मंगलवार, 22 अक्तूबर 2013

गेहूँ सघनीकरण पद्धति (श्री) से गेहूँ की बम्पर पैदावार


डाँ. गजेन्द्र सिंह तोमर
प्राध्यापक (सस्य विज्ञान विभाग)
इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय, कृषक नगर,
रायपुर (छत्तीसगढ़)

                कम लागत में गेंहू का अधिकतम उत्पादन लेने की नवोन्वेषी तकनीक


                   देश कें कुल क्षेत्रफल 32 लाख 87 हजार वर्गकिलोमीटर में सें मात्र 14 करोड़ 20 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में ही खेती हो पा रही है। यह कृषि भूमि भी धीरे-धीरे कम हो रही है। हरित क्रांति के  फलस्वरूप गेंहूँ और धान के उत्पादन के  मामले में प्राप्त सफलता की चमक अब फीकी पड़ती जा रही है । अनेक राज्यो  में इन फसलों  की औसत  उपज में भारी गिरावट देखी जा रही है। सघन  फसलोत्प्तादन के कारण मिट्टी की गुणवत्ता और  भूमि की उर्वरता में कमी हो गई है। इसके कारण उपज में गिरावट ओंर उत्पादन लागत में भारी वृध्दि हो गई है जिससे खेती घाटे का सौदा बन गई है। वास्तव में हरित  क्रांति के दौरान हमने ज्यादा खाद, ज्यादा पानी और कीटनाशकों के प्रयोग का रास्ता चुना था वो हमारी खाद्यान्न सुरक्षा को बरकरार नहीं रख पाया है। आज खेती में लागत को  कम करने की महती आवश्यकता है। आज खेती किसानी की ऐसी तरकीब की जरूरत है जिसमें कम पानी, कम बीज और  रासायनिकों  के कम से कम प्रयोग से प्रति इकाई अधिकतम उपज प्राप्त की जा सके । विश्व में पानी की घटती उपलब्धता, अंधाधुन्ध रासायनिक उर्वरक व कीटनाशको के  उपयोग से  पर्यावरण प्रदूषण जैसी विकराल समस्या को  देखते हुए कैरिबियन देश मेडागास्कर में 1983 में फादर हेनरी डी लाउलेनी ने एक सस्ती तकनीक का आविष्कार किया जो  कि “धान सघनीकरण” विधि यानि श्री विधि (SRI) के नाम से प्रचलित व लोकप्रिय हो  रही है । दरअसल श्री (SRI) पद्धति चावल उत्पादन की एक नई तकनीक है जिसके तहत कम बीज और  पानी के सीमित प्रयोग से भी धान का बहुत अच्छा उत्पादन सम्भव होता है। इसे चावल सघनीकरण प्रणाली (श्री पद्धति) के नाम से भी जाना जाता है।
                      मेडागास्कर से निकलकर भारत तक आ पहुंची “चावल सघनीकरण” विधि अब भारत के  सभी धान उत्पादक राज्यो  में सफलता के  नित नये सौपान स्थापित कर रही है । इससे किसानों को परंपरागत विधि की तुलना में दो से तीन गुना अधिक धान का उत्पादन मिल रहा है। सीमित पानी, थोड़ा बीज, कम उर्वरक और शीघ्र फसल तैयार हो  जाने के कारण यह पद्धति किसानों ने खासी पसंद की है। जहां पारंपरिक तकनीक में धान के पौधों को पानी से लबालब भरे खेतों में उगाया जाता है, वहीं मेडागास्कर तकनीक में पौधों की जड़ों में नमी बरकरार रखना ही पर्याप्त होता है, लेकिन सिंचाई के पुख्ता इंतजाम जरूरी हैं, ताकि जरूरत पड़ने पर फसल की सिंचाई की जा सके। सामान्यतः जमीन पर हल्की दरारें उभरने पर ही दोबारा सिंचाई करनी होती है। इस तकनीक से धान की खेती में जहां बीज, श्रम, पूंजी और पानी कम लगता है, वहीं उत्पादन 300 प्रतिशत तक ज्यादा मिलता है। धान की तर्ज पर गेहूं की खेती भी किसान यदि ‘श्री’ पद्धति  गेंहू सघनीकरण पद्धति (SWI) से करें तो गेंहू के उत्पादन में ढाई से तीन गुना वृद्धि हो सकती है। प्रयोगो  से पता चला है कि गेहूँ की बुवाई वर्गाकार विधि के  तहत कतार व पौधों के बीच पर्याप्त दूरी स्थापित करने से पौधों  की  समुचित वृद्धी और विकास होता है जिससे उनमें स्वस्थ कंसे तथा पुष्ट बालियो का निर्माण होता है, फलस्वरूप  अधिक उपज प्राप्त होती है । इस विधि से खेती करने पर गेहूँ की कास्त  लागत  परंपरागत विधि की तुलना में आधी आती है  । गेंहू सघनीकरण पद्धति से खेती करने के  तौर  तरीकों  का विवरण अग्र प्रस्तुत है :

खेत की तैयारी

                      खेत की तैयारी सामान्य गेंहू की भांति ही करते है ।  खरपतवार व फसल अवशेष निकालकर खेत की 3-4 बार जुताई कर मिट्टी को  भुरभुरा (महीन) कर लें। तत्पश्चात पाटा चलाकर खेत को  समतल कर जलनिकासी का उचित प्रबंन्ध करें। यदि दीमक की समस्या है तो  दीमक नाशक दवा का प्रयोग करना चाहिए । खेत में पर्याप्त नमीं न होने पर बुवाई के  पहले एक बार पलेवा करना चाहिए । खेत को  छोटी-छोटी क्या रियों  में विभक्त करने से सिंचाई व अन्य सस्य क्रियाएं करने में सुगमता रहती है ।

बुवाई का समय

                 गेंहू की फसल से अधिकतम उत्पादन प्राप्त करने में बुवाई का समय महत्वपूर्ण कारक है । समय से बहुत पहले या बहुत बाद में गेंहू की बुवाई करने से उपज पर बिपरीत प्रभाव पड़ता है । सामान्यतौर  पर नवम्बर-दिसम्बर के  मध्य में बुवाई संपन्न कर लेना चाहिए ।

उन्नत  किस्मो का चयन

               गेंहू की अधिक उपज देने वाली किस्म¨ं का चयन स्थानिय कृषि जलवायु एवं भूमि की दशा (सिंचित या असिंचित) के  अनुसार करना चाहिए । क्षेत्र विशेष के  लिए संस्तुत किस्मो के प्रमाणित बीज का ही प्रयोग करें ।

बीज दर एवं बीज शोधन

               उन्नत बौनी  किस्मो  के  प्रमाणित बीज का चयन करें । बुआई हेतु प्रति एकड़ 10 किग्रा. बीज का उपयो ग करना चाहिए । सबसे पहले 20 लीटर पानी एक वर्तन ( मिट्टी का पात्र-घड़ा, नांद आदि बेहतर) में गर्म (60 डिग्री सें. अर्थात गुनगुना होने तक) करें  । अब चयनित बीजों को इस गर्म पानी में डाल दें । तैरने वाले हल्के  बीजों  को  निकाल दें । अब इस पानी में 3 किलो  केचुआ खाद, 2 किलो  गुड़ एवं 4 लीटर देशी गौमूत्र  मिलाकर  बीज के  साथ अच्छी प्रकार से मिलाएं । अब इस मिश्रण को  6-8 घंटे के  लिए छोड़ दें । तत्पश्चात इस मिश्रण को  जूट के  बोरे में भरें जिससे मिश्रण का पानी निथर जाए । इस पानी को  एकत्रित कर खेत में छिड़कना लाभप्रद रहता है। अब बीज एवं ठ¨स पदार्थ क¨ बाविस्टीन 2-3 ग्राम प्रति किग्रा. या ट्राइकोडर्मा 7.5 ग्राम प्रति किग्रा. के  साथ पीएसबी कल्चर 6 ग्राम और  एजेटोबैक्टर कल्चर 6 ग्राम प्रति किग्रा बीज के  हिसाब से उपचारित कर नम जूट बैग के  ऊपर छाया में फैला देना चाहिए । लगभग 10-12 घंटों  में बीज बुवाई के लिए तैयार हो  जाते है । इस समय तक बीज अंकुरित अवस्था में आ जाते है। इसी अंकुरित बीज को  बोने के  लिए इस्तेमाल करना है ।   इस प्रकार से बीजोपचार करने से बीज अंकुरण क्षमता  और  पौधों के   बढ़ने की शक्ति बढ़ती है और पौधे  तेजी से विकसित होते है, इसे प्राइमिंग भी कहते है । बीज उपचार के  कारण जड़  में लगने वाले रोग की रोकथाम हो  जाती है । नवजात पौधे के  लिए गौमूत्र  प्राकृतिक खाद का काम करता है ।

बुवाई की विधि

              जैसा की पहले  बताया गया है की बुवाई के  समय मृदा मेें पर्याप्त नमी होना आवश्यक है, क्योकि बुवाई हेतु अंकुरित बीज का प्रयोग किया जाना है ।  सूखे खेत में पलेवा देकर ही बुवाई करना चाहिए । बीजों  को  कतार में  20 सेमी की दूरी में लगाया जाता है । इसके  लिए देशी हल या पतली कुदाली की सहायता से 20 सेमी. की दूरी पर 3 से 4 सेमी. गहरी नाली बनाते है और  इसमें 20 सेमी. की दूरी पर  एक स्थान पर 2 बीज डालते है । बुवाई पश्चात बीज को  हल्की मिट्टी से ढंक देते है । बुवाई के 2-3 दिन में पौधे निकल आते है । खाली स्थानॉ पर नया शोधित बीज लगाना अनिवार्य है जिससे प्रति इकाई वांक्षित पादप  संख्या स्थापित हो  सके  । कतार तथा बीज के  मध्य वर्गाकार (20  x 20 सेमी.) की दूरी रखने से प्रत्येक पौधे के  लिए पर्याप्त जगह मिलती है जिससे उनमें आपस में पोषण, नमी व प्रकाश के  लिए प्रतियोगिता नहीं होती है ।

खाद एवं उर्वरक

                     यह सर्वविदित है की बगैर जैविक खाद के  लगातार रासायनिक उर्वरको  का प्रयोग करते रहने से खेत की उपजाऊ क्षमता घटती है । अतः  उर्वरको के साथ जैविक खादों  का समन्वित प्रयोग करना टिकाऊ फसलोत्पादन के लिए आवश्यक रहता है । उपब्धतानुसार प्रति एकड़ कम्पोस्ट या गोबर खाद  (20 क्विंटल) या केचुआ खाद (4 क्विंटल) में ट्राइकोडर्मा मिलाकर एक दिन के  लिए ढंककर रखने के  पश्चात खेत में मिलाना फायदेमंद रहता है । अंतिम जुताई के  पूर्व 30-40 किग्रा. डाय अमोनियम फास्फेट (डीएपी) और  15-20 किग्रा.  म्यूरेट आफ पोटाश प्रति एकड़ की दर से खेत में छींटकर अच्छी तरह हल से मिट्टी में मिला देंना चाहिए । प्रथम सिंचाई के  बाद 25-30 किग्रा.  यूरिया एवं 4 क्विंटल  वर्मीकम्पोस्ट को  मिलाकर कतारो  मे देना चाहिए । तीसरी सिंचाई के  पश्चात एवं गुड़ाई से पहले 15 किग्रा. यूरिया एवं 10 किग्रा.  पोटाश उर्वरक प्रति एकड़ की दर से कतारो  में देना चाहिए ।
सिंचाई प्रबंधन: पानी का कुशल प्रयोग
                  बुवाई के  समय खेत में अंकुरण के  लिए पर्याप्त नमी होना नितांत आवश्यक है क्योंकि इस विधि में अंकुरित बीज लगाया जाता है । बुवाई के  15-20 दिनो  बाद गेंहू में प्रथम सिंचाई देना करना जरूरी है क्यो कि इसके  बाद से पौधों  में नई जडें आनी शुरू हो  जाता है । भूमि में नमी की कमी से पौधों  में नई जडें विकसित नहीं हो पाती है, जिसके  फलस्वरूप पादप  बढ़वार रूक सकती है । बुवाई के  30-35 दिनो  बाद दूसरी सिंचाई देना चाहिए, क्योकि इसके  बाद पौधों में नए कल्ले तेजी से आना शुरू होते है और  नये कल्ले बनाने के  लिए पौधों को पर्याप्त  नमीं एवं पोषण की आवश्यकता रहती है । बुवाई के  40 से 45 दिनॉ के  बाद तीसरी सिंचाई देना चाहिए, इसके  बाद से पौधे  तेजी से बड़े होते है साथ ही नए कल्ले भी आते रहते है । गेंहू की फसल में अगली सिंचाईयां भूमि एवं जलवायु अनुसार की जानी चाहिए । गेंहू में फूल आने के  समय एवं दानों  में दूध भरने के  समय खेत में नमीं की कमी नहीं रहनी चाहिए अन्यथा उपज में काफी कमी हो सकती है ।

निंदाई-गुड़ाई: एक आवश्यक निवेष

           सिंचित क्षेत्रों  में गेंहू के  खेत में लगातार नमी रहने के  कारण खरपतवारों  का अधिक प्रकोप होता है जिससे उपज में काफी हांनि होती है । इसके  अलावा सिंचाई करने के  पश्चात मृदा की एक कठोर परत निर्मित हो  जाती है जिससे भूमि में हवा का आवागमन तो अवरुद्ध होता ही है, पोषक तत्व व जल अवशोषण भी कम होता है । अतः खेत में सिचाई उपरांत निंदाई-गुड़ाई करना आवश्यक होता है । तदनुसार प्रथम सिंचाई के  2-3 दिन बाद पतली कुदाली या रोटोवीडर से मिट्टी को  ढीला करें  एवं खरपतवार भी निकालें । अंतर्कर्षण से जडो को आवश्यक हवा, पानी और  पोषक तत्व सुगमता से प्राप्त होते रहते है जिससे पौधों  का समुचित विकास होता है।  दरअशल अंकुरण के  बाद गेंहू के पौधों  में सेमिनल जड़े निकलती है जो पानी व भोजन की तलाश में मिट्टी में नीचे की ऒर  तेजी से बढ़ती है, यदि मिट्टी सख्त है तो वे ज्यादा नीचे तक नहीं जा पाती है और  उनकी बढ़वार अवरूद्ध हो  जाती है । बुवाई के  20 दिन बाद मिट्टी की सतह के  ठीक नीचे क्राउन जडें निकलती है जो  पानी एवं भोजन की तलाश में चारों  तरफ फैलती है । यदि मिट्टी सख्त है तो  वे ज्यादा फैल नहीं सकती है जिससे नन्हे पौधों को पर्याप्त भोजन व पानी नहीं मिलता है । गेंहू में दूसरी एवं तीसरी गुड़ाई क्रमशः 30-35 व 40-45 दिन पर सिंचाई के  2-3 दिन पश्चात करना चाहिए ।

गेंहूँ सघनीकरण पर प्रयोग

                   भारत के  अनेक राज्यों  विशेषकर बिहार, मध्यप्रदेश, हिमाचल प्रदेश में विभिन्न संस्थाऑ  (आत्मा परियोजना) एवं स्वंय सेवी संगठनों  (प्रदान आदि) के  माध्यम से किसानो के खेतो पर किये गये प्रयोगों  से ज्ञात होता है कि गेंहू सघनीकरण पद्धति (श्री विधि) से खेती करने पर परंपरागत विधि से प्राप्त 10-20 क्विंटल प्रति एकड़ की तुलना में 25 से 50 प्रतिशत अधिक उपज और  आमदनी ली जा सकती है । परंपरागत विधि से गेहूँ की खेती करने पर सामान्यत: पर किसानो को 40-60 किग्रा. प्रति एकड़ बीज लगता है, जबकि इस विधि में 10-15 किग्रा. प्रति एकड़ ही बीज लगता है । इस विधि में खाद-पानी की भी वचत होती है । इस प्रकार से हम कह सकते है कि भारत में पर्यावरण को नुकसान पहुचाए बिना टिकाऊ खाद्यान्न उत्पादन लेने यह एक आदर्श तकनीक है।  खाद्य सुरक्षा कानून को  सही मायने में लागू करने के  लिए प्रमुख खाद्यान्न फसलें चावल व गेहूँ की खेती फसल सघनीकरण पद्धति से करने किसानो को प्रोत्साहित करने से इनके  उत्पादन में लक्षित बढ़ो त्तरी की आशा की जा सकती है ।

ताकि सनद रहे: कुछ सरारती तत्व मेरे ब्लॉग से लेख को डाउनलोड कर बिभिन्न पत्र पत्रिकाओ और इन्टरनेट वेबसाइट पर अपने नाम से प्रकाशित करवा रहे है।  यह निंदिनिय, अशोभनीय व विधि विरुद्ध कृत्य है। ऐसा करना ही है तो मेरा (लेखक) और ब्लॉग का नाम साभार देने में शर्म नहीं करें।तत्संबधी सुचना से मुझे मेरे मेल आईडी पर अवगत करना ना भूले। मेरा मकसद कृषि विज्ञानं की उपलब्धियो को खेत-किसान और कृषि उत्थान में संलग्न तमाम कृषि अमले और छात्र-छात्राओं तक पहुँचाना है जिससे भारतीय कृषि को विश्व में प्रतिष्ठित किया जा सके।

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