सोमवार, 12 नवंबर 2018

प्रकृति का अनुपम उपहार: स्वास्थ के लिए उपयोगी खरपतवार: भाग-1


                       प्रकृति का अनुपम उपहार: स्वास्थ के लिए उपयोगी खरपतवार
 डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर,प्रोफ़ेसर (एग्रोनोमी), 
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
राजमोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,
                                                 अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)

ऐसा कोई अक्षर नहीं जिससे मन्त्र न बने और संसार में ऐसी कोई वनस्पति नहीं, जिसमे कोई औषधीय गुण न हो।  सृष्टि की प्रत्येक वनस्पति में औषधीय गुण विद्यमान होते है, जो किसी न किसी रोग में, किसी न किसी रूप में और किसी न किसी स्थिति में प्रयुक्त होती है।  बस जरुरत है इन्हें पहचानने की और इनके सरक्षण सवर्धन की।  हमारे देश में जलवायु, मौसम और भूमि के अनुसार अलग-अलग प्रदेशों में विभिन्न प्रकार की जड़ी-बूटियाँ पाई जाती है।  वर्मान में हमारे देश में 500 से अधिक पादप प्रजातियों का औषध रूप में प्रयोग किया जा रहा है।  इनमे से बहुत सी बहुपयोगी वनस्पतियाँ बिना बोये फसल के साथ स्वमेव उग आती है, उन्हें हम खरपतवार समझ कर या तो उखाड़ फेंकते है या फिर  शाकनाशी दवाओं का छिडकाव कर नष्ट कर देते है।  जनसँख्या दबाव,सघन खेती, वनों के अंधाधुंध कटान, जलवायु परिवर्तन और रसायनों के अंधाधुंध प्रयोग से आज बहुत सी उपयोगी वनस्पतीयां विलुप्त होने की कगार पर है।  आज आवश्यकता है की हम औषधीय उपयोग की जैव सम्पदा का सरंक्षण और प्रवर्धन करने किसानों और ग्रामीण क्षेत्रों में जन जागृति पैदा करें ताकि हम अपनी परम्परागत घरेलू चिकित्सा (आयुर्वेदिक) पद्धति में प्रयोग की जाने वाली वनस्पतियों को विलुप्त होने से बचा सकें।  यहाँ हम कुछ उपयोगी खरपतवारों के नाम और उनके प्रयोग से संभावित रोग निवारण की संक्षिप्त जानकारी प्रस्तुत कर रहे है ताकि उन्हें पहचान कर सरंक्षित किया जा सके और उनका स्वास्थ्य लाभ हेतु उपयोग किया जा सकें।  आप के खेत, बाड़ी, सड़क किनारे अथवा बंजर भूमियों में प्राकृतिक रूप से उगने वाली इन वनस्पतियों के शाक, बीज और जड़ों को एकत्रित कर आयुर्वेदिक/देशी दवा विक्रेताओं को बेच कर आप मुनाफा अर्जित कर सकते है. फसलों के साथ उगी इन वनस्पतियों/खरपतवारों का जैविक अथवा सस्य विधियों के माध्यम से नियंत्रण किया जाना चाहिए।  शाकनाशियों के माध्यम से इन्हें नियंत्रित करने में ये उपयोगी वनस्पतियाँ विलुप्त हो सकती है।  इन वनस्पतियों के महत्त्व को दर्शाने बावत हमने कुछ औषधीय उपयोग बताये है परन्तु बगैर चिकत्सकीय परामर्श/आयुर्वेदिक चिकित्सक की सलाह लिए आप किसी भी रोग निवारण के लिए इनका  प्रयोग न करें। भारत के विभिन्न प्रदेशोंकी मृदा एवं जलवायुविक परिस्थितियों में उगने वाले कुछ खरपतवार/वनस्पतियों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत है।
वनस्पति का परिचय एवं औषधीय उपयोग
वनस्पति का फोटो
1. अकरकरा (एनासायक्लस पायरेथ्रम),कुल-कम्पोजिटी 
इसे अंग्रेजी में पेलिटरी रूट, संस्कृत में आकरकरा  तथा हिंदी में  अकरकरा एवं अकलकरहा  कहते है जो कम्पोजिटी कुल का बहुवर्षीय शाक है।  वर्षा  ऋतु प्रारंभ होते ही  उपजाऊ पड़ती  भूमि, सडक एवं रेल पथ किनारे यह खरपतवार के रूप में पनपता है।   इसकी जड़ का स्वाद चरपरा और मुंह में चबाने से गर्मी महसूस होती है। इसके पौधों में  छोटे छोटे स्वेत बैगनी एवं  पीले रंग के फूल (मुंडक) आते है जो ऊपर की ओर खिलते है।  इसके फूलों एवं पत्तियों का स्वाद चरपरा होता है।  इसका सम्पूर्ण पौधा औषधीय गुणों से परिपूर्ण होता है।  इसका पौधा कटु, कफ एवं वात शामक,बलकारक, उत्तेजक, वेदना स्थापन  और शोथ को नष्ट करने वाला होता है।  इसका प्रयोग सिर दर्द,कंठशूल, ह्रदयरोग, ज्वर,उदर रोग, पक्षाघात, मुंह की बदबू एवं दन्त रोग तथा शरीर की सूजन को कम करने में किया जाता है। शर्दी जुकाम, अस्थमा, हकलाने और तुतलाहट में भी इसके उपयोग से लाभ मिलता है।   इसकी जड़ को पीसकर माथे पर हल्का गर्म लेप करने से सिर दर्द समाप्त होता है।  इसकी जड़ एवं फूल चबाने से  अथवा काढ़े से कुल्ला करने से दांतों का दर्द एवं मुंह के छाले समाप्त होते है।
अंबिकापुर कृषक खेत पर अकरकरा पौधे

2. सफ़ेद हुल-हुल (सिलोम गिनेन्द्रा )

इसे अंग्रेजी में वाइल्ड स्पाइडर फ्लावर तथा हिंदी मेंजखिया, सफ़ेद हुलहुल तथा संस्कृत में अजगंधा  के नाम से जाना जाता है।  यह एमरेंथेसी कुल का सदस्य है।  हुल-हुल वर्षा ऋतु में खेतों एवं पड़ती भूमियों में बीज से उगने वाला एक वर्षीय खरपतवार है।  पर्याप्त धुप युक्त उपजाऊ शुष्क भूमियों में इसके पौधों  की बढ़वार अधिक होती है।  इसके पौधे चिपचिपे एवं  तीक्ष्ण गंध वाले होते है।  इसके पौधों में सफ़ेद या बैगनी रंग के पुष्प आते है।  इसकी फल्लियाँ (कैप्सूल) चिकनी एवं धारीदार होती है जिसमे भूरे या काले रंग के झुर्रीदार बीज होते है।  पौधों में जुलाई-अगस्त में पुष्पन एवं फलन होता है।  इसकी पत्तियों में कडवाहट होती है।  इसकी पत्तियों, बीज एवं जड़ में औषधीय गुण पाए जाते है।  गठिया वात, पेशीय दर्द,गर्दन में सख्ती होने पर एवं सिर दर्द में इसकी पत्तियों की लेई से आराम मिलता है।  कान दर्द एवं कानों से मवाद आने पर इसकी पत्तियों का गर्म अर्क फायदेमंद होता है।  पत्तियों को हाथ से मसलकर सूंघने से सिर दर्द में लाभ होता है।  इसके बीजों का चूर्ण लेने से पेट के गोलकृमि बाहर निकल जाते है।  इसकी जड़ का काढ़ा ज्वरनाशक होता है।  बिच्छू दंश एवं सर्प दंश के उपचार में इसके पौधे का इस्तेमाल किया जाता है।  इसकी ताजा मुलायम पत्तियां एवं कोमल टहनियों को भाजी के रूप में पकाया जाता है। इसकी पत्तियों में विटामिन सी एवं खनिज तत्व प्रचुर मात्रा में पाए जाते है, इसलिए स्वास्थ विशेषकर पेट से सम्बंधित विकारों  के लिए इसकी भाजी बहुत लाभकारी होती है।  हुल-हुल के बीज में 17% से अधिक उत्तम गुणवत्ता वाला खाने योग्य तेल पाया जाता है. इसके तेल को सिर में लगाने से जुएं समाप्त हो जाते है।
सफ़ेद हुल-हुल पौधा फोटो साभार गूगल

3. अनंतमूल (हेमिडेस्मस इण्डिकस) कुल- एपोसाइनेसी
इस वनस्पति को इंडियन ससर्परीला तथा हिंदी में अनन्तमूल, सारिवा एवं गोपवल्ली के नाम से जाना जाता है।  यह भूमि पर रेंगकर फैलने वाली बहुवर्षीय लता है जो बाग़-बगीचों में खरपतवार के रूप में उगती है। इसमें अनेकों मांसल जड़ें होती है।  इसकी नवीन जड़ें हरी होती है जो सूखने पर लाल हो जाती है।  इसकी पत्तियां हरी चमकीली तथा सफ़ेद धब्बेदार होती है जिनकी निचली सतह रोयेंदार होती है।  इसके फूल छोटे एवं गुच्छेदार होते है जो बाहर की ओर हरे एवं अन्दर बैगनी रंग के होते है।  इसके काले रंग के छोटे बीजों में सफ़ेद रोमों का गुच्छा होता है.इसका पौधा तोड़ने से सफ़ेद दूध (लैटेक्स) निकलता है. इसकी जड़ें मीठी होती है जो पौष्टिक, बलवर्धक एवं  मूत्र वर्धक होती है.  जड़ें चर्म रोग, वमन,प्रदर,भूख की कमीं एवं मूत्र विकार में लाभदायक होती है।  पुराना कफ एवं शरीर में गर्मीं तथा खून साफ़ करने में इसके काढ़े का सेवन  कारगर होता है।  इसकी नई हरी-ताज़ी पत्तियों को चबाने से शरीर में ताजगी आती है।  इसका लेप गठियावात, फोड़े-फुंसी तथा अन्य चर्म विकारों में लाभकारी होता है।  सर्पदंश एवं बिच्छू के काटने पर इसकी ताज़ी जड़ों का प्रलेप लाभप्रद होता है।
अनन्तमूल पौधा फोटो साभार गूगल

4. अपराजिता (क्लाइटोरिया टरनेटिया) कुल- फैबेसी
इसे अंग्रेजी में बटर फ्लाई  पी तथा हिंदी में अपराजिता, विष्णु कांता जो कि बाग़-बगीचों एवं खेत की मेंड़ों पर अन्य पौधों के सहारे बढती है।  इसकी दो प्रजातियाँ  श्वेत एवं नीले पुष्पों वाली होती है। इसकी फलियाँ मटर की फली जैसी परन्तु पतली  एवं चपटी होती है जिनमे काले चपटे बीज होते है।  सिर दर्द, सूजन एवं कर्ण शूल  में पत्तियों के प्रलेप से लाभ होता है.तपेदिक बुखार होने पर पत्तियों का अर्क अदरक के साथ लेने से लाभ मिलता है।  सर्पदंश में पौधे का लेप लगाने से विष प्रभाव कम हो जाता है.श्वास नली शोथ, कंठमाला, चेहरे पर झुर्रियां तथा सुजाक होने पर जड़ का लेप लगाने से आराम मिलता है।  बच्चों में शर्दी, खांसी तथा कब्ज होने पर बीजों का शूर्ण शहद के साथ देना लाभप्रद होता है। 
अपराजिता फोटो बालाजी फार्म,दुर्ग

5. कंघी (अबुटिलांन इन्डिकम),कुल- मालवेसी
इसे अंग्रेजी में इंडियन मेलो तथा हिंदी में कंघी/ककई/अफरा  के नाम से जाना जाता है।  यह खरीफ में बंजर भूमियों, सड़क एवं रेलपथ के किनारे, बगीचों में उगने वाला मालवेसी कुल का काष्ठीय झाड़ीनुमा खरपतवार है।  सम्पूर्ण भारत में फसलों के साथ और बंजर भूमियों में बीज से उगता है।  इसकी शाखाओं के अग्र भाग पर जुलाई से दिसम्बर तक पीले रंग के एकल पुष्प शाम के समय खिलते है।   सम्पूर्ण पौधा उपयोगी विशेषकर पत्तियां और जड़ का औषधीय महत्त्व अधिक है।  इसके तने,जड़ एवं पत्तियों में एस्परेजिन नामक क्षाराभ एवं श्लेश्मक पाया जाता है।  इसकी पत्तियां शीतल प्रकृति की होती है।  इसका काढ़ा आंवयुक्त दस्त, स्वांस रोग, मुत्र्नाली शोथ, बुखार में लाभदायक होती है।  दांत एवं मसूड़ों के दर्द में इससे कुल्ला करने पर आराम मिलता है।  इसकी पत्तियों का साग पकाकर खाने से खुनी बवासीर में फायदा होता है।  इसकी जड़ों का पाउडर कफ, मधुमेह, बुखार, ल्यूकोडर्मा  एवं लेप्रोसी के निदान में लाभदायक होता है।


6. कंटकटारा (इकाइनाप्स इकाइनेटस), कुल- एस्टरेसी
इस पौधे को अंग्रेजी में ग्लोब थिसिल तथा हिंदी में कंटकटारा, उतकंटा कहते है जो वर्षा एवं शीत ऋतु की फसलों का खरपतवार है।  शुष्क भूमियों में यह पौधा अधिक पनपता है।  इसके  सम्पूर्ण पौधे में कांटे होते है।  इसके डंठल रहित पत्ते सत्यानाशी जैसे दिखते है।  इसकी पत्तियों पर श्वेत रोये तथा किनारों पर नुकीले कांटे होते है।   इसकी टहनियों के अग्र हिस्से में काँटों के अक्ष से पीले सफ़ेद फूल निकलते है।  फल कांटेदार धतूरे जैसे होते है।  इस पौधे के सभी भाग औषधीय महत्त्व के होते है। यह तंत्रिका बल्य, मूत्र वर्धक, कफ नाशक, ज्वर नाशक एवं प्रस्वेद हारी होता है।  कुकर खांसी,मधुमेह,श्वांस, कुष्ठ रोग अकौता आदि रोगों के उपचार हेतु इसकी जड़ का अर्क लेना लाभकारी रहता है।  इसकी कांटेदार ताज़ी पत्तियों का अर्क शहद के साथ लेने से भी आराम मिलता है।  दाद-खाज खुजली एवं गल्कंठ होने पर इसके ताजे पत्तों को  सरसों के तेल में पकाकर प्रलेप लगाने से लाभ मिलता है।
कंटकरा पौधा फोटो साभार गूगल



नोट : किसी भी वनस्पति/पौधे का रोग निवारण हेतु उपयोग करने से पूर्व आयुर्वेद चिकित्सक से परामर्श अवश्य लेवें। हम किसी भी रोग निवारण हेतु इनकी अनुसंशा नहीं करते है। अन्य उपयोगी वनस्पतियों के बारे में उपयोगी जानकारी के लिए हमारा अगला ब्लॉग देख सकते है।
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