शुक्रवार, 4 मार्च 2016

जैविक खेती सदाबहार-मानव जीवन का आधार

डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर 
प्राध्यापक, सस्य विज्ञानं विभाग
इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)

स्वास्थ्य और समृद्धि के लिए फिर से अपनाएं  प्राकृतिक खेती 

                      स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात  निरंतर जनसँख्या वृद्धि की वजह से देश की जनता के लिए खाद्यान्न आपूर्ति करना एक बड़ी समस्या थी जो दिनों दिन विकराल रूप धारण करती जा रही थी। कहते है 'आवश्यकता आविष्कार की जननी' होती है। देश में 70 के दशक में हरित क्रांति का प्रादुर्भाव हुआ जिसके लिए हम सब डॉ एन बोरलॉग साहब  को सदैव याद करते रहेंगे क्योंकि हरित क्रांति ने खाद्यान्न समस्या से निजात के लिए हमें नया विकल्प दिया। हरित क्रांति से जहाँ देश में धन-धान्य में प्रगति,विकास और आत्मनिर्भरता आई, वहीं कृषि क्षेत्र को चौतरफा विकट समस्याओं ने भी जकड़ लिया जिससे सुलझने में लंबा वक्त लग सकता है। कृषि उत्पादन और आमदनी बढ़ाने की होड़ में रासायनिक उर्वरकों और पौध सरंक्षण के लिए जहरीलें रासायनिकों का अधिकाधिक प्रयोग किया जाने लगा।  मात्र अधिकतम फसल उत्पादन कर खाद्यान्न आपूर्ति के फेर में हमने मानव स्वास्थ्य को भी दाव पर लगा दिया।  जो अन्न, सब्जियां, दलहन,तिलहन और फल प्राप्त हो रहे हैं वो मात्र अधिक रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों की देंन  है। पोषक तत्वों के नाम पर हम सब केवल कीटनाशकों एवं अन्य रसायनिकों का धीमा जहर खाने और प्रदूषित जल पीने मजबूर है। अब समय आ गया है जब भूमि की  कम होती  उर्वरा शक्ति को बढ़ाने और उसे लंबे समय तक कायम रखने के लिए रासायनिक उर्वरकों की अपेक्षा प्राकर्तिक जैविक खादों का उपयोग करने के लिए किसानों को प्रेरित करें ताकि हमारी आने वाली पीढ़ियाँ स्वस्थ और तंदुरस्त रहें जिससे सुद्रढ़ समाज की व्यवस्था हो सकें। जलवायु परिवर्तन से उपजी पर्यावरणीय समस्याओं से निपटने के लिए भी जरूरी है कि हम रसायन रहित खेती  को  अपनाएँ और इसके लिए आवश्यक है कि हम अपनी परम्परागत प्राचीन पद्धत्ति जिसे जैविक खेती कहते है, की ओर अविलम्ब लौटें।  सुरक्षित वातावरण और जहरीले रसायन मुक्त शुद्ध-पौष्टिक भोजन के प्रति उपभोक्ताओं की बढ़ती जागरूकता की वजह से पिछले कुछ वर्षों से जैविक रूप से उत्पादित पदार्थों यथा भोज्य पदार्थ एवं हर्बल उत्पाद की विश्वव्यापी मांग में खासी बढ़ोत्तरी दर्ज़ की जा रही है।  
                जैविक खेती का प्रमुख सिद्धांत 'मृदा में जीवांश की पर्याप्त मात्र कायम करना' है। अब भारत में ही नहीं अन्य कई विकसित और विकासशील देशों में भी जैविक खेती का प्रचार- प्रसार तेजी  से हो रहा है। जैविक खेती के तहत जैविक खादों एवं जैव उर्वरकों जैसे गोबर की खाद, कम्पोस्ट, केंचुआ खाद, हरी खाद, जीवाणु खाद आदि का प्रयोग किया जाता है। पौध सरंक्षण के लिए फसल चक्र तथा जैविक दवाओं का उपयोग किया जाता है। जैविक खेती के इन आदानों को काम लागत से किसान आसानी से तैयार कर सकते है। जैवीय कृषि, जो कि कृषि का सबसे प्राचीन स्वरुप है, के ढेर सारे फायदे है जैसे की भूमि में इसका प्रभाव दीर्धकालिक होता है। मृदा की भौतिक,रासायनिक और जैविक दशा में सुधार के साथ-साथ वायु संचार बढ़ता है और तापमान भी नियंत्रित रहता है। मिट्टी  में लाभदायक जीवाणुओं की वृद्धि होने से फसलों व भूमि की सेहत में सुधार  होता है। जैविक खेती में जहाँ फसल उत्पादन की लागत कम आती हैं, वहीं हमारे प्राकृतिक संसाधनों जैसे मिट्टी, पानी और जैव विविधिता  का सरंक्षण भी होता है। इस प्रकार हम कह सकते है की जैविक खेती से भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ती है, वायु एवं जल प्रदुषण से सुरक्षा के साथ साथ, खेती की बाह्य लागतों में कमी, रोजगार सृजन, शुद्ध और पौष्टिक आहार प्राप्त होता है जिसकी आज हम सबको दरकार है।

जैविक खेती की जान-हम पांच 

                 जैवीय पोषण, सक्षम जैव उर्वरक व कीटनाशक, दलहनी और हरी खाद वाली फसलों का फसल चक्र और वानस्पतिक कीट-रोग नाशक सफल जैवीय उत्पादन के अपरिहार्य घटक ही नहीं जैविक खेती की जान है। जैविक खेती के माध्यम से उच्च उत्पादन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए निम्न पांच घटकों  का सफलतापूर्वक इस्तेमाल आवश्यक है। 
एक-केंचुआ खाद (वर्मीकम्पोस्ट): ज्यादातर जैविक खादें उचित मात्रा में सही समय पर उपलब्ध हो जाना संभव नहीं  हो पाता है और उस पर भी उनके  उचित गुणवत्ता युक्त ना होने से फसल उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। केंचुआ खाद यानि वर्मीकम्पोस्ट अन्य जैविक खादों की अपेक्षा अधिक उपयुक्त होता है क्योंकि इसे कम समय और सीमित लागत में आसानी से बनाया जा सकता है, जिसमे पोषक तत्वों के साथ-साथ सूक्ष्म जीवियों की अधिकता होती है। सभी कृषि प्रक्षेत्रों भारी मात्रा में कृषि अपशिष्ट मौजूद होते है।  इसी प्रकार शक्कर व गुड कारखानों में  गन्ना खोई और अन्य अपशिष्ट काफी मात्रा में उपलब्ध रहते है। इन सभी अपशिष्टों का  वर्मी कम्पोस्ट उत्पादन में प्रयोग कर किसान महंगे रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता काफी हद तक कम कर सकते है। 
दो-जैव उर्वरक : जैव उर्वरक जीवित अथवा सुप्त अवस्था वाले सूक्ष्म जीवाणुओं का वह समूह है जिनकी जैविक क्रियाओं के फलस्वरूप फसलों द्वारा पोषक तत्वों की उपलब्धता और अवशोषण बढ़ जाता है। विशिष्ट प्रकार के सूक्ष्म जीवी विशिष्ट पोषक तत्वों की उपलब्धता बढ़ाते है जैसे राइजोबियम, एज़ोटोबैक्टर और एजोस्पाइरिलियम नत्रजन स्थरीकरण करते है जबकि सूडोमोनास फॉस्फोरस की घुलनशीलता और वृद्धि बढ़ाते है।  उचित वातावरण एवं भूमि की दशाओं में जैव उर्वरकों द्वारा  20-200 किग्रा तक नत्रजन फसल को प्राप्त   जाती है।  इनके प्रयोग से  फसलोत्पादन में 10-25 प्रतिशत तक बढ़ोत्तरी संभावित है।   
तीन-जैव कीटनाशक: कीट एवं रोगों द्वारा फसलों को प्रति वर्ष करोड़ों की क्षति होती है, जिसमें  हेलिकोवेरपा नामक कीट से सर्वाधिक हाँनि होती है। ऐसी स्थिति उत्पन्न होने की वजह से बेरोकटोक जहरीले रसायनों का इस्तेमाल किया जाता है जिससे ना केवल मिट्टी और वायु प्रदूषित होती है वरन कृषि उत्पादों में भी इन हानिकारक जैविक, रसायनों का काफी अंश पहुँच जाता है जो की उपभोक्ताओं के स्वास्थ्य के लिए वेहद नुकसानदायक होता है। रासायनिक कीटनाशकों के दुष्प्रभाव से बचने के लिए जैविक कीट नियंत्रण (जैविक, प्रबन्धात्मक और जैविक रूप से मान्यता प्राप्त रसायनों द्वारा ) उपाय करना चाहिए। जैविक कीट शत्रु जैसे  परभक्षी (क्राइसोपेरिया),परजीवी (ट्राइकोग्रामा), जैव कीटनाशक जैसे ट्राइकोडर्मा, बैसिलस थ्रूनजिनेसिस, एन. पी. व्ही. आदि परदहां प्रदुषण मुक्त मूल्य प्रभावी जैव कीट व्याधि नाशक है।   
चार-हरी खाद: वे फसलें जिन्हे भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ाने के लिए खेत में उगाने के पश्चात जुताई कर खेत में मिला दिया जाता है, हरी खाद कहलाती है। हरी खाद के लिए ऐसी दलहनी फसलों का चयन किया जाता है जो सीमित अवधी में अधिकतम हरा पदार्थ पैदा करने करने में सक्षम हो सके। उदाहरण के लिए गर्मी व वर्षा ऋतू में ढैंचा और शरद ऋतू में बरसीम या लूसर्न को हरी खाद के लिए उगाया जाता है। हरी खाद के इस्तेमाल से भूमि की भौतिक सरंचना एवं उर्वरता में सुधार होता है।  साथ ही जैविक पदार्थ बढ़ने से मृदा में लाभकारी सूक्ष्मजीवों की संख्या में भी वृद्धि होती है। 
पाँच-वानस्पतिक कीट-रोग नाशक: प्रकृति में ऐसे अनेक पौधें पाये जाते है जिनमे पाये जाने वाले यौगिक कीटों एवं हानिकारक सूक्ष्मजीवों के लिए वृद्धि रोधी और घातक होते है। ऐसे पौधों से प्राप्त सत्व को वानस्पतिक कीटनाशक कहते है, जैसे नीम, तम्बाकू, बेशरम,आक,गाजर घांस, कनेर  आदि। जैव कीट नाशकों में तीव्र जैव अपघटन होता है जिसके कारण इनका प्रभाव देर तक नहीं रहता है। इसलिए इनसे प्रदुषण नहीं होता है।  
इस प्रकार से जैविक खेती के इन पांच घटकों के मिले जुले प्रयोग से हम गुणवत्ता युक्त एवं स्वास्थ्य वर्धक जैविक उत्पाद पैदा कर समाज को दे सकते है और आने वाली पीढ़ियों के लिए  प्रदूषण  मुक्त भारत   की परिकल्पना साकार करने में अपना योगदान दे सकते है।  अन्त में  हम प्रार्थना करते है की 'अन्नं ब्रह्म रसो विष्णुर्भोक्ता देवो महेस्वरः अर्थात अन्न ब्रह्म है, उसका रस विष्णु है व इसके भोक्ता भगवान शिव है।  अतः खाद्यान्न को प्रदूषित-जहरीला होने से बचाना है तभी मानव  एवं अन्य प्राणियों का वजूद  कायम रह सकता है। 

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