मंगलवार, 22 मार्च 2016

जीवनाशी रसायन: मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण के दुश्मन

डॉ जी. एस. तोमर 
प्रोफेसर (एग्रोनॉमी)
इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़) 
                सघन खेती के अंतर्गत विस्तारित खाद्यान्न फसलों, दलहन, तिलहन, गन्ना, फल और सब्जिओं से उपज में आशातीत वृद्धि हुई है, परन्तु इन फसलों को प्रभावित करने  वाले विभिन्न कीट, रोग खरपतवारों के नियंत्रण के लिए जीवनाशी रसायनों जैसे कीटनाशियों, फफूंदनाशियों  और खरपतवारनाशियों का प्रयोग अपरिहार्य हो गया है। इन जहरीले जीवनाशियों के अन्धाधुंध और बेरोकटोक प्रयोग से मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण पर घातक प्रभाव पड़ रहा है। दरअसल विभिन्न कीट-व्याधियों के नियंत्रण हेतु फसलों में प्रयुक्त पीडकनासी रसायनिकों का काफी अंश  खाद्य पदार्थों (खाद्यान्न, फल, फूल और सब्जी) में रह जाता है जो भोजन के माध्यम  से मानव शरीर में पहुँचकर बसा कोशिकाओं में जमा हो जाते है, जिसके परिणामस्वरूप हेपेटाइटिस, कैंसर, मिर्गी,लकवा जैसी जानलेवा बीमारियां पनपने लगती है। इन बीमारियों के अलावा अंधता, दमा,अतिसार,आन्तसोथ, स्तन कैंसर, रुधिर में स्वेत रक्त कड़िकाओं की कमी, शरीर में खून की कमी, चेहरे में काले धब्बे आदि रोग मनुष्य में परिलक्षित हो रहे है। इन रसायनिको के अंधाधुन्ध इस्तेमाल से पारिस्थिकीय संतुलन भी गड़बड़ा रहा है, जिसमें  कीट और रोगों में  पीड़कनाशियो के प्रति अधिक प्रतिरोधिता, पर्यावरण और  श्रृंखला का प्रदूषण तथा खेतों में पाये जाने वाले प्राकृतिक मित्र पछियों और कीटों का विनाश भी शामिल है। विश्व बैंक द्वारा किये गए अध्यन के अनुसार दुनिया में 25 लाख लोग प्रतिवर्ष कीटनाशकों के दुष्प्रभावों  के शिकार होते है, उसमे से 5 लाख लोग तक़रीबन काल के गाल में समा जाते है । अमेरिका में हुए अनुसन्धान के परिणामों से ज्ञात होता है कि जब कीटनाशी रसायनों का पेड़-पौधों, सब्जियों और फलों पर छिड़काव किया जाता है तो इन रसायनों का 1 % मात्रा ही सही लक्ष्य तक प्रभावी हो पाती है , शेष 99 % रसायन पर्यावरण को प्रदूषित करता है। कीटनाशकों का एक बड़ा भाग पेड़-पौधों, सब्जियों एवं फलों पर ही रह जाता है जो की घुलने के पश्चात भी साफ़ नहीं हो पाटा है। भोजन और फलों के साथ यह जहरीला रसायन मनुष्यो और पशुओं के शरीर  में प्रवेश कर जाता है। अध्ययनों से पता चला है की अधिकतर कीटनाशी हमारे शरीर में सब्जियों के माध्यम से पहुँचते है, क्योंकि अन्य फसलों की अपेक्षा सब्जी वर्गीय फसलों में रासायनिक कीटनाशकों का सर्वाधिक प्रयोग किया जाता है। सब्जियों को कीटनाशकों से उपचारित करने के पश्चात बिना निश्चित अंतराल पर ध्यान दिए  हुए बिक्री हेतु बाजार में भेज दिया जाता है। आज के समय में बाजार में उपलब्ध फूलगोभी, पत्तागोभी,बैगन, टमाटर, भिन्डी, परवल, पालक, शिमला मिर्च, लौकी, तोरई,टिंडा,पट्टीदार हरा प्याज आदि सब्जियां अत्यंत खतरनाक कीटनाशियों के अवशेषों से युक्त  होती है।   आजकल मुनाफे के फेर में अनेक व्यापारी और दुकानदार भी हमारी खाद्य श्रृंखला को दूषित और जहरीला बनाने में अहम भूमिका निभा रहे है। छदम और बेईमान व्यापारी हरी सब्जियों का बाजार में भेजने से पूर्व उन्हें बनावटी रंग दे देते है जिससे उन्हें बेहतर दाम मिल सकें। बाजार में उपलब्ध सभी प्रकार की दालों और चावल को पोलिश करने के नाम पर कृत्रिम रसायनों का रंग दिया जाता है जिससे वे अधिक चमकीली हो जाती है। सुगन्धित चावल के नाम पर कृत्रिम रूप से सुगन्धित बासमती, दुबराज, बादशाह भोग आदि चावल महंगे दाम पर बेच कर उपभोक्ताओं को ठगा ही नहीं जा रहा है वल्कि उनके स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है।
            कीटनाशकों के अलावा अधिक उत्पादन के लिए रासायनिक उर्वरकों का भी धड़ल्ले से अंधाधुन्ध प्रयोग किया जा रहा है। हालत यहाँ तक हो गए है की बिना इन उर्वरकों के उपयोग से फसलोत्पादन संभव नहीं हो रहा है और कही कही तो उर्वरकों के भरपूर प्रयोग के वावजूद भी उपज में यथोचित बढ़ोत्तरी नही हो पा रही है। देश की उर्वरा भूमियाँ गैर उपजाऊँ होती जा रही है, साथ ही जल और वायु भी प्रदूषित होती जा रही है। अनेक स्थानों पर उर्वरकों के प्रयोग के कारण  भूमिगत जल 25 से 30 मीटर की गहराई तक प्रदूषित हो गया है। सरकार को चाहिए की स्वस्थ्य के लिए खतरनाक कीटनाशकों एवं अन्य रसायनिकों के विक्रय और अंधाधुन्ध इस्तेमाल पर तत्काल  प्रभाव से रोक लगाये।  इसके अलावा उपभोक्ताओं को भी खाद्यान्न, फल और सब्जियां  विश्वशनीय स्थान और भरोसेमंद व्यापारी से ही खरीदना चाहिए और मिलावट खोर व्यापारियों की पुलिस में शिकायत दर्ज करें। 

 

सोमवार, 21 मार्च 2016

मृदा सेहत कार्ड-स्वस्थ्य धरा तो सबका भला

डाॅ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्राध्यापक, सस्य विज्ञान विभाग
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषक नगर, रायपुर (छत्तीसगढ़)

               भारत  की निरंतर बढ़ती हुई आबादी के  लिए भोजन की आवश्यकता की पूर्ति के  लिए कृषि उत्पादन बढाना और  उसे टिकाऊ बनाये रखना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य हो  गया है। वर्ष 2020 तक हमारे देश की जनसंख्या 1.2 अरब तक पहुँचने का अनुमान है जिसके  भरण पोषण के  लिए 280 मिलियन टन खाधान्न  की आवश्यकता होगी। जबकि हमारा खाद्यान्न उत्पादन बीते कुछ वर्षो  से 210 से 224  मिलियन टन के इर्द गिर्द हो  पा रहा है। वर्ष 2020 में प्रति व्यक्ति भूमि की उपलब्धता मात्र 0.11 हेक्टेयर रहने का अनुमान है । जाहिर है कि फसलोत्पादन बढ़ाने के  लिए कृषि योग्य भूमि में वृद्धि करना लगभग असंभव है। अब प्रति इकाई क्षेत्रफल से अधिक से अधिक पैदावार प्राप्त करने के  अलावा हमारे पास अन्य कोई विकल्प शेष नहीं है। कृषि उत्पादन बढ़ाने में सिंचाई के  बाद उर्वरक एक महत्वपूर्ण आदान है। भारत में ही नही अपितु सम्पूर्ण विश्व में फसलोत्पादन में 50 प्रतिशत बढ़ोत्तरी केवल रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से हुई है। हरित क्रांति की सफलता के  फलस्वरूप भारत खाद्यान्न उत्पादन के  मामले में आत्मनिर्भर हो  गया था, परन्तु अनेक क्षेत्रों में बीते कुछ वर्षों से खाद्यान्न उत्पादन में एक ठहराव सा आता जा रहा है।  दरअसल, हरित क्रान्ति के समय हमारी मृदाएँ  प्राकृतिक पोषक तत्वों से परिपूर्ण थी। फलस्वरूप खाद्यान उत्पादन में आशातीत सफलता मिली, परन्तु कृषि वैज्ञानिकों का मुख्य उद्देश्य उत्पादकता बढ़ाने के कारण मृदाओं के उर्वरा स्तर में निरन्तर कमी होती गयी। परिणाम स्वरूप पिछले दशक से अनुभव किया जा रहा है कि मुख्य फसलों के औसत उत्पादन में ठहराव की स्थिति आ गयी है। मृदा अकार्वनिक कणों, सड़े हुए कार्वनिक पदार्थो, वायु एवं जल का एक मिश्रण होती है। मृदा के भौतिक गुण, मृदा के उपयोग तथा पादप वृद्धि के प्रति इसके व्यवहार को प्रभावित करते हैं। ये गुण पौधों की जड़ों को मृदा में प्रवेश कराने, जल निकास एवं नमी धारण आदि में सहायक होते हैं। पादप पोषकों की प्राप्यता भी मृदा की भौतिक दशाओं से सम्बन्धित होती है लेकिन पिछले दशक में मृदा की भौतिक, रासायनिक एवं जैविक क्रियाओं में तीव्र गिरावट हुई है। 
भारत की मृदाओं का बिगड़ता स्वास्थ्य 
               भूमि की उर्वरता किसी भी राष्ट्र के लिए बहुत महत्व रखती है किसी भी देश की सभ्यता का अंदाजा वहां की मृदा गुणवत्ता से आसानी से लगाया जा सकता है। अधिक अन्न उपजाओ की प्रतिस्पर्धा में रासायनिक उर्वरकों के  अन्धाधुंध इस्तेमाल एवं जैविक खादों  की सतत उपेक्षा के  कारण देश की मृदाओं  में जीवांश कार्बन का स्तर मात्र 0.17 ही रह गया है जिसके  फलस्वरूप मृदा स्वास्थ्य (भौतिक, रासायनिक तथा जैविक गुणों) जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति एवं उत्पादन क्षमता में ठहराव तथा अनेक क्षेत्रों  में उत्पादकता में गिरावट देखी जा रही है।  निरंतर सघन खेती अपनाने, उर्वरकों के असंतुलित उपयोग के साथ-साथ जैविक खाद के कम इस्तेमाल के चलते देश के अनेक क्षेत्रों  की मिट्टियों  में अनेक पोषक तत्वों की खासी कमी देखने को मिल रही है। देश के ज्यादातर क्षेत्रों में मिट्टी की सेहत और उसकी उर्वरता में तेजी से गिरावट आ रही है। भारत की करीब 90 फीसदी मिट्टी में अब नाइट्रोजन की कमी है जबकि 80 फीसदी में फॉस्फोरस और 50 फीसदी में पोटेशियम की कमी है। अन्य पोषक तत्वों में सल्फर, जिंक, मैंगनीज, बोरोन की कमी काफी चिंताजनक है।यहीं नहीं धान-गेंहू फसल चक्र वाले क्षेत्रों  में फसल को  जितनी मात्रा में मुख्य पोषक तत्व यानी नत्रजन, स्फुर व पोटाश उर्वरक के  रूप में प्रयोग किये जाते है उससे अधिक मात्रा में फसल इन तत्वों को  भूमि से ग्रहण कर लेती है जिससे भूमि में इन तत्वों  की बेहद कमी होती जा रही है। परिणामस्वरूप इनकी उर्वरता एवं उत्पादकता दिनो  दिन नष्ट होती जा रही है। वर्तमान में बिगड़ते मृदा स्वास्थ्य गंभीर चिंता का विषय है जिसके चलते देश में कृषि संसाधनों का अधिकतम उपयोग नहीं हो पा रहा है।
मृदा स्वास्थ्य में कमी के कारण 
  • मृदा में लगातार खेती होने एवं फसलों  की आवश्यकतानुसार संस्तुति अनुसार खाद उर्वरको का प्रयोग न किया जाना।
  • जैविक खाद के  अभाव के  कारण मृदा में जैविक कार्बन का लगातार घटता स्तर ।
  • उर्वरकों का उचित समय एवं सही विधि से प्रयोग न करने से उर्वरक उपयोग दक्षता कम होना।
  • वर्षा व वायु से मृदा क्षरण के  कारण पोषक तत्वों का धीरे-धीरे ह्रास होना।
  • फसलों  में उर्वरकों का असंतुलित प्रयोग।
  • सघन खेती के प्रचलन से खेतों  में एक साथ कई पोषक तत्वों की कमी होना।
  • मृदा मे  गौण  एवं सूक्ष्म पोषक तत्वों का प्रयोग न होना।

फसल के  लिए आवश्यक पोषक तत्व 
                       पौधों के  स्वस्थ विकास एवं संतुलित पोषण के  लिए प्रमुख रूप से 17 तत्वों  की आवश्यकता होती है जिनमें से कार्बन, हाइड्रोजन  एवं आॅक्सीजन पौधे  वायु एवं जल से ग्रहण करते हैं, शेष 14 तत्वों को  पौधे  मृदा से ग्रहण करते हैं। इनमें नाइट्रोजन, फॉस्फोरस  एवं पोटाश प्रमुख तत्व हैं। पौधों की वृद्धि एवं विकास के  लिए इन तत्वों  की अधिक मात्रा में आवश्यकता होती है । कैल्शियम, मैग्नीशियम एवं सल्फर द्वितीयक यानी गौण पोषक तत्व हैं। प्रमुख पोषक तत्वों  की अपेक्षा इन तत्वों  की कम मात्रा में आवश्यकता होती है। आयरन, मैंगनीज, काॅपर, जिंक, बोराॅन, मोलिब्डिनम, क्लोरीन  तथा निकल  सूक्ष्म पोषक तत्व हैं जिनकी पौधों को  अत्यंन्त कम मात्रा में आवश्यकता होती है । परन्तु फसल उत्पादन क्षमता को  प्रमुख तत्वों के  साथ-साथ सूक्षणे तत्व भी उतना ही प्रभावित करते हैं। यदि मिट्टी से पोषक तत्व निकलते रहें और  उनकी आपूर्ति न की जाए तो  मिट्टी की उर्वरता का ह्रास अवश्यम्भावी है। मृदा की उर्वरता को  उसमें उपस्थित पोषक तत्वों  की मात्रा तथा उसके  भौतिक, रासायनिक तथा उसके  जैविक गुण प्रभावित करते है। यदि किसी पोषक तत्व की मृदा में कमी हो  जाती है तो  उस पर उगने वाले पौधों  का जीवन-चक्र पूरा नहीं हो  पाता है। यही नहीं पौधे  पोषक तत्वों  की न्यूनता तथा अधिकता दोनों  से प्रभावित होते है जिससे उनकी उत्पादकता घट जाती है।
अन्तराष्ट्रीय मृदा स्वास्थ्य वर्ष-2015
कृषि भूमियों के  गिरते स्वास्थ्य की समस्या से भारत ही नहीं पूरा विश्व जूझ रहा है। अमूमन विश्व के  सभी देशों  की कृषि भूमियों  में पोषक तत्वों  की कम उपलब्धता की वजह तथा प्रति इकाई अधिकतम उत्पादन प्राप्त करने की प्रतिस्पर्धा में  रासायनिक उर्वरकों  का बेझा इस्तेमाल किया जा रहा है जिससे भूमि में पोषक तत्वों  का न केवल संतुलन बिगड़ा है वरन पर्यावरण क¨ भी खासा नुकसान पहुँच रहा हैं। भौतिक, रासायनिक एवं जैविक गुणों के  लिहाज से बीमार मृदाओं  की उत्पादन क्षमता में तेजी से गिरावट आ रही है जिसके  कारण जनसंख्या के  भरण पोषण के  लिए आवश्यक अनाज पैदा करना जटिल समस्या बनती जा रही है। इसी तारतम्य में संयुक्त राष्ट्र संगठन द्वारा  वर्ष 2015 को  अन्तराष्ट्रीय मृदा स्वास्थ्य वर्ष घोषित किया गया है जिसमें मृदा के  गिरते स्वास्थ्य पर सभी देशों  में जन-जागृति एवं मृदा की उर्वरता एवं उत्पादन क्षमता बढ़ाने कारगर कदम उठाने का संकल्प लिया गया है।

                                    मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजनाः ईमानदार कोशिश आवश्यक

              मृदा स्वास्थ्य के  समुचित ज्ञान के  अभाव में फसलों  की पोषक तत्वीय आवश्यकता के  अनुरूप खाद-उर्वरकों  का इस्तेमाल न होने के  कारण मृदा उर्वरता एवं फसल उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। अगर हमें अपनी भावी पीढ़ी के भविष्य को सुरक्षित करना है तो भूमि के स्वास्थ्य को सुधारने ओर विवेकपूर्ण ढ़ग से उर्वरकों के इस्तेमाल पर किसानों को शिक्षित करना होगा । हमें किसानों को रासायनिक उर्वरकों के साथ साथ जैव उर्वरकों के प्रयोग को बढ़ावा देने हेतु प्रेरित करना होगा । इसी सोच के चलते प्रधानमंत्री ने  19 फरवरी 2015 को राजस्थान के श्रीगंगानगर जिले के सूरतगढ़ में राष्ट्रव्यापी ‘राष्ट्रीय मृदा सेहत कार्ड’ यानि सॉयल हेल्थ कार्ड योजना का शुभारंभ किया है। प्रधानमंत्री का कहना है कि वंदे मातरम राष्ट्र गान की सुजलाम-सुफलाम  भूमि बनाने का सपना पूरा करने के लिए मिट्टी का नियमित परीक्षण और उसका संतुलित पोषण जरूरी है । सॉयल हेल्थ कार्ड इसी सपने को पूरा करने की दिशा में एक कदम है। इस योजना का मुख्य उद्देश्य देश भर के किसानों को सॉयल हेल्थ कार्ड दिये जाने के लिये राज्यों को सहयोग देना है। इस योजना के तहत केंद्र सरकार ने अगले तीन वर्षों के दौरान देश भर में लगभग 14.5  करोड़ किसानों को राष्ट्रीय मृदा सेहत कार्ड उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा है। यही नहीं तीन साल बाद मृदा सेहत कार्ड का नवीकरण भी किया जायेगा, ताकि इस योजना के तहत किसानों को मिलने वाले तरह-तरह के फायदों का सिलसिला आगे भी जारी बना रहे।इस महत्वाकांक्षी योजना का मूल प्रयोजन है-स्वस्थ धरा, खेत हरा। कृषि भूमि की सेहत और खाद एवं उर्वरकों  के बारे में पर्याप्त जानकारी न होने के चलते किसान आम तौर पर नाइट्रोजन का अत्यधिक प्रयोग करते हैं, जो न सिर्फ कृषि उत्पादों की गुणवत्ता के लिए खतरनाक है बल्कि इससे भूमिगत जल में नाइट्रेट की मात्रा भी बढ़ जाती है। इससे पर्यावरणीय समस्याएं भी पैदा होती हैं। किसान जब संतुलित मात्रा में खाद डालने लगेंगे, तो उनके खेतों की मिट्टी खराब नहीं होगी, फसलों की पैदावार में पर्याप्त इजाफा होगा, साथ ही किसानों की कमाई भी बढ़ेगी। इससे न केवल किसान, बल्कि आम जनता भी लाभान्वित होगी क्योंकि फसलों की ज्यादा पैदावार महंगाई को कम करने में भी सहायक होगी। इसलिए देश के  समस्त किसान भाईयों को  चाहिए कि  वे इस महती योजना का लाभ उठाते हुए अपने प्रत्येक खेत की मिट्टी के परीक्षण आधारित मृदा सेहत कार्ड तैयार करवा कर अपनी खेती-किसानी को  आर्थिक रूप से लाभकारी बनाने में अहम भूमिका निभाएँ। 
क्या है मृदा सेहत कार्ड ?
             मृदा सेहत पत्रक में मिट्टी की सेहत के विभिन्न संकेतकों यथा भूमि की क्षारीयता व लवणयता के गुणों के साथ साथ भूमि में कार्बनिक कार्बन का स्तर, उपलब्ध पोषक तत्वों (नत्रजन, स्फुर, पोटाश के  अलावा अन्य गौण व सूक्ष्म पोषक तत्वों  की मात्रा अंकित की जाती है  जिसके आधार पर फसल के लिए आवश्यक उर्वरकों की मात्रा की सिफारिस की जाती है । इसके  अलावा भूमि की भौतिक गुणों  की भी जानकारी दी जाती है। भूमि की उर्वरा क्षमता बढ़ाने के  आवश्यक उपाय भी सुझाये जाते है।  आजकल उर्वरक तथा अन्य आदान मंहगे होते जा रहे हैं।  अतः यह नितान्त आवश्यक हो जाता है कि किसान भाई मृदा की सेहत के आधार पर  उन आवश्यक तत्वों की भूमि में पूर्ति करें जिनकी जरूरत है ताकि उचित लागत पर  अधिक उपज ली जा सके । मृदा सेहत पत्रक से किसानों को अपनी भूमि की सेहत जानने तथा विभिन्न फसलों के  अनुरूप उर्वरकों के विवेकपूर्ण चयन में मदद मिलती है। 
मृदा सेहत कार्ड तैयार करने अर्थात मिट्टी परीक्षण की सुविधा राज्य कृषि विभाग की मृदा परीक्षण प्रयोगशालाओं, कृषि महाविद्यालयों  एवं कृषि विज्ञान केन्द्रों  पर उपलब्ध है। वैसे तो  प्रत्येक मौसम में फसल की बुआई से पहले मिट्टी की जांच करवा लेनी चाहिए । परन्तु कम से कम तीन वर्ष में किसान को  प्रत्येक खेत की मिट्टी का परीक्षण करवा कर मृदा सेहत कार्ड तैयार करवा लेना चाहिए।

मृदा सेहत कार्ड  के  लिए मिट्टी का नमूना
                     मिट्टी की जांच हेतु खेत से मिट्टी का नमूना लेने से पहले कुछ बातों का ध्यान रखना होता है। नमूना लेने से पूर्व खेत से नमूना लेने वाली जगह से खरपतवार, फसल अवशेष व कूडा-कचरा आदि हटा लें। मृदा नमूने की गहराई फसल के प्रकार, मृदा परीक्षण प्रयोगशाला की सलाह एवं कृषि पद्धतियों (ट्रेक्टर या हल से जुताई) पर निर्भर करती है। सामान्यतरू सही गहराई वह होती है जहां तक पौधों की जडों को अधिकांशतः पोषण प्राप्त होता है। जो कि फसलों के अनुसार अलग-अलग होती है। अनाज, सब्जी व फूलों की खेती के लिये नमूना 15 सेमी. की गहराई से लेना चाहिए। गहरी जड वाली फसलों के लिये नमूने की गहराई 30 सेमी तक होती है। नमूना लेने हेतु प्रत्येक खेत में 8 से 10 स्थानों का चयन करें । चयनित स्थानों पर पहले 15-20 सेन्टीमीटर की गहराई का “वी”  आकार का गडढा बनायें । फिर गड्ढे की दीवार के साथ पूरी गहराई तक मिट्टी की 2.5 सेमी मोटी, एक समान परत काटकर साफ बाल्टी या तगाड़ी में एकत्रित कर लें  तथा इससे जड़े और  कंकड़ आदि निकाल कर अलग कर दें। खेत के  विभिन्न भागों  सेे इस प्रकार एकत्रित मिट्टी को छाया में सुखाने के  पश्चात साफ कपड़े पर डालकर अच्छी तरह से मिला कर गोल ढेर नुमा बनाकर उसे चार बराबर भागों में बांट लेना चाहिए। फिर इन चार भागों में से आमने-सामने के दो भागों की मिट्टी रख लें । पुनः इन दोनों भागों की मिट्टी को मिलाकर चार भागों में बांट लें और आमने-सामने के दो भाग रख लें । यह क्रिया तब तक करते रहे जब तक नमूना आधा किलो न रह जाए । यह इसलिए किया जाता है ताकि लिया गया नमूना पूरे खेत का प्रतिनिधित्व करने वाला हो । इसके बाद इसे  कपड़े की थैली में डालने से पहले  छाया में अच्छी तरह से सुखा लें क्योंकि गीली मिट्टी का नमूना परीक्षण परिणामों को प्रभावित कर सकता है। ये सब करने के बाद कृषक संबंधी आवश्यक जानकारी की दो पर्चियां- एक थैली के अंदर डालें  तथा दूसरी थैली के साथ बाहर बाधें जिसमें कृषक का नाम ,गांव, तहसील, खेत की पहचान या खेत का क्रमांक, खसरा नम्बर, सिंचाई का साधन तथा पूर्व में बोयी गई एवं प्रस्तावित फसल का नाम तथा दिनांक, का  विवरण हो । प्रयोगशाला में मिट्टी की जांच के पश्चात मृदा स्वास्थ्य कार्ड में  जिन घटकों का उल्लेख किया जाता है वह है मिट्टी का पी एच मान, विद्युत चालकता, जैविक कार्बन, उपलब्ध फाॅस्फोरस, उपलब्ध पोटाश के  अलावा गौण व सूक्ष्म पोषक तत्वों  की मात्रा अंकित की जाती है ।  
खादीय सुझाव हेतु लिए गये मृदा न्यादर्श का प्रयोगशाला में विश्लेषण 
तत्वों के नाम                               न्यूनतम  मध्यम उच्चतम 
जैविक कार्बन (%) 0.5 से कम 0.5 से 0.75       0.75 से अधिक
उपलब्ध नत्रजन (किग्रा/हे.) 280 से कम 280-560          560 से अधिक
उपलब्ध फासफोरस (किग्रा/हे) 10 से कम 10-24.6          24.6 से अधिक
उपलब्ध पोटाश (किग्रा/हे)                 108 से कम 108 से 280       280से अधिक
उपलब्ध गंधक (मिग्रा/हे)                   10.0 10.0-25.0        25.0 से अधिक
उपरोक्त तालिका के अतिरिक्त अगर मृदायें ऊसर हैं तो पीएच,ईसी तथा ईएसपी के आधार पर मृदाओं का वर्गीकरण किया जाता है। मिट्टी में जैविक पदार्थ (कार्बन) की मात्र के आधार पर जैविक खाद की सिफारिश की जाती है । जैविक खाद से मिट्टी की भौतिक संरचना व गठन बना रहता है। जैविक कार्बन के आधार पर उपलब्ध नत्रजन की गणना कर, नत्रजन उर्वरकों की सिफारिश की जाती है । नत्रजन का प्रयोग फसल में फसल में दो से तीन बार करना अच्छा होता है। इसी तरह भूमि में  उपलब्ध फाॅस्फोरस का विश्लेषण कर फाॅस्फोरस उर्वरकों की सिफारिश की जाती है । फॉस्फोरस उर्वरक उपयोग पौधों की जड़ों की वृद्धि एवं  फूल तथा बीजों के निर्माण के लिए आवश्यक  होता है । फाॅस्फोरस युक्त उर्वरकों को पौधे के जड़ क्षेत्र के नीचे बुवाई के समय कतारों में प्रय¨ग करना  चाहिए । आमतौर  पर भारतीय मृदाओं  में पोटाश तत्व की पर्याप्त उपलब्धता होती है परन्तु सतत सघन खेती के  कारण आजकल मृदा में  पोटाश की कमी भी देखने को  मिल रही है । पोटाश का पौधों में पानी के उपयोग को नियंत्रित करने की क्षमता रखने के कारण, शुष्क खेती में पोटाश का विशेष  महत्व है।  यह पौधों को सूखा, गर्मी व सर्दी से बचाने व कीड़ों व बीमारियों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता  बढ़ाने में भी मदद करता है । इसके अलावा नत्रजन, स्फुर के  साथ पोटाश के  प्रयोग से फलों एव उपज की गुणवत्ता एवं चमक बढ़ती है जिससे बाजार में उपज का बेहतर मूल्य प्राप्त ह¨ताहैं । रासायनिक उर्वरक की कितनी मात्रा दी जानी चाहिए यह उर्वरक में मौजूद पोषक तत्वों के प्रतिशत पर निर्भर करता है । मृदा स्वास्थ्य कार्ड में अंकित मिट्टी का पी एच मान मिट्टी की क्षारीयता व अम्लीयता को दर्शाता है ।  इसके आधार पर भूमि प्रबंध व सुधार की सिफारिश की जाती है । मृदा के  पी एच मान से मिट्टी के स्वास्थ्य और पोषक तत्वों की उपलब्धता की जानकारी प्राप्त होती है ।  अगर पी एच मान 6 से 7.5  के  मध्य है तो भूमि सामान्य प्रकृति की मानी जाती है अर्थात भूमि में अधिकांश पोषक तत्वों  की उपलब्धता रहती है । अगर पी एच मान 6 से कम अथवा 7.5 से  अधिक है तो पोंधों को पोषक तत्वों की उपलबधता कम या ज्यादा आंकी जाती है   जिसका फसल पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है ।   मिट्टी का पी एच मान 8 से अधिक होने पर क्षारीयता की समस्या, कृषि उत्पादन को प्रभावित करती है । ऐसे खेतों में जांच आधारित जिप्सम डालने की सिफारिश की जाती  है । मृदा जीर्णोद्धार के अंतर्गत गोबर की खाद, कम्पोस्ट, हरी खाद, जिप्सम उपयोग, जीवाणु खाद  से बीजोपचार, सूक्ष्म तत्वों का प्रयोग इत्यादि पर ध्यान देना होगा ।

गुरुवार, 17 मार्च 2016

मधुमेह रोगियों के लिए रामबाण ओषधि है हनी प्लांट-स्टीविया


डॉ जी.एस. तोमर 
प्रोफेसर (एग्रोनॉमी)
इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीगढ़)

             क्या आप जानते है कि प्रकृति ने हमें एक ऐसे पौधे से नवाजा है, जिसके तने और पत्तियों में मिठास हो ।  जी हाँ इस अद्भुत पौधे को मधु पात्र या मीठी पत्ती यानी स्टीविया कहते है जिसके जिसके पोर-पोर में मिठास भरा होता है और इसके सत्व में चीनी से कई सौ गुना मिठास  होता है और इस मिठास में शून्य कैलोरी  ऊर्जा होती है। प्राचीन काल से शक्कर भोजन का आवश्यक घटक है जो कि गन्ने (60%) और चुकंदर से प्राप्त होती है। लेकिन इस प्रकार से प्राप्त शक्कर में मिठासपन के गुण मौजूद तो होते है लेकिन जो मधुमेह रोगी के लिए हानिकारक होते है। 

स्टेविया की पत्तियाँ में शक्कर की तुलना में 30-45 गुना मिठास पाई जाती है और इसे मिठास के उद्देश्य से प्रत्यक्ष रूप से (सीधे) उपयोग कर सकते है।स्टेविया की पत्तियों से निकाला गया सफेद रंग का पाउडर चीनी से 100 से 300 गुना अधिक मीठा होता है। यह शून्य कैलोरी स्वीटनर है इसका कोई दुष्प्रभाव नहीं है।शून्य कैलोरी ऊर्जा वाली मिठास के रूप में यह  डायबटीज़ यानि मधुमेह रोगी  एवं मोटापा ग्रस्त लोगों के लिए सुरक्षित औषधि है क्योंकि यह ब्लड सुगर लेबिल को प्रभावित नहीं करता है। अतः इसे शर्करा के खाद्य विकल्प के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है।स्टीविया उत्पाद, प्राकृतिक होने के साथ-साथ एक प्रकार का डाईटरपीनाएड ग्लाइकोसाइड है, जिसे कार्बोहायड्रेट के विकल्प के रूप में शर्करा रोग, मोटापा घटाने तथा मिठास  उत्पन्न करने वाले पदार्थ के रूप में, मिठाइयां, बिस्किट, चाकलेट, आईसक्रीम, केन्डीस  च्युंगम, मिंट रिफ्रेशनर और टूथ पेस्ट बनाने में  इसका उपयोग  किया जाने लगा  है।
पैरागुआ नामक राष्ट्र से चलकर भारत पहुंची एस्ट्रेसी (सूर्यमुखी) परिवार की वनस्पति  स्टेविया (स्टेविया रेवूडियाना)  नामक जड़ी-बूटी की खेती  ब्राजील, जापान, कोरिया, ताईवान और दक्षिण पूर्व एशिया में  प्रचलित  है। भारत में यह मध्यप्रदेश, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब और छत्तीसगढ़ में छोटे-बड़े पैमाने पर उगाई जाने लगी  है।
ऐसे करें स्टीविया की खेती 
उपयुक्त जलवायु 
स्टीविया  अर्ध – नम और सम उष्ण कटिबंधीय पौधा है।  इसकी पैदावार  के लिए दिन का तापमान   41 डिग्री सेंटीग्रेड से अधिक तथा रात का  तापमान 10 डिग्री सेंटीग्रेड से कम नहीं होना चाहिए । तापमान एवं लम्बे दिनों का फसल के उत्पादन पर अधिक प्रभाव पङता होता है।
भूमि की तैयारी 
स्टीविया की सफल खेती के लिये उचित जल निकास वाली रेतीली दोमट भूमि जिसका पी०एच० मान 6 से 7 के मध्य हो, उपयुक्त पायी गयी है।  जल भराव वाली या क्षारीय जमीन में स्टीविया की खेती नही की जा सकती है।  सर्प्रथम खेत को भली भांति जोत कर मिट्टी को भुरभुरा कर समतल कर लेना चाहिए।  
उन्नत किस्में 

स्टीविया की पत्तियों में उपस्थित ग्लूकोसाइड के आधार पर बिभिन्न जलवायु हेतु सन फ्रट्स लिमिटेड , पूना द्वारा तिन प्रजातियों का बिकास किया गया है जो निम्न है 
  • एस० आर० बि० -१२३ : स्टीबिया के इस किस्म में ग्लूकोसाइड कि मात्रा ९-१२ % तक पाई जाती है तथा वर्ष भर इसकी ५ कटाइयाँ ली जा सकती है ।
  • एस० आर० बि० - ५१२ : स्टीबिया कि यह किस्म उत्तर भारत के लिए ज्यादा उपयुक्त है वर्ष भर में इसकी चार कटाइयाँ ली जा सकती है तथा इसमे ग्लूकोसाइड कि मात्रा ९-१२% तक होती है ।
  • एस० आर० बी ० - १२८ : स्टीबिया कि यह किस्म सम्पूर्ण भारतवर्ष के लिए सर्वोत्तम है इसमे ग्लूकोसाइड कि मात्रा २१%तक पाई जाती है तथा वर्ष में चार कटाइयाँ भी ली जा सकती है ।
कब और कैसे लगाये स्टीविया 
               वैसे तो स्टीविया की फसल वर्ष में कभी भी लगाई जा सकती है लेकिन रोपाई के लिए  फरवरी-मार्च का महीना उपयुक्त रहता है।  उचित वातावरण में स्टीविया की वर्ष में 2-3 फसलें ली जा सकती है।  इस पौधे के बीज बहुत छोटे होते है जिनकी अंकुरण क्षमता भी न्यून होती है।  अतः व्यवसायिक खेती के लिए पौधे की कटिंग का उपयोग किया जाता है।  पौधों की छोटी कटिंग को पॉलिथीन बेग में मिट्टी + रेत + गोबर खाद  का मिश्रण भर कर इनमे छोटी-छोटी कलमें लगाई जाती है। इन पोलीथीन बेग को  7-8 सप्ताह के लिए हरित गृह (ग्रीन हाउस) में रख कर पादप की अभिवृद्धि कराइ जाती है। पौधों की कटिंग को सीधे हरित गृह ( ना अधिक गर्मी और ना ही अधिक ठण्ड हो)  में तैयार क्यारिओं में भी सीधे रोपा जा सकता है। स्टीविया के पौधों की  रोपाई मेङो पर किया जाना चाहिए।  इसके लिये 15  सेमी ऊँची  2 फीट चौड़ी क्यारियाँ   बनायें  तथा उन पर कतार से कतार की दूरी 40 सेमी० एवं पौधों में पौधें की दूरी 20-25 सेमी०  रखते हुए पौध रोपण करें।  दो क्यारियों के  बीच 1.5 फीट की जगह नाली या रास्ते के रूप में छोङ देते है। 
खाद एवं उर्वरक
मुख्या खेत में स्टीविया पौध रोपण  के  20 से 25 दिन पूर्व खेत में 10 से 15 टन/हेक्टेयर की दर से गोबर की खाद मिलाना चाहिए। अधिक उपज के लिए रोपाई के समय नत्रजन, फॉस्फोरस और पोटाश क्रमशः  60: 30:45  कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए। बोरान और मैग्नीज का छिड़काव करके सूखी पत्तियों की उपज को बढ़ाया जा सकता है।
सिंचाई करें भरपूर 
स्टीविया की फसल सूखा सहन नहीं कर पाती है इसको लगातार पानी की आवश्यकता होती है सर्दी के मौसम में 10 दिन के अन्तराल पर तथा गर्मियों में प्रति सप्ताह सिंचाई करनी चाहिये।  स्टीविया की  फसल में सिंचाई करने का सबसे उपयुक्त साधन सिचाई की  स्प्रिंकलरर्स या ड्रिप पद्धति  है। खेत से अनावश्यक जल की निकासी की व्यवस्था होना जरूरी होता है क्योंकि इसके पौधे जल भराव को सहन नही कर पाते है। 
खरपतवार नियंत्रण
सिंचाई के पश्चात खेत की निराई खेत की निराई- गुङाई करनी चाहिये जिससे भूमि भुरभुरी तथा खरपतवार रहित हो जाती है जो कि पौधों में वृद्धि के लिये लाभदायक होता है। 
रोग एवं कीट नियंत्रण
सामान्यतरू स्टीविया की फसल में किसी भी प्रकार का रोग या कीङा नहीं लगताहै कभी-कभी पत्तियों पर धब्बे पङ जाते है जो कि बोरान तत्व की कमी के लक्षण है। इसके नियंत्रण के लिये 6 प्रतिशत बोरेक्स का छिङकाव किया जासकता है कीङो की रोकथाम के लिये नीम के तेल को पानी में घोलकर स्प्रेकिया जा सकता है। 
आवश्यक है फूलों को तोङना
             स्टीविया की पत्तियों में ही स्टीवियोसाइड पायेजाते है इसलिये पत्तों की मात्रा बढायी जानी चाहिये तथा समय-समय पर फूलोंको तोङ देना चाहिये अगर पौधे पर दो दिन फूल लगे रहें तथा उनको न तोङाजाये तो पत्तियों में स्टीवियोसाइड की मात्रा में 50 प्रतिशत तक की कमी हो सकती है। फूलों की तुङाई, पौधों की खेत में  रोपाई के 30, 45, 60,75 एवं 90 दिन के पश्चात एवं प्रथम कटाई के समय की जानी चाहिये।  फसल की पहली कटाई के पश्चात 40, 60 एवं 80 दिनों पर फूलों को तोङने की आवश्यकता होती है
फसल की कटाई
           स्टीविया की पहली कटाई पौधें रोपने के लगभग ४ महीने पश्चातकी जाती है तथा शेष कटाईयां 90-90 दिन के अन्तराल पर की जाती है इसप्रकार वर्ष भर में 3-4 कटाईया तीन वर्ष तक ही ली जाती है, इसके बादपत्तियों के स्टीवियोसाइड की मात्रा घट जाती है।  पौधों को जमीन से 5 -8  सेमी० ऊपर से काटना चाहिए।तथा इसके पश्चात पत्तियों को टहंनियों से तोङकर धूप में अथवा ड्रायर द्वारा सूखा लेते है।  तत्पश्चात सूखी पत्तियों को ठङे स्थान में शीशे के जार या एयर टाईट पोलीथीन पैक में भर देते है
उपज- वर्ष भर में स्टीविया की 3-4कटाईयों में लगभग 70 कु० से 100 कु०सूखे पत्ते प्राप्त होते है
लाभ
वैसे तो स्टीविया की पत्तियों का अन्तर्राष्ट्रीय बाजार भाव लगभगरू० 300-400 प्रति कि०ग्रा० है लेकिन अगर स्टीविया की बिकीदर रू० 100ध्प्रति कि०ग्रा० मानी जाये तो प्रथम में एक एकङ में भूमि से 5 से 6 लाख की कुल आमदनी होती है, तथा आगामी सालों में यह लाभ अधिक होता है कुल आमदनी होती है, तथा आगामी सालों में यह लाभ अधिक होता है कुल तीन वर्षो में लगभग 1 एकङ से 5-6 लाख का शुद्ध लाभ प्राप्त किया जा सकता है

आस्था, स्वास्थ्य और सम्रद्धि का प्रतीक है गुड़हल


डॉ जी. एस तोमर 
प्रोफेसर (एग्रोनॉमी)
इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)

                माँ दुर्गा के चरणों में  अर्पित किये  जाने वाले  लाल रंग के  गुड़हल पुष्प को  शक्ति, सौभाग्य एवं सम्रद्धि का प्रतीक  माना जाता है। गुड़हल का पेड़ उसके फूल के आकर्षक रंगों, नैसर्गिक सौंन्दर्य तथा लुभावने घंटाकार पुष्प के कारण उद्यान, घर और मंदिरों में लगाये जाते हैं। गुड़हल को भारत में जासौन, चाइना  रोज तथा वनस्पति शास्त्र में इसे हिबिस्कस रोसा सिनेन्सिस कहा जाता है जो की माल्वेसी परिवार का शोभायमान सदस्य है। भारत के  प्रायः हर बगीचे की रौनक होता है गुड़हल का फूल।  धार्मिक आस्था से जुड़ा  सजावटी पुष्प होने के साथ-साथ हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में स्वास्थ्य प्रबंधन में इस अद्भुत बनस्पति का बहुत योगदान हो सकता है। आजकल  गुडहल के फूल अनेक आकर्षक  रंगों में उपलब्ध  हैं जैसे, लाल, सफेद , गुलाबी, पीला और बैगनी आदि।  श्वेत या श्वेताभ लाल रंग के पुष्पवाला गुड़हल विशेष गुणकारी होता है।यह सुंदर सा गुडहल का फूल स्वास्थ्य के खजाने से भरा पड़ा है। इसका इस्तेमाल खाने- पीने या दवाओं लिए किया जाता है। इससे कॉलेस्ट्रॉल, मधुमेह, हाई ब्लड प्रेशर और गले के संक्रमण जैसे रोगों का इलाज किया जाता है। गुड़हल के पुष्प में लौह, फॉस्फोरस, कैल्शियम, राइबोफ्लोबिन, थियामिन, नियासिन व विटामिन सी अल्प मात्रा में होता है। गुड़हल के पत्तों में थोड़ी सी मात्रा में केरोटीन पाया जाता है ।

स्वास्थ्य का खजाना 
           सामान्य से गुड़हल के पौधे और उसके आकर्षक फूलों में हमारी सेहत से जुड़े तमाम गुड छिपे है। तो आइये जानते हैं गुडहल के स्वास्थ्य और औषधीय लाभ के बारे में-
1. गुडहल से बनी चाय को प्रयोग सर्दी-जुखाम और बुखार आदि को ठीक करने के लिये प्रयोग की जाती
4. - डायटिंग करने वाले या गुर्दे की समस्याओं से पीडित व्यक्ति अक्सर इसे बर्फ के साथ पर बिना चीनी मिलाए पीते हैं, क्योंकि इसमें प्राकृतिक मूत्रवर्धक गुण होते हैं।
5. क्या आप जानते हैं कि गुडहल की चाय भी बनती है। जी हां, गुडहल की चाय एक स्वास्थ्य हर्बल टी है। कई देशों में गुड़हल की पत्तियों से निर्मित चाय का सेवन ओषधि के रूप में किया जाता है। किडनी से सम्बंधित समस्या होने पर इससे बानी चाय बिना शक्कर के लेने से आराम मिलता है।  इसकी चाय एलडीएल कोलेस्ट्रॉल को कम करने में भी प्रभावी होती है।  यही नही इसमें पाये जाने वाले तत्व आर्टरी में प्लेक को जमने से रोकते है , जिससे कोलेस्ट्रॉल का स्तर कम होता है। इसके फूलों में एंटी-ऑक्सीडेंट पाया जाता है जो कोलेस्ट्रॉल कम करने के अलावा ब्लड प्रेशर को भी कंट्रोल करता है। अतः इसके फूलों को गर्म पानी में उबालकर चाय के रूप में लेना स्वास्थ्य के लिए हितकारी होता है। 
6. गुडहल का फूल काफी पौष्टिक होता है क्योंकि इसमें विटामिन सी, मिनरल और एंटीऑक्सीडेंट होता है। यह पौष्टिक तत्व सांस संबन्धी तकलीफों को दूर करते हैं। यहां तक की गले के दर्द को और कफ को भी हर्बल टी सही कर देती है।
7. गुड़हल का शर्बत दिल और दिमाग को शक्ति प्रदान कर मेमोरी पावर को बढ़ता है।  इसके लिए गुड़हल की 10  पत्तियां और 10 फूल लेकर सुखाकर और पीस कर उसका पाउडर बना लिए जाता है। इस पाउडर को हवाबंद को किसी हवा बंद डिब्बे में पैक कर रख लें। दिन में दो बार दूध के साथ इस पाउडर के सेवन से मेमोरी पावर में इजाफा होता है।
8. गुड़हल के लाल फूल वाले पौधे  की 25 पत्तियां नियमित खाने से  डायबिटीज रोग पर काबू पाया जा सकता है ।
9.   गुडहल के फूल ही नहीं बल्कि पत्तियां भी बालों को स्वस्थ, सुन्दर, काले घने और चमकीले बनाने में सहायक होते है। एक मुट्ठी गुड़हल की पत्तियों व फूलों को  मिग्रा. नारियल तेल में उबालकर ठंडा कर लें। इससे शिर  मालिश करने से बाल गिरने/झड़ने की समस्या से निजात मिलेगी और बाल बढ़ने लगेगें।
10.  गुडहल के पत्ते तथा फूलों को सुखाकर पीस लें। इस पावडर की एक चम्मच मात्रा को एक चम्मच मिश्री के साथ पानी से लेते रहने से स्मरण शक्ति तथा स्नायुविक शक्ति बढाती है।
11.  गुडहल के फूलों को सुखाकर बनाया गया पावडर दूध के साथ एक एक चम्मच लेते रहने से रक्त की कमी दूर होती है
12. गुड़हल के पत्तो का लेप सूजन को मुलायम करके दर्द को कम करता है।
13.  यदि चेहरे पर बहुत मुंहसे हो गए हैं तो लाल गुडहल की पत्तियों को पानी में उबाल कर पीस लें और उसमें शहद मिला कर त्वचा पर लगाए
14. गुड़हल के फूलों को खुजली, दाग व पपड़ीदार त्वचा पर लगाने से यह स्वस्थ हो जाती है।


सोमवार, 14 मार्च 2016

कासनी-सम्पूर्ण स्वास्थ्य रक्षक


गजेन्द्र सिंह तोमर
प्रोफेसर (एग्रोनॉमी)
इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)

कासनी (चिकोरियम इंटाइवस) एस्टेरेसी कुल का पौधा है जो बतौर खरतवार शीत  ऋतू में स्वमेव उगता  है, जिसे चिकोरी भी कहा जाता है। चिकोरी के पौधे अक्सर चारे वाली फसल बरसीम और लूसर्न के खेत में खरपतवार  के रूप में उगता है।  इसका चारा अधिक मात्रा  में खाने से पशु बीमार हो जाते है। पुरातन काल में ग्रीक और इजिप्ट वासी चिकोरी के पौधों का सेवन करते थे ताकि उन्हें विभिन्न रोगों से निजात मिल सके और वे स्वस्थ्य रहे।  भारत के लगभग सभी प्रदेशों में पाये जाने वाले इस बहुवर्षीय झाड़ीनुमा पौधे की  उंचाई 30 से 120 सेमी होती है। इसके तने के पास वाले पत्ते खंडित और धारदार होते है जबकि ऊपर की पत्तियाँ छोटी,सरल तथा धारदार होती है ।  इसके फूल आकर्षक  चमकीले नीले रंग के होते है। इसके बीज छोटे, सफ़ेद रंग के  जो वजन में हल्के  होते है।  कासनी की जड़ गोपुच्छाकार बाहर से हल्की भूरी और अंदर से सफ़ेद होती है।  इसका स्वाद फीका और कड़वा (तिक्त) होता है।




कासनी में होते है बेसुमार औषधीय गुण
  • कासनी के सम्पूर्ण  पौधे  (जड़, तना, पत्तियाँ, फूल और बीज) में  ओषधीय गुण होते है।
  • कासनी के बीज, भूख बढ़ाने वाले, कृमिनाशक, लीवर रोग, कमर दर्द, सिर दर्द, दिल की धड़कन , जिगर की गर्मी, पीलिया आदि को दूर करता है।
  • कासनी में खनिज लवण जैसे पोटैशियम, लोहा, कैल्शियम और फॉस्फोरस के आलावा विटामिन-सी और अन्य पोषक तत्व पाये जाते है। कासनी का प्रभाव शामक/निद्राजनक होता है जो कि इसमें उपस्थित लैक्टुकोपिक्रीन के कारण होता है।
  • कासनी यकृत (लीवर) की रक्षा करता है। यह पाचन को बढ़ाता है।  यह रक्तवर्धक है तथा खून को साफ़ करता है। मूत्रल होने से पेसाब की मात्रा को बढ़ाता है और पेसाब रोगों और शरीर में सूजन से राहत देता है। इसके सेवन से डायबिटीज रोगियों में ब्लड शुगर लेवल को कम करने में मदद मिलती है। इसके पत्तों के लेप से जोड़ों का दर्द दूर होता है। इसकी जड़ को पीस कर बिच्छू के काटे जाने की जगह पर लगाने से आराम मिलता है।


शुक्रवार, 4 मार्च 2016

मलेरिया रोधक अदभुत पौधा-आर्टिमिसिया एनुआ

गजेन्द्र सिंह तोमर 
प्राध्यापक सस्य विज्ञानं विभाग 
इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)


                   मलेरिया एक विश्वव्यापी घातक रोग है जिससे प्रभावित मनुष्य को बुखार के साथ-साथ कपकपी लिए हुए ठण्ड लगती है। मच्छर से फैलने वाले इस रोग से बहुसंख्यक लोग बीमार पड़ते है। इस रोग से बचने के  लिए क्विनीन नमक दवा उपयोग में लाई जाती है। मलेरिया के परजीवी को मारने में अब इस दवा का प्रभाव कम होता जा रहा है।  बीतें कुछ वर्षों में एक  अदभुत पौधा-किंघाऊँ अर्थात आर्टिमिसिया एनुआ प्रकाश में आया है जिसके अंदर पाये जाने वाले आर्टिमिसिनिन नामक पदार्थ को मलेरिया की दवा बनाने में लाभकारी  पाया गया है। चीन में सर्वप्रथम मलेरिया की दवा बनाने में इस पौधे का प्रयोग किया गया। अब विश्व स्वस्थ्य संघठन ने भी इस पौधे को प्रसारित करने हेतु योजनाएं चलाई है। लखनऊ स्थित केंद्रीय ओषधीय एवं सगंध पौधा संस्थान में बीते कुछ वर्षो से शोध कार्य किये जा रहे है। 
                   आर्टिमिसिया एनुआ  जिसे क्वाघाओ वर्मवुड नाम से भी जाना जाता है।  इसके पौधे दो मीटर तक लंबे, सीधे, मजबूत, रोयेंदार और सुगन्धित होते है। दुनियां भर में इस पौधे की सुखी पत्तियों से मलेरिया रोधी दवा तैयार की जाती है। दुनियां भर में इस दवाई की वार्षिक मांग 130 मीट्रिक टन के आस पास है जिसकी प्रतिपूर्ति चीन और भारत करता है। भारत की दवा कंपनी पहले इस दवा का कच्चा माल (सुखी पत्तियां) चीन से आयात करती  थी ।  केंद्रीय ओषधीय एवं सगंध पौधा संस्थान, लखनऊ द्वारा  इस पौधे पर शोध कार्य करते हुए इसकी उत्पादन तकनीक विकसित की और खेती के लिए किसानों को शिक्षित प्रशिक्षित किया गया।
फायदे का सौदा है आर्टिमिसिया की खेती       
           भारत में  मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, गुजरात, बिहार, उत्तराखंड आदि राज्यों में इसकी खेती कर किसान खासा  लाभ कमा  रहे है।  भारत, चीन सहित अफ्रीकन देशों में इस दवाई की मांग अधिक है। इसलिए इस फसल की खेती की भविष्य में बेहतर संभावनाएं है। किसानों के लिए इसकी खेती वरदान सिद्ध हो रही है।
आर्टिमिसिया एनुआ की उन्नत किस्में 
             केंद्रीय ओषधीय एवं सगंध पौधा संस्थान, लखनऊ द्वारा इसकी तीन किस्में (जीवन रक्षा, सिम-अयोग्य और आशा) विकसित की गई है जिनमें से  'सिम-आरोग्य' नामक प्रजाति में सबसे ज्यादा  आर्टिमिसिनिन की मात्रा पाई गई। 
ऐसे करें आर्टिमिसिया एनुआ की सफल खेती  
                आर्टिमिसिया की सफल खेती के लिए उचित जल निकास वाली बलुई दोमट मिट्टियाँ उपयुक्त होती है। इसका बीज बहुत छोटा होता है। इसलिए इसकी पौध तैयार कर खेत में पौध रोपण करना अच्छा होता है। एक हेक्टेयर क्षेत्र के लिए 150 वर्गफुट भूमि में नर्सरी तैयार करना होता है। चयनित खेत में पहले सड़ी हुई गोबर की खाद समान रूप से बिखेर कर खेत की जुताई करें एवं मिट्टी को भुरभुरा बना लेना चाहिए। अब खेत को छोटी-छोटी क्यारियों में विभाजित कर लें तथा सिंचाई हेतु नालियां बना लेना चाहिए। प्रति हेक्टेयर 20 ग्राम बीज की आवश्यकता पड़ती है। फफूंदनाशक दवा से बीज उपचार करने के पश्चात बीज को उचित मात्रा में बालू या भूर भुरी गोबर की खाद अथवा राख के साथ मिलाकर क्यरियों में समान रूप से छिड़कना चाहिए।  बीज   बोने के बाद ऊपर से  केंचुआ खाद या फिर  बारीक़ गोबर की खाद छिड़क कर हल्की सिंचाई कर देना चाहिए। लगभग 50 से 60 दिन में पौध रोपाई हेतु तैयार हो जाती है। 
ध्यान से करें पौध रोपण 
            मुख्य खेत जिसमे पौध रोपण करना है, की भली भांति गहरी जुताई कर उसमे पाटा चलाकर समतल कर लेना चाहिए। अंतिम जुताई के पूर्व अच्छी प्रकार से सड़ी हुई गोबर की खाद (5-6 टन प्रति हेक्टेयर) खेत में मिला देना चाहिए। आर्टिमिसिया की  पौध 50-60 दिन की होने पर उसे खेत में कतार से कतार 50 सेमी तथा पौध से पौध 30 सेमी की दूरी पर रोपन कर हल्की सिंचाई कर देना  चाहिए। उत्तम पैदावार लेने के लिए पर्याप्त मात्रा में खाद एवं उर्वरकों की आवश्यकता होती है, जोकि भूमि के प्रकार पर निर्भर करती है। सामान्यतौर पर 150 किग्रा नत्रजन,   50 किग्रा फॉस्फोरस एवं 50 किग्रा पोटाश प्रति हेक्टेयर देना उचित रहता है। उक्त नत्रजन की आधी तथा फॉस्फोरस एवं पोटाश की पूरी मात्रा खेत की अंतिम तैयारी के समय छिडकें  अथवा रोपाई के समय कतार में देना चाहिए। नत्रजन की शेष मात्रा को 2-3 बार में सिंचाई के साथ देना चाहिए। 
समय पर सिंचाई एवं खरपतवार नियंत्रण 
           पौध रोपण के तुरंत बाद हल्की सिंचाई की जाती है। इसके बाद मौसम एवं मृदा प्रकार के आधार पर आवश्यकतानुसार सिंचाई करते रहें। दीमक प्रभावित क्षेत्रों में फसल सुरक्षा के लिए क्लोरोपाइरीफॉस दवा 1-1.5 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से सिचाई के समय प्रयोग करना चाहिए।   खरपतवार मुक्त फसल  रखने के लिए एक माह बाद खेत में   1-2 निराई-गुड़ाई खुरपी या हैंड हो की सहायता से करना आवश्यक है।
शुष्क मौसम में करें पौध कटाई
          आर्टिमिसिया की पत्तियां ही आर्थिक महत्त्व की होती है। इसकी कटाई के समय मौसम शुष्क एवं बादल रहित होना चाहिए। उत्तर भारत में पहली कटाई मई के अंत में (बोने के 95-100 दिन बाद), दूसरी कटाई जुलाई अंत से अगस्त के प्रथम सप्ताह (बोने के 145-150 दिन बाद) तथा तीसरी कटाई सितम्बर के मध्य में (बुवाई के 190-200 दिन बाद) करना चाहिए। पौधों की कटाई दांतेदार तेज धार वाले हँसिया से भूमि की सतह से 30 सेमी  की ऊंचाई से ही (नीचे से एक फुट छोड़कर) करना चाहिए। 
आर्थिक उपज 
           आर्टिमिसिया फसल की तीन कटाइयों में 450-475 क्विंटल ताज़ी हरी पत्तियां प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती है, जिसे छाया में सुखाने पर 40-50 क्विंटल सूखी पत्ती प्राप्त हो जाती है।  उपज पूर्णतः मौसम एवं उत्पादन तकनीक पर निर्भर करती है।  इसके पौधों को खेत से काटकर साफ़ एवं शुष्क स्थान पर छाया में अच्छी प्रकार सुखाकर पत्तियों को डंठल से अलग कर लेते है। इसके बाद इन्हे पुनः सुखाकर जूट के बोरों में भरकर विक्रय हेतु भेज देना चाहिए।मध्य प्रदेश के रतलाम स्थित इप्का लेबोरेटरी  बड़ी तायदाद में इस दवाई का निर्माण किया जा रहा है।   आर्टिमिसिया पौधों की एक टन सुखी पत्तियों से चार किलो दवाई बनाई जाती है।
ध्यान रखें : इसकी खेती करने से पूर्व उपज के खरीददारों से सम्पर्क अथवा किसी दवा निर्माता कंपनी के साथ अनुबंध  आवश्य कर लेना चाहिए, जिससे उपज बेचने में कठिनाई ना हो।  इप्का दवा निर्माता  कंपनी  फसल की उत्पादन तकनीक पर  किसानों को प्रशिक्षण प्रदान करने के साथ-साथ उन्नत किस्म के बीज भी उपलब्ध करा रही है। 



जैविक खेती सदाबहार-मानव जीवन का आधार

डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर 
प्राध्यापक, सस्य विज्ञानं विभाग
इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)

स्वास्थ्य और समृद्धि के लिए फिर से अपनाएं  प्राकृतिक खेती 

                      स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात  निरंतर जनसँख्या वृद्धि की वजह से देश की जनता के लिए खाद्यान्न आपूर्ति करना एक बड़ी समस्या थी जो दिनों दिन विकराल रूप धारण करती जा रही थी। कहते है 'आवश्यकता आविष्कार की जननी' होती है। देश में 70 के दशक में हरित क्रांति का प्रादुर्भाव हुआ जिसके लिए हम सब डॉ एन बोरलॉग साहब  को सदैव याद करते रहेंगे क्योंकि हरित क्रांति ने खाद्यान्न समस्या से निजात के लिए हमें नया विकल्प दिया। हरित क्रांति से जहाँ देश में धन-धान्य में प्रगति,विकास और आत्मनिर्भरता आई, वहीं कृषि क्षेत्र को चौतरफा विकट समस्याओं ने भी जकड़ लिया जिससे सुलझने में लंबा वक्त लग सकता है। कृषि उत्पादन और आमदनी बढ़ाने की होड़ में रासायनिक उर्वरकों और पौध सरंक्षण के लिए जहरीलें रासायनिकों का अधिकाधिक प्रयोग किया जाने लगा।  मात्र अधिकतम फसल उत्पादन कर खाद्यान्न आपूर्ति के फेर में हमने मानव स्वास्थ्य को भी दाव पर लगा दिया।  जो अन्न, सब्जियां, दलहन,तिलहन और फल प्राप्त हो रहे हैं वो मात्र अधिक रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों की देंन  है। पोषक तत्वों के नाम पर हम सब केवल कीटनाशकों एवं अन्य रसायनिकों का धीमा जहर खाने और प्रदूषित जल पीने मजबूर है। अब समय आ गया है जब भूमि की  कम होती  उर्वरा शक्ति को बढ़ाने और उसे लंबे समय तक कायम रखने के लिए रासायनिक उर्वरकों की अपेक्षा प्राकर्तिक जैविक खादों का उपयोग करने के लिए किसानों को प्रेरित करें ताकि हमारी आने वाली पीढ़ियाँ स्वस्थ और तंदुरस्त रहें जिससे सुद्रढ़ समाज की व्यवस्था हो सकें। जलवायु परिवर्तन से उपजी पर्यावरणीय समस्याओं से निपटने के लिए भी जरूरी है कि हम रसायन रहित खेती  को  अपनाएँ और इसके लिए आवश्यक है कि हम अपनी परम्परागत प्राचीन पद्धत्ति जिसे जैविक खेती कहते है, की ओर अविलम्ब लौटें।  सुरक्षित वातावरण और जहरीले रसायन मुक्त शुद्ध-पौष्टिक भोजन के प्रति उपभोक्ताओं की बढ़ती जागरूकता की वजह से पिछले कुछ वर्षों से जैविक रूप से उत्पादित पदार्थों यथा भोज्य पदार्थ एवं हर्बल उत्पाद की विश्वव्यापी मांग में खासी बढ़ोत्तरी दर्ज़ की जा रही है।  
                जैविक खेती का प्रमुख सिद्धांत 'मृदा में जीवांश की पर्याप्त मात्र कायम करना' है। अब भारत में ही नहीं अन्य कई विकसित और विकासशील देशों में भी जैविक खेती का प्रचार- प्रसार तेजी  से हो रहा है। जैविक खेती के तहत जैविक खादों एवं जैव उर्वरकों जैसे गोबर की खाद, कम्पोस्ट, केंचुआ खाद, हरी खाद, जीवाणु खाद आदि का प्रयोग किया जाता है। पौध सरंक्षण के लिए फसल चक्र तथा जैविक दवाओं का उपयोग किया जाता है। जैविक खेती के इन आदानों को काम लागत से किसान आसानी से तैयार कर सकते है। जैवीय कृषि, जो कि कृषि का सबसे प्राचीन स्वरुप है, के ढेर सारे फायदे है जैसे की भूमि में इसका प्रभाव दीर्धकालिक होता है। मृदा की भौतिक,रासायनिक और जैविक दशा में सुधार के साथ-साथ वायु संचार बढ़ता है और तापमान भी नियंत्रित रहता है। मिट्टी  में लाभदायक जीवाणुओं की वृद्धि होने से फसलों व भूमि की सेहत में सुधार  होता है। जैविक खेती में जहाँ फसल उत्पादन की लागत कम आती हैं, वहीं हमारे प्राकृतिक संसाधनों जैसे मिट्टी, पानी और जैव विविधिता  का सरंक्षण भी होता है। इस प्रकार हम कह सकते है की जैविक खेती से भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ती है, वायु एवं जल प्रदुषण से सुरक्षा के साथ साथ, खेती की बाह्य लागतों में कमी, रोजगार सृजन, शुद्ध और पौष्टिक आहार प्राप्त होता है जिसकी आज हम सबको दरकार है।

जैविक खेती की जान-हम पांच 

                 जैवीय पोषण, सक्षम जैव उर्वरक व कीटनाशक, दलहनी और हरी खाद वाली फसलों का फसल चक्र और वानस्पतिक कीट-रोग नाशक सफल जैवीय उत्पादन के अपरिहार्य घटक ही नहीं जैविक खेती की जान है। जैविक खेती के माध्यम से उच्च उत्पादन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए निम्न पांच घटकों  का सफलतापूर्वक इस्तेमाल आवश्यक है। 
एक-केंचुआ खाद (वर्मीकम्पोस्ट): ज्यादातर जैविक खादें उचित मात्रा में सही समय पर उपलब्ध हो जाना संभव नहीं  हो पाता है और उस पर भी उनके  उचित गुणवत्ता युक्त ना होने से फसल उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। केंचुआ खाद यानि वर्मीकम्पोस्ट अन्य जैविक खादों की अपेक्षा अधिक उपयुक्त होता है क्योंकि इसे कम समय और सीमित लागत में आसानी से बनाया जा सकता है, जिसमे पोषक तत्वों के साथ-साथ सूक्ष्म जीवियों की अधिकता होती है। सभी कृषि प्रक्षेत्रों भारी मात्रा में कृषि अपशिष्ट मौजूद होते है।  इसी प्रकार शक्कर व गुड कारखानों में  गन्ना खोई और अन्य अपशिष्ट काफी मात्रा में उपलब्ध रहते है। इन सभी अपशिष्टों का  वर्मी कम्पोस्ट उत्पादन में प्रयोग कर किसान महंगे रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता काफी हद तक कम कर सकते है। 
दो-जैव उर्वरक : जैव उर्वरक जीवित अथवा सुप्त अवस्था वाले सूक्ष्म जीवाणुओं का वह समूह है जिनकी जैविक क्रियाओं के फलस्वरूप फसलों द्वारा पोषक तत्वों की उपलब्धता और अवशोषण बढ़ जाता है। विशिष्ट प्रकार के सूक्ष्म जीवी विशिष्ट पोषक तत्वों की उपलब्धता बढ़ाते है जैसे राइजोबियम, एज़ोटोबैक्टर और एजोस्पाइरिलियम नत्रजन स्थरीकरण करते है जबकि सूडोमोनास फॉस्फोरस की घुलनशीलता और वृद्धि बढ़ाते है।  उचित वातावरण एवं भूमि की दशाओं में जैव उर्वरकों द्वारा  20-200 किग्रा तक नत्रजन फसल को प्राप्त   जाती है।  इनके प्रयोग से  फसलोत्पादन में 10-25 प्रतिशत तक बढ़ोत्तरी संभावित है।   
तीन-जैव कीटनाशक: कीट एवं रोगों द्वारा फसलों को प्रति वर्ष करोड़ों की क्षति होती है, जिसमें  हेलिकोवेरपा नामक कीट से सर्वाधिक हाँनि होती है। ऐसी स्थिति उत्पन्न होने की वजह से बेरोकटोक जहरीले रसायनों का इस्तेमाल किया जाता है जिससे ना केवल मिट्टी और वायु प्रदूषित होती है वरन कृषि उत्पादों में भी इन हानिकारक जैविक, रसायनों का काफी अंश पहुँच जाता है जो की उपभोक्ताओं के स्वास्थ्य के लिए वेहद नुकसानदायक होता है। रासायनिक कीटनाशकों के दुष्प्रभाव से बचने के लिए जैविक कीट नियंत्रण (जैविक, प्रबन्धात्मक और जैविक रूप से मान्यता प्राप्त रसायनों द्वारा ) उपाय करना चाहिए। जैविक कीट शत्रु जैसे  परभक्षी (क्राइसोपेरिया),परजीवी (ट्राइकोग्रामा), जैव कीटनाशक जैसे ट्राइकोडर्मा, बैसिलस थ्रूनजिनेसिस, एन. पी. व्ही. आदि परदहां प्रदुषण मुक्त मूल्य प्रभावी जैव कीट व्याधि नाशक है।   
चार-हरी खाद: वे फसलें जिन्हे भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ाने के लिए खेत में उगाने के पश्चात जुताई कर खेत में मिला दिया जाता है, हरी खाद कहलाती है। हरी खाद के लिए ऐसी दलहनी फसलों का चयन किया जाता है जो सीमित अवधी में अधिकतम हरा पदार्थ पैदा करने करने में सक्षम हो सके। उदाहरण के लिए गर्मी व वर्षा ऋतू में ढैंचा और शरद ऋतू में बरसीम या लूसर्न को हरी खाद के लिए उगाया जाता है। हरी खाद के इस्तेमाल से भूमि की भौतिक सरंचना एवं उर्वरता में सुधार होता है।  साथ ही जैविक पदार्थ बढ़ने से मृदा में लाभकारी सूक्ष्मजीवों की संख्या में भी वृद्धि होती है। 
पाँच-वानस्पतिक कीट-रोग नाशक: प्रकृति में ऐसे अनेक पौधें पाये जाते है जिनमे पाये जाने वाले यौगिक कीटों एवं हानिकारक सूक्ष्मजीवों के लिए वृद्धि रोधी और घातक होते है। ऐसे पौधों से प्राप्त सत्व को वानस्पतिक कीटनाशक कहते है, जैसे नीम, तम्बाकू, बेशरम,आक,गाजर घांस, कनेर  आदि। जैव कीट नाशकों में तीव्र जैव अपघटन होता है जिसके कारण इनका प्रभाव देर तक नहीं रहता है। इसलिए इनसे प्रदुषण नहीं होता है।  
इस प्रकार से जैविक खेती के इन पांच घटकों के मिले जुले प्रयोग से हम गुणवत्ता युक्त एवं स्वास्थ्य वर्धक जैविक उत्पाद पैदा कर समाज को दे सकते है और आने वाली पीढ़ियों के लिए  प्रदूषण  मुक्त भारत   की परिकल्पना साकार करने में अपना योगदान दे सकते है।  अन्त में  हम प्रार्थना करते है की 'अन्नं ब्रह्म रसो विष्णुर्भोक्ता देवो महेस्वरः अर्थात अन्न ब्रह्म है, उसका रस विष्णु है व इसके भोक्ता भगवान शिव है।  अतः खाद्यान्न को प्रदूषित-जहरीला होने से बचाना है तभी मानव  एवं अन्य प्राणियों का वजूद  कायम रह सकता है। 

गुरुवार, 3 मार्च 2016

रोजगार प्रदाता बनें-कृषि क्षेत्र में है स्वरोजगार की असीम सम्भावनाये


डाँ. गजेन्द्र सिंह  तोमर  
प्राध्यापक (सस्यविज्ञान)
कृषि महाविद्यालय, इं.गां.कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर

                     हमारे देश में अधिकांश लोगो की मानसिकता नौकरी करने की होती है तथा व्यापार की तरफ बहुत काम लोगो का रुझान देखने को मिलता है। जब से वच्चा पैदा होता है उसके माँ-बाप उससे पूछने लगते है 'अलेले मेरा वच्चा बड़ा होकर क्या बनेगा-कलेक्टर,इंजीनियर,डॉक्टर या बड़ा अधिकारी' और इसी की घुट्टी उसे पिलाई  जाती है।  उसके दिलों-दिमाग में इस नुस्खे को कूट-कूट कर भर दिया जाता है। व्यापारी या उद्यमी बनने की बात शायद ही कोई माँ-बाप अपने बच्चे को बताता होगा। यही वजह है की बहुतेरे बच्चे कलेक्टर, इंजीनयर, डॉक्टर बनने के फेर में अपना सब कुछ दांव पर लगा देते है और कुछ ही को सफलता मिलती है। शेष बेरोजगारी का दंश झेलते रहते है। रोबर्ट क्योस्की के अनुसार विश्व में 5 % लोग व्यापार अथवा पूँजी निवेश के क्षेत्र में कार्य करते है जो विश्व की 95 % दौलत के मालिक है तथा शान-शौकत का जीवन व्यतीत कर रहे है । विश्व के 95 % लोग सेवा क्षेत्र को चुनकर नौकरी करते है जिनके पास विश्व की सिर्फ 5 % दौलत है और ले दे कर जीवन की नाव को घसीट रहे है।  अब मर्जी आपकी है कि  आप अपने बेटें-बेटियों को किसी उद्यम/व्यापार के लिए प्रेरित कर उसे मालिक बनाना चाहते है या फिर उसे नौकरी के लिए विवस कर नौकर बनाना चाहते है। जहाँ निजी क्षेत्र में वेतन बहुत कम है वहीं उच्चतर वे पेशवर शिक्षा महंगी होती जा रही है। रोजगर प्राप्ति के लिए प्रतिस्पर्धा बढ़ रही है। छात्रों में योग्यता व रोजगार के लिए बढ़ती हुई होड़ से परेशान व हताश हैं। उन्हें निराश होने की जरूरत नहीं चूंकि स्वरोजगार के रूप में अभी भी एक विकल्प उन उत्साही, संघर्षशील व परिश्रमी युवाओं के लिए खुला है जिनकी या तो नौकरी में रुचि नहीं है या इस प्रतियोगी युग ने अपने लिए बढिय़ा-सा रोजगार हासिल करने में स्वयं को असमर्थ महसूस करते हैं। इसमें आपको नौकरी की तलाश में दर-दर भटकना भी नहीं पड़ेगा बल्कि आप अपने स्वयं मालिक होंगे। समय की भी मांग है कि युवा वर्ग को स्वरोजगार के लिए प्रोत्साहित किया जाए इसमें न केवल उनका अपितु देश का हित भी जुड़ा हुआ है।
सोहरत और दौलत के लिए कृषि उद्यमी बनें
                सोहरत और दौलत हासिल करने के लिए आपको अपनी सोच बदलनी होगी। अपने बच्चों को बेहतर तालीम के साथ-साथ व्यवसाय में सुनहरे भविष्य की उज्जवल तस्वीर उनके मन मस्तिष्क में बैठाना होगी। उद्यम अथवा व्यवसाय प्रारम्भ करने के लिए कृषि एवं संबद्ध क्षेत्र में असीम सम्भावनाये है और हमेशा बनी रहेंगी।आर्थिक उदारीकरण, विश्व व्यापारीकरण और भौतिकवादी संस्कृति मानव की जीवन शैली और खान-पान को एक नै दिशा प्रदान की है। अब लोगों का विशेष कर नौजवानों का नित नई वस्तुओं के प्रति बढ़ता मोह व रुझान ने स्वरोजगार के लिए नए द्वार खोल दिए है।  तेजी से बदलते विश्व परिदृश्य व परिवेश का फायदा उठाते हुए  कृषि आधारित तमाम उद्यम प्रारंभ किये जा सकते है । भारत एक कृषि प्रधान देश है।  देश की अर्थव्यवस्था में सबसे बड़ी भूमिका कृषि निभाती है।  देश की करीब अस्सी फीसदी आबादी कृषि पर निर्भर है।  भारत के विभिन्न राज्यों के जलवायु और  ज़मीन में जितनी विविधता है उसी वजह से फसलों में भी उतनी ही विविधता है।  कृषि में स्वरोजगार शुरू करने पर आप न केवल स्वयं को बल्कि अन्य बेरोजगार युवाओं को भी रोजगार का अवसर मुहैया करवाएंगे। इस कार्य से आप समाज के प्रति अपने दायित्वों का ही निर्वाह कर सकते हैं।  स्वरोजगार स्थापना हेतु  केंद्र एवं विभिन्न राज्यों की सरकारों द्वारा बहुत सी महत्वाकांक्षी योजनायें एवं कौशल विकास प्रशिक्षण कार्यक्रम  संचालित किये  जा रहे है । ग्रामीण युवाओं और बेरोजगार नौजवानों स्किल इंडिया के तहत  स्व-रोजगार स्थापित  करने के लिए उद्यमिता प्रशिक्षण भी दिये जा रहे है तथा उद्यम स्थापित करने के लिए बैंकों  से आसानी में कम ब्याज दर पर ऋण सुविधा भी उपलब्ध है । यदि गौर किया जाए तो कृषि में  स्वरोजगार स्थापित करने  का क्षेत्र इतना व्यापक है कि आकाश भी छोटा पड़ जाए। कृषि क्षेत्र में स्वरोजगार स्थापित करने के  विभिन्न आयाम यहां प्रस्तुत है ।
1. बागवानी और संबद्ध क्षेत्र
                         बागवानी में रोजगार के अपार अवसर है, विशेषकर बेरोजगार युवाओं और महिलाओं के लिए स्वरोजगार सृजन की बागवानी में व्यापक संभावनाएं है। बहुत सी कृषि जिंसों  के उत्पादन में भारत विश्व का नेतृत्व करते आ रहा है जैसे आम, केला,  नींबू, नारियल, काजू, अदरक, हल्दी और काली मिर्च। वर्तमान में यह विश्व में फल और सब्जियों का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है।भारत का सब्जी उत्पादन चीन के बाद दूसरे स्थान पर है और फूलगोभी, के उत्पादन में पहला स्थान है प्याज में दूसरा और बंदगोभी में तीसरा स्थान है।  इसके अतिरिक्त हमारा देश मसालों का सबसे बड़ा उपभोक्ता, उत्पादक और निर्यातक है।  भारत के सभी प्रदेशों में सब्जियों  व मसालेदार फसलों जैसे आलू, अरबी,शकरकंद, जिमीकंद, भिण्डी, गोभी, सेम,  मटर, टमाटर, बैगन, मिर्ची, हल्दी, धनियां अदरक, लहसुन, मैथी, पालक  आदि की खेती  की अपार संभावनाएं विधमान  है। इनकी खेती आर्थिक रूप से लाभदायक भी है । टमाटर, आलू , मटर तथा मसालेदार फसलों के प्रसंस्करण एवं विपणन के क्षेत्र  में उद्यम स्थापित किये जा सकते है ।  छत्तीसगढ़ में उगाए जाने वाले प्रमुख फल आम, केला,  अमरुद, बेर, पपीता, शरीफा आदि हैं।  हमारे किसान घर की बाड़ी में इन्हे परंपरागत रूप से लगाते भी है । यदि योजनाबद्ध तरीके से इनकी खेती की जाय तो  छोटे-मझोले  किसान अतिरिक्त  आमदनी प्राप्त कर सकते है ।  सहजन(मुनगा) की खेती  स्वास्थ्य और  आर्थिक रूप से भी लाभदायक है । फल, फूल एवं सब्जी की खेती को  बढ़ावा देने के लिए केन्द्र सरकार विभिन्न राज्यों  में हार्टीकल्चर मिशन चला रही है । इसके तहत किसानों को  आर्थिक मदद दी जा रही है ।
2. पुष्प कृषि
                 वाणिज्यिक पुष्प कृषि हाल में ही शुरू हुई है, यद्यपि पुष्पों की पारंपरिक खेती भारत में सदियों से हो रही है।   भारत में सदियों से फूल कृषि की जा रही है किन्तु  वर्तमान में फूल कृषि एक व्यवसाय  के रूप में की जाने लगी है क्योंकि भगवान की पूजा हो, विवाह हो, त्यौहार हो या किसी का स्वागत सम्मान हो  अथवा किसी को श्रदांजली अर्पित करनी हो फूलों के बिना संपन्न नहीं हो सकती है । समकालिक कटे फूलों जैसे गुलाब, ग्लेडियोलस, टयूबरोस, कार्नेशन इत्यादि का वर्धित उत्पादन पुष्प गुच्छ तथा साथ ही घर तथा कार्यस्थल के अलंकरण हेतु इनकी मांग में निरंतर वृद्धि हो  रही है। फूलों से आप गुलदस्ता, कट फ्लावर, माला. स्टेज सज्जा,बुके आदि बना कर बाजार में बेच सकते है। अनेक फूलों जैसे गुलाब, चमेली, मोंगरा आदि से इत्र/फ्रेश्नर तैयार किये जाते है। फूलों के राजा गुलाब का तो कहना ही क्या है। इसका फूल किसी का भी मन मोह लेता है। वेलेंटाइन डे के समय तो गुलाब का एक पुष्प 15-20 रुपये में बिकता है। गुलाब के फूलों से तो गुलकंद और गुलाब जल भी बनाया जाता है।   इस प्रकार   रोजगार सृजन के लिए पुषपीय पौधों  की खेती एक  महत्वपूर्ण उद्यम बन सकता है जिसमें पैसे के साथ-साथ फूलों की खुशबु  और अपार खुशियां भी आपको  मिल सकती है। 
3. औषधीय एवं सुगंधित पादप खेती  एवं प्रसंस्करण
              भारत को मूल्यवान औषधीय और सुरभित पादप किस्मों का भंडार माना जाता हैं। भारत में 15 कृषि-जलवायवी क्षेत्रों में अमूमन  47000 भिन्न-भिन्न पादप जातियां पाई जाती हैं, जिनमे से  15000 औषधीय एवं सगंध पौधे हैं। लगभग 2000 देशज पादप जातियों में रोगनाशक गुण हैं और 1300 जातियों अपनी सुगंध तथा सुवास के लिए प्रसिद्ध हैं। चिकित्सा की भारतीय प्रणालियों अर्थात. आयुर्वेद, यूनानी तथा सिद्ध औषधियों की देश-विदेश में बहुत मांग हैं। बहुमूल्य दवाइयां बनाने में प्रयुक्त 80 प्रतिशत कच्ची सामग्री  औषधीय पौधों से प्राप्त होती  हैं। हमारे प्रदेश में उगाये जाने वालें प्रमुख औषधीय पौधों  में आंवला, चिरायता, कालमेघ, सफेद मूसली, दारूहल्दी, सर्पगंधा, अश्वगंधा, गिलोय, सेन्ना, अतीस, गुडमार कुटकी, शतावरी, बेल गुग्गल, तुलसी, ईसबगोल, मुलेठी, वैविडंग, ब्राह्मी, जटामांसी, पथरचूर कोलियस, कलीहारी, आदि प्राकृतिक रूप से उगते है जिनके कृषिकरण, प्रसंस्करण एवं विपणन में ग्रामीण युवायों  के लिए रो गार के पर्याप्त अवसर विद्यमान है । सगंध फसलों  में पामारोशा, नींबू घास, सिट्रोनेला, मेंथा आदि की उद्योग  जगत में भारी मांग है ।
4. पशु पालन और डेयरी
                    पशु पालन और डेयरी विकास क्षेत्र भारत के सामाजिक आर्थिक विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता हैं। पशुपालन सदैव से ही मानव संस्कृति का अभिन्न अंग रहा है । सुरक्षा, शौक, परिवहन एवं  आजीविका के लिए तथा अपनी पोषण सम्बन्धी जरूरतों  की पूर्ति सहित अनेक अन्य कार्यों  के लिए हम अपने इन वफादार सहचरों  पर आज भी आश्रित है । विश्व के अनेक देशों  की भांति हमारे यहां भी गौवंशीय पशु पालन, बकरी, भेड़, कुक्कुट, अश्व, ऊंट, बतख, खरगोश आदि के पालन पोषण से  छोटी-बड़ी आय अर्जन  गतिविधियों  के रूप में प्रचलित है ।संसार में भैंसों के संदर्भ में भारत का पहला स्थान है, पशुओं तथा बकरियों में दूसरा, भेड़ों में तीसरा, बत्तखों में चैथा, मुर्गियों में पांचवां और ऊंटों की संख्या में छटा। पशुधन क्षेत्र न केवल दूध, अंडों, मांस आदि के रूप में आवश्यक प्रोटीन तथा पोषक मानव आहार उपलब्ध कराता है, साथ ही  पशुधन कच्ची सामग्री के उपोत्पाद यथा खाल तथा चमड़ा, रक्त, अस्थि, वसा आदि उपलब्ध कराता है। दुग्ध उत्पादन के क्षेत्र  में भारत का योगदान निर्विवादित रूप से सर्वश्रेष्ठ है । हमारे देश में सालाना 820 लाख टन से भी अधिक दुग्ध उत्पादित होता है जो  विश्व स्तर पर मात्रा  की दृष्टि से सर्वाधिक है । इसके अलावा सहकारी, निजी एवं सार्वजनिक क्षेत्रों  में 275 से अधिक सयन्त्रों, लगभग 83 दुग्ध उत्पाद कारखानों  एवं असंख्य लघु स्तर के दुग्ध उत्पादको  के योगदान से हमारे देश का दुग्ध उद्योग  विश्व पटल पर तेजी से उदीयमान हो  रहा है ।
 जनसँख्या वृद्धि को ध्यान  रखते हुए देश में पशुपालन व्यवसाय को विकसित करने  की असीम संभावनाएं है । किसानों  द्वारा वर्तमान में पाली जा रही गाय व भैस की नस्लों  की उत्पादन क्षमता बहुत कम है । नस्ल सुधार तथा उत्तम नस्ल की गाय-भैस पालने से ग्रामीण अंचल की अर्थव्यवस्था को  काफी हद तक सुधारने की संभावना है । दुग्ध एक ऐसा उत्पाद है जिसकी मांग निरन्तर बनी रहती है । इस  डेरी उद्योग को  बढ़ावा देने से हमारे नौजवानों  एवं ग्रामीण  महिलाओं को  वर्ष पर्यन्त रोजगार प्राप्त होगा साथ ही पशुओं  से प्राप्त गोबर बहुमूल्य जैविक खाद के रूप में प्रयोग करने से हमारी भूमियों  की उर्वरा शक्ति भी बढ़ेगी जिससे  फसल उत्पादन में भी सतत बढ़ोत्तरी होगी ।  पशुपालन में दाना-खली का महत्वपूर्ण योगदान होता है । इनके निर्माण की इकाइयाँ स्थापित की जा सकती है । लाखों लोगों के लिए सस्ता पोषक आहार उपलब्ध कराने के अतिरिक्त, यह ग्रामीण क्षेत्र में लाभकारी रोजगार पैदा करने में मदद करता है, विशेष रूप से भूमिहीन मजदूरों, छोटे तथा सीमांत किसानों तथा महिलाओं के लिए और इस प्रकार उनके परिवार की आय बढ़ाता है। सूखा, अकाल तथा अन्य प्राकृतिक आपदाओं जैसी प्रकृतिकी विभीषिकाओं के प्रति पशुधन सर्वोत्तम बीमा हैं। भारत के पास पशुधन तथा कुक्कुट के विशाल संसाधन हैं जो ग्रामीण लोगों की सामाजिक आर्थिक दशाएं सुधारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। 
5. मत्स्य पालन
                      भारत संसार में मत्स्य का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक है और स्वच्छ जल के मत्स्य का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक।  अपनी लंबी तट रेखा, विशाल जलाशयों आदि के कारण भारत के पास अंतर्देशीय तथा समुद्री दोनों संसाधनों से मत्स्य के लिए व्यापक संभावनाएं हैं।  मत्स्य क्षेत्र को एक शाक्तिशाली आय एवं रोजगार जनक माना जाता है। मछली पालन सेक्टर ने देश में करीब 1.5 करोड़ लोगों को रोज़गार दे रखा है. यह ग्रामीण अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और सस्ते तथा पोषक आहार का स्रोत हैं।
6. बकरी पालन 
        बकरी को गरीब और छोटे किसानों की गाय भी माना जाता है।  देश के ग्रामीण क्षेत्रों  में बकरी पालन पारम्परिक रूप से एक बड़ा व्यवसाय रहा है। आजकल  नॉन वेज खाने वालों में बकरे के मांस की मांग भी खूब है।  ईद के समय बकरे की बहुत मांग रहती है तथा कई जगह बकरों की बलि का धार्मिक रिवाज भी है. ऐसे में बकरियों की प्रजनन क्षमता साल भर में विकसित हो जाती है। एक बार में दो बच्चों को जन्म देना बकरियों में आम है। मामूली निवेश और कम जगह में  बकरी पालन गाँवों के नौजवानों  के लिए एक फायदे का पेशा हो सकता  है।  आजकल बकरी के दूध की मांग भी बढ़ रही है। 
7 . जैविक  खेती 
               जैविक कृषि आज कृषि व्यवसाय का नया मंत्र बन रहा है। रसायन रहित भोजन की चाहत बढ़ने से किसानों खासकर छोटे उत्पादकों के लिए संभावनाओं के नए दरवाजे खुल रहे हैं। जिससे वे कीटनाशकों एवं रासायनिक उर्वरकों पर होने वाले  खर्च बचाकर शुद्ध खाद्य वस्तुएं उगाकर अच्छा मूल्य पा सकते हैं।  लोगों में बढ़ती स्वास्थ्य जागरूकता के चलते पूरे विश्व में आर्गेनिक खाद्य पदार्थों  की मांग तेजी से बढ़ी है। इस क्षेत्र में भी रोजगार की बेहतर सम्भनायें है।  
8 .  कृषि  प्रसंस्करण एवं मूल्य सम्वर्धन उद्योग 
                कृषि  प्रसंस्करण विविधताओं भरा उद्योग है जिसमें कृषि, बागवानी एवं  वानिकी उत्पादों के अलावा  डेयरी, बकरी पालन, भेड़ पालन, पोल्ट्री, मछली आदि से उत्पन्न कच्चे माल का प्रंसस्करण, पैकिंग और विपणन  किया जा सकता है ।
(i) खाद्य प्रसंस्करण : खाद्य प्रसंस्करण में खाद्यान्न, दलहन एवं तिलहन उद्योग स्थापित किये जा सकते है। खाद्यान्न फसलों जैसे गेंहू से दलिया, आटा, मैदा, सीमई, नूडल्स   आदि निर्मित करने की इकाई प्राऱम्भ की जा सकती है। जई और जौ के दलिया/ओट्स  की आज बाजार में अधिक मांग है क्योकि इनमें रेशे की अधिक मात्रा होने के कारण मधुमेह  रोगियों के लिए पौष्टिक एवं लाभदायक होता है। इसी प्रकार चावल से विभिन्न उत्पाद यथा मुरमुरे, खील,पोहा आदि तैयार किये जा सकते है। मक्का की विभिन्न किस्में जैसे स्वीट कॉर्न से सूप व स्नेक्स, पॉपकॉर्न, बेबी कॉर्न, मक्का से कॉर्न फ्लेक्स, दलिया, आटा तैयार करने की इकाई शुरू की जा सकती है। दलहनों से दाल, बेशन तथा तिलहनों से तेल निर्माण की विविध इकाईया स्थापित कर स्वरोजगार प्राप्त किया जा सकता है।  इन खाद्यान्नों के प्रसंस्करण पाश्चात उत्पन्न चोकर, चुन्नी, खाली आदि को पशु आहार के रूप में बेचकर अतिरिक्त मुनाफा कमाया जा सकता है।
(ii) फल एवं सब्जी प्रसंस्करण उद्योग : सौभाग्य से हमारे देश में जलवायु  और मिट्टियों की जितनी विविधितता है वो अन्य किसी देश में शायद ही हो और इसलिए हमारे देश में नाना प्रकार के फल एवं सब्जियां वर्ष पर्यन्त उगाई जा रही है। विश्व में चीन के बाद भारत सबसे बड़ा फल और सब्जी उत्पादक देश है। फल एवं सब्जिओं में पानी की अधिक मात्रा होने के कारण ये शीघ्र ख़राब होने लगती है। एक अनुमान के अनुसार कुल फल और सब्जी उत्पादन का 30-40 प्रतिशत हिस्सा इनकी तुड़ाई पश्चात कुप्रबंधन की वजह से क्षतिग्रस्त हो जाता है।  मौसमी फलों में आम, अमरुद,अनार,केला, बेर,पपीता आदि तथा सब्जिओं में टमाटर, आलू,मिर्च, गाजर आदि   बहुतायत में पैदा किये जाते है। बागवानों के लिए इन फलों  एवं सब्जिओं से अधिक मुनाफा प्राप्त करने का विकल्प हमेशा खुला रहता है। फलों एवं सब्जिओं का प्रसंस्करण करके किसान और बागवान कई तरह के उत्पाद बनाकर बाजार में बेच सकते है। इससे इन्हे खासा मुनाफा प्राप्त हो सकता है। टमाटर से लेकर मिर्च तक और आम से लेकर आवलां का जेम, जेली,अचार, मुरब्बा आदि तैयार किये जा सकता है। किसान और युवा अपना उद्यम भी इन क्षेत्रों में स्थापित कर सकते है।
7. रेशम कीट  एवं मधुमक्खी पालन
                  रेशम, जो अद्वितीय शान वाला एक प्राकृतिक रूप से उत्पादित रेशा है । छत्तीसगढ़ में टस्सर रेशम व सहतूत रेशम का उत्पादन करने की अच्छी संभावनाएं है। टस्सर रेशम का प्रयोग मुख्यतः फर्निशिंग्स तथा इंटीरियर के लिए किया जाता है। यह लगभग 6 मिलियन लोगों को रोजगार उपलब्ध कराता है जिनमें से अधिकांश लघु तथा सीमांत किसान अथवा अति लघु तथा घरेलू उद्योग हैं जो मुख्यतः ग्रामीण क्षेत्रों में हैं। रेशम उद्योग  में निम्न  निवेश से अधिक आमदनी प्राप्त ह¨ती है । पूरे वर्ष परिवार के सभी सदस्यों को रोजगार प्राप्त होता है वस्तुतः यह महिलाओं का व्यवसाय है तथा महिलाओं के लिए है क्योंकि महिलाएं कार्यबल के 60 प्रतिशत से अधिक का रेशम  निर्माण करती है। तथा 80 प्रतिशत रेशम की खपत महिलाएं करती हैं। रेशम-उद्योग में शामिल कार्य जैसे पत्तों की कटाई, सिल्कवॉर्म का पालन, रेशम के धागे की स्पिनिंग अथवा रीलिंग तथा बुनाई का कार्य महिलाएं करती है। यह एक उच्च आय सृजन उद्योग है जिसे देश के आर्थिक विकास का एक महत्वपूर्ण साधन माना जाता है । मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ दोनों  राज्यों  में मधुमक्खी पालन की अपार संभावनाएं है । प्राकृतिक रूप से भी हमारे वनों  में भी मधुमक्खियों  द्वारा उत्पादित शहद का संकलन एवं प्रसंस्करण किया जाता है ।
8 . लघु वनोपज आधारित स्वरोजगार
         भारत के अनेक राज्यों में लघु वनोपजों की पर्याप्तता एवं उसके उपयोगों को ध्यान में रखते हुए स्वरोजगार के लिए यह अत्यंत ही लाभदायक क्षेत्र हो सकता है   इस क्षेत्र में मुख्य रूप से करंज, सवाई घास, गोंद राल, महुवा फूल, आम,इमली, चिर्रोंजी, लाख,  हर्रा, साल बीज, कुशुम, तेंदू पत्ता, पलास, ओषधि एवं सगंध पौधों का संकलन इत्यादि है। इन उपलब्ध वनोपजों से निर्मित उत्पादों के प्रसंस्करण एवं विक्रय  अधिक लाभदायक होता है।
9 .  बेरोजगार कृषि स्नातकों के लिए प्रशिक्षण  
               बेरोजगार कृषि स्नातकों को  कृषि क्षेत्र  में उद्यम प्रारंभ करने के लिए प्रशिक्षत करने के लिए  भारत सरकार द्वारा 'कृषि चिकित्सालय एवं कृष व्यवसाय केंद्र' नामक महत्वाकांक्षी योजना देश के सभी राज्यों में संचालित की जा रही  है ।  किसानों को खेती, फसलों के प्रकार, तकनीकी प्रसार, कीड़ों और बीमारियों से फसलों की सुरक्षा, बाजार की स्थिति, बाजार में फसलों की कीमत और पशुओं के स्वास्थ्य संबंधी विषयों पर विशेषज्ञ सेवाएं उपलब्ध कराने के उद्देश्य से कृषि क्लीनिक की परिकल्पना की गयी है, जिससे फसलों या पशुओं की उत्पादकता बढ़ सके। कृषि व्यापार केंद्र की परिकल्पना आवश्यक सामग्री की आपूर्ति, किराये पर कृषिउपकरणों और अन्य सेवाओं की आपूर्ति के लिए की गयी है।
इनके अलावा ग्रामीण क्षेत्रों में मशरूम की खेती, बकरी पालन, खरगोश पालन,बटेर पालन, बत्तख पालन के अलावा कृषि उपकरण निर्माण एवं मरम्मत के क्षेत्र  में भी उद्यम स्थापित करने की भी अपार संभावनाएं है ।

काबुली चने की खेती भरपूर आमदनी देती

                                                  डॉ. गजेन्द्र सिंह तोमर प्राध्यापक (सस्यविज्ञान),इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषि महाव...