डॉ. गजेन्द्र सिंह तोमर सस्य विज्ञान विभाग
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर
संसार की एक महत्वपूर्ण फसल मटर को दलहनों की रानी की संज्ञा प्राप्त है। मटर की खेती, हरी फल्ली, साबूत मटर तथा दाल के लिये की जाती है। मटर की हरी फल्लियाँ सब्जी के लिए तथा सूखे दानों का उपयोग दाल और अन्य भोज्य पदार्थ तैयार करने में किया जाता है। चाट व छोले बनाने में मटर का विशिष्ट स्थान है । हरी मटर के दानों को सुखाकर या डिब्बा बन्द करके संरक्षित कर बाद में उपयोग किया जाता है। पोषक मान की दृष्टि से मटर के 100 ग्राम दाने में औसतन 11 ग्राम पानी, 22.5 ग्राम प्रोटीन, 1.8 ग्रा. वसा, 62.1 ग्रा. कार्बोहाइड्रेट, 64 मिग्रा. कैल्शियम, 4.8 मिग्रा. लोहा, 0.15 मिग्रा. राइबोफ्लेविन, 0.72 मिग्रा. थाइमिन तथा 2.4 मिग्रा. नियासिन पाया जाता है। फलियाँ निकालने के बाद हरे व सूखे पौधों का उपयोग पशुओं के चारे के लिए किया जाता है। दलहनी फसल होने के कारण इसकी खेती से भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ती है। हरी फल्लिओं के लिए मटर की खेती करने से उत्तम खेती और सामान्य परिस्थिओं में प्रति एकड़ 50-60 क्विंटल हरी फल्ली प्राप्त होती है जिसका बाजार मूल्य 10 रुपये प्रति किलोग्राम भी जोड़ा जाये तो कुल राशि 50-60 हजार रुपये आती है, जिसमे 15-20 हजार रुपए खेती का खर्च घटा दिया जाये तो शुद्ध 35-40 हजार रुपये का मुनाफा पर प्राप्त हो सकता है। कम समय में अधिक मुनाफा कमाने के लिए यह एक अच्छा विकल्प है। इसके अलावा अगली फसल के लिए खेत भी शीघ्र रिक्त हो जाता है, यानि कि सोने पर सुहागा। छत्तीसगढ प्रदेश में मटर की खेती कुल 47.65 हजार हेक्टेयर क्षेत्रफल में प्रचलित है, जिससे 26.45 हजार टन दाना उपज प्राप्त है । प्रदेश में मटर के दानों की औसत उपज बहुत कम ( 555 किग्रा./हैक्टर) है, जिसे बढ़ाने हेतु किसान भाइयों को आधुनिक सस्य तकनीक को आत्मसात करना होगा । प्रति इकाई अधिकतम हरी फल्लियाँ अथवा दानो की उपज प्राप्त करने हेतु आधुनिक सस्य तकनीक अग्र प्रस्तुत है-
भूमि का चुनाव
मटर के लिए उपजाऊ तथा जलनिकास वाली मिट्टी सर्वोत्तम है। इसकी खेती के लिए मटियार दोमट और दोमट मिट्टियाँ उपयुक्त रहती हैं। सिंचाई की सुविधा होने पर बलुआर दोमट भूमियों में भी मटर की खेती की जा सकती है। छत्तीसगढ़ में खरीफ में पड़ती भर्री-कन्हार एवं सिंचित डोरसा-भूमि में दाल वाली मटर या बटरी की खेती की जाती है। अच्छी फसल के लिए मृदा का पीएच मान 6.5 - 7.5 होना चाहिए।
खेत की तैयारी
रबी की फसलों की तरह मटर के लिए खेत तैयार किया जाता है। खरीफ की फसल काटने के बाद मिट्टी पलटने वाले हल से एक जुताई की जाती है। तत्पश्चात् 2 - 3 जुताइयाँ देशी हल से की जाती है। प्रत्येक जुताई के बाद खेत में पाटा चलाना आवश्यक है,जिससे ढेले टूट जाते हैं और भूमि में नमी का संरक्षण होता है। बोआई के समय खेत में पर्याप्त नमी का होना आवश्यक है।
उन्नत किस्मों का चयन
मटर की हरी फलियों वाली किस्मों को गार्डन पी तथा दाल के लिए उपयोगी किस्मों को फील्ड पी कहा जाता है । कम समय में आर्थिक लाभ के लिए मटर की खेती हरीफल्लिओं के लिए करना चाहिए। दोनों प्रकार की मटर की प्रमुख उन्नत किस्मों का विवरण अग्र प्रस्तुत है .
दाल वाली मटर की उन्नत किस्मों की विशेषताएँ
किस्म का नाम अवधि (दिन) उपज(क्विंटल /हे.) अन्य विशेषताएं
अंबिका 100-125 15-20 ऊँचे पौधे , भभूतिया रोग प्रतिरोधक
रचना 115-120 15-20 ऊँचे पौधे, भभूतिया रोग प्रतिरोधक
जे.पी. 885 120-125 15-18 ऊँचे पौधे, भभूतिया रोग सहनशील
अर्पणा (एचएफपी-4) 100-120 20-25 प्रथम बौनी किस्म 1988 में विकसित
केपीएमआर.144-1(सपना) 100-120 18-20 भभूतिया रोग प्रतिरोधक, बौने पौधे
के.पी.एम.आर.400 (इन्द्र) 120-125 18-20 बौने पौधे, भभूतिया रोग प्रतिरोधक
आई.पी.एफ.99-25 90-100 15-16 बौने पौधे
विकास 90-100 15-16 बौने पौधे, भभूतिया रोग प्रतिरोधक
पारस 115-120 18-20 बौने पौधे, भभूतिया रोग प्रतिरोधक
सब्जी वाला मटर की उन्नत किस्मों की विशेषताएँ
आर्केल: यह यूरोपियन झुर्रीदार बौनी लोकप्रिय किस्म है, । बुआई के 60 दिन बाद इसकी फल्लियाँ तोड़ने योग्य हो जाती हैं। फल्लियाँ 80 - 10 सेमी. लम्बी होती है ,जिसमें 5 - 6 दाने होते है । हरी फल्लियों की उपज 80 - 90 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तथा इनकी तुड़ाई तीन बार में करते है ।
बोनविले: यह अमेरिकन किस्म है। बीज झुर्रीदार तथा फल्लियाँ 80-90 दिन बाद तोड़ने योग्य हो जाती है। फूल की शाखा पर दो फल्लियाँ लगती है। हरी फल्लियों की उपज 100-120 क्विंटल/हेक्टेयर तक होती है।
जवाहर मटर 5: यह हरी फल्ली प्रदान करने वाली किस्म है । इसकी फल्लियाँ 65-70 दिन बाद तोड़ने योग्य हो जाती है। प्रत्येक फल्ली में 5 - 6 दाने बनते है । फल्लियों की उपज क्षमता 80-90 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है।
जवाहर पी-83: मध्य समय में तैयार ह¨ने वाली किस्म है जो भभूतिया रोग प्रतिरोधक भी है। पौधे छोटे , प्रति फली 8 दाने बनते है तथा 120-130 क्विंटल हरी फल्लियों की उपज क्षमता है ।
बोनविले: यह अमेरिकन किस्म है। बीज झुर्रीदार तथा फल्लियाँ 80-90 दिन बाद तोड़ने योग्य हो जाती है। फूल की शाखा पर दो फल्लियाँ लगती है। हरी फल्लियों की उपज 100-120 क्विंटल/हेक्टेयर तक होती है।
जवाहर मटर 5: यह हरी फल्ली प्रदान करने वाली किस्म है । इसकी फल्लियाँ 65-70 दिन बाद तोड़ने योग्य हो जाती है। प्रत्येक फल्ली में 5 - 6 दाने बनते है । फल्लियों की उपज क्षमता 80-90 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है।
जवाहर पी-83: मध्य समय में तैयार ह¨ने वाली किस्म है जो भभूतिया रोग प्रतिरोधक भी है। पौधे छोटे , प्रति फली 8 दाने बनते है तथा 120-130 क्विंटल हरी फल्लियों की उपज क्षमता है ।
बीज दर एवं बीजोपचार
बीज की मात्रा बोने के समय, किस्म और बोने कि विधि पर निर्भर करती है। स्वस्थ एवं प्रमाणित बीज ही प्रयोग करना चाहिए। अगेती बौनी किस्मों की बीज दर 100 - 120 किग्रा. तथा देर से पकने वाली लम्बी किस्मों के लिए 80-90 किग्रा. प्रति हेक्टेयर बीज पर्याप्त रहता है। बीज तथा भूमि जनित बीमारियों से बीज एवं पौधों की सुरक्षा के लिए थायरम या बाविस्टीन 3 ग्राम प्रति किलो बीज के हिसाब से बीजोपचार अवश्य करें। इसके पश्चात् बीज को राइजोबियम कल्चर एवं पी.एस.बी. कल्चर 5 ग्राम प्रति किलो बीज के हिसाब से उपचारित कर छाया में सुखाकर सुबह या शाम को बोआई करना चाहिए।
बोआई का समय
मटर की अच्छी उपज लेने के लिए इसकी बोआई मध्य अक्टूबर से मध्य नवम्बर तक कर देना चाहिए। सिंचित अवस्था में बोआई 30 नवम्बर तक की जा सकती है। देर से बोआई करने पर उपज घट जाती है। हरी फल्लियों के लिए मटर की बोआई 20 सितम्बर से 15 अक्टूबर तक करना चाहिए। सितम्बर में बोई गई फसल में उकठा रोग होने ने की संभावना रहती है ।
बोने की विधियाँ
मटर की बोआई अधिकतर हल के पीछे कूड़ों में की जाती है। अगेती बौनी किस्मों को 30 सेमी. तथा देर से पकने वाली किस्मों को 45 सेमी. की दूरी पर कतारों में बोना चाहिए। मटर की बोआई के लिए सीड ड्रील का भी उपयोग किया जा सकता है। पौधे से पौधे की दूरी 8-10 सेमी. तथा बीज की बोआई 4 - 5 सेमी. की गहराई पर करनी चाहिए। अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में अथवा बिलम्ब से तैयार होने वाली मटर की किस्मो को जमीन से उठी हुई क्यारियों (120-150 सेमीं चौड़ी क्यारी जिनके बीच में नाली छोड़ी जाती है) में बोना अच्छा रहता है ।
खाद एवं उर्वरक
मटर की अच्छी फसल प्राप्त करने के लिए संतुलित मात्रा में खाद एवं उर्वरक देना आवश्यक है । सिंचित दशा में ख्¨त की अन्तिम जुताई के समय 8-10 टन प्रति हैक्टर गोबर की खाद या कम्पोस्ट मिट्टी में मिला देना चाहिए । उर्वरको की सही मात्रा का निर्धारण मृदा परीक्षण के आधार पर किया जा सकता है । दलहन फसल ह¨ने के कारण मटर क¨ नाइट्र¨जन की अधिक आवश्यकता नहीं होती है । सामान्यत: मटर फसल में 25-30 कि. ग्रा. नत्रजन 40 - 50 किग्रा. स्फुर तथा 20 किग्रा. पोटाश तथा 20 किग्रा. सल्फर प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई के पहले कूंडों में देना चाहिए। असिंचित दशा में नत्रजन की मात्रा (20 किग्रा.) प्रयोग करना चाहिए। यथासंभव उर्वरको को कूड़ में बीज से 2.5 सेमी. नीचे तथा 7-8 सेमी दूर डालना चाहिए । जस्ते की कमी वाले क्षेत्रों में 0.5 प्रतिशत जिंक सल्फेट और 0.25 प्रतिशत चूना का घोल बनाकर रोग के लक्षण दिखते ही फसल पर छिड़क देना चाहिए ।
सिंचाई
वैसे तो मटर की फसल प्रायः असिंचित क्षेत्रों में उगाई जाती है, परन्तु मटर की अच्छी उपज लेने के लिये दो सिचाई प्रथम बुवाई के 30 - 35 दिन बाद एवं द्वितीय 60 से 65 दिन बाद करना चाहिए। यथासंभव स्प्रिंकलर द्वारा सिंचाई करें या खेत में 3 मीटर की दूरी में नालियाँ बनाकर रिसाव पद्धति द्वारा सिंचाई करें। मटर में सदैव हल्की सिंचाई करनी चाहिये,क्योंकि अधिक पानी होने पर फसल पीली पड़कर सूख जाती है।
खरपतवार नियंत्रण
मटर में निराई-गुड़ाई फसल बोआई के 35 - 40 दिन बाद करने से खरपतवार समस्या कम हो जाती है। मटर की ऊँची किस्मों के सीधे खड़े रहने के लिए, जब पौधे 15 सेमी. ऊँचाई के हो जावें तब लकड़ी की खूंटियों का सहारा देना नितान्त आवश्यक रहता है । रासायनिक विधि से खरपतवार नियंत्रण के लिए बोआई के पहले खरपतवारनाशी जैसे बासालीन 0.75 लीटर या पेंडिमेथालीन 1 किलो सक्रिय तत्व अथवा मेट्रीब्यूजिन 1-1.5 किग्रा प्रति हैक्टर की दर से 800 - 1000 लीटर पानी में घोलकर फ्लेट फेन नोजल से छिड़काव कर मिट्टी में मिला देने से खरपतवार प्रकोप कम हो जाता है।
कीट नियंत्रण
मटर की फसल में तना छेदक, रोयेंदार गिडार, फली बेधक, लीफ माइनर तथा एफिड कीटों का प्रकोप देखा गया है। तना बेधक की रोकथाम के लिए बोने से पूर्व 30 किग्रा. फ्यूराडान 3 जी प्रति हेक्टेयर की दर से खेत मे मिला देनी चाहिए। पत्ती खाने वाली इल्ली तथा फली बेधक कीट को नष्ट करने के लिए मेलाथियान 50 ई. सी. की 1.25 लीटर की मात्रा को 500 - 600 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़कना चाहिए। एफिड और लीफ माइनर के नियंत्रण हेतु मोनोक्रोटोफास 600 मिली. प्रति हेक्टेयर की दर से 600 लीटर पानी मे घोलकर फसल पर छिड़कना चाहिए। दवा का छिड़काव करने के 10 - 15 दिन पश्चात् फल्लियों को सब्जी के लिए तोड़ना चाहिए।
रोग नियंत्रण
मटर के मुख्य रूप से उकठा, गेरूई, पाउडरी मिल्ड्यू तथा जड़ विगलन रोग लगता है। मटर की फसल जल्दी बोने से उकठा व जड़ विगलन रोग का प्रकोप होने की संम्भाावना होती है। इनकी रोकथाम के लिए बीज को थीरम 2 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित कर बोना चाहिए। अधिक नमी वाले मौसम में या पछेती किस्मों में पाउडरी मिल्ड्यू रोग का प्रकोप अधिक होता है। रोग रोधी किस्म जैसे अपर्णा आदि लगायें। इस रोग की रोगथाम के लिए घुलनशील सल्फर जैसे सल्फेक्स या हैक्सासाल 3 किग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से 1000 लीटर पानी में घोलकर 2 - 3 छिड़़काव करना चाहिए । गेरूई (रस्ट) रोग से बचाव हेतु डाइथेन एम-45 या डाइथेन जेड-78, 2 किग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से 1000 लीटर पानी में घोलकर 2 - 3 बार छिड़काव करते है।
कटाई एवं गहाई
हरी फल्लियों के लिए बाई गई फसल दिसम्बर - जनवरी में फल्लियाँ देती है। फल्लियों को 10 - 12 दिन के अतर पर 3 - 4 बार में तोड़ना चाहिए। तोड़ते समय फल्लियाँ पूर्ण रूप से भरी हुई होना चाहिए, तभी बाजार में अच्छा भाव मिलेगा। दानो वाली फसल मार्च अन्त या अप्रैल के प्रथम सप्ताह में पककर तैयार हो जाती है। फसल अधिक सूख जाने पर फल्लियाँ खेत में ही चटकने लगती है । इसलिये जब फल्लियाँ पीली पड़कर सूखने लगे उस समय कटाई कर लें। फसल को एक सप्ताह खलिहान में सुखाने के बाद बैलो की दाँय चलाकर गहाई करते है । दानों को साफ कर 4 - 5 दिन तक सुखाते है जिससे कि दानों मै नमी का अंश 10 - 12 प्रतिशत तक रह जाये।
उपज एवं भण्डारण
मटर की हरी फल्लियों की पैदावार 150 -200 क्विंटल तथा फल्लियाँ तोड़ने के पश्चात् 150 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक हरा चारा प्राप्त होता है। दाने वाली फसल से औसतन 20 - 25 क्विंटल दाना और 40 - 50 क्ंिवटल प्रति हेक्टेयर भूसा प्राप्त होता है। जब दानों मे नमी 8 - 10 प्रतिशत रह जाये तब सूखे व स्वच्छ स्थान पर दानो को भण्डारित करना चाहिए।