रविवार, 15 दिसंबर 2013

दलहनों का सरताज-चना लगायें मालामाल हो जायें

                                                     

डाँ. गजेन्द्र सिंह तोमर
प्राध्यापक (सस्य विज्ञान विभाग)
इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय, कृषक नगर,
रायपुर (छत्तीसगढ़)

                                                                रबी में चना बाजे घना 

                        चना  भारत की सबसे महत्वपूर्ण दलहनी फसल है। चने को दालों का राजा कहा जाता है। पोषक मान की दृष्टि से चने के 100 ग्राम दाने में औसतन 11 ग्राम पानी, 21.1 ग्राम प्रोटीन, 4.5 ग्रा. वसा, 61.5 ग्रा. कार्बोहाइड्रेट, 149 मिग्रा. कैल्सियम, 7.2 मिग्रा. लोहा, 0.14 मिग्रा. राइबोफ्लेविन तथा 2.3 मिग्रा. नियासिन पाया जाता है। चने का प्रयोग दाल एवं रोटी के लिए किया जाता है। चने को पीसकर बेसन तैयार किया जाता है ,जिससे विविध व्यंजन बनाये जातेहैं। चने की हरी पत्तियाँ साग बनाने, हरा तथा सूखा दाना सब्जी व दाल बनाने में  प्रयुक्त होता है।  दाल से अलग किया हुआ छिलका और  भूसा भी पशु चाव से खाते है । दलहनी फसल होने के कारण यह जड़ों में वायुमण्डलीय नत्रजन स्थिर करती है,जिससे खेत त की उर्वरा शक्ति बढ़ती है। अतः फसल चक्र में चने का महत्वपूर्ण स्थान है। देश में दलहनों की कमी होने और पोषण में चने के महत्व तथा विविध उपयोग के कारण बाजार में चने और इसके उत्पाद की खशी मांग रहती  है।  इस प्रकार से चने की खेती करने से किसानों को अच्छा मुनाफा होता है साथ ही खेत की  उर्वरता में भी बढ़ोत्तरी होती है जिससे आगामी फसल की उपज में भी इजाफा होता है।   भारत में चने की खेती 7.89 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में की जाती है, जिससे 895 किग्रा. प्रति हेक्टेयर के औसत मान से 7.06 मिलियन टन उत्पादन प्राप्त हुआ है ।   छत्तीसगढ़ में राज्योदय के  समय जहाँ 236.80 हजार हैक्टर रकबे में चना लगाया जाता था जिसका क्षेत्र  अब बढ़कर   345.23 हजार हैक्टर हो  गया जिससे  प्रदेश में 369.40 हजार मेट्रिक टन चने का उत्पादन हुआ । यद्यपि चने की औसत उपज कम ( 1070 किग्रा प्रति हैक्टर) है, परन्तु राज्य की भूमि और जलवायु चने की उपज बढ़ाने हेतु अनुकूल है ।  शीघ्र तैयार होने वाली धान की किस्मों  की कटाई  पश्चात उपलब्ध नमीं में चने की खेती वैज्ञानिक तरीके  से की जाए तो  किसानो  को  भरपूर उपज प्राप्त हो  सकती है । चने की खेती से अधिकतम उपज लेने के  लिए नवीन सस्य तकनीक अग्र  प्रस्तुत है ।

भूमि का चुनाव एवं खेत की तैयारी

                          सामान्यतौर पर चने की खेती हल्की से भारी भूमियों में की जाती है,किंतु अधिक जल धारण क्षमता एवं उचित जल निकास वाली भूमियाँ सर्वोत्तम रहती है। छत्तीसगढ़ की डोरसा, कन्हार भूमि इसकी खेती हेतु उपयुक्त है। मृदा का पी-एच मान 6-7.5 उपयुक्त रहता है। चने की ख्¨ती के लिए अधिक उपजाऊ भूमियाँ उपयुक्त नहीं होती,क्योंकि उनमें फसल की बढ़वार अधिक हो जाती है जिससे  फूल एवं फलियाँ कम बनती हैं।
                     चना की खेती के  लिए मिट्टी का बारीक होना आवश्यक नहीं है, बल्कि ढेलेदार खेत ही चने की उत्तम फसल के  लिए अच्छा समझा जाता है । खरीफ फसल कटने के बाद नमी की पर्याप्त मात्रा  होने पर एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से तथा दो जुताइयाँ देशी हल या ट्रेक्टर से की जाती है और फिर पाटा चलाकर खेत समतल कर लिया जाता है।  दीमक प्रभावित खेतों में क्लोरपायरीफास 1.5 प्रतिशत चूर्ण 20 किलो प्रति हेक्टर के हिसाब से जुताई के दौरान मिट्टी में मिलना चाहिए। इससे कटुआ कीट पर भी नियंत्रण होता है।

उन्नत किस्मों का चयन 

                    देशी चने का रंग पीले से गहरा कत्थई या काले तथा दाने का आकार छोटा होता है। काबुली चने का रंग प्रायः सफेद होता है। इसका पौधा देशी चने से लम्बा होता है। दाना बड़ा तथा उपज देशी चने की अपेक्षा कम होती है। छत्तीसगढ़ के लिए अनुशंसित चने की प्रमुख किस्मों की विशेषताएँ यहां प्रस्तुत है: .
वैभव: इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित यह किस्म सम्पूर्ण छत्तीसगढ़  के लिए उपयुक्त है। यह किस्म 110 - 115 दिन में  पकती है। दाना बड़ा, झुर्रीदार तथा कत्थई रंग का होता है।  उतेरा के लिए भी यह उपयुक्त है। अधिक तापमान, सूखा और उठका निरोधक किस्म है,जो सामान्यतौर पर 15 क्विंटल तथा देर से बोने पर 13 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है।
जेजी-74: यह किस्म 110-115 दिन में  तैयार हो जाती है । इसकी पैदावार लगभग 15 से 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।
उज्जैन 21: इसका बीज खुरदरा होता है। यह जल्दी पकने वाली जाति है जो 115 दिन में तैयार हो जाती है। उपज 8 से 10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है। दाने में 18 प्रतिशत प्रोटीन होती है।
राधे: यह किस्म 120 - 125 दिन में पककर तैयार होती है । यह 13 से 17 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज होती है।
जे. जी. 315: यह किस्म 125 दिन में पककर तैयार हो जाती है। औसतन उपज 12 से 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है।  बीज का रंग बादामी, देर से बोनी हेतु उपयुक्त है।
जे. जी. 11: यह 100 - 110 दिन में पककर तैयार होने वाली नवीन किस्म है । कोणीय आकार का बढ़ा बीज  होता है। औसत उपज 15 से 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। रोग रोधी किस्म है जो सिंचित व असिंचित क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है।
जे. जी. 130: यह 110 दिन में पककर तैयार होने वाली नवीन किस्म है। पौधा हल्के फैलाव वाला, अधिक शाखाएँ, गहरे गुलाबी फूल, हल्का बादामी चिकना  है। औसत उपज 18 से 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है।
बीजी-391: यह चने की देशी बोल्ड दाने वाली किस्म है जो  110-115 दिन में तैयार होती है तथा प्रति हेक्टेयर 14-15 क्विंटल उपज देती है । यह उकठा निर¨धक किस्म है ।
जेएकेआई-9218: यह भी देशी चने की बोल्ड दाने  की किस्म है । यह 110-115 दिन में तैयार होकर 19-20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है । उकठा रोग प्रतिरोधक किस्म है ।
विशाल:
चने की यह सर्वगुण सम्पन्न किस्म है जो कि 110 - 115 दिन में तैयार हो जाती है। इसका दाना पीला, बड़ा एवं उच्च गुणवत्ता वाला होता है । दानों से सर्वाधिक (80%) दाल प्राप्त होती है। अतः बाजार भाव अधिक मिलता है। इसकी उपज क्षमता 35क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।
काबुली चना
काक-2:
यह  120-125  दिनों में पकने वाली किस्म है । इसकी औसत उपज 15 से 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। यह भी उकठा निरोधक किस्म है ।
श्वेता (आई.सी.सी.व्ही. - 2): काबुली चने की इस किस्म का दाना आकर्षक मध्यम आकार  का होता है। फसल 85 दिन में तैयार होकर औसतन 13 - 20 क्विंटल उपज देती है। सूखा और सिंचित क्षेत्रों के लिए उत्तम किस्म है। छोला अत्यंत स्वादिष्ट तथा फसल शीघ्र तैयार होने के कारण बाजार भाव अच्छा प्राप्त होता है।
जेजीके-2: यह काबुली चने की 95-110 दिन में तैयार होने वाली  उकठा निरोधक किस्म है जो  कि 18-19 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है ।
मेक्सीकन बोल्ड: यह सबसे बोल्ड  सफेद, चमकदार और आकर्षक चना है। यह 90 - 95 दिन में पककर तैयार हो जाती है । बड़ा और स्वादिष्ट दाना होने के कारण बाजार भाव सार्वाधिक मिलता है। औसतन 25 - 50 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त होती है। यह कीट, रोग व सूखा सहनशील किस्म है।
हरा चना
जे.जी.जी.1:
यह किस्म 120 - 125 दिन में पककर तैयार होने वाली हरे चने की किस्म है। औसतन उपज 13 से 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।
हिमा:
यह किस्म 135 - 140 दिन में पककर तैयार हो जाती है एवं औसतन 13 से 17 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है। इस किस्म का बीज छोटा होता है 100 दानों का वजन 15 ग्राम है।

बोआई करें सही समय पर 

                  चने की बुआई समय पर करने से फसल की वृद्धि अच्छी होती है साथ ही कीट एवं बीमारियों से फसल की रक्षा होती है, फलस्वरूप उपज अच्छी मिलती है । अनुसंधानो  से ज्ञात होता है कि  20 से 30 अक्टूबर तक चने की बुवाई करने से सर्वाधित उपज प्राप्त होती है। असिंचित क्षेत्रों में अगेती बुआई सितम्बर के अन्तिम सप्ताह से अक्टूबर के तृतीय सप्ताह तक करनी चाहिए। सामान्यतौर पर अक्टूबर अंत से नवम्बर का पहला पखवाड़ा बोआई के लिए सर्वोत्तम रहता है। सिंचित क्षेत्रों में पछेती बोआई दिसम्बर के तीसरे सप्ताह तक संपन्न कर लेनी चाहिए। उतेरा पद्धति से बोने हेतु अक्टूबर का दूसरा पखवाड़ा उपयुक्त पाया गया है।
              छत्तीसगढ़ में धान कटाई के बाद दिसम्बर के प्रथम सप्ताह तक चने की बोआई की जा सकती है,जिसके लिए जे. जी. 75, जे. जी. 315, भारती, विजय, अन्नागिरी आदि उपयुक्त किस्में है । बूट हेतु चने की बोआई सितम्बर माह के अंतिम सप्ताह से अक्टूबर माह के प्रथम सप्ताह तक की जाती है। बूट हेतु चने की बड़े दाने वाली किस्में जैसे वैभव, पूसा 256, पूसा 391, विश्वास, विशाल, जे.जी. 11 आदि लगाना चाहिए।

उपयुक्त बीज दर-सही पौध-अधिक उपज 

                     चने की समय पर बोआई करने के लिए देशी चना (छोटा दाना) 75 - 80 कि.ग्रा/हे. तथा देशी चना (मोटा दाना) 80 - 10 कि.ग्रा./हे., काबुली चना (मोटा दाना) - 100 से 120 कि.ग्रा./हे. की दर से बीज का प्रयोग करना चाहिए। पछेती बुवाई हेतु देशी चना (छोटा दाना) - 80 - 90 किग्रा./हे. तथा देशी चना (मोटा दाना) - 100 से 110 कि.ग्र./हे. तथा उतेरा पद्धति से बोने के लिए 100 से 120 किग्रा./हे. बीज पर्याप्त रहता है। सामान्य तौर बेहतर उपज के लिए   प्रति हेक्टेयर लगभग 3.5 से 4 लाख की पौध सख्या अनुकूल मानी जाती है।

रोग-दोष से वचने करें बीजोपचार

                   अच्छे अंकुरण एवं फसल की रोगों से सुरक्षा के लिए बीज शोधन अति आवश्यक है। बीज को थाइरम 2 ग्राम  अथवा ट्राइकोडर्मा 4 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करना चाहिए। इसके बाद श¨धित बीज क¨ चने के राइजोबियम कल्चर से अवश्य उपचारित करना चाहिए। इसके लिए एक पैकेट (250 ग्राम) राइजोबियम कल्चर  प्रति 10 किग्रा. बीज की दर से उपचारित करना उचित रहता है। आधा लीटर पानी में 50 ग्राम गुड़ या शक्कर घोलकर उबाला जाता है। ठंडा होने पर इस घोल में एक पैकेट राइजोबियम कल्चर मिलाकर बीज में  अच्छी तरह मिलाकर छाया में सुखाकर शाम को या सुबह के समय बोनी की जाती है। इसके अलावा पी.एस.बी. (फॉस्फ़ोरस घोलक जीवाणु) कल्चर का प्रयोग खेत में अवश्य करना चाहिए ।

बोआई करें कतार में

                  आमतौर पर चने की बोआई छिटकवाँ विधि से की जाती है जो कि लाभप्रद नहीं है। फसल की बुआई हमेशा पँक्तियों मंे इष्टतम दूरी पर करें । बुआई देशी हल के पीछे कूड़ों में अथवा सीड ड्रिल द्वारा की जा सकती है। असिंचित अवस्था में चने में कतारों के बीच 30 - 40 से.मी. एवं पौधों के बीच 10 सेमी. फासला रखना चाहिए। सिंचित क्षेत्रों में बोआई कतारों में 45 सेमी. की दूरी पर करना चाहिए।  सामान्य रूप से असिंचित चने की बोआई 5 - 7 से.मी. की गहराई पर उपयुक्त मानी जाती है। खेत मे पर्याप्त नमी होने पर चने को 4 से 5 से.मी. की गहराई पर बोना चाहिए।

एक-दो सिंचाई से बढ़ें उपज

             अधिकांश इलाकों  में चने की खेती असिंचित-बारानी अवस्था में की जाती है। वैसे चने की जल आवश्यकता अपेक्षाकृत कम है। खेत में नमी होने पर बोआई के चार सप्ताह तक सिंचाई नहीं करनी चाहिए। चने में जल उपलब्धता के आधार पर दो सिंचाईयाँ, पहली फूल आने के पूर्व अर्थात बोने के 45 दिन बाद और दूसरी दाना भरने की अवस्था यानी बोने के 75 दिन बाद करना चाहिए । यदि एक सिंचाई हेतु पानी है तो फूल आने के पूर्व (बोने के 45 दिन बाद) सिंचाई करें। चने में फूल आते समय सिंचाई करना वर्जित है,अन्यथा फलियाँ कम लगती हंै । खेत में जल निकासी का उचित प्रबन्ध होना आवश्यक है।

फसल को दें सही खुराक-खाद एवं उर्वरक

                  दलहनी फसल होने के  कारण चने को नत्रजनीय उर्वरक की कम आवश्यकता पड़ती है। मिट्टी परीक्षण के आधार पर ही पोषक तत्वों की उचित मात्रा का निर्धारण करना चाहिए । सामान्य उर्वरा भूमियों  (सिंचित) में बोआई के समय नत्रजन 20 कि.ग्रा. स्फुर 60 कि.ग्रा.,पोटाश 20 कि.ग्रा. तथा गंधक 20 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से कूड़ में देना चाहिए । असिंचत अवस्था में  उक्त उर्वरकों की आधी मात्रा का प्रयोग बोआई के समय करना चाहिए। फाॅस्फोरस को सिंगल सुपर फाॅस्फेट के रूप में देने से स्फुर व गंधक की पूर्ति हो जाती है। असिंचित व उतेरा की फसल में 2% यूरिया या डायअमोनियम फॉस्फेट (डी.ए.पी.) उर्वरक के दो छिड़काव पहला फूल आने की अवस्था तथा इसके 10 दिन बाद पुनः छिड़काव करने से चने की पैदावार में वृद्धि होती है।

खरपतवार नियंत्रण

                   चना फसल की बोआई  के 30 - 60 दिनों तक खरपतवार फसल को अधिक हानि पहुँचाते हैं। ऐसा देखा गया है कि समय पर खरपतवार नियंत्रण न करने पर 40 - 50 प्रतिशत तक चना उत्पादन में  कमी हो सकती है । खेत में खरपतवार नष्ट करने के लिए एक निंदाई बोआई के 30 दिन बाद एवं दूसरी 60 दिन बाद करनी चाहिए। रासायनिक नियंत्रण के लिए पेन्डीमेथालीन 30 ईसी (स्टाम्प) 750 मिली-1000 मिली. सक्रिय तत्व (दवा की मात्रा  2.5-3 लीटर) प्रति हेक्टेयर अंकुरण के पूर्व 500 - 600 लीटर पानी में घोल बनाकर फ्लेट फेन नोजल युक्त पम्प से छिड़कना चाहिए। सँकरी पत्ती वाले  खरपतवार जैसे सांवा, दूबघास, मौथा आदि के नियंत्रण हेतु क्युजोलफ़ोप 40-50 ग्राम सक्रिय तत्व अर्थात 800-1000 मिली. दवा प्रति हेक्टेयर का छिड़काव बौनी के 15-20 दिन बाद करना चाहिए।

खुटाई कार्य

                    प्रायः फूल लगने के पहले पौधों के ऊपरी नर्म सिरे तोड़ दिये जाते है जिसे सिरे तोड़ना कहते है । चने में शीर्ष शाखायें तोड़ने से पौधों की वानस्पतिक वृद्धि रूकती है। जब पौधे 15 - 20 सेमी. की ऊँचाई के हो जाएँ तब खुटाई का कार्य करना चाहिए। ऐसा करने से शाखायें अधिक फूटती हैं। फलस्वरूप प्रति पौधा फूल व फलियों की संख्या बढ़ जाती है। चने की शाखाओं/पत्तियों को भाजी के रूप मे उपयोग किया जा सकता अथवा बाजार में बेचकर अतरिक्त लाभ कमाया जा सकता है।

कटाई-गहाई

                   चने की फसल किस्म के अनुसार 120 - 150 दिन में पकती है। इसकी कटाई फरवरी से अप्रैल तक ह¨ती है । पकने के पहल्¨ हरी दशा में पौधे  उखाड़कर हरे चने  (बूट) के रूप में ही  बाजार में बेच कर अच्छा लाभ कमाया जा सकता है । पत्तियों  के पीली पड़कर झड़ने तथा पौधों  के सूख जाने पर ही फसल पकी समझनी चाहिए । देश के कुछ भागो  में पौधों को उखाड़कर साफ़ स्थान पर एकत्रित कर लिया जाता है । फसल अधिक सूख जाने पर फल्लियाँ झड़ने  लगती हैं। इसलिए फसल की कटाई उचित समय पर करें एवं खलिहान में अच्छी तरह सुखाकर गहाई और  ओसाई कर ली जाती है ।

उपज एवं भंडारण 

                     चने की शुद्ध फसल से प्रति हेक्टेयर लगभग 20 - 25 क्विंटल  दाना उपज प्राप्त होती है । दानो  के भार का लगभग आधा या तीन-चौथाई भाग भूसा प्राप्त होता है। काबुली चने की पैदावार देशी चने की अपेक्षा थोड़ी कम होती है। चने के बीज को अच्छी तरह सुखाकर जब उसमें 10- 12 प्रतिशत नमी रह, जाय तब उचित स्थान पर भंडारित करें अथवा अच्छा भाव मिलने पर बाजार में बेच देना चाहिए।

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