मंगलवार, 20 नवंबर 2018

सेहत के लिए उपयोगी प्रकृति प्रदत्त वनस्पतियाँ :भाग-7

                                       डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर,प्रोफ़ेसर (एग्रोनोमी), 
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
राजमोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,
                                                             अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)

             भारत की विभिन्न भू-जलवायुविक परिस्थितयों में नाना प्रकार की उपयोगी वनस्पतीयां पाई जाती है।  बहुत सी उपयोगी वनस्पतियाँ हमारे आस-पास, बाग़-बगीचों और खेत-खलिहानों में खरपतवार के रूप में उग आती है जिन्हें हम या तो यूँ ही उखाड़ फेंकते है अथवा खेतों में शाकनाशी रसायनों के छिडकाव से इन्हें नष्ट कर देते है।  प्रकृति प्रदत्त बहुत सी वनस्पतियों में औषधीय गुण पाए जाते है जिनका भारतीय चिकित्सा पद्धतियों में विभिन्न रोगों के उपचार में प्रयोग किया जाता है।  इन वनस्पतियों को पहचान कर  हम इनके पंचांग को एकत्रित कर विभिन्न रोगों के उपचार में प्रयोग कर सकते है अथवा बाजार में बेच कर आर्थिक लाभ कम सकते है। जलवायु परिवर्तन, सघन खेती और जहरीले रसायनों के छिडकाव से आज बहुत सी उपयोगी वनस्पतियाँ लुप्त होती जा रही है अथवा विलुप्त होने की कगार पर है ।  अतः स्वास्थ्य के लिए उपयोगी जड़ी-बूटी/वनस्पतियों के सरंक्षण और संवर्धन की महती आवश्यकता है।  इनमें से कुछ वनस्पतियों के महत्त्व को दर्शाने बावत हमने अपने ब्लॉग के माध्यम से इनके औषधीय उपयोग बताये है परन्तु बगैर चिकत्सकीय परामर्श/आयुर्वेदिक चिकित्सक की सलाह लिए आप किसी भी रोग निवारण के लिए इनका  प्रयोग न करें। भारत के विभिन्न प्रदेशोंकी मृदा एवं जलवायुविक परिस्थितियों में उगने वाले कुछ खरपतवार/वनस्पतियों का संक्षिप्त विवरण  विभिन्न भागों ( ब्लॉग) में प्रस्तुत किया गया  है। यहाँ पर भाग-6 दिया जा रहा है।

51.पीला हुल-हुल (क्लीओम विस्कोसा), कुल- कैपारेसी


पीला हुल हुल फोटो बालाजी फार्म, अहिवारा,सी.जी.
इसे स्टिकी सिलोम,वाइल्ड मस्टर्ड एवं हिंदी में पीला हुल-हुल या हुर-हुर एवं कनफुटिया के नामों से जाना जाता है। यह पौधा  वर्षा ऋतु में उपजाऊ जमीनों एवं बंजर भूमियों में एकवर्षीय खरपतवार के रूप में  उगता है।  इसके पुष्प सरसों जैसे पीले रंग के होते है। हुल-हुल के पौधों में पुष्प सुबह खिलते है एवं दोपहर बाद बंद हो जाते है.  इसकी पत्तियों। तने  एवं फलियों पर चिपचिपा पदार्थ (विस्कोसिन क्षाराभ) पाया जाता है।  ग्रामीण क्षेत्रों में इसकी पत्तियों का साग बनाकर खाया जाता  है। राई के स्थान पर इसके बीज को सब्जी में मसाले के रूप में किया जा सकता है. बीजों में खाने योग्य तेल पाया जाता है। हुल-हुल के सम्पूर्ण पौधे में औषधीय गुण होते है। इसके पौधे कफनाशक,पेट के रोग, डायरिया एवं बुखार के उपचार में इस्तेमाल किया जाता है।  इसकी पत्तियों का काढ़ा पेट संबंधी विकारों के उपचार में उपयोगी है।  पत्तियों का लेप घाव एवं  अल्सर के उपचार में फायदेमंद होता है।   कान से मवाद आने एवं दर्द होने पर पत्ती का रस गर्म तेल के साथ डालने से आराम मिलता है। हुल हुल के बेज कृमि नाशक, वायुनाशी, उत्तेजक एवं फोड़ा-फुंसी के उपचार में लाभप्रद है।  बीज का काढ़ा वात रोग,प्रमेह,अतिसार एवं दस्त उपचार में गुणकारी माना गया है।   बच्चो में गोलकृमि होने पर बीजों का चूर्ण शहद के साथ देने से लाभ होता है।  जोड़ों के पुराने दर्द में इसकी पुल्टिस बाँधने से आराम मिलता है।  पत्तियों की लेई सर में लगाने से जुएं समाप्त हो जाते है। इसके बीज अधिक मात्रा में सेवन करने से नुकशान हो सकता है।


52.गोरखमुंडी (स्फीरैन्थस इंडिकस), कुल एस्टरेसी


गोरखमुंडी पौधा फोटो साभार गूगल
इस वनस्पति को अंग्रेजी में ईस्ट इंडियन ग्लोब थिसल तथा  हिंदी में मुंडी, गोरख मुंडी  और संस्कृत में श्रावणी, तपस्विनी आदि नामों से जाना जाना जाता है।  इसके पौधे  एकवर्षीय खरपतवार के रूप में खरीफ फसलों एवं नम भूमियों में उगते है। काली उपजाऊ  मिटटी में इसके पौधे बहुतायत में पनपते है। इसका पौधा रोयेंदार और गंधयुक्त होता है।  इसमें पुष्पन एवं फलन जनवरी से मार्च तक होता रहता है। भारतीय चिकित्सा पद्धति में गोरखमुंडी का विशेष स्थान है।   इसके सम्पूर्ण पौधे में औषधीय गुण पाए जाते है।  इसका पौधा कटुतिक्त, बलवर्धक, उष्ण, मूत्रजनक, वात एवं रक्त विकारों में उपयोगी माना जाता है. यह अजीर्ण, शीने में जलन, अतिसार, वमन, मिरगी, दमा, पेट में कीड़े, कुष्ठ रोग आदि में लाभदायक है।  गोरखमुंडी को बुद्धिवर्द्धक भी माना जाता है. इसके 2-4 ताजे फल चबाकर पानी के साथ खाने से आंखे स्वस्थ रहती है और  आँखों की ज्योति बढती है। गोरखमुंडी का काढ़ा कुष्ठ रोग में उपयोगी पाया गया है।  गोरखमुंडी के पौधों को छाया में सुखाकर कूट-पीस कर चूर्ण बनाकर प्रति दिन एक चम्मच खाने से दिल, दिमाग और लिवर को शक्ति मिलती है। इसके बीजों का चूर्ण को शक्कर के साथ मिलाकर पानी के साथ सेवन करने से दर्द, फोड़े-फुंसी तथा खुजली में आराम मिलता है। इसकी जड़ का चूर्ण दूध के साथ  लगातार एक वर्ष या अधिक समय तक  लेने से शरीर में शक्ति का संचार होता है।  जड़ का चूर्ण बवासीर के उपचार में भी फायदेमंद होता है।   

53.किवांच (मुकुना प्रुरीअंस), कुल-फाबेसी


किवांच पुष्प-फली फोटो साभार गूगल
किवांच को अंग्रेजी में वेलवेट बीन्स, हिंदी में केवांच, कौंच तथा संस्कृत में मर्कटी, कपिकच्छु आदि नामों से जाना जाता है. यह एक मौसमी शाकीय लता है जो सेम की लता से मिलती जुलती है ।  यह लता वर्षा ऋतु में जंगलों, खेतों की मेंड़ों एवं बाड़ में उगती है और अन्य पेड़ों के सहारे लिपटकर बढती है।  इसमें बैगनी रंग के पुष्प गुच्छे में लगते है। इसकी लता में  पुष्पन एवं फलन सितम्बर-दिसंबर तक होता है।  इसकी फली दोनों छोर पर मुड़ी हुई अंग्रेजी के एस आकार की दिखती है।  फलियों पर भूरे रंग के घने  रोम पाए जाते है जिन्हें छूने या संपर्क में आने पर खुजली उत्पन्न होती है।  बीज अण्डाकार तथा सफ़ेद एवं काले रंग के होते है।  इसके सम्पूर्ण पौधे एवं बीज में औषधीय गुण पाए जाते है।  किवांच के बीज शक्ति वर्धक,वीर्यवर्धक, कामोत्तेजक, पुष्टिकारक,पित्त एवं रुधिर विकार नाशक  है।  पेट का दर्द, अपच, दुर्बलता, सूजन, नपुंसकता, बाँझपन आदि में कौंच के बीज का इस्तेमाल असरकारक माना जाता है। फलियों के ऊपर के रोम आँतों के कीड़े निकालने में उपयोगी होते है।  पेशियों के दर्द निवारण में बीज से प्राप्त  एल्ड्रोपा रसायन का उपयोग होता है।  इसकी पत्तियां मुंह के छालों के निदान में उपयोगी है।  जड़े मूत्रल, दस्तावर, ज्वर नाशक, किडनी रोग एवं हांथीपांव में उपयोगी समझी जाती है।  जड़ो का काढ़ा सेवन करने से खुनी आंव में आराम मिलता है।

54.सरपोंखा (टेफरोसिया पर्पयूरी), कुल- फैबेसी


सरपोंखा पौधा फोटो साभार गूगल
सरपोंखा को अंग्रेजी में वाइल्ड इन्डिगो, हिंदी में भारपुंखा एवं सरपोंखा तथा संस्कृत में शरपुन्खा, कालनाशक आदि नामों से जाना जाता है।  यह बहुवर्षीय झाड़ीनुमा पौधा है जो जंगल किनारे, बंजर भूमियों, सड़क एवं रेल पथ के किनारे तथा उपजाऊ भूमियों में उगता है। इसके पौधे नील के पौधे सदृश्य होते है।  इसलिए इसे जंगली नील कहते है।  सरपोंखा में अगस्त से दिसंबर तक पुष्पन एवं फलन होता है।  इसके पुष्प लाल या बैगनी रंग का मटर के फूलों जैसे पत्तियों के विपरीत रेसीम क्रम में खिलते है।  इसकी फली लम्बी चपटी रोमयुक्त होती है जिसमें चोंच जैसी नोक होती है। प्रत्येक फली में 6-8 छोटे, वृक्काकार बीज बनते है जो हरे स्लेटी रंग के होते है। सरपोंखा के सम्पूर्ण पौधे (जड़ से लेकर बीज) में औषधीय गुण पाए जाते है। तंत्र विद्या में भी सरपोंखा का इस्तेमाल किया जाता है। औषधीय प्रयोजन के लिए सरपोंखा के पंचांग का काढ़ा, चूर्ण और प्रलेप का प्रयोग किया जाता है ।   सरपोंखा स्वाद में कड़वा, चरपरा, कसैला और स्वभाव में उष्ण होता है।  यह  कफ, वात नाशक, रक्तशोधक,यकृत रोगों,ह्रदय रोग, खांसी, अस्थमा, ज्वर, चर्म रोग तथा न ठीक होने वाले घावों के उपचार में कारगर औषधि  है।  इसकी जड़ों का काढ़ा डायरिया, अस्थमा एवं मूत्र विकारों के उपचार में फायदेमंद रहता है।  दन्त रोग में इसकी जड़ को कूटकर दांत के नीचे रखने से लाभ होता है।  फलियों का काढ़ा उल्टी रोकने में कारगर है।  जड़ों का तजा रस अपेंडिक्स के उपचार में उपयोगी माना जाता है।

55.घमरा  (ट्राइडेक्स प्रोकम्बेन्स), कुल-एस्टेरेसी


घमरा पौधा फोटो बालाजी फार्म, अहिवारा (छत्तीसगढ़)
कोट बटन, मेक्सिकन डेज़ी, संस्कृत में जयंती वेदा  तथा हिंदी में खल-मुरिया,फुलनी एवं घमरा  के नाम से जाना जाता है।  यह उपजाऊ भूमियों, बंजर भूमियों, नहर एवं नदीं किनारों, बाग़ बगीचों में वर्षा ऋतु में पनपने वाला एकवर्षीय/बहुवर्षीय खरपतवार है। इसका पौधा सीधा और जमीन पर रेंगकर बढ़ता है। इसके पौधों में वर्ष भर पुष्पन एवं फलन होता रहता है। इसके फूलों पर तितलियाँ एवं मधुमक्खी भ्रमण करती है।   इसके तने एवं शाखायें नाजुक होती है, जिन पर रोयें पाए जाते है।  इसमें लम्बे पर्ण वृंत पर गेंदे जैसे  परन्तु छोटे  पीले पुष्प लगते है, जिनकी पंखुड़ी सफ़ेद होती है । इसके फल पर चारों ओर सिल्की रेशे पाए जाते है।  इसकी पत्तियों में औषधीय गुण पाए जाते है। छत्तीसगढ़ के ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में घमरा  की कोमल पत्तियों एवं टहनियों को साग के रूप में पकाया जाता है।  पत्तियां दस्त एवं डायरिया उपचार में लाभदायक होती है।  पत्तियों के रस का प्रयोग घाव,अल्सर  एवं कटने पर किया जाता है।  पत्तियां का उपयोग यकृत विकारों, अस्थमा, पेचिश, और दस्त रोग के उपचार में  किया जाता है।  बवासीर की सूजन कम करने और खून रोकने के लिये इसकी पत्तियों का लेप बनाकर लगाने से आराम मिलता  है।  इसकी पत्तियों और चने की पत्तियों को मिलाकर चूर्ण बनाकर सेवन करने से मधुमेह रोगियों को लाभ होता है। पत्तियों के रस को फोड़ें, फफोले,अल्सर एवं घाव में लगाने से फायदा होता है। इसकी पत्तियों  के रस में कीटनाशक और परजीवी गुण होते हैं। सूखे पौधों को जलाने से निर्मित धुआं मच्छर भगाने  के लिए उपयोग किया जाता है।

56.सहदेवी (वर्नोनिया सिनेरा), कुल-कम्पोजिटी
सहदेवी पौधा फोटो बालाजी फार्म, अहिवारा, छत्तीसगढ़

इस पौधे को अंग्रेजी में ऐश कलर्ड फ्लीबेन तथा हिंदी में सहदेवी एवं सदोदी कहते है।  यह वनस्पति सम्पूर्ण भारत में शुष्क एवं नम स्थानों में खरपतवार के रूप में पनपती है।  सहदेवी के पौधे के प्रत्येक भाग में औषधीय गुण पाए जाते है।  तंत्र विद्या में भी इस पौधे का इस्तेमाल किया जाता है।  यह उष्ण, कटु,कफ वात दोष नाशक,मधुमेह, बुखार, सिर दर्द, दांत दर्द एवं मसूड़ों की सूजन के उपचार में इसका प्रयोग किया जाता है। सहदेवी की पत्ती और तनों की लुगदी लगाने से घाव एवं सूजन में लाभ होता है।  इसकी जड़ एवं पत्तियों का काढ़ा सेवन करने से रक्त शुद्ध होता है और चर्म रोग में लाभ मिलता है।   दस्त रोकने एवं पेट के कीड़ों के उपचार में जड़ का काढ़ा उपयोगी है। 

57.परपोटी (फाइसेलिस मिनिमा) कुल- सोलानेसी
फोटो कृषक खेत, बलरामपुर


इस पौधे के अंग्रेजी में ग्राउंड चेरी एवं केप गूसबेरी  एवं सन बेरी तथा हिंदी में पोपटी, चिरपोटी, रसभरी  एवं परपोटी के नाम से जाना जाता है।  यह पौधा सिंचित क्षेत्रों में सभी प्रकार की भूमियों में खरपतवार के रूप में उगता है।  इस पौधे में पीले रंग के पुष्प तथा फल  गोल होते है जो झिल्लीनुमा  आवरण में ढकें रहते है।  इसके फल गोल खाने में खट्टे-मीठे स्वादिष्ट  होते है।  इसमें अगस्त से जनवरी तक पुष्पन एवं फलन होता है।  इसके सम्पूर्ण पौधे में औषधीय गुण होते है।  इसके पौधे एवं फलों  का प्रयोग मूत्र सम्बंधित विकारों के उपचार में किया जाता है। इसके फलों में एंटीओक्सिडेंट मौजूद होते है।  इसके सेवन से शरीर का वजन घटाने में फायदा होता है।  खांसी, हिचकी, श्वांस रोगों में इसके फल का चूर्ण लाभकारी पाया गया है।  इसके पौधे की पत्तियों का काढ़ा पाचन शक्ति बढ़ाने, भूख बढ़ाने, लिवर को स्वस्थ रखने एवं शरीर के अन्दर की सूजन को कम करने में लाभकारी है।  चमड़ी के सफ़ेद दाग पर  इसकी पत्तियों का लेप लगाने से फायदा होता है। संधि वात में पत्तियों का लेप तथा पत्तियों के रस का काढ़ा पिने से फायदा होता है . रसभरी का अर्क पेट के रोग एवं रक्त शोधन में भी उपयोगी होता है। इसकी  पत्तियों के रस को सरसों के तेल में मिलकर कान में डालने से कान दर्द में रहत मिलती है।
 
  नोट: इस आलेख/ब्लॉग में हमने औषधीय महत्त्व के खरपतवार/प्राकृतिक वनस्पतियों को उनके गुण/उपयोग के अनुसार दी गई जानकारी अपने अनुभव, औषधीय पौधों के जानकार, विभिन्न शोध पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित आलेखों के माध्यम से संकलित कर जन जागृति के उद्देश्य से प्रस्तुत की है।  किसी भी वनस्पति को रोग उपचार हेतु इस्तेमाल करने से पूर्व पंजीकृत आयुर्वेदिक/यूनानी  चिकित्सक का परामर्श लेना आवश्यक है। 

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