गुरुवार, 22 नवंबर 2018

खरपतवार नहीं है बेकार, बनाये इन्हें स्वास्थ का आधार:भाग-8

                                             डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर,प्रोफ़ेसर (एग्रोनोमी), 
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
राजमोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,
                                                             अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)

             वैदिक काल से ही भारत में  विभिन्न रोगों के उपचार हेतु प्राकृतिक वनस्पतियों/पेड़ पौधों का इस्तेमाल होता आ रहा है परन्तु अब सम्पूर्ण विश्व में जड़ी-बूटी एवं आयुर्वेदिक औषधियों के प्रति आकर्षण बढ़ा है । स्वास्थ्य के लिए उपयोगी अति  महत्वपूर्ण वनस्पतियों  की बढती मांग के कारण इन प्राकृतिक वनस्पतियों का दोहन चरमोत्कर्ष पर है। जंगलों की अंधाधुंध कटाई, जलवायु परिवर्तन, सघन कृषि और बढ़ते शहरीकरण के कारण औषधीय वनस्पतियों का उत्पादन निरंतर कम होता जा रहा है और बहुत सी वनस्पतियाँ विलुप्त होने की कगार पर है. हमारे आस-पास बाग-बगीचों और खेत खलिहानों में भी नाना प्रकार की औषधीय वनस्पतियाँ प्राकृतिक रूप से उगती है। इनके औषधीय गुणों के बारे में उचित जानकारी के अभाव एवं इनकी पहचान न होने के कारण ग्रामीण एवं किसान भाई इन्हें यूँ ही उखाड़ कर फेंक देते है अथवा शाकनाशी दवाओं के छिडकाव से इन्हें नष्ट कर देते है। इससे हमारी भारतीय चिकित्सा पद्धति को भारी क्षति हो रही है।  औषधि निर्माता भी पर्याप्त मात्रा में सही जड़ी-बूटी के अभाव में कुछ अवांक्षित पौधों की मिलावट कर आयुर्वेदिक औषधि निर्माण कर बेच रहे है जिससे लोगों को बांक्षित लाभ न होकर स्वास्थ हानि होने की संभावना बनी रहती है।  अतः आज आवश्यकता है कि स्वास्थ्य के लिए उपयोगी जड़ी-बूटी/वनस्पतियों के बारे में हम सब लोग जाने और इन्हें पहचान कर इनके  सरंक्षण और संवर्धन में योगदान देवें  है। प्रकृति प्रदत्त बहुत सी उपयोगी वनस्पतियों/खरपतवारों के बारे में अंग्रेजी भाषा में तो काफी ज्ञान/जानकारी पत्र-पत्रिकाओं और इन्टरनेट पर उपलब्ध है जिससे आम भारतीय इनकी उपादेयता से अछूता/अनभिज्ञ है।  हमने अपने ब्लॉग 'कृषि विमर्ष' के माध्यम से औषधीय महत्त्व के खरपतवारों का परिचय एवं स्वास्थ्यगत उपयोग अपनी राजकीय भाषा-हिंदी में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है ताकि भारत के सभी हिंदी भाषी क्षेत्रों के जनमानस इन अवांक्षित पौधों/खरपतवारों के औषधीय महत्त्व को समझ सके और इनके सरंक्षण और सवर्धन में अपना योगदान देकर भारत की आयुर्वेदिक/यूनानी चिकित्सा पद्धति को निरंतर सफल बनाने में सहयोग कर सकें।  स्वास्थ्य के लिए उपयोगी वनस्पतियों/खरपतवारों की श्रंखला की अंतिम कड़ी अग्र प्रस्तुत है.  

58.चंसूर (Lepidium sativum), कुल ब्रेसीकेसी


चंसूर पौधा फोटो साभार गूगल
इस पौधे को अंग्रेजी में गार्डन क्रेस और हिंदी में हलीम, चंसूर,असारिया के नाम से जाना जाता है।  यह सरसों कुल का शाकीय  वार्षिक पौधा है।  इसके पौधे सीधे बढ़ने वाले बहुशाखित होते है।  रबी फसलों के खेत, बंजर भूमियों, बाग़-बगीचों, सडक एवं रेल पथ के किनारे खरपतवार के रूप में उगता है।  इसके पौधे नमीं युक्त बलुई मिटटी में बहुत तेजी से बढ़ते है।  इसका पौधा सफ़ेद-भूरे रंग का, फूल सफ़ेद और बीज लाल रंग के सरसों जैसे बेलनाकार होते है।  बीज में खाने योग्य तेल पाया जाता है प्रारंभिक अवस्था में इसके छोटे पौधों से भाजी एवं सूप बनाया  जाता है, जो बहुत पौष्टिक एवं  स्वास्थ्य वर्धक होता है।  गाय एवं भैस के लिए यह उत्तम चारा है, जिसे खिलाने से दूध की मात्रा बढती है।  इसके सम्पूर्ण पौधे एवं बीज में औषधीय गुण होते है।  इसका पौधा अस्थमा निरोधक, खूनी बवासीर एवं सिफलिस के उपचार में कारगर है। यह विभिन्न स्त्री रोग, प्रसवोत्तर शारीरिक क्षति पूर्ति एवं प्रमेह निवृत हेतु उपयुक्त औषधि मानी जाती है।  इसके बीज के चूर्ण/लेई को शहद के साथ लेने से दस्त में लाभ होता है।  इसके बीज को चबाने से गले का दर्द, कफ, अस्थमा एवं सिर दर्द में आराम मिलता है. बीज के प्रलेप को लगाने से त्वचा सम्बंधित विकारों में लाभ होता है।   इसके बीजों में प्रोटीन, खनिज, रेशा के अलावा विटामिन ‘ए’, ‘सी’, ‘ई’ एवं फोलिक एसिड प्रचुर मात्रा में पाया जाता है।  बच्चों में बढ़वार एवं स्फूर्ति हेतु बीज बहुत लाभकारी है।  चंसूर के बीजों का (पानी में फुलाकर)  सलाद के रूप में या पेय पदार्थ सेवन करने से शरीर का वजन कम या नियंत्रिन होता है और रोगप्रतिरोधक क्षमता बढती है।

59.बच (अकोनस कालमस), कुल-अकोरेसी


बच पौधा फोटो साभार गूगल
इस पौधे को अंग्रेजी में स्वीट फ्लैग रूट तथा हिंदी में घोड़ा बच, सफ़ेद बच के नाम से भी जाना जाता है जो एक सगंधीय और औषधिय महत्त्व का  झाड़ीनुमा पौधा है. घोडा बच के पौधे अधिक ऊंचे (2-4 फीट) यह नम एवं दलदली भूमि, तालाबों,नदी-नालों के किनारे, धान के खेतों  में प्राकृतिक रूप से उगता है. इसके राइजोम भूमिगत, लम्बे, सफ़ेद एवं तीव्र गंध वाले होते है।   बच की पत्तियां हल्के हरे रंग की चपटी, लम्बी, मोटी, रेखाकार एवं मध्य शिरायुक्त सुगन्धित होती है।  इसके पौधों के पुष्पक्रम (बाली)  में हल्के पीले रंग के पुष्प लगते है।  इसके फल गोल आकार एवं लाल रंग के होते है।  बच की पत्तियों, कंद एवं मूल से बहुपयोगी उड़नशील तेल प्राप्त होता है। विभिन्न प्रकार की औषधि निर्माण में बच (तेल) का इस्तेमाल किया जाता है।  बच अधिक गंधयुक्त, चटपटा-तीखा, शक्तिवर्धक है।  यह मूत्र विकारों, वात रोग, कफ, दर्द नाशक, मिरगी एवं अफरा को दूर करने वाली औषधि है. विभिन्न प्रकार के द्रव्यों को सुवासित करने में इसके तेल का इस्तेमाल किया जाता है।  इसकी कन्दो के सूखे चूर्ण का इस्तेमाल पेट के कीड़े मारने एवं स्वांस -दमा रोग के उपचार में किया जाता है।

60.अश्वगंधा (विथानिया सोम्नीफेरा), कुल-सोलेनेसी


अश्वगंधा फोटो साभार गूगल
इस पौधे को अंग्रेजी में इंडियन जिनसेंग एवं विंटर चेरी, संस्कृत में अश्वकंदिका एवं हिंदी में अश्वगंधा के नाम से जानते है।  भारत के सम्पूर्ण गर्म प्रदेशों में यह  पौधा बहुवर्षीय खरपतवार के रूप में उगता है।  इसके शाकीय झाड़ीनुमा पौधे बाग़-बगीचों, सड़क एवं रेल पथ किनारे बहुतायत में पाया जाता है। इसके तने एवं शाखायें हल्के हरे एवं सफेद रोमों से ढके रहते है।  इसकी जड़ मोटी एवं मूसलादार होती है. इसकी पत्तियां अंडाकार एवं नुकीली होती है।  इसके फूल गोल पीताभ हरे रंग के पत्तियों के अक्ष से गुच्छों में निकलते है।  अश्वगंधा का सम्पूर्ण पौधा औषधीय गुणों में परिपूर्ण होता है।  इसकी पत्तियों का काढ़ा पेट के कीड़े निकलने एवं बुखार से कारगर माने जाते है. खाज-खुजली, फोड़ा, कान दर्द, अल्सर तथा हथेली एवं तलवों की सूजन में पत्तियों का अर्क लाभदायक है।  गांठो एवं फेंफडों की सूजन तथा क्षय के उपचार में हरी पत्तियों का लेप कारगर माना जाता है. इसके फल एवं बीज मूत्रवर्धक एवं निद्राकारी होते है।  अश्वगंधा की जड़ शक्तिवर्धक, कामोत्तेजक,मदकारी एवं मूत्रल होती है।  वात विकार, जोड़ो की सूजन एवं दर्द, पक्षाघात, अनियमित रक्तचाप, अपच,सामान्य एवं पौरुष दुर्बलता, खांसी तथा हिचकी आने पर इसकी जड़ का चूर्ण शहद के साथ लेने से लाभ होता है।  सूजन, ग्रंथिवात,अल्सर आदि के उपचार में जड़ के चूर्ण का प्रलेप लाभप्रद होता है. गर्भिणी एवं प्रसूता महिलाओं में कमजोरी एवं बदन दर्द आदि में जड़ का चूर्ण शहद के साथ सेवन करना लाभकारी होता है. अश्वगंधा चूर्ण के नियमित सेवन से मनुष्य में रोग प्रतिरोधक क्षमता बढती है। 

61. कीड़ामार  (एरिस्टोलोकिया ब्रेक्टिआटा), कुल-एरिस्टोलोकिऐसी)


कीड़ामार पौधा फोटो साभार गूगल
इस पौधे को अंग्रेजी में वर्मकिलर, संस्कृत में धूमपत्र एवं हिंदी में कीड़ामार के नाम से जाना जाता है।  यह बहुवर्षीय लता युक्त शाकीय खरपतवार है।  यह पौधा  बाग़-बगीचों और खेत की मेंड़ो, सडक और रेल पथ किनारों पर भूमि के सहारे फैलती है।  इसकी पत्तियां ह्र्द्यकार, नीचे से चौड़ी एवं ऊपर नुकीली होती है। इसके पौधों में गोल सहपत्र वाले बैगनी रंग के एकल पुष्प पत्तियों के कक्ष से निकलते है।  इसमें फल सम्पुटिका लम्बी एवं छः कोष्ठीय धारीदार होती है।  बीज पतले एवं ह्र्दयाकार होते है।  इसके सम्पूर्ण पौधे में औषधीय गुण विद्यमान होते है।  इसका पौधा ज्वर नाशक एवं मृदुरेचक होता है।  चर्म रोग में पत्तियों को पीसकर अरंडी के तेल में मिलकर लगाने से आराम मिलता है।  कीड़ों के काटने से उत्पन्न घाव में पत्तियों का अर्क लगाने से लाभ होता है।  ज्वर, गर्मी एवं सुजाक में पत्तियों का अर्क दूध के साथ लेने से फायदा होता है।  बदहजमी एवं पेट दर्द में पत्तियों के चबाने से आराम मिलता है।  पेट से गोलकृमि नष्ट करने के लिए इसकी जड़ को कारगर औषधि माना गया है. वात विकार, सुजाक एवं दमा में इसके फलों को दूध के साथ उबालकर खाने से राहत मिलती है।

62.सतावर (अस्परेगस रेसिमोसस)


इस पौधे को अंग्रेजी में अस्परेगस, संस्कृत में शतमूली एवं हिंदी में सतावर के नाम से जाना जाता है।  यह बहुवर्षीय आरोही लतानुमा पौधा है जो बाग़-बगीचों एवं छायादार स्थानों में खरपतवार के रूप में उगता है।  घर की बगियाँ में भी इसे अलंकृत लता के रूप में लगाया जाता है।  इसकी लता लम्बी एवं कोमल, तना काष्ठीय एवं कांटेदार होता है।  इसकी शाखाएं भूमि के सामानांतर निकलती है जिनमे अनेक उपशाखायें निकलती है।  सतावर में पत्तियां नहीं होती है बल्कि हरी पत्तियों के समान कोमल गोल धागेनुमा सरंचनाये विकसित होती रहती है।  इसमें जड़े प्रकन्द की भांति होती है जो जमीन के अन्दर समानांतर लम्बी बढती है।  पुष्प छोटे सफ़ेद रंग के सुगन्धित होते है जो गुच्छों में आते है।  फल छोटे हरे  तथा पकने पर लाल (रसभरी) हो जाते है।  सतावर की मांसल जड़ों में औषधीय गुण पाए जाते है।  इसके प्रकन्द/जड़े शांतिप्रदायक, दाहनाशक,मूत्र वर्धक, क्षुदावर्धक, बल वर्धक, कफनिस्सारक  एवं नेत्रों के लिए हितकर होती है।  इसकी जड़ों का काढ़ा अतिसार, क्षय रोग, व्रणशोथ, मन्दाग्नि,लेप्रोसी,रतौंधी, वृक्क एवं पित्त विकारों में लाभदायक है।  इसकी जड़ का चूर्ण दूध और शक्कर के साथ नियमित रूप से पीने से बल और बुद्धि का विकास तेज होता है।  इसके मूल से सिद्ध तेल का बाह्य प्रयोग चर्म रोग, वात रोग, दौर्बल्य एवं शिरा रोग में गुणकारी माना जाता है।

63.हरमल (पेगनम हरमाला)

इस वनस्पति को  अंग्रेजी में वाइल्ड रियू, संस्कृत में गन्ध्या एवं हिंदी में हरमल, मरमरा  के नाम से जाना जाता है. यह छोटा झाड़ीनुमा बहुवर्षीय जंगली पौधा है जो देश के शुष्क मैदानी क्षेत्रों में पाया जाता है।  इसकी पत्तियों के अक्ष से सफ़ेद रंग के एकल पुष्प निकलते है।  फल सम्पुटिका गोलाकार एवं गहरी धारियों वाली होती है।  इसके बीज भूरे रंग के होते है।  इसके सम्पूर्ण पौधे में औषधीय गुण पाए जाते है।  इसका पौधा मोह्जनक मद्कारी, कामोत्तेजक,फीता कृमि नाशक होता है।  इसकी पत्तियों का काढ़ा गठिया वात के दर्द में लाभदायी है। इसके पुष्पों एवं तने की छल का प्रलेप ह्रदयोत्तेजना शांत करने में गुणकारी है।  इसके बीज भी औषधीय गुणों से परिपूर्ण होते है।  हरमल के बीज दर्दनाशक, मदकारी, निद्राकारी,कृमि नाशक,कामोत्तेजक,ज्वरनाशक एवं दुग्ध वर्धक होते है।  इसके बीजों का काढ़ा वात विकार, वृक्क एवं पित्ताशय की पथरी,पेट दर्द एवं ऐंठन, ज्वर,पीलिया, दमा, माहवारी में रूकावट एवं वातीय दर्द में लाभकारी पाया गया है।  इसके बीजों का चूर्ण लेने से फीताकृमि दस्त के साथ बाहर निकल जाते है।  इसके काढ़े से कुल्ला एवं गरारा करने से स्वर यंत्र विकार में लाभ मिलता है।  इसके बीजों का अधिक मात्रा में सेवन हानिकारक प्रभाव छोड़ता है।

64.धतूरा (दतूरा अल्बा), कुल-सोलेनेसी

धतूरा को अंग्रेजी में ग्रीन थार्न एपिल, संस्कृत में कनक, शिव शेखरं तथा हिंदी में धतूरा के नाम से जाना जाता है।  भगवान शिव को अतिप्रिय धतूरा छोटा झाड़ीनुमा शाकीय खरपतवार है जो वर्षा ऋतु में पड़ती भूमियों, कूड़ा करकट के ढेरों में, सड़कों एवं रेल पथ के किनारे उगता है।   धतूरा की अनेक किस्मे होती है जिनमे से हरा धतूरा (डी.मेंटेल), धूसर धतूरा (डी. इनाँक्सिया)  एवं काला धतूरा (डी. स्ट्रेमोनियम) प्रमुख है।  काला धतूरा सर्वत्र पाया जाता है. इसका तना खुरदुरा, सीधा एवं शाखाये रोमिल होती है।  पत्तियां त्रिकोणीय अंडाकार होती है।  पुष्प एकल बड़े, सफ़ेद जो कीप के आकार के पत्ती के अक्ष से निकलते है।  फल अंडाकार हरा होता है जो   ऊपर से  छोटे-छोटे हरे कांटो से ढका होता है.  धतूरे की हरी-सूखी पत्तियों, पुष्पकलियों एवं बीज में औषधीय गुण पाए जाते है।  यह अत्यधिक नशीला एवं विषैला पौधा है।  अतः इसके इस्तेमाल में विशेष सावधानी बरतनी आवश्यक है।  इसकी तजि हरी पत्तियों का गर्म प्रलेप दर्द भरी चोट, जोड़ों की सूजन, बवासीर, खाज, हाथ-पैरों की बिवाई के उपचार  में काफी असरकारक है।  पत्तियों का अर्क सिर में लगाने से जुएं मार जाते है।  पत्तियों एवं फूलों को जलाकर उत्पन्न धुआं या सूखी पत्तियों की सिगरेट बनाकर पीने से अस्थमा, ब्रोंकटाइटिस एवं कुकरखांसी में शीघ्र आराम मिलता है।  पागल कुत्ता के काटने पर पत्तियों का अर्क गुड के साथ लेने और काटे हुए स्थान पर बीजों का महीन प्रलेप लगाने से विष का असर कम हो जाता है।  फलों का रस फोड़े-फुंसी एवं घाव के दाग मिटाने तथा बालों की रूसी खत्म करने में लाभकारी है. छाती में दर्द भारी सूजन में इसका अर्क हल्दी के साथ लगाने से आराम मिलता है।  धतूरा के बीज मदकारी होने के कारण केवल इनके वाह्य प्रयोग की संस्तुति है।  शरीर में अत्यधिक ऐंठन, बवासीर, व्रण, सडन,सूजन आदि में बीजों का प्रलेप लगाना फायदेमंद होता है।
  नोट: इस आलेख/ब्लॉग में हमने औषधीय महत्त्व के खरपतवार/प्राकृतिक वनस्पतियों को उनके गुण/उपयोग के अनुसार दी गई जानकारी अपने अनुभव, औषधीय पौधों के जानकार, विभिन्न शोध पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित आलेखों के माध्यम से संकलित कर जन जागृति के उद्देश्य से प्रस्तुत की है।  किसी भी वनस्पति को रोग उपचार हेतु इस्तेमाल करने से पूर्व पंजीकृत आयुर्वेदिक/यूनानी  चिकित्सक का परामर्श लेना आवश्यक है। 

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