गुरुवार, 15 अक्तूबर 2020

काबुली चने की खेती भरपूर आमदनी देती

                                                 डॉ. गजेन्द्र सिंह तोमर

प्राध्यापक (सस्यविज्ञान),इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय,

कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,

कांपा,महासमुंद (छत्तीसगढ़)

चना  भारत की सबसे महत्वपूर्ण दलहनी फसल है। चने को दालों का राजा कहा जाता है। भारत में चना को दो प्रजातियों यथा देशी (कत्थई से हल्का काला) तथा काबुली (सफेद दाना) की खेती की जाती है देशी चने के दाने छोटे,कोणीय,गहरे भूरे रंग के खुरदुरे होते है.इसके पौधे छोटे अधिक शाखाओं वाले तथा फूल गुलाबी रंग के होते है  काबुली चने के दाने बड़े,सफेद क्रीम रंग के होते है  इसके पौधे लम्बे तथा फूल सफेद रंग के होते है काबुली चने को डॉलर और छोला चना भी कहा जाता है। देशी चने की तुलना में काबुली चने की उपज कम आती है   पोषक मान की दृष्टि से काबुली चने 24.63 % अपरिष्कृत प्रोटीन6.49 % अपरिष्कृत रेशा, 8.43 % घुलनशील शर्करा, 7 % वसा, 40 % कार्बोहाइड्रेट के अलावा  कैल्सियमफॉस्फोरस,लोहा, मैग्नेशियम, जिंक,पोटाशियम तथा विटामिन बी-6, विटामिन-सी,विटामिन-ई प्रचुर मात्रा में पाए जाते है । देशी चने की अपेक्षा काबुली चना अधिक पौष्टिक व स्वास्थ्यवर्धक  होता है । देशी चने को पीसकर बेसन तैयार किया जाता है,जिससे विविध व्यंजन बनाये जातेहैं। काबुली चने का इस्तेमाल सब्जी के साथ-साथ छोले, चाट के रूप में तथा उबालकर-भूनकर खाने में किया जाता है । चने की हरी पत्तियाँ साग बनानेहरा तथा सूखा दाना सब्जी व दाल बनाने में  प्रयुक्त होता है।  दलहनी फसल होने के कारण यह जड़ों में वायुमण्डलीय नत्रजन स्थिर करती है,जिससे खेत की उर्वरा शक्ति बढ़ती है। स्वाद और पोषण में बेजोड़ तथा विविध उपयोग के कारण बाजार में काबुली चने की खाशी मांग रहने के कारण इससे किसानों को बेहतर दाम मिल जाते है ।  इस प्रकार से काबुली या डॉलर चने की खेती करने से किसानों को अच्छा मुनाफा होता है साथ ही खेत की  उर्वरता में भी बढ़ोत्तरी होती है जिसके फलस्वरूप  आगामी फसल की उपज में भी इजाफा होता है।  

दुनिया में चना उत्पादन में भारत सबसे बड़ा देश है और देश में चने के क्षेत्रफल और उत्पादन में मध्य प्रदेश का प्रथम स्थान है। भारत में वर्ष 2017-18 के दौरान चने की खेती  10.66 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में की गईजिससे 1063 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर के औसत मान से 11.23 मिलियन टन उत्पादन प्राप्त हुआ । चने के अंतर्गत  कुल क्षेत्रफल के 85 % हिस्से में देशी चना तथा 15 % भाग में काबुली चने की खेती होती है  काबुली  चने की खेती मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान,कर्नाटक,आंध्र प्रदेश आदि राज्यों में की जाती है । देशी चने की अधिक उपज के कारण ज्यादातर किसान  इसी चने की  खेती अधिक करते है, परन्तु डॉलर चने की खेती अधिक फायदेमंद सिद्ध हो रही है  डॉलर चने की खेती से अधिकतम उत्पादन प्राप्त करने के  लिए नवीन सस्य तकनीक अग्र  प्रस्तुत है ।
उपयुक्त जलवायु 
           काबुली चना शुष्क एवं ठण्डे जलवायु की फसल है जिसे शरद ऋतु में उगाया जाता है.चने की वृद्धि एवं विकास के लिए बुवाई से लेकर कटाई तक 24 से 30 डिग्री सेल्सियस तापमान उपयुक्त रहता है. फलियों में दाना भरते समय बहुत कम अथवा 30 डिग्री सेल्सियस से अधिक का तापमान होने से दानों का विकास अवरुद्ध हो जाता है. चने की फसल के लिए लम्बी अवधि की चमकीली धुप आवश्यक है.   

भूमि का चुनाव एवं खेत की तैयारी

                काबुली चने की खेती के लिए उचित जल निकास वाली बलुई दोमट से लेकर दोमट तथा मटियार मिट्टी सर्वोत्तम रहती है। मृदा का पी-एच मान 6-7.5 उपयुक्त रहता है। चने की फसल के लिए अधिक उपजाऊ भूमियाँ उपयुक्त नहीं होती,क्योंकि उनमें पौधों की वानस्पतिक बढ़वार अधिक होती है जिससे  फूल एवं फलियाँ कम बनती हैं। चना की खेती के  लिए मिट्टी का बारीक होना आवश्यक नहीं हैबल्कि ढेलेदार खेतों में भी भरपूर पैदावार ली जा सकती है । जड़ों की समुचित वृद्धि के लिए खेत की गहरी जुताई करना लाभदायक होता है इसके लिए खरीफ फसल काटने के बाद एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करनी चाहिए. इसके बाद दो जुताइयाँ देशी हल या कल्टीवेटर से करने के उपरान्त पाटा चलाकर खेत समतल कर लेना चाहिए ।  दीमक प्रभावित खेतों में क्लोरपायरीफास 1.5 प्रतिशत चूर्ण 20 किलो प्रति हेक्टर के हिसाब से जुताई के दौरान मिट्टी में मिला देना  चाहिए। इससे कटुआ कीट पर भी नियंत्रण होता है।

उन्नत किस्मों का चयन 

                    देशी चने का रंग पीले से गहरा कत्थई या काले तथा दाने का आकार छोटा होता है। काबुली चने का रंग प्रायः सफेद होता है। इसका पौधा देशी चने से लम्बा होता है। दाना बड़ा तथा उपज देशी चने की अपेक्षा कम होती है। काबुली या डॉलर  चने की प्रमुख उन्नत किस्मों की  विशेषताएँ सारणी में  प्रस्तुत है:

सारणी:डॉलर चने की प्रमुख उन्नत किस्में एवं उनकी विशेषताएं  .

किस्म का नाम

अवधि (दिन)

उपज (क्विंटल/हे.)

अन्य विशेषताएं

जे.जी.के.-1

110-115

15-18

क्रीम सफेद रंग का बड़ा दानाउकठा सहिष्णु ।

जे.जी.के.-2

95-110

15-18

सफेद क्रीम रंग का बड़ा दाना,बहुरोग रोधी,100 दानों का भार 33-36 ग्राम 

जे.जी.के.-3

95-110

15-18

बोल्ड चिकना दाना,100 दानों का भर 44 ग्राम 

पूसा-5023

120-130

22-25

अत्यधिक मोटा दाना, 100 दानों का वजन 50 ग्राम.उकठा निरोधी

काक-2

120-125

15-20

दाने सामान्य मोटाई और हल्के गुलाबी,उकठा निरोधक

चमत्कार(वी.जी.1053)

135-145

25-30

बड़ा दाना मोटा गोलाकार, उकठा रोधी

पूसा-2024

135-145

25-28

दाना बड़ा, सूखा व उकठा रोधी

श्वेता(आईसीसीव्ही-2 )

85-90

18-20

दाना मध्यम आकर, आकर्षक,असिंचित व् सिंचित क्षेत्रों के लिए उपयुक्त

मेक्सिकन बोल्ड

90-95

25-30

दाना बोल्ड, सफेद,चमकदार,स्वादिष्ट, कीट रोग निरोधक

काबुली चने की उपरोक्त किस्मों के अलावा 110-115 दिन में तैयार होने वाली फुले जी-0517 (100 दानों का भार 60 ग्राम), 130-135 दिन में तैयार होने वाली एल-550 (उपज 20-25 क्विंटल/हे.) तथा देर से बुवाई हेतु 100-105 दिन में तैयार होने वाली आर.वी.जी.-202 (उपज 18-20 क्विंटल/हे.) उपयुक्त रहती है

बोआई करें सही समय पर 

         चने की बुआई समय पर करने से फसल की वृद्धि अच्छी होती है साथ ही कीट एवं रोगों से फसल की सुरक्षा होती हैफलस्वरूप उपज अधिक मिलती है । असिंचित अवस्था में काबुली चने की बुवाई का उचित समय 20 से 30 अक्टूबर है।सिंचित अवस्था में काबुली चने की बुवाई नवम्बर के प्रथम पखवाड़े में संपन्न कर लेना चाहिए । बुवाई में अधिक विलम्ब करने पर उत्पादन में कमीं हो जाती है, साथ ही काबुली चना में फली भेदक कीट का प्रकोप होने की सम्भावना रहती है ।

उपयुक्त बीज दर

           काबुली चने की अधिक पैदावार के लिए बीज की उचित मात्रा का होना अति आवश्यक है. समय पर बोआई तथा छोटे दानों की प्रजातियों के लिए 79-75 कि.ग्रा. तथा बड़े दानों की प्रजातियों के लिए 80-90 किग्रा. प्रति हेक्टेयर बीज का प्रयोग करना चाहिए।  बिलम्ब से बुवाई की अवस्था में सामान्य बीज दर से 20-25 प्रतिशत अधिक बीज प्रयोग करना चाहिए ।

निरोगी फसल के लिए बीजोपचार

         अच्छे अंकुरण एवं फसल की रोगों से सुरक्षा के लिए बीज शोधन अति आवश्यक है। उकठा एवं जड़ सड़न रोग से फसल की सुरक्षा हेतु बीज को 1.5 ग्राम थाइरम व 0.5  ग्राम कार्बेन्डाजिम के मिश्रण  अथवा ट्राइकोडर्मा ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करना चाहिए। कीट नियंत्रण हेतु थायोमेथोक्साम 70 डब्ल्यू पी 3 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करें। इसके बाद शोधित बीज को जीवाणु संवर्धन अर्थात राइजोबियम एवं पी.एस.बी प्रत्येक की 5 ग्राम मात्रा प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करना चाहिए। इसके लिए एक पैकेट (250 ग्राम) राइजोबियम कल्चर  प्रति 10 कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करना उचित रहता है। आधा लीटर पानी में 50 ग्राम गुड़ या शक्कर घोलकर उबाला जाता है। ठंडा होने पर इस घोल में एक पैकेट राइजोबियम कल्चर मिलाकर बीज में  अच्छी तरह मिलाकर छाया में सुखाकर शाम को या सुबह के समय बोनी की जाती है। पी.एस.बी. (फॉस्फ़ोरस घोलक जीवाणु) कल्चर  से बीज का उपचार राइजोबियम कल्चर की भांति करें । ध्यान रहे की बीज का उचार फफूंदनाशक-कीटनाशक- राइजोबियम कल्चर (FIR) के क्रम में ही करें।

पंक्तियों में करें बोआई

                  आमतौर पर चने की बोआई छिटकवाँ विधि से की जाती है जो कि लाभप्रद नहीं है। फसल की बुआई हमेशा पँक्तियों में सीड ड्रिल द्वारा करनी चाहिए ताकि पंक्ति एवं बीज की उचित दूरी बनी रहे एवं फसल का उचित प्रबंधन किया जा सके । बुवाई के समय खेत में पर्याप्त नमीं का होना आवश्यक होता है  काबुली चना की अच्छी उपज के लिए खेत में पौधों की समुचित संख्या होना आवश्यक है सामान्यतौर पर पौधों की संख्या 25 से 30 प्रति वर्गमीटर रखी जाती है. असिंचित अथवा पछेती बुवाई की स्थिति में पंक्तियों के बीच की दूरी 30  से.मी. तथा पौधे से पौधे की दूरी 10 से.मी. रखना चाहिए। सिंचित क्षेत्रों में बोआई कतारों में 30-45 से.मी. की दूरी पर करना चाहिए।  सामान्य रूप से असिंचित चने की बोआई 5 - 7 से.मी. की गहराई पर उपयुक्त मानी जाती है। खेत मे पर्याप्त नमीं होने पर चने को से से.मी. की गहराई पर बोना चाहिए।

एक-दो सिंचाई से बढ़ें उपज

             अधिकांश इलाकों  में चने की खेती असिंचित-बारानी अवस्था में की जाती है। खेत में नमीं  होने पर बोआई के चार सप्ताह तक सिंचाई नहीं करनी चाहिए। चने में जल उपलब्धता के आधार पर दो सिंचाईयाँपहली फूल आने के पूर्व अर्थात बोने के 45-60 दिनों बाद शाखाएं बनते समय तथा दूसरी सिंचाई आवश्यकतानुसार फलियों में  दाना बनते समय की जानी चाहिए । यदि एक सिंचाई हेतु पानी है तो फूल आने के पूर्व (बोने के 45 दिन बाद) सिंचाई करें। चने में फूल आते समय सिंचाई करना वर्जित है,अन्यथा वानस्पतिक वृद्धि अधिक तथा फलियाँ कम लगती है । खेत में जल निकासी का उचित प्रबन्ध होना आवश्यक है।

फसल को दें सही खुराक-खाद एवं उर्वरक

                  दलहनी फसल होने के  कारण काबुली चने को नत्रजनीय उर्वरक की कम आवश्यकता पड़ती है। मिट्टी परीक्षण के आधार पर ही पोषक तत्वों की उचित मात्रा का निर्धारण करना चाहिए । सामान्य उर्वरा भूमियों  (सिंचित) में बोआई के समय नत्रजन 20 कि.ग्रा. स्फुर 60 कि.ग्रा.,पोटाश 20 कि.ग्रा. तथा गंधक 20 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से कूड़ में देना चाहिए । असिंचत अवस्था में  उक्त उर्वरकों की आधी मात्रा का प्रयोग बोआई के समय करना चाहिए। फॉस्फोरस को सिंगल सुपर फॉस्फेट के रूप में देने से स्फुर व गंधक की पूर्ति हो जाती है। असिंचित या देर से बोई गई अथवा उतेरा की फसल में 2% यूरिया या डायअमोनियम फॉस्फेट (डी.ए.पी.) उर्वरक के दो छिड़काव पहला फूल आने की अवस्था तथा इसके 10 दिन बाद पुनः छिड़काव करने से काबुली चने की पैदावार में वृद्धि होती है।

खरपतवार नियंत्रण

                  खरपतवारों के प्रकोप से काबुली चने की पैदावार में 40-50 प्रतिशत तक कमीं हो सकती है।काबुली चने की बोआई  के 30 - 60 दिनों तक खरपतवार फसल को अधिक हानि पहुँचाते हैं। खेत में खरपतवार नष्ट करने के लिए बुवाई के 30-35 दिन बाद पहली निराई-गुड़ाई करना चाहिए । रासायनिक विधि से खरपतवार नियंत्रण के लिए पेन्डीमेथालीन 30 ईसी (स्टाम्प) 750 मिली-1000 मि.ली. सक्रिय तत्व (दवा की मात्रा  2.5-3 लीटर) प्रति हेक्टेयर को  700– 800 लीटर पानी में घोल बनाकर बुवाई के तुरंत बाद फ्लेट फेन नोजल युक्त पम्प से छिड़काव करना चाहिए । छिडकाव के समय खेत में नमीं होने पर खरपतवारनाशी रसायन अधिक प्रभावशील होता है । सँकरी पत्ती वाले  खरपतवार जैसे सांवादूबघासमौथा आदि के नियंत्रण हेतु क्युजोलफ़ोप 40-50 ग्राम सक्रिय तत्व अर्थात 800-1000 मि.ली. दवा प्रति हेक्टेयर का छिड़काव बौनी के 15-20 दिन बाद करना चाहिए।

अंतरवर्ती फसल

काबुली चने  के साथ हर 10 कतार के बाद धनियां,सरसों या अलसी की 1-2 कतारें लगाने से चने में इल्ली कीट का प्रकोप कम होने के साथ-साथ अंतरवर्ती फसल से अतिरिक्त लाभ प्राप्त होता है। इसके आलावा चना फसल के चरों ओर पीला गेंदा फूल लगाने से भी चने की इल्ली का प्रकोप कम किया जा सकता है।

शीर्ष शाखायें तोडना (खुटाई)

काबुली चने की फसल में प्रायः फूल लगने के पहले पौधों के ऊपरी नर्म शिरे तोड़ दिये जाते है जिसे शीर्ष शाखायें तोड़ना कहते है । चने में शीर्ष शाखायें तोड़ने से पौधों की वानस्पतिक वृद्धि रूकती है। जब पौधे 20-25  से.मी. की ऊँचाई के हो जाएँ अर्थात पौधों में फूल आने से पहले की अवस्था हो, तब शाखाओं के ऊपरी भाग तोड़ देना चाहिए। ऐसा करने से पौधों में अधिक शाखायें निकलती हैं। फलस्वरूप प्रति पौधा फूल व फलियों की संख्या अधिक होने से काबुली चने की उपज में वृद्धि होती है। चने की शाखाओं/पत्तियों को भाजी के रूप मे उपयोग किया जा सकता अथवा बाजार में बेचकर अतरिक्त लाभ कमाया जा सकता है। शीर्ष शाखायें तोड़ने की प्रक्रिया असिंचित क्षेत्रों में नहीं की जाती है, क्योंकि अत्यधिक शाखाओं और पत्तियों के होने से वाष्पीकरण बढ़ जाता है, जिससे भूमि में नमीं की कमीं हो जाती है तथा फसल को सूखे का सामना करना पड़ता है जिसके फलस्वरूप उत्पादन में कमीं आ जाती है.

कटाई-गहाई

चने की फसल किस्म के अनुसार 120 - 150 दिन में पकती है। इसकी कटाई फरवरी से अप्रैल तक होती है । पकने के पहले हरी दशा में पौधे  उखाड़कर हरे चने  (बूट) के रूप में ही  बाजार में बेच कर अच्छा लाभ कमाया जा सकता है । पत्तियों  के पीली पड़कर झड़ने तथा पौधों  के सूख जाने पर ही फसल पकी समझनी चाहिए । देश के कुछ भागो  में पौधों को उखाड़कर साफ़ स्थान पर एकत्रित कर लिया जाता है । फसल अधिक सूख जाने पर फल्लियाँ झड़ने  लगती हैं। इसलिए फसल की कटाई उचित समय पर करें एवं खलिहान में अच्छी तरह सुखाकर गहाई और  ओसाई कर ली जाती है ।

उपज एवं आमदनी

           काबुली चने की किस्मों और सस्य प्रबंधन के आधार पर प्रति हेक्टेयर 15-20  क्विंटल  दाना उपज प्राप्त होती है । दानों  के भार का लगभग आधा या तीन-चौथाई भाग भूसा प्राप्त होता है। काबुली चने की पैदावार देशी चने की अपेक्षा थोड़ी कम होती है। बाजार में काबुली चना 6000 से 7000 रूपये प्रति क्विंटल के हिसाब से आसानी से बिक जाता है। इस हिसाब से 20 क्विंटल उपज प्राप्त होने पर 1 लाख 20 हजार रूपये प्राप्त होते है जिसमें से 20 हजार रूपये लागत खर्च घटाने पर प्रति हेक्टेयर एक लाख रूपये की शुद्ध आमदनी प्राप्त हो सकती है। इसके अलावा चने की भाजी और भूषा बेचकर अतिरिक्त मुनाफा अर्जित किया जा सकता है  दानों  को अच्छी तरह सुखाकर जब उनमें  10- 12 प्रतिशत नमीं रह जाय, तब उचित स्थान पर भंडारित करें अथवा अच्छा भाव मिलने पर बाजार में बेच देना चाहिए।

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गुरुवार, 22 नवंबर 2018

खरपतवार नहीं है बेकार, बनाये इन्हें स्वास्थ का आधार:भाग-8

                                             डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर,प्रोफ़ेसर (एग्रोनोमी), 
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
राजमोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,
                                                             अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)

             वैदिक काल से ही भारत में  विभिन्न रोगों के उपचार हेतु प्राकृतिक वनस्पतियों/पेड़ पौधों का इस्तेमाल होता आ रहा है परन्तु अब सम्पूर्ण विश्व में जड़ी-बूटी एवं आयुर्वेदिक औषधियों के प्रति आकर्षण बढ़ा है । स्वास्थ्य के लिए उपयोगी अति  महत्वपूर्ण वनस्पतियों  की बढती मांग के कारण इन प्राकृतिक वनस्पतियों का दोहन चरमोत्कर्ष पर है। जंगलों की अंधाधुंध कटाई, जलवायु परिवर्तन, सघन कृषि और बढ़ते शहरीकरण के कारण औषधीय वनस्पतियों का उत्पादन निरंतर कम होता जा रहा है और बहुत सी वनस्पतियाँ विलुप्त होने की कगार पर है. हमारे आस-पास बाग-बगीचों और खेत खलिहानों में भी नाना प्रकार की औषधीय वनस्पतियाँ प्राकृतिक रूप से उगती है। इनके औषधीय गुणों के बारे में उचित जानकारी के अभाव एवं इनकी पहचान न होने के कारण ग्रामीण एवं किसान भाई इन्हें यूँ ही उखाड़ कर फेंक देते है अथवा शाकनाशी दवाओं के छिडकाव से इन्हें नष्ट कर देते है। इससे हमारी भारतीय चिकित्सा पद्धति को भारी क्षति हो रही है।  औषधि निर्माता भी पर्याप्त मात्रा में सही जड़ी-बूटी के अभाव में कुछ अवांक्षित पौधों की मिलावट कर आयुर्वेदिक औषधि निर्माण कर बेच रहे है जिससे लोगों को बांक्षित लाभ न होकर स्वास्थ हानि होने की संभावना बनी रहती है।  अतः आज आवश्यकता है कि स्वास्थ्य के लिए उपयोगी जड़ी-बूटी/वनस्पतियों के बारे में हम सब लोग जाने और इन्हें पहचान कर इनके  सरंक्षण और संवर्धन में योगदान देवें  है। प्रकृति प्रदत्त बहुत सी उपयोगी वनस्पतियों/खरपतवारों के बारे में अंग्रेजी भाषा में तो काफी ज्ञान/जानकारी पत्र-पत्रिकाओं और इन्टरनेट पर उपलब्ध है जिससे आम भारतीय इनकी उपादेयता से अछूता/अनभिज्ञ है।  हमने अपने ब्लॉग 'कृषि विमर्ष' के माध्यम से औषधीय महत्त्व के खरपतवारों का परिचय एवं स्वास्थ्यगत उपयोग अपनी राजकीय भाषा-हिंदी में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है ताकि भारत के सभी हिंदी भाषी क्षेत्रों के जनमानस इन अवांक्षित पौधों/खरपतवारों के औषधीय महत्त्व को समझ सके और इनके सरंक्षण और सवर्धन में अपना योगदान देकर भारत की आयुर्वेदिक/यूनानी चिकित्सा पद्धति को निरंतर सफल बनाने में सहयोग कर सकें।  स्वास्थ्य के लिए उपयोगी वनस्पतियों/खरपतवारों की श्रंखला की अंतिम कड़ी अग्र प्रस्तुत है.  

58.चंसूर (Lepidium sativum), कुल ब्रेसीकेसी


चंसूर पौधा फोटो साभार गूगल
इस पौधे को अंग्रेजी में गार्डन क्रेस और हिंदी में हलीम, चंसूर,असारिया के नाम से जाना जाता है।  यह सरसों कुल का शाकीय  वार्षिक पौधा है।  इसके पौधे सीधे बढ़ने वाले बहुशाखित होते है।  रबी फसलों के खेत, बंजर भूमियों, बाग़-बगीचों, सडक एवं रेल पथ के किनारे खरपतवार के रूप में उगता है।  इसके पौधे नमीं युक्त बलुई मिटटी में बहुत तेजी से बढ़ते है।  इसका पौधा सफ़ेद-भूरे रंग का, फूल सफ़ेद और बीज लाल रंग के सरसों जैसे बेलनाकार होते है।  बीज में खाने योग्य तेल पाया जाता है प्रारंभिक अवस्था में इसके छोटे पौधों से भाजी एवं सूप बनाया  जाता है, जो बहुत पौष्टिक एवं  स्वास्थ्य वर्धक होता है।  गाय एवं भैस के लिए यह उत्तम चारा है, जिसे खिलाने से दूध की मात्रा बढती है।  इसके सम्पूर्ण पौधे एवं बीज में औषधीय गुण होते है।  इसका पौधा अस्थमा निरोधक, खूनी बवासीर एवं सिफलिस के उपचार में कारगर है। यह विभिन्न स्त्री रोग, प्रसवोत्तर शारीरिक क्षति पूर्ति एवं प्रमेह निवृत हेतु उपयुक्त औषधि मानी जाती है।  इसके बीज के चूर्ण/लेई को शहद के साथ लेने से दस्त में लाभ होता है।  इसके बीज को चबाने से गले का दर्द, कफ, अस्थमा एवं सिर दर्द में आराम मिलता है. बीज के प्रलेप को लगाने से त्वचा सम्बंधित विकारों में लाभ होता है।   इसके बीजों में प्रोटीन, खनिज, रेशा के अलावा विटामिन ‘ए’, ‘सी’, ‘ई’ एवं फोलिक एसिड प्रचुर मात्रा में पाया जाता है।  बच्चों में बढ़वार एवं स्फूर्ति हेतु बीज बहुत लाभकारी है।  चंसूर के बीजों का (पानी में फुलाकर)  सलाद के रूप में या पेय पदार्थ सेवन करने से शरीर का वजन कम या नियंत्रिन होता है और रोगप्रतिरोधक क्षमता बढती है।

59.बच (अकोनस कालमस), कुल-अकोरेसी


बच पौधा फोटो साभार गूगल
इस पौधे को अंग्रेजी में स्वीट फ्लैग रूट तथा हिंदी में घोड़ा बच, सफ़ेद बच के नाम से भी जाना जाता है जो एक सगंधीय और औषधिय महत्त्व का  झाड़ीनुमा पौधा है. घोडा बच के पौधे अधिक ऊंचे (2-4 फीट) यह नम एवं दलदली भूमि, तालाबों,नदी-नालों के किनारे, धान के खेतों  में प्राकृतिक रूप से उगता है. इसके राइजोम भूमिगत, लम्बे, सफ़ेद एवं तीव्र गंध वाले होते है।   बच की पत्तियां हल्के हरे रंग की चपटी, लम्बी, मोटी, रेखाकार एवं मध्य शिरायुक्त सुगन्धित होती है।  इसके पौधों के पुष्पक्रम (बाली)  में हल्के पीले रंग के पुष्प लगते है।  इसके फल गोल आकार एवं लाल रंग के होते है।  बच की पत्तियों, कंद एवं मूल से बहुपयोगी उड़नशील तेल प्राप्त होता है। विभिन्न प्रकार की औषधि निर्माण में बच (तेल) का इस्तेमाल किया जाता है।  बच अधिक गंधयुक्त, चटपटा-तीखा, शक्तिवर्धक है।  यह मूत्र विकारों, वात रोग, कफ, दर्द नाशक, मिरगी एवं अफरा को दूर करने वाली औषधि है. विभिन्न प्रकार के द्रव्यों को सुवासित करने में इसके तेल का इस्तेमाल किया जाता है।  इसकी कन्दो के सूखे चूर्ण का इस्तेमाल पेट के कीड़े मारने एवं स्वांस -दमा रोग के उपचार में किया जाता है।

60.अश्वगंधा (विथानिया सोम्नीफेरा), कुल-सोलेनेसी


अश्वगंधा फोटो साभार गूगल
इस पौधे को अंग्रेजी में इंडियन जिनसेंग एवं विंटर चेरी, संस्कृत में अश्वकंदिका एवं हिंदी में अश्वगंधा के नाम से जानते है।  भारत के सम्पूर्ण गर्म प्रदेशों में यह  पौधा बहुवर्षीय खरपतवार के रूप में उगता है।  इसके शाकीय झाड़ीनुमा पौधे बाग़-बगीचों, सड़क एवं रेल पथ किनारे बहुतायत में पाया जाता है। इसके तने एवं शाखायें हल्के हरे एवं सफेद रोमों से ढके रहते है।  इसकी जड़ मोटी एवं मूसलादार होती है. इसकी पत्तियां अंडाकार एवं नुकीली होती है।  इसके फूल गोल पीताभ हरे रंग के पत्तियों के अक्ष से गुच्छों में निकलते है।  अश्वगंधा का सम्पूर्ण पौधा औषधीय गुणों में परिपूर्ण होता है।  इसकी पत्तियों का काढ़ा पेट के कीड़े निकलने एवं बुखार से कारगर माने जाते है. खाज-खुजली, फोड़ा, कान दर्द, अल्सर तथा हथेली एवं तलवों की सूजन में पत्तियों का अर्क लाभदायक है।  गांठो एवं फेंफडों की सूजन तथा क्षय के उपचार में हरी पत्तियों का लेप कारगर माना जाता है. इसके फल एवं बीज मूत्रवर्धक एवं निद्राकारी होते है।  अश्वगंधा की जड़ शक्तिवर्धक, कामोत्तेजक,मदकारी एवं मूत्रल होती है।  वात विकार, जोड़ो की सूजन एवं दर्द, पक्षाघात, अनियमित रक्तचाप, अपच,सामान्य एवं पौरुष दुर्बलता, खांसी तथा हिचकी आने पर इसकी जड़ का चूर्ण शहद के साथ लेने से लाभ होता है।  सूजन, ग्रंथिवात,अल्सर आदि के उपचार में जड़ के चूर्ण का प्रलेप लाभप्रद होता है. गर्भिणी एवं प्रसूता महिलाओं में कमजोरी एवं बदन दर्द आदि में जड़ का चूर्ण शहद के साथ सेवन करना लाभकारी होता है. अश्वगंधा चूर्ण के नियमित सेवन से मनुष्य में रोग प्रतिरोधक क्षमता बढती है। 

61. कीड़ामार  (एरिस्टोलोकिया ब्रेक्टिआटा), कुल-एरिस्टोलोकिऐसी)


कीड़ामार पौधा फोटो साभार गूगल
इस पौधे को अंग्रेजी में वर्मकिलर, संस्कृत में धूमपत्र एवं हिंदी में कीड़ामार के नाम से जाना जाता है।  यह बहुवर्षीय लता युक्त शाकीय खरपतवार है।  यह पौधा  बाग़-बगीचों और खेत की मेंड़ो, सडक और रेल पथ किनारों पर भूमि के सहारे फैलती है।  इसकी पत्तियां ह्र्द्यकार, नीचे से चौड़ी एवं ऊपर नुकीली होती है। इसके पौधों में गोल सहपत्र वाले बैगनी रंग के एकल पुष्प पत्तियों के कक्ष से निकलते है।  इसमें फल सम्पुटिका लम्बी एवं छः कोष्ठीय धारीदार होती है।  बीज पतले एवं ह्र्दयाकार होते है।  इसके सम्पूर्ण पौधे में औषधीय गुण विद्यमान होते है।  इसका पौधा ज्वर नाशक एवं मृदुरेचक होता है।  चर्म रोग में पत्तियों को पीसकर अरंडी के तेल में मिलकर लगाने से आराम मिलता है।  कीड़ों के काटने से उत्पन्न घाव में पत्तियों का अर्क लगाने से लाभ होता है।  ज्वर, गर्मी एवं सुजाक में पत्तियों का अर्क दूध के साथ लेने से फायदा होता है।  बदहजमी एवं पेट दर्द में पत्तियों के चबाने से आराम मिलता है।  पेट से गोलकृमि नष्ट करने के लिए इसकी जड़ को कारगर औषधि माना गया है. वात विकार, सुजाक एवं दमा में इसके फलों को दूध के साथ उबालकर खाने से राहत मिलती है।

62.सतावर (अस्परेगस रेसिमोसस)


इस पौधे को अंग्रेजी में अस्परेगस, संस्कृत में शतमूली एवं हिंदी में सतावर के नाम से जाना जाता है।  यह बहुवर्षीय आरोही लतानुमा पौधा है जो बाग़-बगीचों एवं छायादार स्थानों में खरपतवार के रूप में उगता है।  घर की बगियाँ में भी इसे अलंकृत लता के रूप में लगाया जाता है।  इसकी लता लम्बी एवं कोमल, तना काष्ठीय एवं कांटेदार होता है।  इसकी शाखाएं भूमि के सामानांतर निकलती है जिनमे अनेक उपशाखायें निकलती है।  सतावर में पत्तियां नहीं होती है बल्कि हरी पत्तियों के समान कोमल गोल धागेनुमा सरंचनाये विकसित होती रहती है।  इसमें जड़े प्रकन्द की भांति होती है जो जमीन के अन्दर समानांतर लम्बी बढती है।  पुष्प छोटे सफ़ेद रंग के सुगन्धित होते है जो गुच्छों में आते है।  फल छोटे हरे  तथा पकने पर लाल (रसभरी) हो जाते है।  सतावर की मांसल जड़ों में औषधीय गुण पाए जाते है।  इसके प्रकन्द/जड़े शांतिप्रदायक, दाहनाशक,मूत्र वर्धक, क्षुदावर्धक, बल वर्धक, कफनिस्सारक  एवं नेत्रों के लिए हितकर होती है।  इसकी जड़ों का काढ़ा अतिसार, क्षय रोग, व्रणशोथ, मन्दाग्नि,लेप्रोसी,रतौंधी, वृक्क एवं पित्त विकारों में लाभदायक है।  इसकी जड़ का चूर्ण दूध और शक्कर के साथ नियमित रूप से पीने से बल और बुद्धि का विकास तेज होता है।  इसके मूल से सिद्ध तेल का बाह्य प्रयोग चर्म रोग, वात रोग, दौर्बल्य एवं शिरा रोग में गुणकारी माना जाता है।

63.हरमल (पेगनम हरमाला)

इस वनस्पति को  अंग्रेजी में वाइल्ड रियू, संस्कृत में गन्ध्या एवं हिंदी में हरमल, मरमरा  के नाम से जाना जाता है. यह छोटा झाड़ीनुमा बहुवर्षीय जंगली पौधा है जो देश के शुष्क मैदानी क्षेत्रों में पाया जाता है।  इसकी पत्तियों के अक्ष से सफ़ेद रंग के एकल पुष्प निकलते है।  फल सम्पुटिका गोलाकार एवं गहरी धारियों वाली होती है।  इसके बीज भूरे रंग के होते है।  इसके सम्पूर्ण पौधे में औषधीय गुण पाए जाते है।  इसका पौधा मोह्जनक मद्कारी, कामोत्तेजक,फीता कृमि नाशक होता है।  इसकी पत्तियों का काढ़ा गठिया वात के दर्द में लाभदायी है। इसके पुष्पों एवं तने की छल का प्रलेप ह्रदयोत्तेजना शांत करने में गुणकारी है।  इसके बीज भी औषधीय गुणों से परिपूर्ण होते है।  हरमल के बीज दर्दनाशक, मदकारी, निद्राकारी,कृमि नाशक,कामोत्तेजक,ज्वरनाशक एवं दुग्ध वर्धक होते है।  इसके बीजों का काढ़ा वात विकार, वृक्क एवं पित्ताशय की पथरी,पेट दर्द एवं ऐंठन, ज्वर,पीलिया, दमा, माहवारी में रूकावट एवं वातीय दर्द में लाभकारी पाया गया है।  इसके बीजों का चूर्ण लेने से फीताकृमि दस्त के साथ बाहर निकल जाते है।  इसके काढ़े से कुल्ला एवं गरारा करने से स्वर यंत्र विकार में लाभ मिलता है।  इसके बीजों का अधिक मात्रा में सेवन हानिकारक प्रभाव छोड़ता है।

64.धतूरा (दतूरा अल्बा), कुल-सोलेनेसी

धतूरा को अंग्रेजी में ग्रीन थार्न एपिल, संस्कृत में कनक, शिव शेखरं तथा हिंदी में धतूरा के नाम से जाना जाता है।  भगवान शिव को अतिप्रिय धतूरा छोटा झाड़ीनुमा शाकीय खरपतवार है जो वर्षा ऋतु में पड़ती भूमियों, कूड़ा करकट के ढेरों में, सड़कों एवं रेल पथ के किनारे उगता है।   धतूरा की अनेक किस्मे होती है जिनमे से हरा धतूरा (डी.मेंटेल), धूसर धतूरा (डी. इनाँक्सिया)  एवं काला धतूरा (डी. स्ट्रेमोनियम) प्रमुख है।  काला धतूरा सर्वत्र पाया जाता है. इसका तना खुरदुरा, सीधा एवं शाखाये रोमिल होती है।  पत्तियां त्रिकोणीय अंडाकार होती है।  पुष्प एकल बड़े, सफ़ेद जो कीप के आकार के पत्ती के अक्ष से निकलते है।  फल अंडाकार हरा होता है जो   ऊपर से  छोटे-छोटे हरे कांटो से ढका होता है.  धतूरे की हरी-सूखी पत्तियों, पुष्पकलियों एवं बीज में औषधीय गुण पाए जाते है।  यह अत्यधिक नशीला एवं विषैला पौधा है।  अतः इसके इस्तेमाल में विशेष सावधानी बरतनी आवश्यक है।  इसकी तजि हरी पत्तियों का गर्म प्रलेप दर्द भरी चोट, जोड़ों की सूजन, बवासीर, खाज, हाथ-पैरों की बिवाई के उपचार  में काफी असरकारक है।  पत्तियों का अर्क सिर में लगाने से जुएं मार जाते है।  पत्तियों एवं फूलों को जलाकर उत्पन्न धुआं या सूखी पत्तियों की सिगरेट बनाकर पीने से अस्थमा, ब्रोंकटाइटिस एवं कुकरखांसी में शीघ्र आराम मिलता है।  पागल कुत्ता के काटने पर पत्तियों का अर्क गुड के साथ लेने और काटे हुए स्थान पर बीजों का महीन प्रलेप लगाने से विष का असर कम हो जाता है।  फलों का रस फोड़े-फुंसी एवं घाव के दाग मिटाने तथा बालों की रूसी खत्म करने में लाभकारी है. छाती में दर्द भारी सूजन में इसका अर्क हल्दी के साथ लगाने से आराम मिलता है।  धतूरा के बीज मदकारी होने के कारण केवल इनके वाह्य प्रयोग की संस्तुति है।  शरीर में अत्यधिक ऐंठन, बवासीर, व्रण, सडन,सूजन आदि में बीजों का प्रलेप लगाना फायदेमंद होता है।
  नोट: इस आलेख/ब्लॉग में हमने औषधीय महत्त्व के खरपतवार/प्राकृतिक वनस्पतियों को उनके गुण/उपयोग के अनुसार दी गई जानकारी अपने अनुभव, औषधीय पौधों के जानकार, विभिन्न शोध पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित आलेखों के माध्यम से संकलित कर जन जागृति के उद्देश्य से प्रस्तुत की है।  किसी भी वनस्पति को रोग उपचार हेतु इस्तेमाल करने से पूर्व पंजीकृत आयुर्वेदिक/यूनानी  चिकित्सक का परामर्श लेना आवश्यक है। 

काबुली चने की खेती भरपूर आमदनी देती

                                                  डॉ. गजेन्द्र सिंह तोमर प्राध्यापक (सस्यविज्ञान),इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषि महाव...