गुरुवार, 6 अप्रैल 2017

राजमा एक बेहतर आमदनी वाली दलहनी फसल

डॉ. गजेंद्र सिंह तोमर 
प्राध्यापक (शस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़) 


राजमा (फेसियोलस वल्गेरिस) को फ्रेंच बीन  कहते है। इसकी फलियां किडनी के आकार जैसी होती है, इसलिए इसे किडनी बीन के नाम से भी जाना जाता है ।  मटर एवं बरबटी की तरह राजमे की खेती भी  द्विउद्देश्य यानि  सब्जी एवं दाना के लिए की जाती है । स्वाद  और सेहत के लिहाज से राजमा की फलियां (बीन्स) सबसे महत्वपूर्ण होती है और इसकी जायकेदार सब्जी प्रायः सभी लोग बेहद पसंद करते है। अधिक मांग होने की वजह से बाजार में इसकी बीन्स सबसे मंहगे दामों में बिकती है। इसलिए राजमा को नकदी फसल के रूप में उगाया जाने लगा है।  नरम एवं गूदेदार फलियो वाली किस्मों का फ्रेन्चबीन के रूप में सब्जी के लिए तथा तुलनात्मक कड़ी फलियो वाली किस्मों को दाना के लिए उगाया जाता हैं। राजमा खाने में स्वादिष्ट और स्वास्थ्यवर्धक होता है और मुनाफे की दृष्टि से अन्य दलहनों से बेहतरीन फसल है।  राजमा के दानों में सामान्यतः 22.9 प्रतिशत प्रोटीन, 60.6 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट पाया जाता है। इसके 100 ग्राम दानों में 260 मिली ग्राम कैल्शियम, 410 मिली ग्राम फाॅस्फोरस एवं 5.8 मिली ग्राम लौह तत्व पाये जाते हैं जो मानव स्वास्थ्य के लिए बहुत ही उपयोगी हैं।

उपयुक्त जलवायु

          भारत के मैदानी क्षेत्रों में राजमा की खेती रबी ऋतु में की जाती है। इसकी फसल वृद्धि के लिए वातावरण का तापक्रम 20-25 डिग्री सेग्रे.  के मध्य होना उचित रहता है। राजमा की फसल अन्य रबी दलहनो की अपेक्षा पाले के प्रति अधिक संवेदनशील है।

भूमि  का चयन एवं खेत की तैयारी


          राजमा की खेती के लिए गहरे-हल्के गठन वाली बलुई दोमट से बुलई चिकनी मृदायें उपयुक्त रहती हैं। अधिक जल धारण क्षमता वाली छत्तीसगढ़ की डोरसा तथा कन्हार मिट्टियाँ उपयुक्त हैं। मृदा अभिक्रिया 6.5 से 7.5 उत्तम रहती है। लवणीय तथा क्षारीय मृदायें अनुपयुक्त रहती हैं। खेत में जल निकास की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए एवं खेत खरपतवार मुक्त होना चाहिये। भूमि में नमी की कमी होने पर पलेवा देकर खेत तैयार करना चाहिये। प्रथम जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से तथा 2 - 3 जुताईयाँ देशी हल या कल्टीवेटर से करने के पश्चात् पाटा चलाकर खेत समतल कर लेना चाहिए। दीमक से फसल सुरक्षा हेतु क्लोरपायरीफास 1.2 प्रतिशत 20 किलो प्रति हेक्टेयर की दर से अंतिम जुताई के समय मिट्टी में मिलाना चाहिए।


राजमा की उन्नत किस्में

उदय: यह बड़े दानों वाली किस्म है जिसके 100 दानों का वजन 44 ग्राम आता है तथा इसके दानों का रंग सफेद-चित्तीदार होता है। यह किस्म 125-130 दिनों में पककर तैयार हो जाती है तथा इसकी अधिकतम उत्पादन क्षमता 20 - 25 क्विंटल/हेक्टेयर हैं।
एच.यू.आर.-137: इसके दाने बड़े, भूरा-लाल रंग लिये तथा 100 दानों का वजन 45 ग्राम होता है। यह 100-110 दिनों में पककर औसतन 15-16 क्विंटल/हेक्टेयर उत्पादन देती है। 
व्ही.एल.60: यह खरीफ एवं रबी दोनों मौसम के लिये उपयुक्त हैं। इसके दानों का रंग भूरा एवं 100 दानों का वजन 36 ग्राम होता है। यह 110 - 115 दिन में पककर 15 - 20 क्विंटल/हेक्टेयर दाना उपज देती है।
एच.यू.आर.15: सफेद दानों वाली किस्म है। इसके 100 दानों का वजन 40 ग्राम है तथा 120-125 दिनों में पककर तैयार होती है। इसकी उत्पादकता 18 – 22 क्विंटल/हेक्टेयर है।

बुआई का समय

           राजमा के पौधों की अच्छी बढ़वार  और उपज के लिए सही समय पर बुआई करना आवश्यक है।  भूमि का तापमान 25 डिग्री सेग्रे. तापमान  आने पर राजमा की बुवाई करना चाहिए। समान्यतः यह तापमान अक्टूबर के तीसरे सप्ताह में आता है । सामान्यतौर पर 15 अक्टूबर से 15 नवम्बर राजमा की बुआई हेतु अनुकूल समय होता  है। इसके बाद बुआई करने पर उपज घट जाती है।

बीज दर एवं बीजोपचार

          अधिक उपज के लिए स्वस्थ एवं उच्च गुणवत्ता वाला बीज बुआई हेतु प्रयोग करना चाहिए। सामान्यतः 100 से 110 किलो ग्राम बीज प्रति हेक्टेयर का प्रयोग करते हैं। बड़े दानों वाली किस्मों, (100 दानों का वजन 35 - 40 ग्राम) का बीज 120 से 140 किलो प्रति हेक्टेयर प्रयोग करना चाहिए। फसल को बीज जनित रोगों से बचाने के लिए बुवाई से पूर्व बीज का शोधन फफूँदीनाशी रसायन जैसे थायरस या कार्बेन्डाजिम (बाविस्टीन 50 डब्लूपी) 3 ग्राम प्रति किलो ग्राम बीज के हिसाब से उपचारित करना आवश्यक है।

बोआई की विधि

          राजमा की बोआई हल के पीछे कूड़ों मे करनी चाहिए। कतार- से-कतार की दूरी 30 - 40 से. मी. तथा पौधे-से-पौधे की दूरी 10 से. मी. रखे। बीज को 8 से 10 से. मी. गहराई पर बोना चाहिए। इसके लिए पाटा चलाकर बीज ढकना चाहिए। राजमा की अच्छी पैदावार लेके के लिए 2.5 से 3.0 लाख पौधे प्रति हेक्टेयर उपयुक्त रहते है। यदि भूमि मंे नमी कम है तो राजमा की बुवाई पलेवा देकर अन्यथा बुवाई के बाद हल्की सिंचाई करना लाभप्रद रहता है।

खाद्य एवं उर्वरक

          राजमा की अधिक उप लेने के लिए खाद एवं उर्वरकों का प्रयोग करना आवश्यक है। गोबर की खाद या कम्पोस्ट 5-7 टन प्रति हेक्टेयर की दर से खेत की अंतिम जुताई के समय मिलाना चाहिए। अनय दलहनी फसलों की अपेक्षा राजमा में नत्रजन की अधिकमात्रा लगती है क्योंकि इसकी जड़ें उथली होने के अलावा वायुमण्डलीय नत्रजन स्थिरीकरण के लिए आवश्यक ग्रन्थियाँ इसकी जड़ो मे नही पायी जाती है। सामान्यतः 100 किलो  नत्रजन, 60 किलो स्फुर, 20 किलो पोटाॅश तथा 20 किग्रा. जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर देना चाहिए। नत्रजन की आधी मात्रा तथा स्फुर, पोटाश और जिंक सल्फेट की पूरी मात्रा बुवाई के समय कूड़ों में बीज के नीचे प्रयोग करना चाहिए। नत्रजन की शेष आधी मात्रा पहली सिंचाई के समय खड़ी फसल में देना लाभप्रद पाया गया है।

सिंचाई एवं जल निकास

          राजमा कि जड़ें उथली होने के कारण नम भूमि एव अधिक पानी की जरूरत पड़ती है। राजमा को 25 दिन की अन्तराल से तीन - चार सिंचाईयों (बुआई के 25, 50, 75 तथा 100 दिन बाद) की आवश्यकता पड़ती है।  सिंचाई हल्की करें  तथा खेत में पानी रूकना नहीं चाहिए। अतः समुचित जल निकास आवश्यक है।

खरपतवार नियंत्रण

          खरपतवार नियंत्रण के लिए राजमा की फसल में 1 - 2 निराई- गुड़ाई की आवश्यकता पड़ती है। पहली निंदाई  प्रथम सिंचाई के बाद करना चाहिए। गुड़ाई के समय पौधों पर थोड़ी मिट्टी चढ़ाना लाभप्रद रहता है। खरपतवार के रासायनिक नियंत्रण हेतु पेन्डीमेथलीन 0.75 से 1.0 किग्रा. प्रति हेक्टेयर को 500 - 600 लिटर पानी में घोल कर बुवाई के तुरंत बाद (अंकुरण से पूर्व) छिड़काव करना चाहिए। छिड़काव के समय भूमि में पर्याप्त नमी होनी चाहिये।

कटाई-गहाई एवं उपज 

          आमतौर पर अक्टूबर-नवम्बर में फसल पक जाती है। राजमा की फल्लियाँ पीली पड़कर पकने लगें तब कटाई करना चाहिए अन्यथा फल्लियाँ चटकने लगती हैं। कटाई करके फसल को सुखाकर गहाई की जाती है तथा दानों को खुली धूप में सुखा लेना चाहिए। आमतौर पर राजमा की उन्नत खेती से 25 - 30 क्विंटल/हेक्टेयर दानों की उपज प्राप्त हो जाती है। 

रविवार, 2 अप्रैल 2017

जावा घास एक बार लगाएँ फिर चार साल तक आमदनी पाएँ

डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर 
प्राध्यापक (शस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)  

       सिट्रोनेला (सिम्बोपोगाॅन विन्टेरियेन्स) जिसे आमतौर पर जावा घास के नाम से जाना जाता है,  एक महत्वपूर्ण  सगन्धीय  बहुवर्षीय घास है । इसकी ऊँचाई लगभग 1.5 से 2 मीटर तक होती हैै। पुष्पन के पूर्व तक इसमें तना नहीं होता है। पत्तियाँ लम्बी, अरोमिल, अंदर की तरफ लाल रंग की 40-80 सेमी. लंबी और 1.5-2.5 सेमी चौड़ी होती है।  इसमें सितम्बर-नवम्बर माह में पुष्पन होता है।  इसकी पत्तियों से जल आसवन द्वारा बहुपयोगी तेल प्राप्त किया जाता है। 
सिट्रोनेला एक बहुपयोगी घांस 
सिट्रोनेला घास कटु, उष्ण, स्वदजनन, मूत्रजनन, उत्तेजक, चातनाकारक, ज्वरध्न होती है, साथ ही आमवात, ज्वर, कफ विकारों में उपयोगी होती है। इसकी पत्तियों के आसवन द्वारा तेल निकाला जाता हैै जिसमें सिट्रोनेल, सिट्रोनेलोल, जिरेनियाल सिट्रोनेलाल एसिटेट आदि प्रमुख रासायनिक घटक होता है। जावा सिट्रोनेला के तेल में 32-45 प्रतिशत सिट्रोनेलाल, 12-18 प्रतिशत जिरेनियाल, 11-15 प्रतिशत सिट्रनिलोल, 3-8 प्रतिशत जिरेनयाल एसीटेट, 2-4 प्रतिशत सिट्रोनेलाइल, 2-5 प्रतिशत लाइमोनीन, 2-5 प्रतिशत एलीमोल तथा अन्य एल्कोहल आदि घटक पाये जाता है। इन्ही रासायनिक घटकों के कारण इसका उपयोग साबुन एवं सौन्दर्य प्रसाधन सामग्री निर्माण में  सुगन्ध हेतु किया जाता है। इसके तेल से जिरेनियाल तथा हाइड्राक्सी सिट्रोनेलल जैसे सुगंधित रसायनों का भी संश्लेषण होता है। इसका उपयोग आडोमाॅस (मच्छर प्रतिकारी क्रीम), एंटीसेप्टीक क्रीम निर्माण एवं दुर्गन्ध दूर करने में भी होता है।

 
गर्म जलवायु में बेहतर फसल 

          उपोष्ण जलवायु वाले 70 - 80 प्रतिशत आर्द्रता वाले क्षेत्रों में इसकी खेती सफलतापूर्वक की जाती है। जावा घास की खेती के लिए गर्म जलवायु (10 - 35 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान), तेज धूप तथा 200 से 250 सेमी. वार्षिक वर्षो वाले क्षेत्र अधिक उपयुक्त होते है। छायादार स्थानों में सिट्रनेला की वृद्धि कम होती है, पत्तियाँ कड़ी हो जाती है जिससे तेल की मात्रा तथा जिरानियाल की मात्रा घट जाती है। अधिक सर्दी और हिमपात का इस फसल पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ की जलवायु इसकी खेती के लिए उपयुक्त है।
हर प्रकार की भूमिओं में करे खेती 
          समुचित जलनिकास  वाली बलुई दोमट तथा दोमट मिट्टी जिसका पी. एच. मान 6 - 7.5 के मध्य हो, उपयुक्त पाई गई है। अम्लीय (पीएच 5.8) एवं क्षारीय भूमि (पीएच 8.5) में भी इसकी खेती की जा सकती है। सिट्रोनेला एक लम्बे अवधि की फसल है जो लगातार 5 वर्ष तक उत्पादन देती है। अतः अच्छी पौध वृद्धि और ज्यादा  उपज के लिए खेत की अच्छी तरह जुताई आवश्यक है। खेत की 2 - 3 बार गहरी जुताई कर पाटा से समतल करके छोटी - छोटी क्यारियों में विभक्त कर लेते है। फसल लगाने के पूर्व 20 - 25 किग्रा. क्लोरपायरीफाॅस प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में मिला देना चाहिए जिससे दीमक आदि कीटों का प्रकोप रोका जा सकता है।
उन्नत किस्में ही लगाएं 
          सिट्रोनेला की दो प्रजातियाँ होती है। (1) जावा सिट्रोनेला (सिवोपोगाॅन विंटेरिएनस जेविट: इसका तेल सगन्ध तेलों में श्रेष्ठ माना गया है और सुगंधित रसायनों का एक प्रमुख स्त्रोत है। 
(2) सीलोन किस्म (सिम्बोपोगाॅन नार्डस रैंडल): इसके तेल में जिरेनियाल की मात्रा अपेक्षाकृत कम होती है। 
जावा सिट्रोनेला की प्रमुख किस्मो में मंजूशा, मंदाकिनी, बायो -13 तथा जल-पल्लवी किस्मों को केन्द्रीय औषधिय एवं सगंध पौधा संस्थान, लखनऊ द्वारा विकसित की गई है। इनमें से बायो - 13 ऊतक संवर्धन तकनीक से विकसित की गई है।
प्रवर्धन एवं बुआई
          सिट्रोनेला घास का प्रवर्धन सिल्प्स (कल्लों) द्वारा किया जाता है। दो  वर्ष  पुरानी फसल के जुड्डे (क्लम्प) उखाड़कर उनसे एक-एक स्वस्थ सिल्प को अलग कर लिया जाता है। इसके बाद स्लिप के नीचे सूखी पत्तियां एवं लगभग 4-5 सेमी.  लम्बी जड़ छोड़कर शेष जड़ काट दें। अब  ऊपर से लगभग 15 सेमी. पत्तियां काट देने के बाद स्लिप तैयार हो जाती है। एक वर्ष के स्वस्थ्य पौध से लगभग 60 से 80 स्लिप्स या कल्ले बनते है। सिट्रोनेला की रोपाई बरसात के आरम्भ में अर्थात जुलाई-अगस्त में की जाती है। सिंचाई के पर्याप्त साधन उपलब्ध होने पर  फरवरी-मार्च  अक्टूबर-नवम्बर में भी इसे  रोपा जा सकता है।
          जुलाई के प्रारंभ में 60 x  30 सेमी. के अंतर से कल्ले  (स्लिप) 15 - 20 सेमी. की गहराई पर कतार में लगाई जाती है। कम उपजाऊ मृदा  में 60 x  45 सेमी. की दूरी पर लगाना चाहिए। यदि वर्षा न हो तब लगाने के बाद सिंचाई करेें। एक हेक्टेयर में रोपाई  के लिए लगभग 50,000 स्लिप्स (कल्ले) पर्याप्त होती है। रोपाई करते समय सिल्प (कल्म) पूरी तरह से जमींन के अंदर दबाना चाहिए अर्थात कल्म की कोई भी इंटरनोड (गांठे) भूमि के ऊपर नहीं रहना चाहिए क्योंकि नई जड़ो का विकास इन गांठों से ही होता है।रोपाई के बाद लगभग 30 दिन तक भूमि में नमीं  कमीं नहीं होना चाहिए। उपयुक्त परिस्थितियों में रोपाई से लगभग 2 सप्ताह में सिल्प्स से पत्तियाँ निकलनी प्रारंभ हो जाती है। मुख्य रोपाई  के समय कुछ स्लिप नर्सरी में अलग से रोपना चाहिए। इनका इस्तेमाल बाद में खाली स्थान भरने के लिए किया जाना चाहिए। 
इसे भी दें खाद एवं उर्वरक
         सिट्रोनेला घास में पानी  अलावा पोषक तत्वों की समुचित उपलब्धता भी अहम् भूमिका निभाती है।  खाद एवं उर्वरक की मात्रा मृदा उर्वरता पर निर्भर करती है। खेत में पर्याप्त मात्रा में जीवांश पदार्थ होना चाहिए। मृदा में जीवांश पदार्थ की कमी होने पर रोपाई के 15-20 दिन पहले  खेत में गोबर की खाद या कम्पोस्ट मिलाना चाहिए। इसके अलावा   सिट्रोनेला की  अच्छी उपज के लिए 80 किग्रा. नत्रजन, 40 तथा 30 किग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष देना चाहिए। सम्पूर्ण फाॅस्फोरस व पोटाश को रापाई के समय आधारभूत खुराक के रूप में  दिया जाना चाहिए। नत्रजन को 4 बराबर मात्रा में बाँटकर रोपाई के 1 महीने बाद तथा प्रत्येक कटाई के बाद देना चाहिए। सिट्रोनेला की पत्तियों पर यूरिया का छिड़काव लाभप्रद रहता है। कम उपजाऊ मृदा में उर्वरकों की अधिक मात्रा देना चाहिए। मृदा परीक्षण करने के बाद आवश्यकता पड़ने पर सूक्ष्म तत्व जैसे लोहा एवं जिंक की संतुलित मात्रा का प्रयोग करना चाहिए।
खरपतवार नियंत्रण
          वर्षा ऋतु में खरपतवारों का प्रकोप अधिक होता हे। इनके नियंत्रण के लिए फसल रोपने के 20-25 दिन बाद पहली निंदाई-गुड़ाई  तथा दूसरी निंदाई रोपाई के  60 - 65  दिन बाद करना चाहिए। प्रत्येक निदाई और कटाई के बाद पौधों पर  हल्की मिट्टी चढ़ाना चाहिए। बलुई दोमट मिट्टी में नींदानाशक दवा डाइयूरान को 1 किग्रा. 500 - 600 लीटर पानी में घोलकर रोपाई के समय  छिड़काव करने से काफी हद तक खरपतवार नियंत्रण रहते है।
सिंचाई एवं जल निकास दोनों  आवश्यक 
          जावा घास की फसल के लिए सिचाई और जल निकास की उचित व्यवस्था करना अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि यह फसल पानी की अधिकता या कमीं दोनों से ही प्रभावित होती है। अच्छी बढ़त एवं पत्तियो की अधिक पैदावार के लिए खेत में पर्याप्त नमी की आवश्यकता होती है। अतः  नये कल्ले रोपण से लेकर 100-120  दिन तक नमीं की कमी नहीं होना चाहिए।  जहाँ पर वर्षा कम होती है वहाँ 4 से 8 बार सिंचाई की आवश्यकता होती है। शुष्क ऋतु में प्रत्येक कटाई के बाद 15 से 20 दिन के अंतर से सिंचाई करना आवश्यक होता है। रोपाई के समय वर्षा न होने पर सिंचाई अवश्य करें। ध्यान रखें सिंचाई हल्की करें तथा  जल निकास का समुचित प्रबंध रखना आवश्यक है।
फसल की कटाई
          जावा घास की  कटाई से पूर्व खेत से खरपतवार निकालना आवश्यक है। बुआई के लगभग 120 दिन उपरान्त यह फसल प्रथम कटाई के लिए तैयार हो जाती है। इसके बाद 75 से 90 दिन के अंतर से आगामी कटाइयाँ ली जाती है। फसल की कटाई, भूमि की सतह से 20-40  से.मी. ऊपर (तने के वृद्धि बिन्दु के ठीक ऊपर) से प्रातः काल के समय करना चाहिए। व्यापारिक दृष्टि से इस फसल से 3 से 4 वर्ष  तक अच्छी पैदावार ली जा सकती है। वर्षा ऋतु में फसल की कटाई नहीं करना चाहिए। इस फसल से 3 - 4 कटाइयाँ प्रतिवर्ष ली जा सकती है।
प्रसंस्करण
         फसल कटाई के पश्चात् पत्तियों के अतिरिक्त जल को समाप्त करन के लिए उन्हे छाया में थोड़ा (एक दिन) सुखा लिया जाता है। नम मौसम में पत्तियों को रैक पर सुखाया जाना चाहिए जिससे उनमें फफूँदी न लग सक। सुखाने से आसवन कम समय में हो जाता है। सिट्रोनेला की पत्तियों से तेल वाष्प आसवन या जल आसवन विधि द्वारा निकाला जाता है। सूखी पत्तियों को चुनकर अलग कर  देने के पश्चात् शेष घास को छोटे - छोटे टुकड़ों में काटकर आसवन करने से अधिक तेल मिलता है। आसवन कक्ष में वाष्प 40 से 100 पाउण्ड/इंच के दबाव पर छिद्रित कुंडलियों के द्वारा प्रेषित की जाती है।
हरी घांस और तेल की उपज

          सिट्रोनेला की पत्तियों में सूखे भार का 1 प्रतिशत तेल पाया जाता है। उपयुक्त जलवायु और उचित शस्य प्रबंधन से  प्रथम वर्ष में 5 से 6  टन हरी घास जिससे  100 कि.ग्रा. तेल/हे. एवं बाद के वर्षों में 200-300 कि.ग्रा. तेल / हे. प्राप्त होता है।  सामान्यतौर पर 4-5 वर्ष तक इसकी खेती करना आर्थिक दृष्टि से लाभदायक होता है।


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ऐसे करें बहुपयोगी सगंधीय घांस पामारोशा की खेती

डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर 
प्राध्यापक (शस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)
          पामारोशा घास की पत्तियों व पुष्प से जिरेनियम नामक बहुपयोगी  तेल प्राप्त होता है जिसमें गुलाब जैसी सुगंध आती है। इस तेल में फैल्लेन्डीन नामक तत्व होता है। इसका स्वाद अदरक की तरह होता है। रोशा तेल का उपयोग साबुन, अगरबत्ती,  श्रृंगार सामाग्री एवं इत्र निर्माण में होता है। इसका तेल हल्का पीला होता है जिसमें 75 - 85 प्रतिशत तक जिरेनियाल तथा जिरैनिल एसीटेट 4 से 15 प्रतिशत पाया जाता हैै जो सुगंधीय द्रव्य बनाने वाले उद्योगों में उपयोग होता है। गर्म तासीर के कारण इसके तेल की मालिश घुटनों तथा जोड़ों के दर्द को कम करने के लिए की जाती है। भारत प्रमुख उत्पादक देश है तथा तेल का निर्यात होता है। प्राकृतिक रूप से उगने वाली इस घास की उपयोगिता को देखते हुए अब इसकी व्यापारिक खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है।
पामारोशा घांस का परिचय 


         रोशा या पामारोशा (सिम्बोपोगान मार्टिनी) पोएसी कुल की एक  बहुवर्षीय सुगंधीय तेल धारक घास है। यह घांस लगभग 1.5 से 2 मी.   बढ़ती है। इसकी पत्तियाँ 25 सेमी. लम्बी व 1.5 से 2 सेमी. चैड़ी हल्के हरे रंग की  होती है।तना पीला होता है। पुष्प क्रम कक्षस्थ होता है तथा शीर्ष भाग में 20 से 45 सेमी. तक ऊपरी भाग की 8 से 10 पर्व संधियों पर स्थित रहता है। प्रत्येक पुष्प क्रम की लम्बाई 4-10 सेमी. होती है। कल्लों की संख्या 20 से 150 तक होती है। पुष्क क्रम का रंग हल्का पीला होता है।
उपयुक्त जलवायु
          पामारोजा गर्म उष्ण कटिबंधीय जलवायु की फसल है।  ऐसे क्षेत्र जहाँ वर्ष में तापमान 30 - 40 डिग्री सेल्सियस हो तथा 150 से. मी. सुवितरित वार्षिक वर्षा के साथ - साथ प्रचुर मात्रा में धुप उपलब्ध हो, पामारोजा की खेती के लिए उपयुक्त माने जाते है। कोहरा पड़ने वाले क्षेत्र रोशा की खेती के लिए उपयुक्त नहीं होते है।
सभी भूमिओं में खेती संभव 
          यह घास कम उपजाऊ रेतीली, मुरमयुक्त भूमि से लेकर ऊँची - नीची और लवणीय भूमि में आसानी से उगाई जा सकती है। बलुई दोमट भूमि जिसमें जलनिकास की समुचित व्यवस्था हो इसकी खेती के लिए सर्वाेत्तम रहती है। भूमि का पी. एच. मान 6-7 होना चाहिए।  खेत की तयारी के लिए वर्षा आगमन से पूर्व एक बार गहरी जुताई करने के पश्चात् देशी हल से खेत की जुताई करनी चाहिए। पाटा चलाकर खेत को समतल कर लेना चाहिए। फसल की दीमक और अन्य भूमिगत कीड़ो से सुरक्षा हेतु अंतिम जुताई के समय 20 किग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से क्लोरपायरीफास अच्छी तरह खेत में मिला देना चाहिये।
उन्नत किस्में
          पामारोजा की प्रमुख  उन्नत किस्मों में मोतिया, सोफिया, तृष्णा, पी. आर. सी. - 1, वैष्णवी और जामा रोशा लोकप्रिय है।
बोवाई और रोपाई
          पामारोजा को बीज से पौध तैयार कर तथा  जड़ों की कटिंग (स्लिप) से अथवा बीज को सीधे खेत में बोया जा सकता है। पौध तैयार करने के लिए 2.5 - 5 कि. ग्रा. बीज को 4 से 5 गुना भुरीभुरी मिट्टी में मिलाकर छोटी - छोटी क्यारियों  में मई - जून में बो देते है। हल्की गुड़ाई करके बीज को मिट्टी में मिलाने के बाद फब्बारे से सिंचाई कर देते है। इसके बाद आवश्यकतानुसार क्यारी विधि से सिंचाई की जा सकती है। बुआई के लगभग 30 - 40 दिन बाद जब पौधे लगभग 15 - 20 सेमी. हो जाये तो उन्हे सावधानी से उखाड़कर तैयार खेत में कतारबद्ध तरीके से 60 से 64 सेमी. की दूरी पर पंक्तियो में रोपित करना चाहिए। पंक्तियों में पौध - से - पौध की दूरी 25 से 30 सेमी. रखना चाहिए। पौध को 10 - 15 सेमी. गहराई पर रोपना उचित रहता है। वर्षा प्रारंभ होने पर खेत में रोपाई करना चाहिए।
स्लिप या कल्लों के द्वारा रोपण : पुरानी फसलों के कल्ले या स्लीप के द्वारा भी 45 - 60 सेमी. के अंतर पर जुलाई से मध्य अगस्त तक रोपाई करते है। इसके लिए प्रति हेक्टेयर लगभग 40,000 स्लिप्स की आवश्यकता होती है।
बीज की सीधी बोआई : बीज को सीधा खेत में बोने के लिए 8 - 10 किग्रा. बीज को 15 - 20 गुना रेत या नम मिट्टी में मिलाकर जून - जुलाई में 50 - 60 सेमी. की दूरी पर बनी कतारों में बोना चाहिए। कूड़ों की गहराई 2 - 3 सेमी. से अधिक नहीं होना चाहिए।
खाद एवं उर्वरक
          पामारोजा सदाबहार बहुवर्षीय घास होने के कारण इसे अधिक मात्रा में पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है।  बोनी के समय 40 किग्रा. नत्रजन, 50 किग्रा. स्फुर तथा 40 किग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर कूड़ों में देना चाहिए। इसके अतिरिक्त 60 किग्रा. नत्रजन को दो बराबर भाग में बाँटकर फरवरी व अगस्त में जड़ों के पास देना चाहिए।
खरपतवार नियंत्रण
          प्रारंभिक अवस्था  में फसल के साथ उगे खरपतवारों की निंदाई करना आवश्यक होता है। डायूरान 1.5 किग्रा. या आक्सीफ्लोरफेन 0.5 किग्रा./हे. का छिड़काव करने से भी नींदा नियंत्रण होता है। प्रत्येक कटाई के बाद कतारों के बीच में हल चलाने से लाभ होता है।
अधिक उपज के लिए सिंचाई
          पामारोजा को असिंचित अवस्था में भी उगाया जा सकता है परंतु सिंचाई सुविधा होने पर शुष्क ऋतु में 2 सिंचाई तथा ग्रीष्म ऋतु में 3 - 4 सिंचाई करने से उपज में बढ़ोत्तरी होती है। रोपाई के बाद यदि वर्षा न हो तब सिंचाई करना आवश्यक हो जाता है।
फसल की कटाई
           पामारोजा के हर भाग में तेल होता है। इसके फूल में सबसे अधिक तेल होता है। सिंचित क्षेत्रों में वर्ष में तीन (सितम्बर - अक्टूबर, फरवरी - मार्च एवं मई - जून) एवं असिंचित अवस्था मे दो कटाई ली जा सकती है। कटाई का उपयुक्त समय पुष्प खिलने के समय से अधपके बीज की अवस्था तक होता है। जब पुष्पक्रम हल्के बादामी रंग का हो जाए उस समय फसल को 20 - 25 सेमी. जमीन के ऊपर से हँसिए द्वारा काट लिया जाता है। कटी हुई फसल को छोटे - छोटे गट्ठर बनाकर छाँवदार जगह में एकत्र कर लेना चाहिए तथा उनका आसवन विधि से तेल निकाल लेना चाहिए।
उपज एवं आसवन
          प्रथम वर्ष में पौधों की बढ़वार व फैलाव कम होने से उपज कम प्राप्त होती है। सिंचित क्षेत्रों में तीन कटाइयों से औसतन 200 किग्रा. तेल तथा असिंचित अवस्था में दो कटाईयों से लगभग 75 किग्रा. तेल प्रति हे. प्रति वर्ष प्राप्त किया जा सकता है। रोशा घास में सबसे अधिक तेल इसके पुष्पकुंजो व पत्तियों में पाया जाता है। पूरे पौधे में औसतन तेल की मात्रा लगभग 0.5 से 0.6 प्रतिशत होती है। जल आसवन द्वारा पामारोजा तेल 3 - 4 घंटे में पूरी तरह निकल आता है।


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गुरुवार, 30 मार्च 2017

औषधीय फसल-सफेद मूसली की वैज्ञानिक ढंग से खेती


            सफेद मूसली  (क्लोरोफाइटम बोरिविलिएनमली) लिलीयेसी कुल का एक कंदयुक्त पौधा है जिसकी अधिकतम ऊँचाई 45 सेमी. तक होती है तथा इसकी कंदिल जड़ें (कंद या फिंगर्स) जमीन से अधिकतम 25 सेमी. तक नीचे जाती है। इसके बीज बहुत छोटे, काले रंग के प्याज के बीज के समान होते है।इसका उपयोग बलवीर्य एवं पुरूषत्व वर्धक के रूप में होता है। सफेद मूसली में किसी भी कारण से आई शरीरिक शिथिलता को दूर करने की क्षमता पाई जाती है। इसमें एंटीऑक्सीडेंट और विटामिन-सी भरपूर मात्रा में पाए जाते। है।  इसके सेवन से शरीर में कोलेस्ट्रॉल स्तर संतुलित रहता है और शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। शुगर के मरीजो के लिए मूसली उत्तम दवा मानी जाती है।  इसका इस्तेमाल लगभग  सभी आयुर्वेदिक टानिकों जैसे च्यवप्राश आदि तैयार करने में किया जाता है । इसके अलावा माताओं का दुध बढ़ानेप्रसवोपरान्त होने वाली बीमारियों,  शारीरिक शिथिलता को दूर करने व मधुमेह आदि जैसे असाध्य रोगों के उपचार में आने वाली विभिन्न औषधि निर्माण में सफेद मसली का प्रयोग किया जाता है। अत्यधिक पौष्टिक तथा बलवर्धक होनेे के कारण इसे दूसरे शिलाजीत की संज्ञा दी गई है। चीन और अमेरिका में पाये जाने वाले पौधे जिन्सेंग (पेनेक्स) जितना बलवर्धक माना गया है। विश्व बाजार में सफेद मसूली की अत्यधिक माँग होने के कारण इसकी खेती के अन्तर्गत क्षेत्र विस्तार और प्रति इकाई उत्पादन बढ़ाने की आवश्यकता है।  

सफ़ेद मूसली की उपयोगी प्रजातियां 

सफेद मूसली की विश्व में  लगभग 175 प्रजातियाँ पाई जाती हैपरन्तु औषधीय गुण वाली प्रमुख चार जातियाँ है :
1. क्लोरोफाइटम बोरिविलिएनम: यह प्रजाति सामान्यतः सागौन के वनों में छत्तीसगढ़ में बहुतायत में पाई जाती है। इसकी जड़ों की मोटाई प्रायः एकसमान, बेलनाकार ही होती है तथा नीचे की ओर क्रमशः पतली होती जाती है। इसकी मूल गुच्छे में आधार पर संलग्र रहती है। इसकी लम्बाई 10 - 15 सेमी. होती है। अधिक खाद देने पर ये 20 - 25 सेमी. लंबी  हो जाती है।
2. क्लोरोफाइटम लेक्सम: क्लोरोफाइटन लेक्सम की मूल भी आधार से गुच्छे के रूप में निकलती है परंतु प्रारंभ में ये धागे के समान पतली होती है और अंत में ये एकाएक फूल जाती है तथा छोर पर पुनः धागे के समान पतली हो जाती है। इन फुली हुइ जड़ों पर झुर्रियाँ होती है।
3. क्लोरोफाइटम अरून्डीनेशियम: इसकी मूल भी लेक्सम के समान ही होती है परंतु इसकी मूल का फूला हुआ हिस्सा चिकना होता है उसमें लेक्सम के सदृश्य झूरियाँ नहीं होती हैं तथा उसकी तुलना में मूल का आकार बड़ा होता है। यह प्रजाति छत्तीसगढ़ के साल वृक्ष के जंगलों में अधिक पाई जाती है।
4. क्लोरोफाइट ट्रयूबरोजम: इसकी मूल भी आधार से गुच्छों के रूप में निकलती है परंतु आधार से निकलकर से धागे के समान पतली होती हैं। इस पतले हिस्से की लंबाई अरून्डीनेशियम एवं लेक्सम प्रजाति की तुलना में अधिक होती है तथा अंत में फूला हुआ हिस्सा दोनों प्रजातियों की तुलना में अधिक बड़ा तथा इसकी सतह चिकनी होती है पर्ण लंबे व अन्य प्रजातियों की तुलना में चैड़े होते हैं।
          सफ़ेद मूसली की गुणवत्ता  के आधार पर इसकी क्लोरोफाइट अरूनडीनेशियम प्रजाति सबसे अच्छी मानी जाती है परन्तु क्लोरोफाइट बोरिविलिएनम प्रजाति की  खेती अधिक प्रचलित है। भारत के विभिन्न प्रदेशो जैसे- बिहार, झारखण्ड, मणिपुर, उउ़ीसा, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, महाराष्ट्र केरल, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ के शुष्क एवं उष्ण मिश्रित वनों में प्राकृतिक रूप से सफ़ेद मूसली उगती  है। मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ के जंगलों में यह पौधा बरसात में स्वतः उग जाता है जिसे उखाड़कर आदिवासी लोग बाजार में बेते हैं। जंगलो की निरंतर कटाई और वनोषधियों की बढ़ती मांग के कारण जंगलो से इनका अवैद्य दोहन होने लगा है जिसके कारण अनेको औषधीय प्रजातियां विलुप्ति के कगार पर है।  सफ़ेद मूसली की स्वास्थ्य के क्षेत्र में  निरंतर  बढ़ती  मांग के कारण इसकी  व्यवसायिक स्तर पर खेती  की  जाने लगी है। सफ़ेद मूसली से प्रति इकाई अधिकतम उपज प्राप्त करने के लिए इस ब्लॉग पर प्रस्तुत शस्य तकनीक का अनुशरण करना चाहिए।  

खेती के लिए उपयुक्त जलवायु

            सफ़ेद मसूली एक कंदरूपी पौधा है जो कि छत्तीसगढ़ व अन्य प्रदेशों के जंगलों में प्राकृतिक रूप से उगता है। यह समशीतोष्ण जलवायु वाले वन क्षेत्रों में प्राकृतिक रूप से पाई जाती है। इसको 800 से 1500 मि.मी. वर्षा वाले क्षेत्रों में वर्षा पर आधारित फसल के रूप उगाया जा सकता है। इसे छितरी छाया अधिक नमी वाली  उर्वरा भूमि की आवश्यकता होती है। सफ़ेद  मसूली की फसल को तेज धूप व तेज हवाओं से सुरक्षित करना आवश्यक होता है ।

भूमि का चुनाव और खेत की तैयारी

            उपयुक्त जल निकास वाली हल्की, रेतीली, दोमट, लाल  वाली भूमि इसकी खेती के लिए अच्छी मानी गई। पथरीली मिट्टी में जड़ों की वृद्धि कम होती है। यह पहाड़ों के ढलानों तथा अन्य ढालू भूमि में भी सफलता पूर्वक उगाई जा सकती है। भूमि का पी.एच. 6-7 होना चाहिए।  रबी की फसल काटने के बाद ग्रीष्म ऋतु में  जैविक खाद डालने के बाद  मोल्ड बोल्ड प्लाऊ से खेत की गहरी जुताई करनी चाहिये। जुताई करने के बाद 2 बार कल्टीवेटर चलायें जिससे खरपतवार व उनकी जड़ें सूख जाय। उसके बाद डिस्क हैरो  चलाकर खेत की मिट्टी भुरभुरी कर लेनी चाहिए। तदोपरांत पाटा चलाकर खेत को समतल कर लिया जाता है। उसके बाद 2 मी. चौड़ी तथा 10 मी. लंबी एवं 20 सेमी. ऊँची  क्यारियाँ बना लेना चाहियेे। एक  क्यारी से दूसरे के बीच में 50 सेमी. का अंतर रखने से निंदाई-गुड़ाई कार्य में आसानी होती है। जल निकास हेतु आवश्यक नालियाँ भी बनाना आवश्यक होता है।

उर्वरकों की जगह जैविक खाद का इस्तेमाल 

           जैविक पद्धति से उगाई गई सफ़ेद मूसली का बाजार में बेहतर भाव मिलता है।  उत्तम गुणवत्ता की सफेद मसूली प्राप्त करने के लिए जैविक खाद का प्रयोग किया जाता है। अच्छी प्रकार से सड़ी हुई गोबर की खाद या कम्पोस्ट अधिक-से-अधिक मात्रा में देने से अधिक मूल की उपज ली जा सकती है। सामान्यतः ग्रीष्म ऋतु में 10 से 15 टन गोबर की खाद/हेक्टेयर खेत में समान रूप से डालकर खेत तैयार  करना चाहिए। कच्ची खाद डालने से मूल में सड़न/गलन रोग का प्रकोप हो जाता है तथा पौधे मर सकते हैं। केंचुआ खाद या हरी खाद के प्रयोग से  सफेद मसूली का अच्छा उत्पादन लिया जा सकता है।

रोपाई के उपयुक्त समय 


            मानूसन की वर्षा प्रारंभ होने पर जुलाई में इसकी रोपाई संपन्न कर लेना चाहिए  है। शीत या ग्रीष्म ऋतु में सफ़ेद मूसली  सुसुप्ता अवस्था में रहती है अतः इन ऋतुओं में इसे नही लगाना चाहिए। वर्षा प्रारंभ होते ही पत्तियाँ निकल आती हैं व पौधे  वृद्धि करने लगते है। प्रसुप्ति काल समाप्त होते ही भंडारित ट्सूबर्स (फिंगर्स) की कलियों की वृद्धि प्रारंभ हो जाती हैजिसे उनके रोपण का उपयुक्त समय समझना चाहिए।

उपयुक्त बीज और बुआई 

            सफेद मसूली का प्रवर्धन (प्रसारण) इसके घनकन्दों द्वारा होता है। इसकी डिस्क या अक्ष में जो कलियाँ होती हैं उन्ही को बीज के रूप में उपयोग करते हैं। पूर्व की फसल से निकाले गये कंदों का उपयोग भी किया जा सकता है। बीज के लिए फिंगर्स (ट्यूर्बस) का उपयोग करते हुए यह बात अवश्य ध्यान में रखे कि फिंगर्स के साथ पौधे की डिस्क का कुछ भाग अवश्य साथ में लगा रहे तथा फिंगर (ट्यूबर) का छिलका भी क्षतिग्रस्त नहीं होना चाहिए अन्यथा पौधे के उगने में कठिनाई होगी। अच्छी फसल लेने के लिए ट्यूबर (फिंगर) का वजन 5-10 ग्राम होना चाहिए। अच्छी फसल के लिए उत्तम गुणवत्ता वाला प्रामाणिक बीज किसी विश्वसनीय संस्थान से लेना चाहिए। एक हेक्टेयर के लिए  लगभग 2 लाख (लगभग 10-15 क्विण्टल) बीज (क्राउनयुक्त फिंगर्स) पर्याप्त रहता है। इतना अधिक बीज (फिंगर्स) एक बार खरीदने में अधिक खर्च आता है। अतः प्रथम बार केवल 1/4 एकड़ अथवा 1000 वर्ग मीटर क्षेत्र में रोपाई की जा सकती है। इससे लगभग 6 क्विंटल  नये पौधे तैयार हो जाते हैं जिन्हें आगामी वर्ष रोपने हेतु उपयोग में लाया जा सकता है।

रोपाई करने की विधि

            सफेद मसूली के बीज (फिंगर्स) को 20 सेमी. कतारों -से-कतारों की दूरी पर तथा बीज-से-बीज 15 सेमी. की दूरी पर लगाना आवश्यक है। ध्यान रहे कि रोपने की गहराई उतनी ही हो जितनी मूल की लंबाई हो जो अक्ष का भाग मूल से संलग्र रहता है। वह भूमि की ऊपरी सतह के बराबर हो उसको मृदा से ढँकना नहीं चाहिये। केवल मूल ही मृदा के अंदर रहे। लगाते समय क्यारी में कुदाली से 5-6 सेमी. गहरी लाइनें 20 सेमी. के अंतर से बना ले। मूल या पूरी डिस्क लगाने के बाद उसके चारों तरफ मिट्टी भरकर दबा देना चाहिए। ध्यान रहे फिंगर पूरी तरह मिट्टी के अंदर न हो उसकी प्रसुप्त कलिकायें भूमि की सतह पर होना चाहिए।

सिंचाई और निंदाई-गुड़ाई 

            सफ़ेद मूसली रोपने के बाद यदि वर्षा नहीं होती है तब सिंचाई की आवश्यकता होती है अन्यथा इसकी फसल को सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती। यदि 15 सितम्बर के बाद वर्षा न हो तब अक्टूबर के प्रथम सप्ताह में एक सिंचाई करनी चाहिए। सिंचाई करने हेतु खेत में खुला पानी दे सकते हैं। स्प्रिकलर के द्वारा सिंचाई करना अधिक उपयुक्त होता है। असमान्य वर्षा होने पर दो बार सिंचाई की आवश्यकता सितम्बर के मध्य या अक्टूबर माह में होती है। मसूली के खेत को खरपतवार से मुक्त रखना चाहिए। इसके लिए कम-से-कम 2-3 निराई गुड़ाई करना आवश्यक है। इसकी निंदाई-गुड़ाई  30 दिन व 45 दिन की अवस्था पर करें। निंदाई हेंड हो या खुरपी की सहायता से करें परंतु ध्यान रखे कि  पौधों की जड़ें प्रभावित न हो।

सफेद मसूली की खुदाई एवं उपज 

            सफेद मसूली की फसल मौसम के अनुसार 180-200  दिनों में तैयार हो जाती है। इस फसल के पत्तों का सूख जाना, फसल के तैयार हो जाने का सूचक है। परन्तु पत्तों के सूख कर गिर जाने के उपरान्त भी 30-35 दिनों तक कन्दों को जमीन में ही रहने दिया जाना चाहिये तथा हल्का पानी देते रहना चाहिए। प्रारम्भ में कंदों का रंग सफेद होता है। जब कंद पूर्णतया पक जाते हैं तो इनका रंग गहरा भूरा हो जाता है। प्रायः कन्द निकालने का कार्य मार्च अप्रैल में किया जाता है। खुदाई के 2 दिन पहले स्प्रिंकलर से हल्की सिंचाई करने से मूसली  खोदने में  आसानी होती है। खुदाई कुदाली या खुरपी की मदद से सावधानी पूर्वक करना चाहिए, जिससे इसके कंद क्षतिग्रस्त न होने पाएं । सफेद मसूली की अच्छी फसल से औसतन 20-25 ग्राम वजन वाले कन्द होते हैं तथा एक पौधे से 10-12 फिंगर्स प्राप्त होते हैं। आमतौर पर बोये गये बीज की तुलना में सफेद मसूली का 5-10 गुना अधिक उत्पादन प्राप्त होता है।
            ताजा सफेद मसूली का उत्पादन 50 से 55 क्विण्टल/हेक्टेयर होता है जो सूखने पर 9 से 10 क्विण्टल  रह जाती है। शुष्क सफेद मसूली का बाजार भाव उपज की गुणवत्ता पर निर्भर करता है।

प्रसंस्करण व सुखाना

            मूसली की खुदाई करने के बाद सफाई करना आवश्यक है। यदि मसूली में मिट्टी लगी है तो उसको पानी से धो कर साफ करने के बाद मसूली को डिस्क से तोड़कर पृथक् कर लेते हैं। बाद में मसूली के ऊपरी सतह से छिलके निकालना चाहिए। छिलका चाकू या खुरदरे पत्थर आदि से घिस कर साफ करें व सूखने के लिये धूप में डालें। साफ करने के बाद मसूली को सफेद नये कपड़े/पालीथीन पर सुखाना चाहिए। अन्यथा मसूली का रंग सफेद नहीं होगा। अतः सफाई व सुखाई का कार्य सावधीपूर्वक करना आवश्यक है। मसूली में फफूँद आदि का आक्रमण नहीं होना चाहिए। छोटी मूसली को डिस्क सहित छाया में रेत के अंदर भंडारित कर अगली वर्ष की फसल रोपने के काम में लेना चाहिए ।

उचित भंडारण


            प्रसंस्कृत की हुई शुष्क मूल को पालीथीन की थैलियों या नायलान की बोरियों में पैक करके शुष्क स्थान में भंडारित चाहिए। सफेद मसूली की उपज को आवश्यकतानुसार बाजार में बेचा जा सकता है। बीज रोपने हेतु एक दो छोटी मूल सहित डिस्क का भंडारण रेत में छायादार कमरे में करते हैं। यदि खेत में ही खोदते समय डिस्क के साथ संलग्न एक दो छोटी मसूली को छोड़ दिया जाय तो पृथक् रूप से भंडारण की आवश्यकता नहीं होती है। वे शीत व ग्रीष्म काल में खेत में ही पड़ी रहकर अगले वर्ष बीज का काम करती है। बीज के लिए छोड़ी गई डिस्क सहित मूल में सिचाई  नहीं करना चाहिए ।


नोट: यह लेख सर्वाधिकार सुरक्षित है।  अतः बिना लेखक की आज्ञा के इस लेख को अन्यंत्र प्रकाशित करना अवैद्य माना जायेगा। यदि प्रकाशित करना ही है तो लेख में लेखक का नाम और पता देना अनिवार्य रहेगा। साथ ही प्रकाशित पत्रिका की एक प्रति लेखक को भेजना सुनिशित करेंगे।

काबुली चने की खेती भरपूर आमदनी देती

                                                  डॉ. गजेन्द्र सिंह तोमर प्राध्यापक (सस्यविज्ञान),इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषि महाव...