बुधवार, 29 अक्तूबर 2014

पशुओं के लिए पौष्टिक आहार- सदाबहार अदभुत हरा चारा है अजोला

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर 
प्रोफेसर (एग्रोनॉमी ),  कृषि महाविद्यालय,
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय,कृषकनगर,रायपुर (छत्तीसगढ़)

             कृषि और पशु पालन का चोली दामन का साथ है परन्तु भारत में  पशुधन को साल में 8-9 महीने अपौष्टिक सूखा चारा ही नसीब होता है। दरअसल वर्ष के कम से कम दो तिहाई समय  देश के सभी क्षेत्रों  में हरे चारे की किल्लत रहती है।  किसान अपने पशुओं  को  सुबह शाम  धान का पुआल या अन्य अपौष्टिक सुखा चारा ही दे पाते  है और  फिर चरने के  लिए खुल्ला छोड़ देते है । दुधारू पशुओं को प्रतिदिन कम से कम दो किलो दाने की आवश्यकता होती है।  शहरों  के  आसापास स्थित डेयरी कृषक अपने पशुओं  को धान कट्टी या फिर गेंहू भूषा के साथ दाना-खल्ली देते है । धान पैरा कट्टी तथा गेंहू भूषा 1-2 रूपये प्रति किलो  व दाना -खल्ली 10-15 रूपये प्रति किलो  की दर से बाजार से लेना होती है । चारा दाना मंहगा होने के  कारण पशुओं  को  पर्याप्त मात्रा में नहीं मिल पाता है। इसके चलते पशुओं में तेजी से बढ़ती कुपोषाण की समस्या के कारण आज हमारे यहां प्रति पशु प्रति दिन का दूध उत्पादन एक लीटर या इससे भी कम है। इसी वजह से दुग्ध उत्पादन घाटे का व्यवसाय होता जा रहा है जिससे  किसानो का पशुधन के प्रति मोह भंग होता जा रहा है।
               पशुआहार के  विकल्प की खोज में एक विस्मयकारी फर्न-अजोला सदाबहार चारे के  रूप में उपयोगी हो  सकता है। दूध की बढ़ती मांग के लिए आवश्यक है कि  पशुपालन व्यवसाय को  अधिक लाभकारी बनाया जाए। इसके लिए जरूरी है की पशु पालन में दाने-चारे में आने वाली लागत (वर्तमान में यह 70 प्रतिशत से अधिक बैठती है ) को कम करना होगा।  इसमें प्रकृति प्रदत्त अजोला की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। यह सर्वविदित है कि पशुओं के  संतुलित आहार में हरे चारों की अहम भूमिका होती है, इसे नाकारा नहीं जा सकता है। भारत में पशुओं के  लिए हरे चारे की उपलब्धता में निरंतर कमी परिलक्षित हो  रही है। वनों  एवं पारंपरिक चारागाहों  का क्षेत्रफल दिनोंदिन घटता चला जा रहा है । कृषि के  आधुनिकीकरण की वजह से फसल प्रति-उत्पाद(भूसा,कड़वी, पैरा कुट्टी आदि) में भी कमीं आ रही है जोकि अन्यथा पशु आहार के  रूप में उपयोग किया जाता रहा है।  हरे चारे अथवा पौष्टिक आहार की इस कमीं की पूर्ति बाजार से मंहगे व गुणवत्ता विहीन पशु आहार से की जा रही है। यही वजह है जिसके  कारण दुग्ध उत्पादन लागत में वृद्धि और  पशुपालन घाटे का सौदा होता जा रहा है। इस समस्या के लिए अजोला उत्पादन  पशुपालको  के लिए वरदान बन सकता है।  इसे घर-आंगन में उगा सकते है और साल भर हरा चारा उत्पादन कर सकते हैं। देश के  विभिन्न क्षेत्रों से अजोला उत्पादन के  बेहतर नतीजे सामने आ रहे है ।

अजोला एक विस्मयकारी अद्भुत पौधा

                 दरअशल अजोला  तेजी से बढ़ने वाली एक प्रकार की जलीय फर्न है, जो  पानी की सतह पर तैरती रहती है। धान की फसल में नील हरित काई की तरह अजोला को भी हरी खाद के रूप में उगाया जाता है और कई बार यह खेत में प्राकर्तिक रूप से भी उग जाता है। इस हरी खाद से भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ती है और उत्पादन में भी आशातीत बढ़ोत्तरी होती है।   एजोला की सतह पर नील हरित शैवाल सहजैविक के  रूप में विध्यमान होता है। इस नील हरित शैवाल को  एनाबिना एजोली के  नाम से जाना जाता है जो  कि वातावरण से नत्रजन के  स्थायीकरण के  लिए उत्तरदायी रहता है। एजोला शैवाल की वृद्धि के  लिए आवश्यक कार्बन स्त्रोत  एवं वातावरण प्रदाय करता है । इस प्रकार यह अद्वितीय पारस्परिक सहजैविक संबंध अजोला को  एक अदभुद पौधे के  रूप में विकसित करता है, जिसमें कि उच्च मात्रा में प्रोटीन उपलब्ध होता है।  प्राकृतिक रूप से यह उष्ण व गर्म उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में पाया जाता है। देखने में यह शैवाल से मिलती जुलती है और  आमतौर पर उथले पानी में अथवा धान के  खेत में पाई जाती है।

पशुओं को अजोला चारा खिलाने के लाभ

           अजोला सस्ता, सुपाच्य एवं पौष्टिक पूरक पशु आहार है। इसे खिलाने से वसा व वसा रहित पदार्थ सामान्य आहार खाने वाले पशुओं के दूध में अधिक पाई जाती है। पशुओं में बांझपन निवारण में उपयोगी है। पशुओं के पेशाब में खून की समस्या फॉस्फोरस की कमी से होती है। पशुओं को अजोला खिलाने से यह कमी दूर हो जाती है। अजोला से पशुओं में कैल्शियम, फॉस्फोरस, लोहे की आवश्यकता की पूर्ति होती है जिससे पशुओं  का शारिरिक विकास अच्छा  है। अजोला में प्रोटीन आवश्यक अमीनो एसिड, विटामिन (विटामिन ए, विटामिन बी-12 तथा बीटा-कैरोटीन) एवं खनिज लवण जैसे कैल्शियम, फास्फ़ोरस, पोटेशियम, आयरन, कापर, मैगनेशियम आदि प्रचुर मात्रा में पाए जाते है। इसमें शुष्क मात्रा के  आधार पर 40-60 प्रतिशत प्रोटीन, 10-15 प्रतिशत खनिज एवं 7-10 प्रतिशत एमीनो  अम्ल, जैव सक्रिय  पदार्थ एवं पोलिमर्स आदि पाये जाते है। इसमें काबर्¨हाइड्रेट एवं वसा की मात्रा अत्यंत कम होती है। अतः इसकी संरचना इसे अत्यंत पौष्टिक एवं असरकारक आदर्श पशु आहार बनाती है। यह गाय, भैंस, भेड़, बकरियों , मुर्गियों  आदि के लिए एक  आदर्श चारा सिद्ध हो रहा है।
                    दुधारू पशुओं पर किए गए प्रयोगो  से साबित होता है कि जब पशुओं को  उनके  दैनिक आहार के   साथ 1.5 से 2 किग्रा. अजोला प्रतिदिन दिया जाता है तो  दुग्ध उत्पादन में 15-20 प्रतिशत वृद्धि  दर्ज की गयी है। इसके  साथ इसे खाने वाली गाय-भैसों की दूध की गुणवत्ता भी पहले से बेहतर हो  जाती है। प्रदेश में मुर्गीपालन व्यवसाय भी बहुतायत में प्रचलित है। यह  बेहद सुपाच्य होता है और  यह मुर्गियों का भी पसंदीदा आहार है। कुक्कुट आहार के  रूप में अजोला का प्रयोग करने पर ब्रायलर पक्षियों के   भार में वृद्धि तथा अण्डा उत्पादन में भी वृद्धि पाई जाती है। यह मुर्गीपालन करने वाले व्यवसाइयों  के  लिए बेहद  लाभकारी चारा सिद्ध हो  रहा है। यही नहीं अजोला को  भेड़-बकरियों, सूकरों  एवं खरगोश, बतखों के आहार के  रूप में भी बखूबी इस्तेमाल किया जा सकता है।
                        सारणीः अन्य चारा फसलों  से अजोला का तुलनात्मक अध्ययन
चारा फसले एवं एज¨ला    वार्षिक उत्पादन (टन/हैक्टर)    शुष्क भार (%)    प्रोटीन  की मात्रा (%)
संकर नैपियर                                 250                                50                           4
रिजका (लूर्सन)                               80                                 16                          3. 2
ल¨बिया                                          35                                  7                           1. 4
ज्वार                                              40                                  32                         0. 6
अजोला                                          730                                 56                           20

कैसे करें अजोला का उत्पादन

                अजोला का उत्पादन बहुत ही आसान है। सबसे पहले किसी भी छायादार स्थान पर 2 मीटर लंबा, 2 मीटर चौड़ा तथा 30 सेमी. गहरा गड्ढा खोदा जाता है। पानी के रिसाव को रोकने के लिए इस गड्ढे को  प्लास्टिक शीट से ढंक देते है। जहां तक संभव हो  पराबैंगनी किरण रोधी प्लास्टिक सीट का प्रयोग करना चाहिए। प्लास्टिक सीट सिलपोलीन एक पौलीथीन तारपोलीन है जो  कि प्रकाश की पराबैगनी  किरणों के  लिए प्रतिरोधी क्षमता रखती है। सीमेंट की टंकी में भी एजोला उगाया जा सकता है। सीमेंट की टंकी में प्लास्टिक सीट विछाने की आवश्यकता नहीं हैं। अब गड्ढे में 10-15 किग्रा. मिट्टी फैलाना है। इसके  अलावा 2 किग्रा. गोबर एवं 30 ग्राम सिंगल सुपर फॉस्फेट 10 लीटर पानी में मिलाकर गड्ढे में डाल देना है। पानी का स्तर 10-12 सेमी. तक होना चाहिए। अब 500-1000 ग्राम अजोला कल्चर गड्ढे के  पानी में डाल देते हैं। पहली बार एजोला का कल्चर किसी प्रतिष्ठित संस्थान मसलन प्रदेश में स्थित कृषि विश्वविद्यालयो के मृदा सूक्ष्म जीव विज्ञानं बिभाग से क्रय करना चाहिए।  अजोला बहुत तेजी से बढ़ता है और  10-15 दिन के  अंदर पूरे गड्ढे को  ढंक लेता है। इसके बाद से 1000-1500 ग्राम एजोला प्रतिदिन छलनी या बांस की टोकरी से पानी के ऊपर से बाहर निकाला जा सकता है। प्रत्येक सप्ताह एक बार 20 ग्राम सिंगल सुपर फॉस्फेट और  1 किलो गोबर गड्ढे में डालने से एजोला तेजी से विकसित होता है।  साफ पानी से धो  लेने के बाद 1.5 से 2 किग्रा. अजोला नियमित आहार के  साथ पशुओं को खिलाया जा सकता है। 

अजोला उत्पादन में ध्यान देने योग्य बातें

1.    अजोला की तेज बढ़वार और  उत्पादन के  लिए इसे प्रतिदिन उपयोग हेतु (लगभग 200 ग्राम प्रति वर्गमीटर की दर से) बाहर निकाला जाना आवश्यक हैं।
2.    अजोला तेैयार करने के  लिए अधिकतम 30 डिग्री सेग्रे तापमान उपयुक्त माना जाता है। अतः इसे तैयार करने वाला स्थान छायादार होना चाहिए।
3.    समय-समय पर गड्ढे में गोबर एवं सिंगल सुपर फॉस्फेट  डालते रहें जिससे अजोला फर्न तीव्रगति से विकसित  होता रहे।
4.    प्रति माह एक बार अजोला तैयार करने वाले गड्ढे या टंकी की लगभग 5 किलो  मिट्टी को  ताजा मिट्टी से बदलेें जिससे नत्रजन की अधिकता या अन्य खनिजो  की कमी होने से बचाया जा सके ।
5.    एजोला तैयार करने की टंकी के पानी के  पीएच मान का समय-समय पर परीक्षण करते रहें। इसका पीएच मान 5.5-7.0 के  मध्य होना उत्तम रहता है।
6.    प्रति 10 दिनों के अन्तराल में, एक बार अजोला तैयार करने की टंकी या गड्ढे से 25-30 प्रतिशत पानी ताजे पानी से बदल देना चाहिए जिससे नाइट्रोजन की अधिकता से बचाया जा सके ।
7.    प्रति 6 माह के  अंतराल में, एक बार अजोला तैयार करने की टंकी या गड्ढे को  पूरी तरह खाली कर साफ कर नये सिरे से मिट्टी,गोबर, पानी एवं अजोला कल्चर डालना चाहिए।
              अजोला की उत्पादन लागत बहुत ही कम ( प्रति किग्रा. एक रूपये से भी कम) आती है, इसलिए यह किसानो  के  बीच तेजी से लोकप्रिय होता जा रहा है और  यही कारण है कि दक्षिण से शुरू हुआ अजोला की खेती का कारवां अब भारत के  विभिन्न प्रदेशॉ  तक तक जा पहुंचा है। इसकी तमाम विशेषताओं  से अभिभूत किसान अपने आसपास खाली पड़ी जमीन में ही नहीं बल्कि अपने घर की छतों पर भी इसका उत्पादन कर रहे है। इस प्रकार दिन-प्रतिदिन कम होती जा रही खेती योग्य जमीन और  मौसम की अनिश्चितताओ  के  कारण पशुओ  के  लिए हरे चारे के संकट से जूझ रहे किसानो व डेयरी मालिको के  लिए एजोला किसी वरदान से कम नहीं है। इसे घर-आंगन में लगा कर पूरे साल हरा चारा प्राप्त कर सकते है। पशुओं के लिए स्वास्थ्यवर्घक है तो दुध उत्पादन क्षमता भी बढ़ जाती है।
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मंगलवार, 28 अक्तूबर 2014

पशुओं का चारा ही नहीं पौष्टिक खाद्यान्न भी है जई-ओट्स

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर,
प्राध्यापक (सस्यविज्ञान बिभाग)
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषक नगर, रायपुर (छत्तीसगढ़)
                     भारत में अधिकांश कृषि योग्य जमीनें खाद्यान्न, दलहन, तिलहन एवं नकदी फसलों  की खेती के अंदर आती है तथा मात्र 4.5 प्रतिशत जमीन में चारे वाली फसलों  की खेती की जा रही है। पशुओं  के  लिए पर्याप्त  गुणवत्तायुक्त चारा उपलब्ध न होने की वजह से उनकी उत्पादकता पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। अतः हमें ऐसी फसलों को  फसल चक्र में सम्मलित करना चाहिए जिससे खाद्यान्न व चारा दोनों की प्रतिपूर्ति हो  सके । जई एक ऐसी फसल है जिससे न केवल पौष्टिक हरा चारा बल्कि मानव उपभोग के  लिए स्वास्थप्रद खाद्यान्न भी उपलब्ध होता है। अब घरेलू और अन्तराष्ट्रीय बाजार में जई उत्पादों की भार मांग है जिसे देखते हुए हम जई की उपज  बढ़ाकर ना केवल देश के नागरिकों की पूर्ति  कर सकेंगे वरन इसके उत्पाद का  निर्यात कर विदेशी मुद्रा भी अर्जित कर सकते है।
            घास कूल की जई फसल (ऐवना सटाइवा) की खेती प्रमुख रूप से पशुओं के लिए हरा चारा और  दाना उत्पादन के  लिए प्रचलित है । भारत के उत्तरी भागों में शीत ऋतु में उगाई जाने वाली यह महत्वपूर्ण चारा फसल है तथा इसके दानों का उपयोग पशु दाना और गरीब लोग अपने भोजन में करते है।   दर असल जई में विद्यमान तमाम पौष्टिक गुणों के  कारण अब यह अमीरों  की रशोई की शान बनती जा रहीं है। स्वाद और  सेहत के लिहाज से जई के  दानों  में अनेक राज छुपे हुए हैं । वास्तव में पौष्टिकता और बहुमुखी गुणों से संपूर्ण जई (ओट्स) की पंहचान सिर्फ दलिया तक ही सीमित नहीं हैं। जई का भोजन में इस्तेमाल काफी लाभकारी है। जई को भाोजन में विभिन्न रूपों  में शामिल किया जा सकता है, जैसे-साबूत जई, दलिया के रूप में, जई चोकर, जई का आटा, आदि। जई के चोकर में घुलनशील फाइबर, प्रोटीन और शुगर होता है। जई चोकर का इस्तेमाल ब्रेड, बेकिंग और नाश्ते के अनाज (सेरेल्स) के रूप में किया जाता है। जई का दलिया भी लो फैट और लो कैलोरी होता है। ये दलिया खाने और पचाने में हल्का होता है। इससे भी कॉलेस्ट्राल कम होता है। जई खासकर उन लोगों के लिए काफी फायदेमंद है जिनमें विटामिन और खनिज की कमी है। जई में ओमेगा-6 और लायोलेनिक एसिड होता है ज¨ रक्त में कोलैस्ट्रॉल की मात्रा कम करने में सहायक साबित होती है। यही नहीं, यह कोलैस्ट्रॉल को बढ़ावा देने वाले तत्वों को भी खत्म करती है। इसके अलावा जई में रेशा भरपूर मात्रा में होती है जो शरीर में ग्लूकोज व इंसुलिन की मात्रा कम करके मधुमेह के खतरे को कम करता है। इसके  नियमित सेवन से  शरीर की र¨ग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। जई का एक और बड़ा फायदा है कि जई खाने से पाचनतंत्र सही तरीके से काम करता है और पेट साफ रहता है। अगर हम इसे खाने में नियमित रूप से शामिल करें, तो जई में पाए जाने वाले ये तमाम गुण हमारे शरीर के पोषण का बेहतर खयाल रखते हैं।


           पशुओं के  लिए भी जई का चारा पौष्टिक एवं स्वास्थवर्धक होता है। इसके हरे चारे में कार्बोहाइड्रेट अधिक होता है। इसके अलावा हरे चारे में 10 - 12 प्रतिशत क्रूड प्रोटीन तथा 30 - 35 प्रतिशत सूखा पदार्थ पाया जाता है। जई का चारा बरसीम या रिजका के चारे के साथ मिलाकर पशुओं को खिलाया जाता है। जई का प्रयोग हरा चारा, भूसा, हे या साइलेज के रूप में किया जाता है। इसका चारा घोड़ों एवं दुधारू पशुओं के लिए उत्तम  माना जाता है । इसमें प्रोटीन अपेक्षाकृत कम होती है, इसलिए इसको दलहनी चारा बरसीम या रिजका के साथ 1:1 या 2:1 के अनुपात में मिलाकर खिलाया जाता है । जई के अनाज से मुर्गी, भेड़, पशुओं तथा अन्य पशुओं के लिए उत्तम दाना तैयार किया जाता है।
                        मानव उपभोग के लिए आजकल बाजार में जई के  बहुत से उत्पाद ऊंचे दाम पर बिक रहे है। इसका दलिया (ओट्स) 150 से 200 रूपये प्रति  किलो की दर से बिक रहा है । पांच सितारा होटल एवं रेस्तरां में  जई  के जायकेदार व्यंजन परोसे जा रहे है।  जई उपज की अब बाजार में मांग निरंतर बढ़ती जा रही है। इस फसल की सबसे बड़ी खासियत है कि जई की खेती में मक्का, धान, गेहूं के मुकाबले लागत कम होने के साथ रासायनिक खाद व कीटनाशकों का प्रयोग भी नहीं करना पड़ता है। जई को पानी भी अधिक नहीं चाहिए।  लिहाजा सीमित संसाधनों  में जई से अधिकतम उत्पादन एवं अन्य फसलों  की अपेक्षा बेहतर मुनाफा अर्जित किया जा सकता है। जई फसल से ज्यादा उपज एवं अधिक आर्थिक लाभ लेने के लिएअग्र प्रस्तुत आधुनिक सस्य तकनीक का अनुशरण करना चाहिए।
फसल के लिए उपयुक्त जलवायु
              जई शरद ऋतु की फसल है । जई की फसल के लिए अपेक्षाकृत ठण्डी एवं शुष्क जलवायु की आवश्यकता पड़ती है। फसल वृद्धि काल के समय 15 डिग्री से 25 डिग्री सेंटीग्रेड  तापक्रम की आवश्यकता होती है। उच्च तापक्रम वाले प्रदेशों में जई की खेती नहीं होती है। जई की खेती 40 - 110 सेमी. वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में सफलतापूर्वक की जा सकती है। यह पाले या अधिक ठंड को सहन कर सकती है। परन्तु अधिक समय तक पानी की कमी से फसल वृद्धि और उपज दोनों कम हो जाती हैं।
भूमि का चुनाव 
                  जई की खेती अमूमन सभी प्रकार की जमीनों में की जा सकती है परन्तु अच्छी पैदावार के लिये दोमट मिट्टी  सबसे उत्तम मानी जाती है। इसकी खेती बुलई मिट्टी  से लेकर मटियार-दोमट मिट्टी  में भी की जा सकती है। भूमि में जल निकास का उचित प्रबन्ध होना चाहिए।
खेत की तैयारी
                     जई के खेत की तैयारी गेहूँ और जौ की भाँति की जाती है। खरीफ की फसल काट लेने के पश्चात् पहली जुताई गहरी मिट्टी पलटने वाले हलल से तथा उसके बाद 2-3 जुताइयाँ देशी हल से करके खेत को तैयार कर लिया जाता है। प्रत्येक जुताई के बाद पाटा चलाना आवश्यक रहता है। जई बोते समय खेत में पर्याप्त नमी आवश्यक है।
उन्नत किस्में
           जई की चारा एवं दाना उपज देने वाली उन्नत किस्मों  का विवरण  अग्र प्रस्तुत है।
यू.पी.ओ.-94: यह बहुकटाई (2-3) देने वाली मध्यम पछेती किस्म है, जो सिंचित क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है। पौधे 135-140 सेमी. लम्बे होते हैं। पौधे में 8 - 10 कल्ले बनते हैं, बाली लम्बी होती है। प्रति हेक्टेय 500 - 600 क्विंटल  हरा चारा तथा 17-18 क्विंटल क्विंटल बीज प्राप्त होता है। फसल गिरती नहीं, दाने खेत में नहीं छिटकते तथा पाला रोधक है।
ईसी-22034: इसके पौधे लम्बे व सीधे बढ़ने वाले होते हैं। पत्तियाँ चैड़ी और चिकनी होती हैं। बहुकटाई वाली किस्म है तथा चारा हे बनाने के लिए उत्तम रहता है। औसतन 400-500 क्ंिवटल हरा चारा प्राप्त होता है।
ओएस-6: यह एक कटाई वाली किस्म है इसक पौधे लम्बे होते हैं। फसल 145 दिन में पक कर तैयार होती है। कीट-रोग रोधी किस्म है।इससे 25 से 30 क्विंटल प्रति हेक्टर दाना उत्पादन प्राप्त होता है। 
बुन्देल जई-581: बहु कटाई वाली किस्म है जो क्राउन रस्ट, लीफ ब्लाइट, उकठा रोगों तथा माहू कीट रोधक है। हरे चारे की उपज क्षमता 440 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर होती है। सिर्फ दानों के लिए लगाया जाए तो 25 से 28 क्विंटल प्रति हैक्टर उपज प्राप्त होती है।
हरियाणा जई 114: इस किस्म से 2-3 चारा कटाइयाँ ले सकते हैं, परन्तु दान उपज प्राप्त करने के लिए पहली कटाई बाद फसल को बढ़ने के लिए छोड़ देने से दानों की अच्छी उपज प्राप्त होती । एक हेक्टेयर से लगभग 200-300  क्विंटल  हरा चारा एवं 12  से 18  क्विंटल दाना उपज प्राप्त होती है।
बोआई का समय
                   जई की बुआई अक्टूबर से लेकर दिसंबर के प्रथम सप्ताह तक कभी भी की जा सकती है परन्तु अच्छी उपज के लिए अक्टूबर का महीना ही बुआई के लिए सबसे उपयुक्त होता है क्योंकि फसल की बुआई जितनी शीघ्र की जाती है उतनी ही अधिक कटाइयाँ  और अधिक उपज प्राप्त होती हैं।
बीज दर व बोआई
              बीज सदैव कवकनाशी  रसायनों जैसे थाइरम या बाविस्टीन  आदि से उपचाारित कर बोना चाहिए। एक हेक्टेयर के लिए 75 से 80 किलोग्राम बीज पर्याप्त होता है।  पछेती बुआई में पौधें में कल्ले कम बनते हैं अतः देर से बुआई करने पर बीज दर 10 प्रतिश अधिक रखना चाहिये। इसकी बुआई कतार विधि से सीड ड्रिल या हल के पीछे पोरा  लगाकर करना चाहिए । कतार से कतार की दूरी 20 से 25 सेंटीमीटर रखना चाहिये। कतारों में बुआई करना  लाभप्रद रहता है क्योंकि छिटकवाँ तरीके से बुआई करने पर 10 से 15 प्रतिशत बीज जमीन के ऊपर रह जाते हैं। बीज की बुआई मृदा में नमी की अवस्था के अनुसार 5-7 सेमी. की गहराई पर की जाती है।
खाद एवं उर्वरक
                  बुआई से पहले खेत में 10 - 12 टन प्रति हेक्टेयर की दर से गोबर की खाद का प्रयोग करना चाहिए। इसके अलावा जई के लिए 80 से 100 किलो नत्रजन 40 से 60 किलो स्फुर व 20 से 30 किलो पोटाश प्रति हेक्टेयर देना चाहिये। कुल नत्रजन की आधी मात्रा तथा स्फुर व पोटाश की पूरी मात्रा बुआई के समय छिड़ककर मिला देनी चाहिये। शेष नत्रजन को  पहली  कटाई के बाद दिया जाना चाहिये।
सिंचाई कब और कितनी 
              जई की भरपूर पैदावार के लिए सिंचाई की पर्याप्त आवश्यकता होती है। पहली सिंचाई बुआई के 20 से 25 दिन बाद करन चाहिये। इसके पश्चात् बाद की सिंचाइयाँ 15-20 दिन के अन्तर पर की जाती है। दाने वाली फसल में फूल व दाना बनते समय सिंचाई देना आवश्यक रहता है। खेत में जल निकास का उचित प्रबंध रखना चाहिये।
खरपतार नियंत्रण
               बुआई के 20 - 25 दिन बाद एक निंदाई करना आवश्यक है अन्यथा उपज तथा चारे की पौष्टिकता कम हो जाती है। खरपतवार के रासायनिक नियंत्रण हेतु 2,4-डी अत्यन्त उत्तम है। जई की फसल 20 से 25 दिन की होने पर 500 ग्राम 2, 4-डी को 500-700  लीटर पानी में घोलकर एक हेक्टेयर में समान रूप से छिड़कना चाहिये।
कटाई का समय
               जई की खेती चारे और दाने के लिए की जाती है। अतः फसल की कटाई तथा उपज, उगाई गई फसल के उद्देश्य पर ही निर्भर करती है। सामान्य अवस्थाओं में जई की फसल की पहली कटाई 50 प्रतिशत फूल आने पर करने से अधिकतम उपज प्राप्त होती है। एक कटाई लेने के  पश्चात फसल को  दाना उपज के  लिए छोड़ देना चाहिए। केवल दाने के लिए उगाई गई जई फसल की कटाई मार्च-अप्रैल में की जाती हैं। फसल के पकने पर पौधे सूख जाते हें। देर से कटाई करने पर बालियों से दाने झड़ने लगते हैं। अतः समय पर कटाई करना आवश्यक है। कटाई  हँसिया से करते है। गहाई पशुओं  की दांय चलाकर या थ्रेसर से की जाती है ।
दाना एवं चारा उपज
                जई के हरे चारे की उपज 400 से 600 क्विंटल  तक प्राप्त हो जाती है। यदि फसल प्रथम कटाई के बाद दाने के लिए छोड़ते हैं तो 220 क्विंटल  हरा चारा, 8-10 क्विंटल  दाना तथा 15-20 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर भूसा प्राप्त होता है। सिर्फ दाने के  लिए उगाई गई फसल से 25 - 30 क्विंटल  दाना व 40-50 क्विंटल  भूसा प्रति हेक्टेयर प्राप्त होता है।
नोट: इस ब्लॉग के लेख लेखक की बिना अनुमति के अन्यत्र प्रकाशित करना अपराधिक हो सकता है। अतः प्रकाशन से पूर्व लेखक की अनुमति के साथ साथ लेखक का नाम देना अनिवार्य है।  

बुधवार, 4 जून 2014

पर्यावरण हितैषी सतत फसल उत्पादन हेतु आवश्यक है जैव उर्वरकों का उपयोग



                                                                   डाँ.जी.एस.तोमर,
                                                                 प्रोफेसर (एग्रोनॉमी )
                                       इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय, रायपुर 492012 (छ.ग.)

                                                   सीमित लगत में अधिकतम् फसल उत्पादन   

           यदि हम पृथ्वी पर पाये जाने वाले पौधों की जैविक क्रिआओं का अध्ययन करें तो पौधो में दो मुख्य क्रिआऐ दिखाई देती है प्रथम प्रकाश संश्लेषण द्वितीय जैविक नाइट्रोजन स्थिरीकरण। वास्तव में जीवमंडल में पाये जाने वाले तत्वों में नाइट्रोजन मुख्य तत्व है जो भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ाता है और यही आर्थिक कृषि का प्राथमिक पोषक तत्व भी है जिसे हम फसलों को खाद-उर्वरकों के माध्यम से देते है। फसल उत्पादन में उर्वरकों की भूमिका विशेष महत्वपूर्ण है। आधुनिक सघन खेती में रासायनिक उर्वरकों तथा अन्य कृषि रसायनों के दिन प्रतिदिन बढ़ते हुए असंतुलित प्रयोग से भूमि की संरचना तथा उर्वरता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। इस बात ने हमें यह सोचने के लिए विवश कर दिया है कि हम प्रकृति के इस महत्वपूर्ण संसाधन भूमि की उर्वरता संरचना तथा पर्यावरण को लम्बे समय तक कैसे बचाये रखें। दूसरी ओर विश्व व्यापार संगठन में भारत का प्रवेश होने से हमारे आगे न केवल अधिक फसल उत्पादन करने की बल्कि उत्कृष्ट गुणवत्ता बनाए रखने की भी चुनौती है। पर्यावरण को  सुरक्षित बनाएं रखते हुए सतत फसल उत्पादन के  लिए जैविक खेती अथवा ऐसी खेती जिसमें समन्वित पोषक तत्व प्रबंधन (जैविक खाद एवं रासायनिक उर्वरको  का मिलाजुला उपयोग) किया जाता है,  जैव उर्वरकों को सम्मलित करना लाभ प्रद होता है । अब जैविक खेती अथवा समन्वित पोषक तत्व प्रबंधन में अहम किरदार के  रूप में जैव उर्वरको  का प्रयोग किया जाता है ।  जैव उर्वरकों को पूरक खाद के रूप में प्रयोग करने से जैविक खाद एवं रासायनिक उर्वरकों की क्षमता बढ़ती है साथ-साथ फसलों की उत्पादकता एवं गुणवत्ता में भी वृद्धि होती है।

क्या हैं जैव उर्वरक ?

           भूमि की उर्वरता को टिकाऊ बनाए रखते हुए सतत फसल उत्पादन के लिए कृषि वैज्ञानिकों ने प्रकृति प्रदत्त जीवाणुओं को  पहचानकर उनसे बिभिन्न  प्रकार के  पर्यावरण हितैषी उर्वरक तैयार किये हैं जिन्हे हम जैव उर्वरक कहते है । इस प्रकार हम कह सकते है की जैव उर्वरक जीवित उर्वरक है जिनमे सूक्ष्म जीव विधमान होते है। फसलों  में जैव उर्वरक इस्तेमाल करने से वायुमण्डल में उपस्थित नत्रजन पौधो को (अमोनिअ के रूप में ) सुगमता से उपलब्ध होती है तथा भूमि में पहले से मौजूद अघुलनशील फास्फोरस आदि पोषक तत्व घुलनशील अवस्था में परिवर्तित होकर पौधों को आसानी से उपलब्ध होते हैं। चूंकि जीवाणु  प्राकृतिक हैं, इसलिए इनके प्रयोग से भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ती है और पर्यावरण पर विपरीत असर नहीं पड़ता। जैव उर्वरक रासायनिक उर्वरकों के पूरक है, विकल्प कतई  नहीं है। रासायनिक उर्वरकों के पूरक के रूप में  जय उर्वरकों का प्रयोग करने से हम बेहतर परिणाम प्राप्त कर सकते है।
         दर असल  जैव उर्वरक विशेष सूक्ष्मजीवों एवं किसी नमी धारक पदार्थ में मिश्रण है। विशेष सूक्ष्म जीवों की निर्धारित मात्रा को किसी नमी धारक धूलीय पदार्थ (चारकोल, लिग्नाइट आदि) में मिलाकर जैव उर्वरक तैयार किये जाते हैं ज¨ कि प्रायः कल्चर के नाम से बाजार में उपलब्ध है। वास्तव में जैव उर्वरक एक प्राकृतिक उत्पाद है। इनका उपयोग विभिन्न फसलों में नत्रजन एवं स्फूर की आंशिक पूर्ति हेतु किया जा सकता है। इनके उपयोग का भूमि पर कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ता है बल्कि ये भूमि के भौतिक व जैविक गुणों में सुधार कर उसकी उर्वरा शक्ति को बढ़ाने में सहायक होते हैं। जैविक खेती में जैव उर्वरकों  की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

जैविक उर्वरकों  के  प्रकार

        जैव उर्वरको द्वारा प्रदान किये जाने वाले पोषक तत्वों के अनुसार विभिन्न फसलों में भिन्न-भिन्न जैव उर्वरक लाभकारी पाए गए है। फसलोत्पादन में प्रयोग किए जाने वाले प्रमुख जैव उर्वरक इस प्रकार है।
1.राइजोबियम
                राइजोबियम नामक जीवाणु दलहनी फसलों की जड़ों में गांठ बनाकर रहते हैं तथा वायुमण्डल में उपस्थित नाइट्रोजन को शोषित कर भूमि में स्थिरीकरण कर पौधों को उपलब्ध कराते है। अलग-अलग दलहनी फसलों में अलग अलग जाति के राइजोबियम जीवाणु जड़ों पर गांठों का निर्माण करते हैं इसलिए आवश्यक  है कि फसल विषेष के अनुसार ही राइजोबियम कल्चर का प्रयोग किया जाए। इस जैव उर्वरक का प्रयोग विभिन्न दलहनी फसलों जैसे अरहर, मूंग, उड़द, लोबिया,मसूर, मटर, चना, खेसारी, मूंगफली, सोयाबीन आदि में किया जा सकता है। वैसे तो विभिन्न दलहनों की जड़ों पर गांठों का निर्माण करने वाला राइजोबियम जीवाणु भूमि में प्राकृतिक रूप से पाये जाते है, परन्तु कभी-कभी मिट्टी में इनकी पर्याप्त संख्या न होने अथवा मृदा में प्राकृतिक रूप से विद्यमान राइजोबियम जीवाणु की कम सक्रियता के कारण, इस जैव उर्वरक का दलहनों में प्रयोग करने की सलाह दी जाती है, जिससे फसल में पर्याप्त मात्रा में जड़ ग्रंथियों का निर्माण हो सके। अनेक प्रयोगों से पता चलता है कि विभिन्न दलहनी फसलों  में राइजोबियम कल्चर के  उपयोग  से उपज में 10-15 प्रतिशत तक वृद्धि हो सकती है (सारणी 1)। इसके प्रयोग से 30-40 किलो रासायनिक नाइट्रोजन की वचत की जा सकती है। यही नहीं दलहनों में राइजोबियम जैव उर्वरक उपयोग का लाभ आगामी फसल में भी परिलक्षित होता है।
2. एजेटोबैक्टर                   
            एजेटोबैक्टर जीवाणु पौधों की जड़ क्षेत्र में स्वतंत्र रूप से रहते हुए वायुमण्डल की नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करते है जिसका उपयोग पौधे सुगमता से कर पाते है। यह जैव उर्वरक सभी अनाज गेहूं, जौ, जई ज्वार, बाजरा, मक्का, धान, सब्जी की फसलें जैसे टमाटर, गोभी, बैगन, आलू आदि, तमाम फूलों तथ अन्य फसलों जैसे गन्ना, कपास, तम्बाकू एवं पटसन आदि में प्रयोग में लाया जाता है। इस जैव उर्वरक के प्रयोग से फसलों को 20-25 कि.ग्रा. नत्रजन उर्वरक के बराबर लाभ प्राप्त होता है अ©र उपज में लगभग 10 प्रतिषत तक की वृद्धि हो जाती है। इसके अतिरिक्त इस जैव उर्वरक से बीज की जमाव क्षमता में भी वृद्धि देखी गई है एवं पौधों में रोगों का प्रकोप भी कम होता है। चूॅकि यह जैव उर्वरक फसलों की सम्पूर्ण नत्रजन तत्व की पूर्ति कर पाने में सक्षम नही है अतः अच्छी पैदावार प्राप्त करने के लिए शेष नत्रजन का प्रयोग उर्वरकों द्वारा करना चाहिए।
3. एसीटोबैक्टर
             एसीटोबैक्टर जैव उर्वरक गन्ने की फसल के लिए उपयुक्त पाया गया है। जो गन्ने की फसल के लिए नत्रजन वाले उर्वरकों की लगभग 25-30 प्रतिशत की बचत करने में सहायक होता है, इसके प्रयोग से गन्ने की फसल से प्राप्त होने वाली चीनी के परते में 1-2 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई है।
4. एजोस्पिरिलम
           एजेटोबैक्टर की तरह एजोस्पिरिलम जीवाणु मृदा में स्वतंत्र रूप से निवास करते हुए वायुमण्डलीय नत्रजन को ग्रहण कर पौधों को उपब्ध कराते है। इसका प्रयोग भी विभिन्न धान्य फसलों में किया जा सकता है परन्तु अधिक नमीं में उगायी जाने वाली फसलें जैसे धान, मक्का, बाजरा, ज्वार आदि फसलों में इस जैव उर्वरक का लाभ अधिक देखा गया है। इस जैव उर्वरक के  प्रयोग से फसलों को प्रति हेक्टेयर 20-30 कि.ग्रा. नत्रजन उर्वरक के बराबर लाभ मिलता है जिससे फसलों की उपज में 15-20 प्रतिशत तक की वृद्धि देखी गई है। नत्रजनीय उर्वरक के प्रयोग के साथ भी एजोस्पिरिलम जैव उर्वरक उपयोग का लाभ फसल को होता है । दरअसल, एजोस्पिरिलम जैव उर्वरक का प्रयोग करने से बीज अंकुरण क्षमता बढ़ती है, भूमि से पोषक तत्वों को अधिक मात्रा में ग्रहण कर सकती है जड़ों का विकास अधिक होता है, और पौधों की लंबाई तथा कल्लों  की संख्या में इजाफा होता है जिससे फसलोत्पादन में बढ़ोत्तरी होती है।
5. नील हरित शैवाल (बी.जी.ए.)           
                 नील हरित शैवाल भी प्राकृतिक तथा महत्वपूर्ण जैव उर्वरक है जिसका उपयोग केवल सिंचित धान फसल में ही किया जाता है, क्योंकि इन शैवालों की वृद्धि एवं  उत्पादन हेतु खेत में पर्याप्त जल भरा रहना आवश्यक ह¨ता है।यह जैव उर्वरक भी वायुमण्डल की नत्रजन को स्थिर कर फसल को उपलब्ध कराता हैं। इसके द्वारा एकत्र की गई नत्रजन शैवालों के सड़ने के पश्चात  ही फसल को प्राप्त होते है। जिसकी सम्पूर्ण मात्रा का उपयोग इस जैव उर्वरक का प्रयोग की जाने वाली फसल नही कर पाती है तथा भूमि में शेष बची नत्रजन अगली फसल को लाभ पहुचाती है। बिभिन्न प्रयोगों  में नील हरित शैवालों के जैव उर्वरक द्वारा धान की उपज में 10-15 प्रतिशत तक वृद्धि पाई गई है एवं फसल को लगभग 25-30 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर के बराबर नत्रजन उर्वरक प्राप्त होता है। इसके अलावा नील हरित शैवाल भूमि में जीवाश्म पदार्थ की मात्रा में वृद्धि कर भूमि की भौतिक दशा को सुधारने में सहायक होता है।
6. एजोला
                  एजोला एक प्रकार की जलीय फर्न है जिसकी वृद्धि के लिए पानी की अधिक आवश्यकता होती है इसलिए इसका प्रयोग भी धान की फसल में किया जाता है। आजकल पशुओं  को  पौष्टिक  आहार के  रूप में भी एजोला का उपयोग किया जाने लगा है । इसे खिलाने से दुग्ध उत्पादन में बढ़ोत्तरी होती है तथा पशु-पालन में  दाना-खली के  व्यय को  कम किया जा सकता है । धान में एजोला का प्रयोग हरी खाद के रूप में रोपाई से पहले भी किया जा सकता है। यह देखा गया है कि 5 टन एजोला प्रति हेक्टेयर  की दर से हरी खाद के रूप में प्रयोग करने पर 30 कि.ग्रा. उर्वरक के  समतुल्य लाभ प्राप्त होता है।
सारणीः जैव उर्वरकों  का विभिन्न फसलों  की औषत  उपज पर प्रभाव 
क्रमांक    फसल का नाम                            जैव उर्वरक                              उपज में वृद्धि (प्रतिशत)
1.              अरहर                                   राइजोबियम                                          18
2.              मूंग                                       राइजोबियम                                          18
3.              उर्द                                        राइजोबियम                                          11
4.              मसूर                                     राइजोबियम                                           7
5.              चना                                       राइजोबियम                                       10.30
6.               गेहूॅ                                      एजोटोबैक्टर,एजोस्पीरिलम              16.39, 1.43
7.             धान                                       एजोटोबैक्टर, एजोस्पीरिलम             3.17, 9.50
8.             मक्का                                    एजोटोबैक्टर, एजोस्पीरिलम             8.53
9.              ज्वार                                     एजोटोबैक्टर, एजोस्पीरिलम              8.38, 2.27
10.           बाजरा                                    एजोटोबैक्टर, एजोस्पीरिलम              8, 11
11.             जौ                                        एजोटोबैक्टर, एजोस्पीरिलम              8, 6
12            कपास                                    एजोटोबैक्टर                                      7.27
13.          गाजर                                      एजोटोबैक्टर                                      16
14.          बन्दगोभी                                एजोटोबैक्टर                                     26.45
15.          बैगन                                       एजोटोबैक्टर                                     1.42
16.          टमाटर                                     एजोटोबैक्टर                                      2.24

7. स्फुर घोलक जीवाणु (पी.एस.बी.)              
             भारत की 80 से 90 प्रतिशत भूमि में फास्फोरस तत्त्व की कमी पाई गई है। पौध विकास एवं दानो को  पुष्ट बनाने में फास्फ़ोरस की महत्वपूर्ण य¨गदान ह¨ता है । भूमि में फास्फोरस तत्व की पूर्ति हेतु प्रयोग किये जाने वाले उर्वरकों का मात्र 18-23 प्रतिशत भाग ही फसल को उपलब्ध हो पाता है, शेष भाग अघुलनशील अवस्था में भूमि के अन्दर बेकार पड़ा रहता है। जबकि फास्फेटिक उर्वरकों पर कृषकों की सबसे ज्यादा लागत आती है। कुछ जीवाणु (बैसिलस, स्यूडोमोनास इत्यादि) एवं कवक (एस्परजिलस पेनिसिलियम इत्यादि) भूमि की अघुलनशील फास्फोरस को घुलनशील रूप में परिवर्तित कर इसे पौधों क¨ उपलब्ध करा देते हैं। स्फुर घोलक जीवाणु (पी.एस.बी अथवा पी.एस.एम.) कल्चर के  प्रयोग से भूमि में अघुलनशील अवस्था में उपस्थित फास्फोरस  घुलनशील अवस्था में परिवर्तित हो जाता है जिसे पौधेे आसानी से ग्रहण कर सकते है। स्फुर घोलक जैव उर्वरक का उपयोग सभी धान्य, दलहनी एवं तिलहनों फसलों के  लिए भूमि में स्फुर की उपलब्धता बढ़ाने में किया जा सकता है। इन फसलों को 20-25 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर फास्फोरस उर्वरक के बराबर लाभ होता हैं। इनका उपयोग नत्रजन प्रदान करने वाले जैव उर्वरकों (राइजोबियम, एजेटोबैक्टर, एजोस्पाइरिलम) के साथ मिलाकर भी किया जा सकता है।
8. माइकोराइजा
                माइकोराइजा कवक पौधों के साथ साझेदारी कर पौधों को फास्फोरस एवं सूक्ष्म पोषक तत्व जैसे जस्ता आदि के अवषोषण में सहायता करता है। वैसिकुलर आरबस्कुलर माइकोराइजा (वैम) फंजाई विभिन्न धान्य एवं दलहनी फसलों के साथ साझेदारी कर फसलों को लाभ पहुचाती है। इस जैव उर्वरक के प्रयोग से फसलों में प्रयोग की जाने वाली उर्वरकों की 25-30 प्रतिषत तक बचत की जा सकती है। बाजार मे कम उपलब्धता के कारण फसलों में इसका बहुत सीमित प्रयोग ही किया जा रहा है।

कैसे करें जैव उर्वरकों  का प्रयोग ?

जैव उर्वरकों  का प्रयोग  करने की निम्न विधियाँ  है ।
1.बीज उपचारः राइजोबियम, एजेटोबैक्टर, एजोस्पाइरिलम एवं फास्फेट विलयकारी जैव उर्वरकों ( पी एस बी कल्चर) के प्रयोग के लिए बीज उपचार विधि ही सुविधाजनक एवं प्रचलन में है। सामान्यतः किसी भी फसल के 10 कि.ग्रा. बीज को उपचारित करने के लिए एक पैकेट (200 ग्राम) जैव उर्वरक पर्याप्त होता है। जैव उर्वरक की इस मात्रा को 200-500 मि.ली. गुड़ या चीनी के ठण्डे घोल में मिलाकर घोल बना लें। तत्पष्चात जैव उर्वरक के इस घोल को बीजों के उपर डालकर उसे बीजों के साथ इस प्रकार मिला ले कि प्रत्येक बीज के उपर जैव उर्वरक की एक पतली परत बन जाए। जैव उर्वरक से उपचार करने के बाद बीज काले रंग के दाने जैसे दिखते हैं। जैव उर्वरकों से उपचारित बीजों को थोड़ी देर छाया में सुखाकर तुरन्त बुआई कर देना चाहिए। दो या अधिक जैव उर्वरकों को एक साथ प्रयोग करने के लिए इनकी आवश्यक मात्रा का एक साथ घोल बनाकर बीजों का उपचार करना चाहिए।
2.भूमि उपचारः इस विधि द्वारा एजेटोबैक्टर, एसीटोबैक्टर एवं पीएसएम जैव उर्वरकों का प्रयोग सभी खाद्यान्नों की फसलों, गन्ना, तिलहन फसलों, सब्जी फसलों, फूलों आदि में किया जा सकता है। इस विधि में जैव उर्वरकों की लगभग 2-5 कि.ग्रा. मात्रा को 100 कि.ग्रा. अच्छी प्रकार सड़ी गोबर की खाद या कम्पोस्ट में मिलाकर खेत की तैयारी के समय अन्तिम जुताई से पूर्व खेत में एक साथ छिड़क कर मिट्टी  में मिला दें।
3.कन्द उपचारः आलू की फसल में एजोटोबैक्टर व पीएसएम का उपयोग करने के लिये प्रति हे.2 कि.ग्रा. जैव उर्वरकों को 20-25 लीटर पानी में घोल बनाकर उसमें बीज को 5 मिनट के लिये डुबोकर बुवाई करें। गन्ने की फसल में एसीटोबैक्टर  जैव उर्वरक क¨  5-6 किलो प्रति.हे. की दर से प्रयोग करना चाहिए।
4.जड़ उपचार विधिः यह विधि रोपाई वाली फसलों में प्रयोग की जाती है। इस विधि में 1-2 किग्रा. जैव उर्वरकों को 10-20 लीटर पानी में घोल बनाकर उसमें एक हेक्टेयर क्षेत्रफल के लिये रोपाई हेतु पौधों को रोपाई से पूर्व 10 मिनट के लिये जड़ो को डुबोकर रोपाई की जाती है।
   
जैव उर्वरक प्रयोग विशेष  सावधानियाॅं            
          यह बात सदैव ध्यान में रखना चाहिए कि जैव उर्वरक रासायनिक उर्वरकों के विकल्प नहीं है। पूरक उर्वरक के रूप में ही इनका उपयोग किया जाता है।  मृदा परिक्षण के आधार पर फसलों की पोषक तत्वों की आवश्यकता का निर्धारण करने के पश्चात उनकी पूर्ति  करना चाहिए।  जैव उर्वरकों का रासायनिक एवं कार्बनिक खादों के साथ बेहतर समन्वय बनाकर उपयोग करना अधिक फायदेमंद होता है। फसल के लिये निर्धारित जैव उर्वरक ही प्रयोग करें। जैव उर्वरकों  का उपयोग करते समय अग्र प्रस्तुत बातें ध्यान में रखना आवश्यक है ।
  • जैव उर्वरकों से मिलने वाला लाभ जैव उर्वरकों की गुणवत्ता पर निर्भर करता है। अतः किसी सरकारी संस्थान या विश्वसनीय स्त्रोत से उच्च गुणवत्ता का जैव उर्वरक ही क्रय करना चाहिए।
  • यह जीवित जीवाणुओं का मिश्रण है, इसलिए इन्हें तेज धूप, उच्च तापक्रम से सदैव बचाये रखें, अन्यथा उनके जीवाणु मरने शुरू हो जाते है। गर्मियों में भण्डारण के लिये मकान के कोने में रेत के अन्दर घड़े मे रखें तथा रेत पर पानी छिड़कर कर भिगोते रहें।
  • कल्चर पैकेट खरीदते समय उनकी निर्माण तिथि अवश्य देख लें और उनका उपयोग  निर्धारित अन्तिम तिथि से पूर्व ही कर लेना चाहिए। पैकेट उपयोग के समय ही खोलें।
  • जैव उर्वरकों का चयन फसलों के अनुसार किया जाना चाहिए। मसलन प्रत्येक दलहनी फसल का राइजोबियम कल्चर अलग होता है। पी.एस.एम. जैव उर्वरक सभी फसलों के लिए प्रयोग किए जा सकते हैं।
  • जैव उर्वरकों को खेत में प्रयोग किए जाने वाले उर्वरकों  तथा अन्य रासायनों (कीटनाशक, फंफूदनाशक या शाकनाशी) के सम्पर्क में नही आने देना चाहिए। इससे लाभ की अपेक्षा अधिक हानि हो सकती है।
  • जैव उर्वरकों से बीज का उपचार किसी स्वच्छ फर्श, पालिथीन या बोरे पर करना चाहिए।
  • यदि किसी रसायन से बीजशोधन किया जाना आवश्यक हो तो बीज को  पहले रसायनों से उपचारित करें । इसके  उपरांत जैव उर्वरकों से उपचार करना चाहिए। ऐसी स्थिति में जैव उर्वरकों की मात्रा दुगुनी करना लाभप्रद रहता है।
  • जैव उर्वरकों से उपचार के बाद बीजों को छाया में कुछ देर सुखाकर शीघ्र ही बुआई कर देना चाहिए एवं कुडों को ढंक देना चाहिए।
          इस प्रकार फसल के अनुसार जैविक उर्वरकों  का उपरोक्तानुसार एक पूरक खाद के रूप में उपयोग कर कृषक भाई सीमित लागत में अधिकतम उत्पादन प्राप्त कर सकते है । इतना ही नहीं इससे रासायनिक उर्वरकों  पर निर्भरता कम होगी जिससे पर्यावरण हितैषी सतत फसल उतप्तादन को बढ़ावा मिलेगा ।
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मंगलवार, 3 जून 2014

वर्षा आश्रित क्षेत्रों में धान उत्पादन के लिए वरदान है-व्यासी पद्धति

                                                                   डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर
                                                         प्राध्यापक (सस्य विज्ञानं विभाग )
                                  इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषक नगर, रायपुर (छत्तीसगढ़)


                   पूर्वी भारत यथा आसाम, बिहार, ओडिसा, पश्चिम बंगाल तथा छत्तीसगढ एवं उत्तर प्रदेश के  पूर्वी भाग की निचली भूमियों  में बारानी धान की खेती का महत्वपूर्ण स्थान है । धान के  अन्तर्गत कुल क्षेत्रफल का 58 प्रतिशत हिस्सा पूर्वी भारत में है जबकि राष्ट्रीय धान उत्पादन में इस क्षेत्र की 48 प्रतिशत हिस्सेदारी है । पूर्वी भारत की निचली बारानी भूमियों (वर्षा आश्रित क्षेत्र) में उथले व मध्यम जल के  साथ 50-80 प्रतिशत क्षेत्र के  किसानों  द्वारा परम्परागत रूप से ब्यासी पद्वति से धान की खेती वरदान साबित हो रही है क्योंकि वर्षा की अनिश्चितता और जल की अनुपलब्धता में भी किसानों  को  सीमित मेहनत,  काम पूंजी व आदानो  के  भी धान की सुनिश्चित उपज प्राप्त हो  जाती है । यह विधि अस्थिर जलवायु एवं विषम मौसम वाले क्षेत्रों  के  छोटे व मझोले  किसानों  द्वारा अपनाई जाती है ।  प्रभावी नींदा नियंत्रण, उत्तेजित जड़ विकास, भरपूर कंशों  के  साथ आदर्श पौध संख्या की वजह से ब्यासी विधि स्थिर उत्पादन देने में सहायक सिद्ध होती है। इस विधि में ज्यादातर किसान मध्यम कंशे युक्त 120 -140  दिन में तैयार होने वाली  किस्मो का उपयोग करते है । उन्नत किस्मो  का प्रयोग सीमित मात्रा में किया जाता है । ब्यासी पद्धति के  अन्तर्गत खेत में मुख्यतः दो  प्रक्रियाएं संपन्न  की जाती है
1.    परंपरागत लंबी अवधी वाली किस्मो  को  अधिक बीज दर के  साथ सीधे बोया जाता है ।
2.    अंकुरण के 25-35 दिन पश्चात जब खेत में 15 सेमी पानी एकत्रित हो जाता है, तब खड़ी फसल में जुताई कर पाटा चलाया जाता है । कुछ क्षेत्रों  में जुताई के  बाद खेत में पौधों  का समान वितरण भी किया जाता है ।
भारत के पूर्वी हिस्सों में   निचले खेतों  में ब्यासी एक प्राचीन  पद्धति है जिसमें सूखे खेतो  में छिटकवां विधि से बोये  गये खेत में 25-35 दिन पश्चात  15-20 सेमी. पानी जमा हो  जाने पर आड़ी-खड़ी जुताई की जाती है । तत्पश्चात पाटा चलाकर खेत में पौधों  का पुनः समान वितरण संपन्न किया जाता है । इससे असामान्य जलवायु एवं कम आदानों  में भी अच्छी उपज प्राप्त की जाती है ।

धान में व्यासी की प्रक्रियाएँ

          उन  खेतों  में जहाँ ब्यासी पद्धति से धान लिया जाना है, 2-3 बार ग्रीष्मकालीन जुताई की जाती है जिससे खरपतवार, कीट-ब्याधियां नष्ट हो  जाए ।  मिट्टी को बगैर पलटे खेत की जुताई बैल चलित हल से की जाती है । मानसून की प्रथम वर्षा होने पर यदि खेत में खरपतवार दिखते है तो  एक बार पुनः जुताई करते है । इसके  बाद मई के  अंतिम सप्ताह में खेत में धान का बीज छिड़क कर हैरो  चलाते है । किसानों  का मानना है कि मई के अंतिम सप्ताह में धान की बुवाई करने से बेहतर उपज मिलती है क्योकि अक्टूबर माह में के  अन्त में संभावित सूखे से पूर्व फसल पक कर तैयार हो  जाती है । धान अंकुरण के  25-35 दिन बाद, खेत में 15-20 सेमीं जल भरने पर गीली जुताई की जाती है। ब्यासी करने से पूर्व कुछ किसान फसल चराने हेतु पशुओं  को  छोड़ देते है । ऐसा करने से पौधों  में कंशो  का विकास अधिक होता है तथा खेत में बांछित पौध  संख्या स्थापित होती है । जुताई करने के  बाद 1-2 बार पाटा चलाया जाता है जिससे पौधों के  पास मिट्टी मुलायम हो जाए । पाटा चलाने से खरपतवार मिट्टी में मिल जाते है जोकि खाद का कार्य करते है । अधिक घने पौधों को  उखाड़कर रिक्त स्थानों पर रूप दिया जाता  है ।

व्यासी पद्धति: कृषक अवधारणा

1. श्रमिक बचतः व्यासी पद्धति  में श्रमिकों  की बचत होती है क्योंकि  रोपा विधि में पौधशाला निर्माण, खेत की जुताई (पडलिंग), रोपाई, निंदाई में अधिक श्रमिक, मेहनत व पैसा लगता है । ब्यासी में सिर्फ प्रारंभिक जुताई और  खड़ी फसल में जुताई में ही श्रमिकों  की आवश्यकता होती है। व्यासी की विभिन्न प्रक्रियाओं  में 120 से 130 मानव दिवस लगता है जबकि रोपा पद्धति में प्रति हैक्टर 209 मानव दिवस की आवश्यकता होती है । इसके  अलावा ब्यासी विधि में पशु शक्ति का प्रयोग भी कम (42 दिन प्रति है) होता है जबकि रोपा विधि में अधिक पशु बल (50 दिवस प्रति है.) की जरूरत होती है ।
2.उर्वरकों की बचत: व्यासी पद्धति में धान की देशी-ऊँची किस्मों का उपयोग किया जाता है जिन्हे कम उर्वरकों  की आवश्यकता होती है । अधिक उर्वरक देने से लाभ नहीं होता है । किसानों  का मानना है कि उन्नत किस्मों  को  रासायनिक उर्वरको  की अधिक मात्रा में आवश्यकता होती है तथा व्यासी विधि के लिए ये किस्में  उपयुक्त नहीं होती है । यहां तक की बहुत से किसान रोपा विधि में भी उन्नत किस्मों  की खेती से परहेज करते है।  किसानों को इस अवधारणा को बदल देना चाहिए। भारत के बिभिन्न स्थानों पर किये गए शोध परिणामों से ज्ञात होता है की अधिक उपज और आर्थिक लाभ के लिए उन्नत किस्मों का प्रयोग करना फायदेमंदहोता है। क्षेत्र विषेश के लिए अनुसंसित उन्नत किस्मो का प्रयोग करते हुए व्यासी विधि से धान की अधिक उपज ली जा सकती है।  
3.व्यासी पद्धति में पौधशाला की जरूरत नहीं: अधिकांश धान उत्पादक राज्यों में ग्रीष्मकाल के  दौरान जानवरो  की खुल्ला चराई प्रचलित है जिसके  कारण पौध शाला की सुरक्षा करने में समस्यायें आती है । जबकि व्यासी विधि से उगाये गए धान में यह समस्या नहीं आती है।
4.खेत मचाने की आवश्यकता नहीं: रोपा विधि में किसान को  खेत में पर्याप्त पानी भरजाने हेतु प्रतीक्षा करनी होती है जो कि सामान्य वर्षा की स्थिति में भी मध्य या जुलाई अंत में ही संभव हो  पाता है । अतः रोपण विधि  में फसल स्थापना में न केवल विलंब होता है बल्कि फसल में फूल आने के  समय (मध्य अक्टूबर) संभावित सूखे से फसल को  नुकसान  सकता है । व्यासी विधि में शीघ्र बुवाई के  कारण फसल को  सूखे से क्षति की संभावना कम रहती है ।
5.खरपतवार व कीट प्रकोप कम : व्यासी पद्धति के अन्तर्गत गर्मी में  खेत की जुताई हो  जाने के  कारण खरपतवार व कीट नष्ट हो जाते है । खड़ी फसल में पनपने वाले खरपतवार ब्यासी के  समय मिट्टी में मिला दिये जाते हैजो कि  हरी खाद का कार्य करते है।
6.कम नकदी और आदानों की आवश्यकता: व्यासी पद्धति मे पौधशाला की स्थापना और  खेत मचाने की क्रियाविधि नहीं किये जाने के  अलावा खाद-उर्वरकों  पर भी अधिक पैसा  व्यय नहीं करना पड़ता है ।  ब्यासी विधि में श्रमिक आवश्यकता का वितरण लंबे समय तक होने के  कारण अधिकतर कार्य पारिवारिक मजदूरों से ही संपन्न हो जाता है । रोपण कार्य एक माह के  अंदर संपन्न किये जाने के  कारण अधिक श्रमिको  की एक साथ सभी किसानों को आवश्यकता पड़ती है । इस प्रकार से ब्यासी विधि आर्थिक रूप से अधिक लाभकारी है ।
7.    सूखा और  अधिक जलभराव वाले क्षेत्रों के लिए ब्यासी आदर्श पद्धति: असमान वर्षा और  ऊँची-नीची भूमि के  कारण सूखा या बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों  में रोपा विधि या धान की सीधी-बुवाई आर्थिक रूप से लाभकारी नहीं है । एक ही समय में वर्षा के  आधार पर फसल को  सूखा या बाड़ से क्षति की सम्भावना रहती है । रोपण कार्य समय पर संपन्न होना अति आवश्यक होता है क्योकि विलंब से रोपाई करने से पौध  अधिक उम्र की हो जाती है, उसमें कल्लों  का विकास कम होगा, सूखा की संभावना बढ़ जाती  है तथा नवम्बर-दिसम्बर में तापमान कम होने के  कारण दाना विकास पर प्रतिकूल असर पड़ता है ।
8.मिट्टी की भौतिक दशा एवं अगली फसल पर विपरीत प्रभावः रोपा विधि में खेत मचाने के  कारण मिट्टी की भौतिक दशा खराब हो जाती है । मृदा सतह सख्त हो  जाने के  कारण आगामी फसल की स्थापना में कठिनाई होती है । रोपण धान की कटाई ब्यासी धान की अपेक्षा 2-3 सप्ताह बाद की जाती है । इसके  पश्चात बोई जाने वाली फसल को  प्रारंभ में ही सूखा का सामना करना पड़ता है । व्यासी धान में यह समस्या नहीं आती है ।

व्यासी पद्धति की सीमाएं

           जहां व्यासी पद्धति से धान की खेती करने के अनेक लाभ है तो  कुछ सीमाएं भी है । व्यासी पद्धति की प्रमुख कमियाँ या सीमाएं निम्नानुसार है
1.अपर्याप्त पौध संख्या: बीज बोवाई पश्चात कम या अपर्याप्त वर्षा के  कारण बीज अंकुरण प्रभावित होता है जिसके  कारण प्रति इकाई बांक्षित पौध  संख्या स्थापित नहीं हो पाती है । उत्तम बीज अंकुरण एवं पौध  विकास के  लिए पर्याप्त वर्षा अथवा भूमि में नमीं आवश्यक  है तभी प्रति इकाई बांक्षित पौध  संख्या और  अधिक उपज प्राप्त हो  सकती है । ब्यासी प्रक्रिया के  परिणामस्वरूप कुछ पौधे क्षतिग्रस्त होकर मर जाते है और  कुछ पौध  का स्थापन्न असमान  हो जाता है । इस नुकसान से बचने के  लिए प्रायः किसान प्रति इकाई अधिक बीज दर का उपयोग (130-200  किग्रा. प्रति हैक्टर) करते है । व्यासी के  तुरंत पश्चात भारी वर्षा के  कारण खेत में जलभराव होने से पौध मृत्य दर अधिक हो  जाती है ।
2.अप्रभावी नींदा नियंत्रण: पूर्वी भारत में सूखा-बाढ़ के  बाद खरपतवार प्रकोप धान की खेती की दूसरी सबसे बड़ी समस्या है । निचले खेतों  में सीधे बोये गये धान में खरपतवारों  से अधिक क्षति होती है । छत्तीसगढ़ में धान के खेत में करगा (जंगली धान) की ज्वलंत समस्या है । इसके  नियंत्रण हेतु परंपरागत ब्यासी विधि तभी कारगर होती है जब फसल की प्रारंभिक अवस्था के  समय पर्याप्त मात्रा में वर्षा हो । वर्षा की प्रत्याशा में विलंबित ब्यासी की स्थिति में खरपतवारों  की  बढ़वार भरपूर हो जाती है जिससे वे भूमि में उपस्थित प©षक तत्वों  का शीघ्र अवशोषण कर लेते है और  धान में कंशा विकास अवरूद्ध कर देते है ।
3.उन्नत किस्मों  का अभाव: शीघ्र तैयार होने वाली अर्द्ध-बौनी किस्में ब्यासी पद्धति के लिए अनुपयुक्त ह¨ती है क्योंकि ब्यासी एवं पाटा करते समय उनके  तने टूट जाते है । इस प्रकार से कहा जा सकता है कि निचली धनहा भूमियों के  लिए धान की सभी किस्में उपयुक्त नहीं है ।
4.कम उपज: अपर्याप्त पौध  संख्या, उन्नत किस्मों  का कम फैलाव, फसल गिरना (लाजिग), कम उर्वरक उपय¨ग व न्यूनतम उर्वरक दक्षता, पौध  संरक्षण उपायों  को  न अपनाना, सूखा और  बाढ़ के  कारण ब्यासी विधि से उगाये जाने वाले धान की पैदावार कम आती है ।
              धान की परंपरागत ब्यासी पद्धति उपज के  मान से रोपण विधि की तुलना में कमतर आंकी जा सकती है परन्तु यह धान की अधिक टिकाऊ (सस्टेनेबल) विधि है । जलवायु परिवर्तन के कारण दिन प्रति दिन वर्षा के दिनों एवं मात्रा में  गिरावट हो रही है जिसका सीधा कुप्रभाव धान उत्पादन पर पड़ सकता है। इसके आलावा यह भी माना जाता है की रोपण पद्धति से धान उत्पादन करने से पर्यावरण को भारी क्षतिहोती है।  इस विधि में बहुत अधिक पानी की आवश्यकता होती है और खेत में लगातार पानी भरा रहने से भूमि से हानिकारक गैसे पर्यावरण को दूषित कर रही है तथा वातावरण के तापमान को बड़ा रही है।  व्यासी पद्धत्ति से धान की खेती पर्यावरण अनुकूल तो है। इसके आलावा कम श्रम व खर्च में धान की टिकाऊ खेती होती है। कृषि वैज्ञानिकों ने धान की व्यासी पद्धति को अधिक उपज के लिए परिष्कृत किया है जिसे अपनाकर किसान भाई  कम लागत में भूमि एवं पर्यावरण को  बगैर क्षति पहुंचाये प्रति इकाई अधिकतम उपज एवं  आय अर्जित कर सकते है ।
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सोमवार, 2 जून 2014

सूखाग्रस्त क्षेत्रों के लिए नकदी फसल ग्वारफल्ली लागत काम लाभ अधिक

                                                                     डॉ. गजेन्द्र सिंह तोमर
                                                            प्राध्यापक (सश्य विज्ञानं बिभाग)
                                    इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषक नगर, रायपुर (छत्तीसगढ़)

                                                      काले सोने की खेती से मालामाल किसान

                    फैबेसी अर्थात दलहनी कुल की ग्वार फली (क्लस्टर बीन अर्थात फल्लियों  का गुच्छा) को  वानस्पतिक जगत में स्यामोप्सिस टेट्रागोनोलोबा के  नाम से जाना जाता है। चारा व सब्जी फसल के  रूप में  अनादि काल से प्रचलित ग्वारफली की बहुपयोगिता एवं महत्व को  देखते हुए इसे अब काला सोना (ब्लैक गोल्ड) की संज्ञा दी जा रही हैं । इसकी फलियाँ को सब्जी बनाने तथा दाना पशु आहार के रूप में प्रयोग किया जाता रहा है परन्तु अब ग्वार की खेती प्रमुख नकदी फसल के  रूप में की जाने लगी है । दरअसल ग्वार बीज गोद (गम)  का मुख्य स्त्रोत (28-32 प्रतिशत गोंद) है, जो  कि अन्य बीजो  द्वारा निर्मित गोंद से सस्ता पड़ता है । यह  प्राकृतिक हाइड्रोकोलाइड का  स्रोत हैं, जो कम गाढ़ेपन पर ठंडे पानी में घुलनशीन द्रव्य है।  ग्वार बीज के तीन भाग होते हैं-जर्म, इंडोस्पर्म और हस्क । इंडोस्पर्म से ही ग्वार गम की उत्पत्ति होती है।
             औद्योगिक दृष्टिकोण से इसका उपयोग खदानों, पेट्रोलियम वेधन और वस्त्र निर्माण में होता है। इसे जमीन से गैस निकालने के हाइड्रोलिक फ्रैक्चरिंग तरीके में इस्तेमाल किया जाता है। अमेरिकी पेट्रोलियम उद्योग और खाड़ी देशों के तेल उद्योगों द्वारा ग्वार बीजों की मुख्य तौर पर मांग होती है। अमेरिका में पाइप लाइन के जरिए पानी, गैस या तेल एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचाया जाता है। पाइप लाइन में दरारें उभरने के  कारण लीकेज की गंभीर समस्या का सामना करना पड़ता था । अनुसंधान से जब यह पता चला है कि ग्वार तरल पदार्थ को कारगर तरीके से सोख लेता है। इस खूबी के कारण ही दरारों को भरने के लिए इसे उपयुक्त माना जाने लगा है। यही कारण है कि ग्वार गम  की मांग विश्व में निरंतर बढ़ती जा रही है।

                इसके अलावा ग्वार गोंद पाउडर का उपयोग भोजन को गाढ़ा करने और कैचअप-सॉस व आइसक्रीम जैसी अनेक खाद्य-सामग्रीं को ठोस बनाने में किया जाता है। इसके  दानो  में 13-15 प्रतिशत प्रोटीन पाई जाती है। घर-घर में खायी जाने वाली प्रमुख सब्जियों में से ग्वार फली एक है, जो  कि औषधीय गुणों से भरपूर है। ग्वार फली में कई पौष्टिक तत्व पाए जाते हैं जो स्वास्थ के लिए गुणकारी होते हैं।  यह भोजन में अरुची को दूर करके भूख को बढ़ाने वाली होती है।  इसके सेवन से मांसपेशियां मजबूत बनती है ग्वार फली में प्रोटीन भरपूर मात्रा में होता है जो सेहत के लिए फायदेमंद होता है। ऐसा माना जाता है कि ग्वार फली मधुमेह के रोगी के लिए भी लाभदायक है यह शुगर के स्तर को नियंत्रित करती है , पित्त को खत्म करने वाली है। ग्वारफली की सब्जी खाने से रतौंधी का रोग दूर होजाता है।  ग्वार फली को पीसकर पानी के साथ मिलाकर मोच या चोट वाली जगह पर इस लेप को लगाने से आराम मिलता है। 
            यही नहीं ग्वारफली के  हरे पौधो को पौष्टिक चारे  के रूप में भी पहले से प्रयोग में लिया जा रहा हैं, जो पशुओं द्वारा चाव से खाया जाता है। हरी खाद के रूप में भी भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ाने  हेतु ग्वार लगाया जाता है । दलहनी फसल होने के कारण फसल चक्र में इसे सम्मलित करने से अगली फसल की उपज में बढ़ोत्तरी होती है । इस प्रकार सीमित संसाधनो में गुआर की खेती से बहुआयामी लाभ लिया जा सकता है।
            वर्तमान में ग्वार गम (गोंद) का वैश्विक बाजार लगभग 150,000 टन प्रति वर्ष अनुमानित है। विश्व में 85 फीसदी ग्वार का उत्पादन भारत में होता है। यहां भी सबसे ज्यादा पैदावार राजस्थान में हो  रही है। भारत से  लगभग 115,000 टन ग्वार गम का निर्यात होता है और घरेलू बाजार लगभग 25,000 टन का है। बीते कुछ वर्षों में ग्वार की खेती ने राजस्थान के  किसानो और व्यापारिओं की तकदीर तथा मरू क्षेत्र की तसवीर बदल दी है । गत वर्ष इस राज्य में ग्वार 120 से 300 रूपये प्रति  किलो  के  भाव से बेचा गया था ।  ग्वार पाउडर के निर्माण हेतु अनेक प्लांट राजस्थान में स्थापित हो  चुके  है । देश के  अन्य राज्यो यथा मध्य प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, छत्तीसगढ़, उत्तरप्रदेश आदि में भी ग्वार की खेती को  बढ़ावा देते हुए ग्वार गम निर्माण हेतु उध्योग स्थापित करने से क्षेत्र के रहवाशिओं को रोजगार और किसानो के लिए आमदनी के नवीन स्त्रोत उपलब्ध होंगे।
             जलवायु परिवर्तन के  कारण वर्षा की बढती अनिश्चितता कृषि क्षेत्र के  लिए समस्या बनती जा रही है । वर्षा पर निर्भर क्षेत्रों में गहराते जल संकट और  बढ़ते तापमान की बजह से खेती किसानी संक्रमण काल से गुजर रही है । अब जरूरत है हमारी भूली बिसरी फसलें यथा ज्वार, बाजरा, लघु धन्य (कोदों , कुटकी, रागी) तथा शीघ्र तैयार होने वाली दलहनी-तिलहनी फसलों  को  पुनः अपनाने की ।कम लागत व सीमित संसाधन प्रबंधन वाली ग्वार की फसल अब अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर निर्यात के बढ़ते स्त्रोत व नगदी फसल के रूप में तेजी से उभर रही है। भारत के  वर्षा आधारित या  सूखा ग्रस्त क्षेत्रों  के  किसान भाई नकदी फसल के  रूप में गुआरफल्ली की खेती अपना कर मनबांक्षित मुनाफा कमा सकते है ।
इस ब्लाग में  बहुपयोगी दलहन फसल ग्वार फली से अधिकतम उपज एवं लाभ अर्जित करने के  लिए सस्य तकनीक प्रस्तुत है।

आदर्श जलवायु

             अत्यंत ठन्डे स्थानों को छोड़ कर भारत के सभी राज्यों में गुआरफल्ली की खेती सफलता पूर्वक की जा सकती है।   ग्वार मुख्यतः खरीफ मौसम (वर्षा ऋतु) की फसल है परन्तु सिंचित अवस्था में इसकी खेती ग्रीष्म ऋतु में भी की जा रही है। इसे गर्म जलवायु  की आवश्यकता होती है। इसकी खेती बारानी परिस्थितियों में 250 से 500 मिमी. वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में सफलतापूर्वक की जाती है। यह एक लम्बे दिन वाली  फसल है। ग्वार की फसल वृद्धि हेतु चमकीले तथा गर्म दिन की आवश्यकता होती है। सामान्य वृद्धि के लिए फसल को 25 से 35 डिग्री सेल्सियस तापक्रम की आवश्यकता होती है। अधिक नमी वाले क्षेत्रों में ग्वार की वृद्धि रूक जाती है। अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में गुआर की वानस्पतिक वृद्वि अधिक तथा फल्लियाँ कम बनती है।

मृदा एवं खेत की तैयारी

              इसकी खेती समुचित जल निकास वाली मध्यम से हल्की भूमियों (पीएच मान 7.5 से 8.5) मे की जा सकती है। विभिन्न राज्यों की जलोढ़ एवं बलुई मृदा में ग्वार की खेती व्यापक स्तर पर की जा सकती है। भूमि का पीएचमान 7-8.5 तक अच्छा रहता है। भारी चिकनी मिट्टी (जल भराव वाली) ग्वार के लिए अच्छी नहीं रहती है। खेत तैयार करने के लिए एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से तथा दो जुताइयाँ देशी हल से करने के बाद पाटा चलाकर खेत समतल कर लेते हैं।

करें उन्नत किस्मो  का प्रयोग

        ग्वार की खेती दाना, सब्जी व चारे के  लिए की जाती है । भारत के  विभिन्न क्षेत्रो  के  लिए ग्वार की उन्नत किस्मो की संस्तुति निम्न प्रकार से की जाती हैः
1.उत्तर भारतः पूसा नवबहार, पूसा मौसमी, पूसा सदाबहार, जीएच-10, एचएफजी-119, अगेता ग्वार-111, ग्वार न.-2,एफएस-277, दुर्गापुरा सफेद, एस-299-7, जी-1,जी-4, एचजी-12, डी-128, एचजी-75, बी-2796,आईजीएफआरआई-5212
2.दक्षिण भारतः पूसा नवबहार, पूसा सदाबहार, जीएच-10, एचएफजी-119, आईसी-11704, आईसी-11521, आईसी-11388,सीपी-78
दानों के लिए उपयुक्त ग्वार की उन्नत किस्मों की विशेषतायें 
1.दुर्गापुरा सफेदः यह अगेती किस्म (100-105 दिन) है जिससे 14-15 क्विं./हे. दाना प्राप्त होता है। दाने गोंद बनाने के  लिए उपयुक्त हैं।
2. एफ.एस.-277: ग्वार की यह किस्म 130 दिन में तैयार ह¨ती है तथा पंजाब, हरियाना, दिल्ली व उत्तर प्रदेश की सिंचित व असिंचित अवस्था हेतु उपयुक्त पाई गई है । इसके  बीज सफेद रंग के  होते है जिनमे 30-32 प्रतिशत गोंद पाया जाता है । सिंचित परिस्थितियो  में इस किस्म से  प्रति हैैक्टर 8-9  क्विंटल  दाना और  300  क्विंटल  हरा चारा प्राप्त किया जा सकता है।
3.अगेता ग्वार-111: इस किस्म के  पौधे छोटे फल्लियों  से भरे हुए होते है । यह एक शीघ्र तैयार (लगभग 95 दिन) होने वाली बेहतर किस्म है जिससे सामान्य दशा में 30  क्विंटल  प्रति हैक्टर तक दाना उपज प्राप्त ह¨ती है । इसके  दाने छोटे भूरे-कत्थैइ रंग के  होते है जिनमें 30-76 प्रतिशत गोंद पाया जाता है । पंजाब, हरियाना, उत्तर प्रदेश व राजस्थान राज्यों  में खेती के  लिए उपयुक्त पाई गई है ।
4.जीएच-10: व्यापक अनुकूलता वाली यह किस्म देर से बोने के  लिए उपयुक्त है । यह 130 दिन में पक कर तैयार ह¨ती है तथा जिससे लगभग 18 क्विंटल दाना उपज प्रति हैैक्टर प्राप्त की जा सकती है ।
5.एच.एफ.जी.-119: देर से पकने वाली यह किस्म उत्तर भारत की जलवायु के  लिए उपयुक्त है। दाने व चारे के  लिए उत्तम किस्म है जो  कि 130 दिन में तैयार होती है। प्रति हैक्टर 350  क्विंटल  हरा चारा व 16-18  क्विंटल  दाना उपज ली जा सकती है। इसके  बीज भूरे, मध्यम आकार के  होते है जिनमे 30 प्रतिशत गोंद पाया जाता है।
6.आर.जी.सी.-1003: यह किस्म 85-95 दिन में पक कर तैयार हो कर औसतन 8-12 क्विंटल दाना पैदावार देती है। दानो  में 29-32 प्रतिशत गोंद होता है।
7. आर.जी.सी.-1017: ग्वार की यह किस्म 90 से 100 दिन में तैयार होती है जिससे 10-12  क्विंटल  दाना प्राप्त होता है।
हरी फल्लियो  (सब्जी) हेतु ग्वार की किस्में
1.पूसा मौसमीः सब्जी उत्पादन हेतु पंजाब, हरियाना व उत्तर प्रदेश के  लिए संस्तुत किस्म है। इसकी फल्लियों  में रेशे कम ह¨ते है। बुवाई के  80 दिन बाद फल्लियों  की प्रथम तुड़ाई की जाती है। सिंचित व असिंचित दोनों  परिस्थितियों  के  लिए अनुकूल किस्म है। इससे लगभग 50  क्विंटल  हरी फल्लियो  की उपज प्राप्त होती है।
2.पूसा नवबहारः सम्पूर्ण भारत वर्ष में वर्षा ऋतु में उगाने के  लिए उपयुक्त किस्म है । इसमें शाखाएं नहीं ह¨ती है तथा गुच्छो  में फल्लिया लगती हैं। दक्षिण भारत में लंबे समय तक हरी फलियां ली जा सकती है। फल्लिययो  में रेशे कम होते है। लगभग  60 क्विंटल हरी फल्लियों  की उपज आती है।
3.पूसा सदाबहारः हरी फल्लियो  के  लिए आदर्श किस्म है जो  कि लंबे समय तक हरी फल्लियां प्रदान करती है। इसकी मार्च में बुवाई की जा सकती है। बुवाई के  45 दिन बाद फल्लियां बनने लगती है तथा सितम्बर तक हरी फल्लियां प्राप्त की जा सकती है। दक्षिण भारत के लिए उपयुक्त है। ओसतन 60-70 क्विंटल  प्रति हैक्टर हरी फल्लियां प्राप्त होती है।
हरे चारे के लिए ग्वार की प्रमुख उन्नत किस्में 
1. बुन्देल ग्वार-1: यह किस्म रोग प्रतिरोधी एव कीट सहनशील है। औसतन 22-35 टन हरा चारा प्राप्त होता है।
2. ग्वार-80: यह पूर्ण ब्लाइट रोग के लिए सहनशील किस्म है जो कि 30-35 टन तक हरा चारा देती है।
3. बुन्देल ग्वार-2: यह किस्म पर्ण ब्लाइट रोग सहनशील है जिससे 28-40 टन हरा चारा प्राप्त होता है।

बीज दर, बीजोपचार एवं बोआई

               वर्षा ऋतु प्रारंभ होते ही ग्वार की बोनी (जून-जुलाई) करना चाहिए परन्तु सिंचित क्षेत्रों मे मार्च-अप्रैल मे बुआई की जा सकती है । चारे के लिए अप्रैल से मध्य जुलाई तथा दाना के लिए जुलाई के प्रथम सप्ताह से 25 जुलाई तक का समय बोआई हेतु सर्वोत्तम पाया गया है । दाने के लिए 15-20 कि.ग्रा. तथा चारे व हरी खाद के लिए 40-45 किग्रा. बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त होता हैं । बुआई पूर्व बीज क¨ कवकनाशी थाइरम 3 ग्राम प्रति किग्रा. बीज की दर से उपचारित करें । इसके  पश्चात बीज को  ग्वार राइजोबियम कल्चर (600 ग्राम) से उपचारित कर छयादार स्थान में सुखाने के बाद बोया जाना चाहिए।
           आमतौर पर ग्वार की बोआई छिटक कर की जाती है। परन्तु अच्छी उपज के  लिए सीड ड्रिल अथवा नारी हल की सहायता से कतार ब¨नी करना चाहिए ।  ग्वार की बुआई कतार से कतार की दूरी 45-50 सेमी. तथा पौध  से पौध  की दूरी 10-15 सेमी. पर करना चाहिए । सब्जी के लिए उगाई जाने वाली फसल कतार में 60 सेमी. की दूरी पर बोना उचित रहता है । चारे वाली फसल को  कम दूरी पर(घना) लगाया जाता है ।

थोड़ा सा खाद व उर्वरक

                यदि उर्वर भूमि में ग्वार लगाना है तो खाद डालने की आवश्यकता नहीं होती। खेत की तैयारी के  समय 5 टन गोबर की खाद या कम्पोस्ट खाद 2-3 वर्ष में एक बार अवश्य प्रयोग करना चाहिए।  दलहनी फसल होने के  नाते ग्वार को  नत्रजन की आपूर्ति वातावरण की नत्रजन से हो  जाती है। सामान्य भूमियो  में फसल बुआई के समय 20-25 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40-50 किलोग्राम फाॅस्फोरस प्रति हेक्टेयर कूड़ों में डालने से उपज में काफी वृद्धि होती है।

मामूली सिंचाई

             खरीफ की अन्य फसलों की तुलना में ग्वार सबसे कम पानी चाहने वाली सूखा सह फसल है। ग्रीष्म ऋतु की फसल में पलेवा लगाकर बोनी करना चाहिए। इसके बाद 15-20 दिन के अन्तर से सिंचाईयाॅ करते है । सामान्य तौर पर खरीफ की फसल को सिंचाई की आवश्यकता नहीं रहती परंतु खेत में अच्छा जल निकास होना आवश्यक रहता है। सूखे की स्थिति में ग्वार की बुवाई के  25 व 45 दिन बाद 0.10 प्रतिशत थायोयूरिया के  घोल का छिड़काव करने से उपज में बढ़ोत्तरी होती है ।

खरपतवार नियंत्रण

            ग्वार फसल को आरम्भिक अवस्था में निराई की आवश्यकता पड़ती है। पंक्तियों में बोई गई फसल की गुड़ाई भी की जा सकती है। दाने वाली फसल में खरपतवार नियंत्रण के लिए बुआई के  2 दिन पश्चात तक पैन्डीमेथालीन (स्टोम्प) खरपतवारनाशी की बाजार में उपलब्ध 3.30 लीटर मात्रा को  500 लीटर पानी में घ¨ल बनाकर  प्रति ह¨क्टर की दर से छिड़काव करना चाहिए। फसल के  25-30 दिन होने पर एक गुड़ाई करना चाहिए । गुड़ाई करना संभव न ह¨ त¨ इमेजीथाइपर (परसूट) की 750 मिली मात्रा को  500 लीटर पानी में घोल बना कर प्रति हैक्टर की दर से बुवाई के  20-25 दिन बाद छिड़काव करने से खरपतवार नियंत्रित रहते है ।

कटाई, उपज एवं शुद्ध लाभ

                ग्वार  के  पौधे जब भूरे रंग के  पड़ने लगे तथा फलियां सूखने लगें तो हंसिया या दराती की सहयता से फसल की कटाई कर लेनी चाहिए तथा दाना भूसे से अलग कर साफ कर लेना चाहिए।  उपर¨क्तानुसार ग्वार की खेती करने पर औसतन 8-10 क्विंटल  दाना तथा  12-14 क्विंटल  भूसा प्राप्त हो  जाता है । प्रति हैक्टर ग्वार उत्पादन के  लिए लगभग 20 हजार रूपये की लागत आती है । यदि ग्वार दानो  का बाजार मूल्य 100 रूपये प्रति किग्रा  भी है  तो  किसान ग्वार की खेती से लगभग  60 से 80 हजार रूपये प्रति हैक्टर की आमदनी प्राप्त कर सकते है।
               चारे वाली फसल से असिंचित अवस्था में 80-120 क्विंटल तथा सिंचित फसल से 160-200 क्विंटल हरा चारा प्राप्त होता है। सब्जी हेतु उगाई गई ग्वार से हरी फलियों  की उपज  50-60 क्विंटल प्रति हेक्टेयर मिल जाती है।
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काबुली चने की खेती भरपूर आमदनी देती

                                                  डॉ. गजेन्द्र सिंह तोमर प्राध्यापक (सस्यविज्ञान),इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषि महाव...