गुरुवार, 17 अक्तूबर 2013

मीठी ज्वार: जैव-ईधन का महत्वपूर्ण स्त्रोत

                                                   SWEET SORGHUM (मीठा ज्वार) से जैव ईधन

                                                                         डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर 
                                                                      प्राध्यापक (सश्यविज्ञान)
                                                                 इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय, 
                                                                  कृषक नगर, रायपुर (छत्तीसगढ़)

                विश्व स्तर पर  ईधन पैट्रोलियम  की बेतहाशा बढ़ती कीमतो  के  कारण विगत कुछ वर्षो  से पैट्रोलियम  ईधन में जैव-ईधन के  मिश्रण पर बहुत जोर  दिया जा रहा है जिससे न केवल ईधन के  आयात में उल्लेखनीय कमीं संभावित है  वरन पर्यावरण प्रदूषण भी कम करने में मदद मिलेगी । भारत सरकार ने पर्यावरण प्रदूषण तथा ईधन आयात को  कम करने के  उद्देश्य से पैट्रोलियम  ईधन में 20 प्रतिशत जैव-ईधन (बायोडीजल) मिश्रित करने की स्वीकृति प्रदान कर दी है । तदनुसार देश में प्रतिवर्ष लगभग 1 बिलियन लीटर इथेनाल की आवश्यकता है । इसी तारतम्य मे सरकार ने  जैव-ईधन नीति की घोषणा भी की है जिसके  अनुसार बीते वर्ष देश को  कुल 3.6 मिलियन टन के  लगभग जैव-ईधन की जरूरत आंकी गई थी । परन्तु जैव-ईधन उत्पादन में अभी हमारी मंजिल बहुत दूर है । वर्तमान में शक्कर कारखानो  में ही सीमित मात्रा में इथेनाल या अल्कोहल का उत्पादन किया जा रहा है । चीनी मिलों  से प्राप्त शीरा (मोलासिस) से उत्पादित इथेनाल की प्रकिृया में एक तो  पर्यावरण प्रदूषित होता है दूसरा घटते जल स्तर और  कम होती कृषि योग्य भूमि को  ध्यान में रखते हुए गन्ना फसल के  अन्तर्गत वर्तमान क्षेत्रफल में बहुत ज्यादा इजाफा होना संभव प्रतीत नहीं होता है । इन परिस्थितियो  में हमें जैव-ईधन उत्पादन के  लिए वैकल्पिक फसलें खोजने की आवश्यकता है जो  सीमित संसाधानो  (भूमि और  जल) में पर्यावरण प्रदूषित किये बिना पर्याप्त जैव-ईधन पैदा करने में सक्षम हों  । ऐसी ही एक बहुपयोगी फसल मीठी ज्वार है । इसके तनो  में 10-20 प्रतिशत तक चीनी संग्रहण करने की क्षमता होती है जो  कि भारत में वैकल्पिक जैव-ईधन का एक महत्वपूर्ण साधन बन सकती है ।
                   गन्ने की फसल 10-12 माह में तैयार होती है जिसकी जल मांग अत्यधिक होती है तथा अच्छी उपज के  लिए कृषि आदानो  में अधिक निवेष करना पड़ता है । जबकि मीठी ज्वार कम अवधि (100-120 दिन) में सीमित पानी और  कम खर्च में तैयार हो  जाती है । छत्तीसगढ़ की मिट्टी और  जलवायु में मीठी ज्वार की 2-3 फसलें सफलतापूर्वक ली जा सकती है । एक अनुमान के  अनुसार मीठी ज्वार से उत्पादित इथेनाल का प्रति लीटर खर्च 13.20 रूपये आता है, जबकि गन्ने के  शीरे द्वारा उत्पादित इथेनाल का खर्च 15 रूपये प्रति लीटर आता है । यही नहीं गन्ने के  शीरे द्वारा तैयार इथेनाल की अपेक्षा मीठी ज्वार से उत्पादित इथेनाल की गुणवत्ता बेहतर पायी गई है ।  इसके  अलावा मीठी ज्वार से 10-15 क्विंटल  प्रति हैक्टर दाना उपज भी प्राप्त की जा सकती है तथा तने से रस निकालने के  उपरांत बची हुई खोई (अवशेष) को  पौष्टिक पशु आहार अथवा बिजली संयत्रों  में (कोयलाा के  साथ जलाने) ऊर्जा निर्माण हेतु प्रयुक्त किया जा सकता है । इस प्रकार मीठी ज्वार की फसल को  बढ़ावा देने से आम के  आम और  गुठली के  दाम जैसी पहेली को  चरितार्थ किया जा सकता है । भारत के अनेक राज्यों विशेष कर छत्तीसगढ़ राज्य  में रतनजोत से जैव ईधन उत्पादन की महत्वाकांक्षी परियोजना संचालित की गई है जिस पर भारी भरकम राशि खर्च की जा रही है परन्तु अभी तक कोई ठोस परिणाम नजर नहीं आ सका  है । छत्तीसगढ में मीठी ज्वार  की खेती को विस्तारित करने से यहां के  छोटे व मझोले किसानो  को  वर्ष पर्यन्त रोजगार और  आमदनी के  साधन उपलब्ध  होने के  अलावा  जैव-ईधन उत्पादित किया जा सकता है जिससे प्रदेश की आर्थिक स्थिति मजबूत हो  सकती है और  पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाया जा सकता है । ज्ञात हो की  मीठी ज्वार की खेती सिंचित और असिचित परिस्थितियो में खाद एवं उर्वरको का सिमित मात्रा में प्रयोग कर सफलता पूर्वक की जा सकती है ।
            ज्वार विश्व की एक मोटे अनाज वाली महत्वपूर्ण फसल है । पारंपरिक रूप से खाद्य तथा चारा की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु इसकी खेती की जाती है, लेकिन अब यह संभावित जैव-ऊर्जा फसल के रूप में भी उभर रही है । सभी धान्य फसलों में ज्वार की फसल शुष्क पदार्थ उत्पादन में सब से अधिक दक्ष फसल के रूप में जानी जाती है। तने में शर्करा जमा करने की क्षमता के साथ 70-80 प्रतिषत जैव पदार्थ उत्पादन तथा समुचित मात्रा में दाना उत्पादन क्षमता के कारण मीठी ज्वार एक विषिश्ट स्थान रखती है। सी-4 पौधा होने के कारण मीठी ज्वार औसतन 50 ग्राम प्रति वर्ग मीटर प्रतिदिन शुष्क  पदार्थ उत्पादन कर सकती है।  जैव ईंधन  के रूप में प्रयोग की जा सकने वाले एक मुख्य स्रोत के रूप में मीठी ज्वार का उपयोग किया जा सकता है।गन्ने की भांति ही मीठी ज्वार के रस के किण्वीकरण  एवं आसवन  द्वारा अल्कोहल उत्पादित किया जा सकता है ।औसतन मीठी ज्वार की एक अच्छी किस्म से 800 से 1200 ली. प्रति हे. अल्कोहल प्राप्त किया जा सकता है। इसे पेट्रोल के साथ मिश्रित कर इंन्धन के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।  इसके अलावा मीठी ज्वार का प्रयोग गुड़ एवं सीरप उत्पादन में भी किया जा सकता है। मीठी ज्वार में अधिक प्रकाश संष्लेशण क्षमता के कारण इससे 35 से 40 टन हरा तना तथा 1.5-2.5 टन दाना प्राप्त किया जा सकता है। मीठी ज्वार में लगभग 15-17 प्रतिशत किण्वीकरण योग्य शर्करा पायी जाती है। गन्ना चीनी मिलों  में छः माह ही मशीनरी का भली प्रकार प्रयोग हो पाता है ।  जब गन्ने की उपलब्धता नहीं होती है, उस समय मीठी ज्वार के प्रयोग से गन्ना मिले  चलाई जा सकती हैं । इस प्रकार वर्ष भर रोजगार के नये अवसर उपलब्ध हो सकते है।  विविध उपयोग को देखते हुए ज्वार को  आजकल औद्यौगिक फसल के रूप में देखा जा रहा है ।सफेद ज्वार के आटे से ब्रेड, बिस्किट एवं केक बनाये जा सकते हैं। ज्वार के आटे के स्वाभाविक रूप से मीठा होने के कारण चीनी की मात्रा कम रखकर मधुमेह रोगियों के लिए अच्छा स्नैक तैयार किया जा सकता है। ज्वार के अनाज से भी स्वादिष्ट  एवं सुगंधित बियर बनाई जा सकती है, जो अन्य धान्य से बनाई बियर से सस्ती पड़ती है। ज्वार की विशेष किस्म से स्टार्च तैयार किया जाता है । अल्कोहल उत्पादन हेतु  भी ज्वार एक उत्कृष्ट साधन है । इस प्रकार से ओद्योगिक क्षेत्रों  में ज्वार की मांग बढ़ने से ज्वार उत्पादक किसानो को  ज्वार की बेहतर कीमत प्राप्त हो  सकती है। इसलिए ज्वार से जैव-ईधन तैयार करने हेतु उद्यम स्थापित  करने प्रदेश सरकार को आवश्यक पहल करना चाहिए। इससे न केवल जैव-इधन उत्पादन क्षेत्र में हम सक्षम होंगे वल्कि वर्षा निर्भर क्षेत्रो के किसानो की आर्थिक स्थिति में उल्लेखनीय प्रगति हो सकती है।  ज्ञात हो कि शक्कर मिल में प्रयुक्त मशीनो से ही मीठी ज्वार से एथेनाल भी निर्मित किया जा सकता है ।

मीठी ज्वार से अधिकतम उत्पादन कैसे लें

     सामान्य ज्वार की भांति मीठी ज्वार की खेती की जाती है । प्रति इकाई अधिकतम उत्पादन के  लिए किसानो  को  अग्र प्रस्तुत उन्नत सस्य विधियो  का अनुशरण करना चाहिए ।

जलवायु कैसी हो

                     ज्वार उष्ण जलवायु  की फसल है। इसकी खेती के लिए मैदानी  क्षेत्र अधिक   उपयुक्त होते है परन्तु इसे समुद्र तल से लगभग 900 मी. की ऊँचाई तक उगाया जा सकता है। बीज अंकुरण के लिए न्यूनतम तापक्रम 7-10 डि. से. होना चाहिए। पौधों की बढ़वार के लिए 26-30 डि.से. तापक्रम अनुकूल माना गया है। इसकी खेती के लिए 50-60 सेमी. वार्षिक वर्षा उपयुक्त होती है। ज्वार को मक्का से कम पानी की आवश्यकता होती है । ज्वार की फसल में सूखा सहन   करने की अधिक क्षमता होती है। ज्वार के पौधो  की यह एक बड़ी विशेषता होती है कि जीवन-काल में सूखा  पड़ जाने पर इसकी वृद्धि रूक जाती है परन्तु उपयुक्त मौसम मिलते ही यह फिर तेजी से बढ़ना आरम्भ कर देती है । इसी बजह से इसे ऊँट फसल  भी कहते है । अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में परागण  के समय वर्षा अधिक होने से परागकण बह जाने की सम्भावना रहती है जिससे इन क्षेत्रों में ज्वार की पैदावार कम आती है। यह एक अल्प प्रकाशपेक्षी पौधा  है। ज्वार की अधिकांश किस्मों में फूल तभी आते हैं जबकि दिन अपेक्षाकृत छोटे होते है। नवीन विकसित संकर  किस्मो  पर दिन के छोटे या बड़े होने का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता ।

भूमि का चयन एवं खेत की तैयारी

               ज्वार की फसल सभी प्रकार की मृदाओं यथा भारी और  हल्की मिट्टियां, जलोढ, लाल या पीली दुमट और  यहां तक कि रेतीली मिट्टियो  में भी उगाई जाती है, परन्तु इसके  लिए उत्तम जल निकासयुक्त चिकनी दोमट भूमि   सर्वोत्तम होती है। असिंचित अवस्था में अधिक जल धारण क्षमता  वाली मृदाओं में ज्वार की पैदावार अधिक होती है।  ज्वार की फसल 6.0 से 8.0  पी. एच. वाली मृदाओं में सफलतापूर्वक उगाई जा सकती है।
              पिछली फसल की कटाई  करने के  बाद मिट्टी पलटने वाले हल  से खेत की 15-20 सेमी. गहरी जुताई करनी चाहिए। इसके बाद 2-3 बार हैरो या 4-5 बार देशी हल चलाकर मिट्टी को भुरभुरा  कर लेना चाहिए। बोआई से पूर्व पाटा चलाकर खेत को समतल कर लेना चाहिए।

माठी ज्वार की किस्में

                ज्वार के  तने मीठे व रशीले होते है जिससे 40 टन प्रति हैक्टर तक तने प्राप्त होते है ।  उन्नत किस्मो में सबसे पहले एस. एस.वी.-84 किस्म राष्ट्रीय स्तर पर जारी की गई है ।एसएसव्ही-53,एसएसव्ही-96 व एसएसव्ही-84 उन्नत किस्में है। इसके  अलावा बी.जे.-248, आर.एस.एस.वी.-9, एन.एस.एस.वी.-208, एन.एस.एस.वी.-255 तथा आर.एस.एस.वी.-56 किस्में भी मीठी ज्वार की खेती के  लिए जारी की गई है । यह सभी  किस्में 100-110 दिन में तैयार हो  जाती है ।

                सारणीः मीठे ज्वार की प्रमुख उन्नत किस्मो  की उपज एवं गुणों  का तुलनात्मक अध्ययन
प्रमुख किस्में            तना उपज (ट/ है.) शर्करा (ट/ है) रस(कि.ली./ है.)   रस प्रति. इथेनाल (ली./ है) दाना(ट/ है.)
एस.एस.वी.-74               40-42                   2.77              15-18                    40-45        1100    1.5-2.0
एस.एस.वी.-64               35-40                  1.66               12-18                     40-45        1000    1.0-1.5
सी.एस.वी19 एस.एस.     35-40                  1.59                10-16                   32-36          1000    0.8-1.0
सी.एस.वी. 19 एस.एस. 40-45                    2.14                 13-18                   35-40        1134     1.0-1.5
स्त्रोतः ज्वार अनुसधान अनुसंधान निदेशालय, हैदराबाद

बुवाई का समय

                   सामान्यत: मीठे तने वाले ज्वार की बुवाई खरीफ ऋतु में ही की जाती है परन्तु सिंचाई की सुविधा होने पर इसे रबी और  जायद(ग्रीष्मकाल) में भी सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है । खरीफ मौसम में मानसून आगमन के  तुरन्त पश्चात (जून के  प्रथम पखवाड़े से जुलाई के  प्रथम सप्ताह तक) बुवाई सपन्न कर लेना चाहिए । बुवाई का इस तरह समायोजित करें जिससे फूल आते समय वर्षा न हो  । रबी फसल की बुवाई सितंबर के  अंतिम सप्ताह से लेकर अक्टूबर के  अंतिम पखवाडे़ तक करना लाभप्रद रहता है । बुवाई के  समय रात्रिकालीन तापक्रम 15 डिग्री. से.ग्रे. से ऊपर होना चाहिए । कम तापक्रम पर बीजांकुरण प्रभावित होता है । ग्रीष्मकालीन फसल की बुवाई 15 जनवरी से 15 फरवरी तक की जा सकती है ।

बीज दर एवं बुवाई

             अधिकतम उपज के  लिए खेत में प्रति इकाई ईष्टतम संख्या स्थापित होना आवश्यक है । मीठी ज्वार की बुवाई हमेशा कतार विधि से ही करना चाहिए । प्रति हैक्टर 8-10 किग्रा. बीज पर्याप्त रहता है । बुवाई हल के  पीछे पोरा विधि या सीड ड्रिल से की जा सकती है । बुवाई कतारो  में 45-60 सेमी. की दूरी पर करें तथा पौधो  से पौधो  के  मध्य 15 सेमी. की दूरी स्थापित करें । अधिकतम पैदावार के  लिए 1.10 से 1.20 लाख पौधे  प्रति हैक्टर आवश्यक होते है । अधिक पौधे (सघन) होने से तनो  का विकास अवरूद्ध होता है तथा पौधे हवा से गिर सकते है । बीज 3-4 सेमी. गहराई पर बोना चाहिए। यह देखा गया है कि ज्यादा गहराई पर बोये गये बीज के बाद तथा अंकुरण से पूर्व वर्षा होने से भूमि की ऊपरी परत सूखने पर कड़ी हो जाती है जिससे बीज जमाव  अच्छा नहीं होता है। भूमि में पर्याप्त नमी होने की स्थिति में उथली बोआई सर्वोत्तम पाई गई है।
             बोआई से पूर्व बीज को कवकनाशी रसायनो  से उपचारित करके ही बोना चाहिये जिससे बीज जनित रोगों से बचाव किया जा सके। संकर ज्वार का बीज पहले से ही उपचारित होता है, अतएव उसे फिर से उपचारित करने की आवश्यकता नहीं पडती। अन्य किस्मो  के  बीज को  बोने से पूर्व फंफूदनाशक दवा थायरम 3 ग्राम प्रति किलो ग्राम बीज की दर से उपचारित करें। फफूँद नाशक दवा से उपचार के उपरांत एवं बोनी के पूर्व एजोस्प्रिलिम एवं पी.एस.बी. कल्चर का उपयोग 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से अच्छी तरह मिलाकर किया जाना चाहिए। कल्चर के उपयोग से ज्वार की उपज में वृद्धि होती है। उपचारित बीज को धूप से बचाकर रखें तथा बुवाई शीघ्रता से कर देनी चाहिए। दीमक के प्रकोप से बचने के लिए क्लोरपायरीफाॅस 25 मिली. दवा से प्रति किग्रा. बीज शोधित कर बोआई करना चाहिए।
  

पौध  विरलीकरण एवं खाली स्थानो  की पूर्ति

          खेत में ईष्टतम पौध संख्या तथा उचित बढवार व विकास के  लिए पौधो  का विरलीकरण अति आवश्यक होता है । बुवाई से 20-22 दिन बाद पहली निंदाई-गुड़ाई के  समय पौध  विरलीकरण कार्य किया जाता है । इसके  लिए कतारो  में 15 सेमी. की दूरी पर प्रति स्थान एक पौधे को  छोड़कर शेष को  उखाड़ देना चाहिए । कतारो  में रिक्त स्थानो  (जहाँ पौध का जमाव नहीं) पर उखाड़े गये पौधो  की रोपाई करना आवश्यक है । विरलीकरण के  20-25 दिन बाद यदि पौधों के  बगल से कल्ले निकलते है तो  उन्हे भूमि की सतह से काट कर अलग कर देने से मुख्य तने का संपूर्ण विकास होता है ।

खाद एवं उर्वरक

                  ज्वार की फसल भूमि से भारी मात्रा  में पो षक तत्वो  का अवशोषण करती है । ज्वार की अच्छी उपज के लिए फसल  में खाद एंव उर्वरक का प्रयोग उचित मात्रा में करना आवश्यक रहता है। दीर्घावधि तक उत्पादन में निरंतरता  बनाये रखने के लिये बिजाई से 15 दिन पूर्व कंपोस्ट या गोबर की खाद  8-10 टन प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना लाभदायक ह¨ता है।पोषक तत्वों की सही मात्रा के निर्धारण के लिए मिट्टी की जांच कराना आवश्यक है। इसके अलावा 100-120 किग्रा. नत्रजन, 40-50 किग्रा. फास्फ़ोरस तथा 40 किग्रा. पोटाश प्रति हैक्टर की दर से देना चाहिए । नत्रजन की आधी मात्रा तथा फास्फ़ोरस व पोटाश की संपूर्ण मात्रा बुवाई के  समय खेत में कूंड़ो  में मिला देनी चाहिए । नत्रजन के  शेष भाग को  दो  समान भागो  में बांटकर दो  बार में बुवाई के  30 दिन बाद (अंतिम विरलीकरण के  बाद) तथा 45-50 दिन बाद कतारो में देना चाहिए ।

अन्तःकर्षण व खरपतवार नियंत्रण

                  मीठी ज्वार में बुवाई के  20-35 दिन पश्चात कतारो  के  मध्य ब्लेड हैरो  या कल्टीवेटर से जुताई करने से खरपतवारो  की ऱो कथाम होती है साथ ही जड़ो  का विकास भी अच्छा होता है और  कतारो  में मिट्टी भी चढ़ जाती है जिससे पौधे गिरने की संभावना कम हो जाती है । रासायनिक खरपतवार नियंत्रण हेतु एट्राजीन या प्रोपाजीन 0.5 से 1 किग्रा. सक्रिय  अवयव प्रति हेक्टेयर अथवा एलाक्लोर 1.5 किग्रा. को  800-1000 लीटर पानी में घोलकर  ब¨नी के पश्चात एवं अंकुरण के पूर्व छिड़काना चाहिएं। छिड़काव करते समय मिट्टी में पर्याप्त नमी होना आवश्यक है। खेत में चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों का अधिक प्रकोप होने पर, 2,4-डी (सोडियम लवण) 1.0-0.5 किग्रा. प्रति हे. मात्रा को 600-800 ली. पानी में घोलकर बोने के 25-30 दिन बाद छिड़काव चाहिए।

सिंचाई प्रबंधन

                 आमतौर  पर ज्वार की खेती खरीफ ऋतु में वर्षा आश्रित  क्षेत्रों  में की जाती है । वर्षा का वितरण समान होने पर सिंचाई की आवश्यकता नहीं ह¨ती है । असमान वर्षा की स्थिति में फसल की क्रांतिक अवस्थाओ  यथा बाली निकलते समय (बुवाई क¢ 35-40 दिन बाद) तथा दाना बनते समय (बुवाई के  55-60 दिन बाद) खेत में नमीं की कमीं ह¨ने पर उपज में गिरावट ह¨ती है । अतः इन अवस्थाओ  पर सिंचाई करना आवश्यक रहता है । मानसून देरी से आने पर पलेवा देकर बुवाई करना चाहिए । रबी या जायद में भूमि में पर्याप्त नमी न होने की दशा में बुवाई के  तुरंत पश्चात हल्की सिंचाई करने से अंकुरण अच्छा होता है । इसके  बाद बुवाई के  15, 30, 55 एवं 80-90 दिन बाद सिंचाई करने से उपज में बढोत्तरी होती है । प्रारंभिक बढ़वार के  समय फसल में फब्वारा विधि से सिंचाई कर जल की वचत की जा सकती है ।

कीट सुरक्षा

              ज्वार की फसल को  कीड़ो  से बहुत क्षति होती है । अतः कीट नियंत्रण करना आवश्यक होता है । ज्वार के  प्रमुख कीट एवं उनके नियंत्रण के उपाय प्रस्तुत हैः
प्ररोह मक्खीः इस कीट का प्रकोप  अंकुरण के  1-4 सप्ताह के  अन्दर होता है । समय पर बुवाई करने से प्रकोप कम होता है । इसके  नियंत्रण हेतु बुवाई के  समय कार्बोफ्यूरान (3जी) 10 किग्रा. प्रति हैक्टर या फ़ोरेट (10जी) 15 किग्रा. प्रति हैक्टर की दर से कूड़ो  में डालना चाहिए ।
तना छेदक: इस कीट का प्रकोप बुवाई के  15 दिन से लेकर फसल की परिपक्वता तक हो  सकता है । इसके  नियंत्रण के  लिए बुवाई  के  20-25 दिन बाद पत्तियो  के  चक्रों  में कार्बोफ्यूरान (3जी) 8-12 किग्रा. प्रति हैक्टर की दर से डालना चाहिए ।
एफिडः इस कीट का प्रकोप वर्षा के  अंत में अधिक होता है । इसकी रोकथाम के  लिए मेटासिस्टाक्स 35 ईसी 1 मिली. प्रति लीटर पानी की दर से फसल पर छिड़काव करना चाहिए ।

कटाई एवं उपज

                        मीठी ज्वार की फसल की कायिक परिपक्वता पर भुट्टो  की तुडा़ई कर लेना उचित रहता है । इस अवस्था में ज्वार के  दानो  पर काले रंग के  धब्बे दिखने लगते है । खड़ी फसल में ब्रिक्स की मात्रा ज्ञात करके  भी कटाई के  उचित समय का पता लगाया जा सकता है । कटाई के  समय ब्रिक्स का माप 17-18 प्रतिशत होना चाहिए । ज्वार के  हरे पौधो को  जमीन की सतह से हंसिये की सहायता से काट कर पत्तियो  को  तने से अलग कर लेना चाहिए । काटे गए  तनों  को 10-15 किग्रा. के  बंडल में बांध  लेना चाहिए तथा कटाई के  24 घंटे के  अंदर रस निकलने हेतु समीप की मिल में भेज देना चाहिए । तने की उपज एवं गुणवत्ता उपयोग में लाई गई किस्मो  एवं सस्य तकनीक पर निर्भर करती है । भुट्टो को  अच्छी प्रकार सुखा कर गहाई कर दानो को  साफ कर भंडारित करें ।

ताकि सनद रहे: कुछ सरारती तत्व मेरे ब्लॉग से लेख को डाउनलोड कर बिभिन्न पत्र पत्रिकाओ और इन्टरनेट वेबसाइट पर अपने नाम से प्रकाशित करवा रहे है।  यह निंदिनिय, अशोभनीय व विधि विरुद्ध कृत्य है। ऐसा करना ही है तो मेरा (लेखक) और ब्लॉग का नाम साभार देने में शर्म नहीं करें।तत्संबधी सुचना से मुझे मेरे मेल आईडी पर अवगत करना ना भूले। मेरा मकसद कृषि विज्ञानं की उपलब्धियो को खेत-किसान और कृषि उत्थान में संलग्न तमाम कृषि अमले और छात्र-छात्राओं तक पहुँचाना है जिससे भारतीय कृषि को विश्व में प्रतिष्ठित किया जा सके।

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