार होने तक खेत को खरपतवार रहित रखना चाहिए। अगस्त-सितम्बर में  निराई-गुड़ाई और पौधों पर मिट्टी चढाने का कार्य संपन्न कर लेना चाहिए ।

फसलचक्र और अन्तः फसल   

अदरक की फसल में मृदुसड़न की समस्या प्रायः देखी गई है। अतः प्रभावित खेत में एक बार फसल लेने के बाद दूसरे वर्ष खेत  बदल देना उचित रहता है। अदरक की दो पंक्तियों के बीच एक पंक्ति मक्का अथवा अरंडी  की ली जा सकती है, जो मुख्य फसल को छाया भी प्रदान करती है, साथ ही साथ अतिरिक्त आमदनी का स्रोत भी है। मैदानी क्षेत्र में अदरक की खेती आम तथा पपीते के बाग में अन्तः फसल के रुप में भी की जाती है।

खुदाई एवं उपज  

अदरक की फसल लगभग 180-200 दिनों  में तैयार हो जाती है। जब पौधों की पत्तियाॅ पीली होकर सूखने लगती हैं तब फसल खोदने लायक हो जाती है। ताजी खाने के लिए तथा बाजार में अच्छे भाव पर बिक्री हेतु अदरक की खुदाई बोने के 5-6 माह बाद से प्रारम्भ की जा सकती है। एक हैक्टर में औसतन 100-150 कुन्तल हरी परिपक्व अदरक की उपज मिल जाती है।

अदरक से सोंठ बनाना  

खुदाई के बाद पहले अदरक के प्रकन्दों को अच्छी तरह साफ कर लिया जाता है। फिर उसे रातभर पानी में रखते हैं । दूसरे दिन प्रकन्दों का ऊपरी छिलका बाॅस की पैनी खपच्ची या स्टील के चाकू से खुरच कर निकालते हैं और प्रकन्दों को धूप में बराबर फैलाकर समय-समय पर पलटते हुए लगभग एक सप्ताह तक सुखाते हैं । सूख जाने के बाद प्रकन्दों की सतह को फिर हाथ से रगड़कर अच्छी तरह साफ कर लेते हैं । इस प्रकार सूखी हुई अदरक कच्चे ताजे भार का लगभग 20 प्रतिशत रह जाती है।  बीज के लिए स्वस्थ एवं बिना कटे प्रकन्दों को  मैनकोजेब (20 ग्राम प्रति 10 ली0 पानी) में उपचारित करके किसी सूखे, ऊॅचे एवं छायादार स्थान पर एक उचित वायु संचारयुक्त गढ्ढे में भण्डारित किया जा सकता है । यह भण्डारित प्रकन्द लगभग 5 माह पश्चात बीज के रुप में प्रयोग में लाये जा सकते हैं।


नोट: यह लेख सर्वाधिकार सुरक्षित है।  अतः बिना लेखक की आज्ञा के इस लेख को अन्यंत्र प्रकाशित करना अवैद्य माना जायेगा। यदि प्रकाशित करना ही है तो लेख में लेखक का नाम और पता देना अनिवार्य रहेगा। साथ ही प्रकाशित पत्रिका की एक प्रति लेखक को भेजना सुनिशित करेंगे।

अजोला और नील हरित शैवाल से बढ़ेगा धान उत्पादन

डॉ. गजेंद्र सिंह तोमर प्राध्यापक (शस्य विज्ञान)
इंदिरा  गाँधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)


सघन खेती में रासायनिक उर्वरकों के लगातार इस्तेमाल से भूमि की उर्वरता का ह्रास होने के अलावा फसल उत्पादकता में एक तरह का ठहराव देखा जा रहा है।  इसके अलावा रासायनिक उर्वरको के अंधाधुंध प्रयोग से पर्यावरण को भी भारी क्षति हो रही है। इसलिए रासायनिक उर्वरकों के साथ साथ अब जैविक खाद और जैव उर्वरकों  इस्तेमाल की सिफारिश की जा रही है ताकि टिकाऊ खेती का मार्ग प्रशस्त हो सकें। पर्यावरण सम्मत  टिकाऊ फसलोत्पादन में जैविक खाद (गोबर खाद, कम्पोस्ट, वर्मी कम्पोस्ट आदि ) के  अलावा अनेक प्रकार के जैव उर्वरकों का भी इस्तेमाल किया जाने लगा है।  धान उत्पादन बढ़ाने  और भूमि की उर्वरा शक्ति कायम रखने के लिए एजोला और नील हरित काई जैसे जैव उर्वरकों की महत्वपूर्ण भूमिका है।
अजोला का परिचय: एजोला पानी  पनपने  वाला एक प्रकार का  जलीय  फर्न है। इसका रंग गहरा हरा-लाल या कत्थई होता है।  एजोला की पंखुड़ियों में  नील हरित काई की जाति एक सूक्ष्मजीव  (एनाबिना) विद्यमान होता है सूर्य के प्रकाश में  वायुमण्डलिय   नाइट्रोजन  का यौगिकीकरण कर हरे खाद के रूप में फसल को नत्रजन उपलब्ध कराता है। अनुकूल वातावरण और सही प्रबंधन से अजोला 5-6 दिनों में बढ़कर दो-गुना हो जाता है।  धान की फसल में इसके प्रयोग से फसल को प्रति हैक्टर 40-60 किलोग्राम नाइट्रोजन उपलब्ध हो जाती  है। धान की जैविक खेती में एजोला का इस्तेमाल  यूरिया जैसे नाइट्रोजन उर्वरकों का विकल्प बन सकता है। नाइट्रोजन के अतिरिक्त कुछ हद तक इसमें कैल्शियम मैग्नीशियम फास्फोरस एवं पोटाश आदि की भी मात्रा उपलब्ध होती है। अजोला को पूरे वर्ष बढ़ने दिया जाए तो यह 300 टन/हेक्टेयर  सेन्द्रिय खाद पैदा हो सकती है। इसमें 3.5 % नत्रजन के अलावा अन्य कार्बनिक पदार्थ पाए जाते है जो भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ाते है।  आज कल पौष्टिक पशु चारे के रूप में भी अजोला का इस्तेमाल किया जा रहा है। 
नील हरित काई का परिचय: नील हरित शैवाल (बी.जी.ए.) को  साइनोबैक्टोरिया भी कहते हैं। यह सूक्ष्म पौधा है जो अधिकतर नम तथा अल्प क्षारीय क्षेत्रों में पाया जाता है। इसकी कुछ जातियों में नाइट्रोजन स्थिरीकरण की क्षमता होती है। धान की फसल में इसका विकास सुगमतापूर्वक होता है।  अतः धान की खेती में इसके प्रयोग से फसल को नाइट्रोजन तत्व उपलब्ध कराने के  साथ ही भूमि के अघुलशील फास्फेट को भी घुलनशील बनाता है जिससे भूमि में फास्फोरस की उपलब्धता बढ़ जाती  है । 
हरी काई उपयोगी नहीं : ध्यान रखें कि शैवाल की सभी प्रजातियां लाभकारी नहीं होती। धान के खेत में स्वमेव पैदा होने वाली हरी काई फसल को नुकसान पहुंचाती हैं। अतः यथासंभव इसे  खेत से बाहर निकाल देना चाहिए यदि इसकी बढ़वार अधिक हो तो प्रति हैक्टर चार किलोग्राम नीले थोथा का प्रयोग सिंचाई के पानी के साथ करना चाहिए।  
 अजोला कल्चर तैयार करने की विधि
               राज्य कृषि विश्वविद्यालयो अथवा कृषि विभाग के माध्यम से इनके मातृ  कल्चर प्राप्त करने के बाद किसान भाई स्वयं कल्चर तैयार कर उन्हें धान की खेती में इस्तेमाल कर सकते हैं । एजोला कल्चर तैयार करने के लिए आंशिक छायादार स्थान जैसे पेड़ के नीचे 20 मीटर लम्बा एवं 2 मीटर चौड़ा  तथा 15-20 सेमी0 गढ्ढा बनाकर इसकी तलहटी में गड्ढे के आकार से बड़ी मोटी एवं काली पाॅलीथीन शीट बिछा देते है। इसके बाद गड्ढ़ो में 5 किलोग्राम प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से छनी हुई भुरभुरी मिट्टी समान रूप से फैला देते हैं। मिट्टी को समान रूप से फैलाने के बाद रात भर के लिए गड्ढे में 10-15 सेमी पानी भर देते हैं दूसरे दिन प्रातःकाल में 0.5 से 1 किलोग्राम तक प्रति वर्ग मीटर की दर से ताजे एवं स्वच्छ एजोला कल्चर को अच्छी तरह पानी के ऊपर छिड़क देते हैं। इसके बाद अच्छी बढ़वार के लिए थोड़ी-थोड़ी मात्रा में  सिंगल सुपर फास्फेट को चार दिन के अन्तराल पर 2-3 बार छिड़कते हैं। कीड़े मकोड़ों की आशंका की स्थिति में  1  मिली। मेलाथियान या 3 ग्राम कारबोफ्यूरान 3  ग्राम प्रति वर्ग मीटर के हिसाब  से एक सप्ताह बाद गड्ढे में डाला जा सकता है। इसके 15-20 दिन बाद एजोला विकसित होकर पूरे गड्ढ़े में भर जाता है। गड्ढ़े के दो तिहाई एजोला को धान के खेत में रोपाई के 10 दिन बाद डाला जा सकता है। इसके 15-20 दिन बाद पुनः  गड्ढ़े  से एजोला प्राप्त किया जा सकता है।  शुद्ध जैविक खेती के प्रयोजन से तैयार किये जाने वाले एजोले के लिए कीटनाशी एवं सिंगल सुपर फास्फेट के बदले 10 किलोग्राम ताजे गोबर को पानी में घोलकर गड्ढे में डालते हैं। 
नील हरित काई तैयार करने की विधि 
                    नील हरित शैवाल के प्रांरभिक कल्चर से अधिक मात्रा में नील हरित शैवाल तैयार करने के लिए मार्च से जून माह का समय उपयुक्त पाया गया  है । इसे तैयार करने हेतु धूप वाले स्थान में 40 वर्ग मीटर का 10-15 गहरा गड्ढा खोदते हैं।  अजोला  की भांति गड्ढे की तैयारी के बाद प्रति वर्गमीटर 3-4 किलोग्राम भुरभुरी काली मिट्टी फैलाकर प्रतिमीटर 100 ग्राम सिंगल  सुपर फास्फेट एवं 2 मिली। मैलाथियान मिट्टी एवं पानी में मिला देते हैं दूसरे दिन 100 ग्राम प्रति  वर्गमीटर की दर से नील हरित शैवाल का प्रारंभिक कल्चर पानी के ऊपर छिडक़ दिया जाता है। उचित तापमान की स्थिति में 7 से 10 दिन के भीतर काई की मोटी परत तैयार होने लगती है। आवश्यकता के अनुरूप बीच-बीच में  गड्ढे में पानी देते  रहना चाहिए।  काई की अधिक मोटी परत बन जाने पर पानी देना बन्द कर देना चाहिए । अच्छी तरह सूखने बाद काई की पपड़ी को  गड्ढे से निकालकर धान के  खेतों में प्रयोग करना चाहिए।  इसके बाद गड्ढे में पुनः पानी भर कर उसमे  कल्चर का  छिड़काव  कर दुबारा  नील हरित काई तैयार की जा सकती  है । 
अजोला और नील हरित काई प्रयोग मात्रा : धान की फसल में एजोला के ताजे एवं जीवित कल्चर का प्रयोग 0.5 से 1 टन प्रति हैक्टर की दर से रोपाई के 7-10 दिन बाद दो इंच पानी के जमाव की स्थिति में किया जाता है। इसके साथ-साथ 30-40 किग्रा. सिंगल सुपर फॉस्फेट का छिड़काव करने से अजोला की अच्छी वृद्धि होती है। नील हरित शैवाल का प्रयोग भी पौध रोपाई के एक सप्ताह बाद पानी भरे खेत  में  10-15 किग्रा0 प्रति हैक्टेयर की दर से किया जानाचाहिए।
सावधानिया :  इनके प्रयोग के बाद धान के खेत में पानी (10-15 सेमी.) बना रहना चाहिए।  खेत में एजोला अधिक मात्रा में  होने पर सिंचाई रोककर इन्हें मिट्टी के सम्पर्क में आने देकर सड़ने देना चाहिए ताकि ये   पौधों को नाइट्रोजन उपलब्ध कराने में मददगार हो सके । अजोला या नील हरित काई का उत्पादन 30-35 डिग्री तापमान  और पर्याप्त सूर्य  के प्रकाश में  अच्छा होता है। इनके उत्पादन के लिए उदासीन अथवा हल्की क्षारीय मृदायें श्रेष्ठ होती है।   नील हरित शैवाल को एक ही खेत में लगातार तीन वर्ष प्रयोग करने के बाद इसके प्रयोग की जरूरत नहीं होती क्योंकि बाद में यह स्वतः उत्पन्न होने लगता है।

नोट: यह लेख सर्वाधिकार सुरक्षित है।  अतः बिना लेखक की आज्ञा के इस लेख को अन्यंत्र प्रकाशित करना अवैद्य माना जायेगा। यदि प्रकाशित करना ही है तो लेख में लेखक का नाम और पता देना अनिवार्य रहेगा। साथ ही प्रकाशित पत्रिका की एक प्रति लेखक को भेजना सुनिशित करेंगे।

बुधवार, 29 मार्च 2017

ग्रीष्म और वर्षा काल में तिल की फसल से अधिकतम पैदावार

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर 
प्राध्यापक, शस्य विज्ञान
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़ )

तिलहनी फसलों में सबसे पहले तिल की खेती प्रारंभ हुई  जिसके दानों का  प्रयोग भारत के  धार्मिक अवसरों पर (पितर पूजाहवन सामग्री)अति प्राचीन काल  से किया जा रहा है। संसार में सबसे अधिक क्षेत्रफल में तिल की खेती  भारत  में होती है  इसके दानों में 45-50 % तेल और 20 प्रतिशत प्रोटीन पाई जाती है। तिल के 100 ग्राम बीजों से 592 कैलोरी ऊर्जा प्राप्त होती है। तिल के कुल उत्पादन का 77 प्रतिशत भाग तेल निकालने तथा 20 प्रतिशत भाग मीठे व्यंजन (गजक, तिलकुट,रेवड़ी  आदि) बनाने में प्रयोग किया जाता है।  इसके तेल का उपयोग खाने में, साबुन, सौन्दर्य  प्रसांधनों, सुगन्धित तेल के निर्माण आदि में किया जाता है। इसका तेल मीठा होता है जिसमे कोई गंध नही होती है। खूशबूदार फूलों को तेल में मिलाकर रखने से यह उनकी गन्ध को शोषित कर लेती है। इसमें सीसेमोल नामक पदार्थ होता है जिससे तेल को अधिक समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है। तिल की खली को पशु आहार एंव कार्बनिक खाद के रूप में  प्रयोग किया जाता है। भारत में तिल की खेती लगभग 1774 हजार हे.  क्षेत्रफल में  की जाती है जिससे 453 किग्रा. प्रति हे. औसत मान से लगभग 803 हजार टन उत्पादन होता है। अन्य तिल उत्पादक देशों की अपेक्षा भारत में तिल की औसत उपज काफी कम है जिसे बढ़ाने के लिए खेती की उन्नत शस्य विधियाँ व्यवहार में लाने की आवश्यकता है ।  तिल से अधिकतम उत्पादन लेने हेतु  विज्ञान सम्मत तकनीक इस ब्लॉग पर प्रस्तुत है 

उपयुक्त जलवायु

          तिल फसल की समुचित वृद्धि के लिए ऊँचा तापमान तथा औसत आर्द्रता की आवश्यकता होती है।लम्बे तथा गर्म मौसम का होना, जबकि तापमान 21-30 से. हो, आर्दश माना गया है। कम तापमान पर अंकुरण अच्छा नहीं होता तथा फसल की उचित बढ़वार नहीं हो पाती और संपुट अविकसित रह जाती है। इसकी अच्छी उपज के लिए 60-100 सेमी. वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्र अच्छे माने जाते हैं। अधिक वर्षा फसल वृद्धि के लिए हानिकारक होती है। प्रायः इसकी खेती खरीफ में की जाती है परन्तु सिंचाई की सुविधा होने पर ग्रीष्म और शरद ऋतु में भी उगाया जाता है। 

उपयुक्त मृदा और भूमि की तैयारी

          अच्छे जल निकास वाली, जीवांश युक्त बलुआर दोमट भूमि तिल की खेती के लिए सर्वोत्तम है।  यह फसल कछारी भूमि में भी अच्छी उपज देती है। मध्यप्रदेश में तिल की खेती काली एंव राकर मिट्टि में भी की जाती है। इसे धान की मेड़ों पर भी लगाया जा सकता है। खेती के लिए मृदा अभिक्रिया 5.5-8.0 उत्तम रहती है। एक जुताई मिट्टि पलटने वाले हल से करके 2-3 जुताइयाँ देशी हल या हैरो से करनी चाहिये। पाटा चलाकार मिट्टि को महीन व समतल बना लेना चाहिए। बुआई करने से पहले नींदानाशक ब्यूटाक्लोर 2.5से 3.0 लीटर प्रति हे. की दर से मिट्टि में छिड़काव करने से खरपतवार समस्या कम होती है।

उन्नत किस्में

          तिल की किस्में दो प्रकार की काले व सफेद रंग की होती हैं। सफेद बीज वाली किस्मों में तेल प्रतिशत अधिक होता है तथा बाजार भाव भी अच्छा मिलता है। भारत के विभिन्न राज्यों के लिए तिल की प्रमुख उन्नत किस्में है-
उत्तर प्रदेश: टा-4, टा-12, टा-10, टा-22 एंव आरटी-46
बिहार: एम.3-2, एम.3-3, पूसा-2, नीलम, श्वेता, शुभ्रा।
पंजाब एंव हरियाणा: टा-5, टा-22, पंजाब तिल-1, टीसी-289, टा-12-24
मध्य प्रदेश: जेटी-7, न. 148, जी-35, एन-32, ग्वालियर-5, जेआई-7, कृष्णा, टीकेजी-306
छत्तीसगढ़: रमा सलेक्शन-5, टीकेजी-21, टीकेजी-22, जेटी-7, कृष्णा
राजस्थान: प्रताप, टी-13, टीसी-25
मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त तिल की  उन्नत किस्मों की विशेषताएँ
किस्में                  अवधि             उपज             तेल              प्रमुख  विशेषताएँ
                          (दिन)           (क्विंटल/हे.)        (%)     
टी.के.जी. -21          80               5-6              56.0            खरीफ व ग्रीष्मकाल के लिये।
टी.के.जी. -22          84               6-7              50.3            खरीफ व ग्रीष्म के लिए।
रमा सलेक्शन -5      90               7-8              42.0            खरीफ व ग्रीष्म के लिये।
न. 148                 100              6-7              50.0            बीज हल्के भूरे, नर्मदा घाटी।
ग्वालियर-5             95               5-6              52.0            सफेद बीज, ग्वालियर।        
ग्वालियर -35          95               5-6              52.0            सफेद बीज, बुन्देलखंड।
एन -32                  96               7-8             54.0            बीज सफेद, नर्मदा क्षेत्र।
जे. टी. -7                85               7-8             53.0            सम्पूर्ण म.प्र. व छत्तीसगढ़।
कृष्णा                   100               8-9              47.0            काला बीज, छत्तीसगढ़ व म.प्र.।
टीकेजी-306          100               7-8              50.0            सफेद बीज, म.प्र. के लिए।

बोआई का समय

          सिचाई की सुविधा होने पर तिल की खेती सभी ऋतुओं में की जा सकती है । खरीफ में तिल की फसल जून के प्रथम सप्ताह से जुलाई के प्रथम सप्ताह तक बोई जाती है। पलेवा देकर अप्रैल-मई में भी बोनी की जा सकती है। अगेती बोआई में वानस्पतिक वृद्धि अधिक तथा खरपतवार प्रकोप कम होता है, जबकि देर से बोई गई फसल में फूल आने की अवस्था बढ़ जाती है। रबी की फसल मध्य अक्टूबर से नवम्बर के प्रथम सप्ताह तक बोई जाती है। सिंचित क्षेत्रों में फरवरी-मार्च से लेकर मई-जून तक तिल की बोआई की जा सकती है।

बीज दर एंव बीजोपचार

          अच्छी उपज के लिए बीज की उचित मात्रा का प्रयोग  करना आवश्यक है। तिल की शुद्ध फसल के लिए 3-5 किलो बीज तथा मिश्रित फसल के लिए 1-1.5 किग्रा. बीज एक हेक्टेयर के लिये पर्याप्त होता है। बोने से पहले बीज को फफूँदनाशक दवा जैसे-थायरम या केप्टान या बाविस्टीन की 3 ग्राम मात्रा प्रति किलो बीज के हिसाब से उपचारित करें। ऐसा करने से जड़ व तना सड़न रोग से बचाव होता है एंव पौधे स्वस्थ रहते हैं।

बोआई की विधि

           आमतौर पर किसान तिल की बुआई छिटका पद्धति से करते है जिससे उन्हें इसकी बहुत कम उपज मिल पाती है  तिल से  अधिकतम उपज प्राप्त करने के लिए बुआई की  कतार विधि  सर्वोत्तम है। इस विधि में बीज हल के पीछे कूँड़ों में अथवा छोटे बीज बोने वाले सीड ड्रिल द्वारा पंक्तियों में बोये जाते हैं। पंक्तिों के मध्य की दूरी 30-45 सेमी. तथा पौधों के मध्य की दूरी 10-15 सेमी. रखने से अच्छी उपज मिलती है।
          अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में तिल  की बुवाई मादा कूँड पद्धति से करना लाभकारी पाया गया है। इसमें प्रत्येक मादा की दूरी आपस में 30-70 से.मी. रखी जाती है। तथा बोनी मादा के ऊपर कतार विधि से करना चाहिए । तिल की फसल को पानी के जमाव से अधिक नुकसान होता है। मादा -कूडँ पद्धति में, प्रत्येक मादा के बाद उपलब्ध कूँड से जल निकास अच्छा होता है। बीज को अधिक गहरा नहीं बोना चाहिए। यदि बीज बोने की गहराई 2.5-3.5 सेमी. रखी जाए तो अंकुरण अच्छा होता है। बोने के पूर्व प्रति किलो बीज को 10-15 किलो बारीक बुरादा, राख, कोढ़ा या बालू में मिलाकर बोने से बिजाई समान रूप से होती है। पौध संख्या अधिक होने पर बोआई के बाद 2-3 सप्ताह तक घने पौधों को निकाल कर पौधों से पौधों की उचित दूरी स्थापित कर लेनी चाहिए।

खाद एंव उर्वरक

          आमतौर पर तिल की खेती मिश्रित फसल के रूप में की जाती है। जिससे मिश्रण में बोई गई फसल से अधिकतर पोषक तत्वों  की पूर्ति हो जाती है। शुद्ध फसल में संतुलित उर्वरक उपयोग से उपज में बढ़ोत्तरी होती है। प्रति हेक्टेयर 12 क्ंिव. उपज देने वाली तिल की फसल भूमिसे 62 कि. ग्रा. नाइट्रोजन, 24 कि.ग्रा. फाॅस्फोरस, 64 कि.ग्रा. पोटैशियम तथा 14 कि.ग्रा. सल्फर का अधिग्रहण करती है। तिल की अच्छी उपज  के लिए खेत की अंतिम जुताई के समय गोबर खाद 20-25 गाड़ी (10-12 टन) प्रति हे. के हिसाब से मिट्टी में मिलाना चाहिये। रासायनिक खादों में नत्रजन 30 कि.ग्रा. स्फुर 30 कि.ग्रा. तथा पोटाॅश 20 कि.ग्रा. का उपयोग प्रति हेक्टेयर की दर से करना चाहिए। स्फुर एंव पोटॅाश की पूरी मात्रा तथा नत्रजन की आधी मात्रा तथा जुताई के समय उपयोग करना चाहिये। शेष नत्रजन की आधी निंदाइ-गुडाई के समय दें। भाटा जैसी भूमि में गोबर या कम्पोस्ट खाद अच्छे उत्पादन के लिऐ आवश्यक हैं।

खरपतवार नियंत्रण

          तिल बोने के 15-20 दिन केे अंदर निंदाई-गुड़ाई कर खेत को खरपतवार से मुक्त रखना होता है। इसी समय अतिरिक्त पौधों को उखाड़कर खेत में उचित पौध संख्या स्थापित करते हैं। रासायनिक खरपतवार निंयत्रण के लिए पौध उगने से पहले बेसालिन 1 किग्रा प्रति हे. को 800-1000 लीटर पानी में घोलकर बुआई से पहले छिड़ककर मिट्टि में अच्छी तरह मिला देना चाहिए।

सिंचाई एवं जलनिकास 

         खरीफ में बोई गई  तिल को सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती है। अवर्षा अथवा सूखे की स्थिति में 1-2 सिंचाइयाँ करने से उपज में बढ़ोत्तरी होती है । रबी और ग्रीष्मकालीन फूल और  फल लगते समय  सिंचाई करने से फल्लियों का समुचित विकास होता है। अधिक वर्षा की स्थिति में खेत से जल निकास की उचित व्यवस्था करना आवश्यक रहता है।

कटाई एंव गहराई    

          तिल की फसल 80-110 दिन में तैयार हो जाती है। जब पत्तियँा, तने तथा फल्लियाँ पीली पड़ जाये तथा नीचे की पत्तियाँ गिरने लगे तो कटाई करना चाहिए। फसल की कटाई पूर्णतः पकने से कुछ पहले ही कर लेनी चाहिए अन्यथा फल के चटकने से बीजों के बिखरने की संभावना रहती है। सर्वप्रथम पौधे के निचले भाग से फल्लियों का पकना प्रारम्भ होता है।पौधों को हसियाँ से काट लेते हैं या उखाड़ लेते हैं। फसल काटने के बाद गट्ठे बाँधकर खलियान में फैलाकर सुखाया जाता है। लगभग एक सप्ताह बाद फल्लियाँ सूखने पर डंडों से पीटकर गहाई (दाने अलग करने की क्रिया) की जाती है। दानों को भूसे से ओसाई द्वारा साफ कर लेते है।

उपज एंव भण्डारण


          खरीफ फसल से औसतन 3-5 क्विंटल   प्रति हे. दाना प्राप्त होता है। ग्रीष्मकालीन फसल की उपज 4-7 क्विंटल  प्रति हे. तक ली जा सकती है। बीजों को अच्छी तरह धूप में सूखाये और जब नमी 5-7 प्रतिशत रह जाये तो उन्हें  हवा रहित कोठिओं में भंडारित करें। 


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