डॉ.गजेंद्र सिंह तोमर,प्रोफ़ेसर (एग्रोनोमी),
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
राजमोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,
अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)
भारत की विभिन्न भू-जलवायुविक परिस्थितयों में नाना प्रकार की उपयोगी वनस्पतीयां पाई जाती है। बहुत सी उपयोगी वनस्पतियाँ हमारे आस-पास, बाग़-बगीचों और खेत-खलिहानों में खरपतवार के रूप में उग आती है जिन्हें हम या तो यूँ ही उखाड़ फेंकते है अथवा खेतों में शाकनाशी रसायनों के छिडकाव से इन्हें नष्ट कर देते है। प्रकृति प्रदत्त बहुत सी वनस्पतियों में औषधीय गुण पाए जाते है जिनका भारतीय चिकित्सा पद्धतियों में विभिन्न रोगों के उपचार में प्रयोग किया जाता है। इन वनस्पतियों को पहचान कर हम इनके पंचांग को एकत्रित कर विभिन्न रोगों के उपचार में प्रयोग कर सकते है अथवा बाजार में बेच कर आर्थिक लाभ कम सकते है। जलवायु परिवर्तन, सघन खेती और जहरीले रसायनों के छिडकाव से आज बहुत सी उपयोगी वनस्पतियाँ लुप्त होती जा रही है अथवा विलुप्त होने की कगार पर है । अतः स्वास्थ्य के लिए उपयोगी जड़ी-बूटी/वनस्पतियों के सरंक्षण और संवर्धन की महती आवश्यकता है। इनमें से कुछ
वनस्पतियों के महत्त्व को दर्शाने बावत हमने अपने ब्लॉग के माध्यम से इनके औषधीय उपयोग बताये है परन्तु बगैर
चिकत्सकीय परामर्श/आयुर्वेदिक चिकित्सक की सलाह लिए आप किसी भी रोग निवारण के लिए
इनका
प्रयोग न करें। भारत के विभिन्न प्रदेशोंकी मृदा एवं जलवायुविक
परिस्थितियों में उगने वाले कुछ खरपतवार/वनस्पतियों का संक्षिप्त विवरण विभिन्न भागों में प्रस्तुत किया गया
है। यहाँ पर भाग-6 दिया जा रहा है।
40.भृंगराज
(इकलिप्टा एल्बा) कुल एस्टेरेसी
|
भृंगराज का पौधा फोटो साभार गूगल |
इसे अंग्रेजी में फाल्स डेजी
तथा हिंदी में भृंगराज, भंगरैया, भंगरा
कहते है जो बीज से उगने वाला वर्षा एवं शीत ऋतु का एकवर्षीय खरपतवार है। इसके पौधे
सम्पूर्ण भारत में नम स्थानों, तालाब के किनारे, बंजर भूमि, उपजाऊ जमीनों में
पनपते है. भृंगराज के पौधों में एक विशेष
प्रकार की गंध होती है। इसके सम्पूर्ण पौधे में घने रोयें होते है. इसकी पत्तियां
पर्णवृंत रहित नुकीली एवं रोयेंदार होती है। इसकी पत्तियों को मसलने से हरा रस
निकलता है जो शीघ्र ही काला हो जाता है। पत्तियों के अक्ष से छोटे,चक्राकार सफ़ेद
रंग के पुष्प निकलते है। इसके पौधों में अक्टूबर से दिसंबर तक पुष्पन एवं फलन होता
है। इस पौधे के सभी भागों का औषधीय रूप में प्रयोग किया जाता है। भृंगराज अल्सर, कैंसर, चर्म रोग, पीलिया, यकृत विकार
दांत एवं सिर दर्द में बहुत उपयोगी औषधिमानी जाती है। इसके पौधे का रस बलवर्धक टॉनिक
होता है। यकृत वृद्धि, पुराने चर्म रोग,अतिसार, अपच, पीलिया दृष्टिहीनता,
दृष्टिहीनता, बुखार आदि रोगों में इसका
काढ़ा लेने से आराम मिलता है। हंसिया आदि
से कटने पर किसान इसकी पत्तियों के रस को लगाते है.खांसी, सिर दर्द, बढे हुए रक्त चाप, दांत दर्द में
इसका अर्क शहद के साथ लेने से लाभ होता है। इसके पौधे का रस पीलिया रोग में बहुत कारगर होता है। इसके लिए 50 ग्राम पौधे को 100 मिली पानी में पीसकर छान कर 4-5 दिन पीने से पीलिया रोग समाप्त हो जाता है। सिर में गंजापन तथा जोड़ों की
सूजन होने पर तिल के तेल के साथ इसका प्रलेप लगाने से फायदा होता है। पौधों को कुचल कर त्वचा के रोगों यानि प्रभावित हिस्सों एवं फटी एड़ियों पर लगाने से आराम मिलता है। बालों को
काला करने, बालों के झड़ने की समस्या को दूर करने में भृंगराज बहुत कारगर है। भृंगराज की ताजा पत्तियों को कुचलकर लेप तैयार कर उसमे दही मिलाकर सिर पर 15-20 मिनट तक लगाकर रखने से बालों के झड़ने की समस्या से निजाद मिलती है।
इसके शाक से निर्मित तेल का हेयर ड़ाई के रूप में तथा मस्तिष्क को ठंडा रखने में
प्रयोग किया जाता है।पहले ग्रामीण क्षेत्रों के विद्यालयों में ब्लैक बोर्ड को काला करने के लिए भृंगराज का इस्तेमाल किया जाता था।
41.मकोई (सोलेनम
नाइग्रम), कुल- सोलेनेसी
|
मकोई पौधा फोटो साभार गूगल |
इसे अंग्रेजी में ब्लैक नाइट
शेड तथा हिंदी में मकोई एवं काकमाची के नाम से जाना जाता है. यह वर्षा ऋतु का एक
वर्षीय खरपतवार है जो सम्पूर्ण भारत में खरीफ फसलों के साथ-साथ बंजर नम भूमियों,
बाग़-बगीचों एवं सड़क किनारे बीज से उगता
है। इसका पौधा तथा टहनियां काफी नाजुक होती है। इसका पुष्पक्रम सीधा तथा
पार्श्वशाखाओं एवं पत्तियों के अक्ष से निकलकर नीचे की ओर छत्रक की भांति लटकता
है। इसके ऊपरी छोर पर छोटे-सफ़ेद फूल गुच्छों में लम्बे पुष्प वृंत पर लगते है।
इसके फल गोल मटर के दानों के आकार के हल्के हरे तथा बाद में गहरे हरे-काले दिखते
है जो पकने पर काले रंग के रसीले हो जाते है मकोई के फल स्वाद ने हल्के मीठे होते है। इसका पौधा टॉनिक,
मूत्रवर्धक, कफनाशक,कब्जनाशक एवं दर्द नाशक के रूप में उपयोगी होता है. पीलिया,
बुखार,यकृत विकार, बवासीर, पेचिस, खांसी
आदि में पौधों का काढ़ा लाभकारी
होता है। चर्म रोग, अल्सर एवं सोरिआसिस में नए प्ररोहों का शत लगाना लाभकारी होता
है। मकोई के फल एवं बीज बलवर्धक, क्षुदा वर्धक,मूत्र वर्धक, ज्वर नाशक एवं दस्तावर
होते है। इन्हें खाने से भूख बढती है एवं
प्यास कम लगती है. फलों का अर्क बुखार,अस्थमा,चर्म रोग एवं मूत्र विकारों
में लाभकारी है। इसके कच्चे फलों को मसलकर लगाने से दाद खाज खुजली में आराम मिलता है।
42.मण्डूकपर्णी (सेन्टेला एसियाटिका), कुल- एपियेसी
|
मंडूकपर्णी पौधा फोटो साभार गूगल |
इसे इंडियन पेनिवर्ट तथा हिंदी
में मण्डूकपर्णी कहते है। यह ब्राह्मी से मिलता जुलता शाक है जो छायादार एवं नम स्थानों, दलदली भूमियों, धान के खेतों एवं
सिंचाई नालियों में वर्ष भर उगता है। यह वनस्पति ब्रह्मी की भांति भू-स्तारी तनों
से वृद्धि करती है। इसकी पत्तियां गोल सूपाकार होती है। इसकी अन्य प्रजाति
हाईड्रोकोटाइल एसियाटिका (ब्रहमण्डूकी) भी पाई जाती है। इसके मुलायम तने की
प्रत्येक गाँठ से बारीक़ जड़े निकलती है। इसकी पत्तियों को सूघने से तीव्र गंध आती
है। ग्रीष्मकाल में इसमें नीले श्वेत या हल्के गुलाबी पुष्प गुच्छे में लगते है।
मंडूकपर्णी का सम्पूर्ण पौधा औषधि महत्त्व का होता है, जो शक्ति वर्धक, पुनर्नवीकारक, रक्तशोधक, मूत्र
वर्धक एवं शांतिकारक होता है। यह तंत्रिका एवं रक्त विकारों, बवासीर, गठियावात में
लाभदायक होता है। पुराना जुकाम, गर्मी, रक्तविकार, कुष्ठ रोग एवं अन्य चर्म रोगों
में पूरे पौधों का काढ़ा लाभकारी पाया गया है.इसकी ताज़ी जड़ एवं पत्तियों का प्रलेप
फोड़ें-फुंसी,खाज, मस्सा, हांथीपांव, लेप्रोसी, एवं तंत्रिका विकार में लाभदायक
माना जाता है। अल्सर,त्वचा में खरोंच, कुष्ठ धब्बे होने पर सूखे पौधे का प्रलेप लगाने
से लाभ होता है। शरीर का रंग साफ़ करने में, स्मरण शक्ति बढ़ाने एवं लम्बी आयु के
लिए मंडूकपर्णी का चूर्ण दूध के साथ लेने से लाभ होता है। मण्डूकी के पौधों का
काढ़ा मूत्र वर्धक एवं टॉनिक होता है। यह
अतिसार और पेचिस में लाभकारी होता है। ग्रामीण क्षेत्रों में इसकी पत्तियों को साग
के रूप में खाया जाता है।
43.महकुआ
(अजरेटम कोनीजॉइड्स), कुल-एस्टेरेसी
|
मह्कुआ फोटो साभार गूगल |
इसे अंग्रेजी में गोटवीड तथा
हिंदी में मह्कुआ,सरहन्द और अजगंध के नाम से जाना जाता है जो
सीधे बढ़ने वाला वार्षिक झाड़ीनुमा पौधा है। यह पौधा खरीफ फसलों के साथ, खाली पड़ी बंजर भूमियों, सड़क एवं रेल पथ के किनारों
विशेषकर शुष्क क्षेत्रों में बीज से पनपता है। इसकी शाखाओं में छोटे एवं मुलायम
रोयें पाए जाते है। इसके पौधों में
अगस्त से मार्च तक हल्के नीले या सफ़ेद रंग के पुष्प बनते है। मह्कुआ के पौधे एवं फूलों में तीक्ष्ण दुर्गन्ध होती है। मह्कुआ की जड़ों, पत्तियों, फूल एवं बीज में
औषधीय गुण पाए जाते है. इसकी पत्तियों एवं टहनियों का गर्म प्रलेप खाज-खुजली,
खुष्ठ रोग एवं अन्य चर्म रोगों में लाभदायक होता है। खरोंच एवं घाव होने पर
पत्तियों का लेप लगाने से खून बहना रुकता
है एवं घाव शीघ्र भरता है। इसके पौधे का काढ़ा अतिसार एवं उदरशूल में उपयोगी होता
है। इसके अर्क का उपयोग मूत्राशय एवं किडनी आदि की पथरी रोग में उपयोगी है। आदवासी एवं वनवासी इस पौधे से अनेक रोगों जैसे सफेद
दाग, शरीर में सुजन, बवासीर, मूत्र विकार, चर्म रोग एवं सर्पदंश के उपचार में करते
है।
44.मुर्गकेश (सिलोसिया अर्जेन्सिया), कुल-
अमरेंथेसी
|
मुर्गकेश फोटो साभार गूगल |
इसे कॉक्स काम्ब तथा हिंदी में
मुर्गकेश,सरवारी और शिलमिली के नाम से जाना जाता है जो एकवर्षीय खरीफ ऋतु का खरपतवार है। यह ज्वार,
बाजरा,मक्का, तिल, मूंगफली आदि फसलों के साथ तथा खाली पड़ी भूमियों में उगता है।
इसका पौधा सीधा, चिकना एवं लालिमा लिए हुए होता है। इसके तने एवं शाखाओं के
सीमाक्ष से गुलाबी-सफ़ेद पुष्प आते है जिनमे काले-भूरे रंग के छोटे-छोटे असंख्य बीज
बनते है। इसके फूल पौष्टिक होते है एवं अतिसार में फायदेमंद होते है। इसके बीज का
काढ़ा अतिसार एवं रक्तविकार में उपयोगी होता है। मुंह में छाले होने पर इसके काढ़ा
सेवन से आराम मिलता है। छत्तीसगढ़ में इसके मुलायम पत्तियों एवं कोमल टहनियों से भाजी तैयार कर चाव से खाई जाती है ।
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मुश्कदाना पौधा फोटो साभार गूगल |
45.मुश्कदाना
(एविलमास्कस मास्केट्स), कुल-मालवेसी
मुश्कदाना को अंग्रेजी में मुश्क
मेलो तथा हिंदी में मुश्क दाना एवं कस्तूरी भिन्डी के नाम सी जाना जाता है। मुश्क
दाना का पौधा एक वर्षीय/बहुवर्षीय क्षुप
है जो बंजर भूमि, बाग़-बगीचों तथा कभी कभी
फसलो के साथ वर्षा ऋतु में उगता है। इसके पौधे भिन्डी के पौधे जैसे दिखते है। पौधों में पुष्पन एवं फलन अक्टूबर-नवम्बर से फरवरी तक होता रहता है। इसके पुष्प पीले तथा मध्य में
बैगनी-लाल रंग के होते है जो एकल पुष्पक्रम में लगते है। इसके फल भिन्डी के समान
परन्तु कम लम्बे एवं मोटे होते है। फल कैप्सूल होता है जो पकने पर स्वतः फट जाता है और दाने जमीन में बिखर जाते है। इसके दानों (बीज) में सुगन्धित तेल पाया जाता है
जिसकी सुगंध कस्तूरी मृग की नाभि में पाए जाने वाली कस्तूरी की सुगंध से मिलती
जुलती है। इसके सम्पूर्ण पौधे एवं बीज में औषधीय गुण पाए जाते है. मुश्कदाना के
बीज के छिलके में बहुमूल्य उड़नशील तेल पाया जाता है जिसका उपयोग बहुत से खाने वाले
पदार्थो (पान मशाले, बेकरी, आइसक्रीम, पेय पदार्थ आदि) को सुगन्धित बनाने में किये
जाता है। औषधि की रूप में यह ह्रदय रोग के लिए कारगर माना जाता है। इसके बीज
उत्तेजक, उदर शूल नाशक, शक्ति वर्धक, टॉनिक, कफ वात नाशक, प्यास को शांत करने वाला
होता है। बीजों का प्रयोग आंत्र की गड़बड़ी,मूत्र विसर्जन तंत्रिका तंत्र एवं चर्म
रोगों के उपचार में किया जाता है। बीज का काढ़ा गठिया वात, बुखार, सर्पदंश एवं दमा रोग में लाभदायक माना गया है। मुश्कदाना
की जड़ों का चूर्ण सूजन कम करने के लिए पुल्टिस के रूप में प्रयोग करते है।
मुश्कदाना के पौधों को कुचलकर गुड़ बनाते समय उसे साफ़ करने के लिए इस्तेमाल किया
जाता है।
46.मोथा
(सायप्रस रोटन्डस)
इसे परपल नटसेज या नट ग्रास
तथा हिंदी में मौथा कहते है। यह वर्ष भर उगने वाला विश्व का सबसे खतरनाक खरपतवार
है जो सर्वत्र उगता है । मोथा की पत्तियां चिकनी, चमकीली तथा सीढ़ी धारवाली होती है। इसके तने के आधार के
नीचे गोलाकार या अंडाकार भूमिगत सुगन्धित प्रकन्द पाए जाते है। इसके प्रकन्दों का औषधि के रूप में इस्तेमाल
किया जाता है जो कि तीक्ष्ण, सुगन्धित, मूत्रवर्धक, उदर दर्दहरी, कृमि नाशक, पेट
साफ़ करने तथा घाव ठीक करने में लाभकारी होते है। भूख की कमीं, अपच, अतिसार, एवं
ज्वर होने पर इसका काढ़ा दूध के साथ लेने पर लाभकारी होता है. इसकी जड़ का चूर्ण या
अर्क शहद के साथ लेने पर हैजा, बुखार, उदर रोग एवं आंत्र विकारों में लाभ होता है।
47.लाजवंती (मिमोसा
प्यूडिका), कुल- फैबेसी
इसे अंग्रेजी में टच-मी-नॉट
एवं सेंसिटिव प्लांट तथा हिंदी में लाजवंती, छुई-मुई के नाम से जाना जाता है। यह
बीज से उगने वाला बहुवर्षीय शाकीय खरपतवार है जो खेतों की मेंड़ों, सड़क एवं रेल पथ
के किनारे एवं बंजर भूमियों में फैलकर तेजी से पनपता है। इसके तने और शाखाओं में मजबूत एवं तेज कांटे
पाए जाते है। इसकी पत्तियां रात में ऊपर की ओर सिकुड़कर एक दुसरे से चिपक जाती है
और सुबह होते ही यथावत खुल जाती है। खुली हुई पत्तियों को छूने या छेड़ने से इसके
पत्रक सिकुड़कर आपस में चिपक जाते है.पत्तियों के अक्ष से गुलाबी रंग के गोल
रोयेदार पुष्प निकलते है. इसकी फलियाँ रोयेंदार एवं चपटी एवं गुच्छे में बनती है
जो पकने पर काली हो जाती है। इसके पूरे पौधे में औषधीय गुण मौजूद होते है। इसकी
पत्तियों एवं टहनियों का काढ़ा मूत्राशय की पथरी, वृक्क विकार, बवासीर एवं पेचिस
में उपयोगी है. ग्रंथिशूल एवं हाइड्रोसिल
में पौधे का अर्क का प्रलेप लगाने से लाभ मिलता है.पेट में भारीपन, बदहजमी, दमा
एवं कंठपीड़ा में पौधे का चूर्ण शहद के साथ सेवन करने से आराम मिलता है। इसकी
पत्तियों एवं फूलों की लेई बनाकर शरीर पर मलने से त्वचा मुलायम एवं कांतिमय होती
है। अधिक मात्रा में इसका सेवन करना हानिकारक होता है।
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शंखपुष्पी फोटो साभार गूगल |
48.शंखपुष्पी
(इवाल्युलस अल्सीनोइडस), कुल-कानवाल्वुलेसी
इसे अंग्रेजी में लिटल ग्लोरी, हिंदी में शंखपुष्पी एवं शंखाहुली तथा संस्कृत में श्यामक्रांत एवं विष्णुक्रांत के नाम से जाना जाता है। यह वर्षा ऋतु एवं शीत
ऋतु में खेतों, सडक एवं रेल पथ किनारों में उगने वाला एकवर्षीय/बहुवर्षीय शाकीय लतानुमा खरपतवार है। हिरनखुरी की भांति यह वनस्पति भी जमीन के
सहारे अथवा दूसरे पौधों से लिपटकर बढ़ती है। पुष्पों के हिसाब से शंखपुष्पी की तीन
प्रजातियाँ (श्वेत, लाल और नीलपुष्पी) होती है। औषधीय दृष्टिकोण से सफेद रंग की शंखपुष्पी को सर्वोत्तम माना जाता
है। इसमें शंखनुमा बड़े सफ़ेद रंग के सुन्दर पुष्प आते है। पुष्पन एवं फलन जुलाई से
नवम्बर तक होता है। इसके पुष्प प्रातः खिलते है तथा दोपहर में बंद हो जाते है। आयुर्वेद में शंखपुष्पी का महत्वपूर्ण स्थान है। इसके सम्पूर्ण पौधे में औषधीय गुण पाए जाते है। इसका पौधा
कटु, पौष्टिक, बलवर्धक, पाचक,ज्वर नाशक, कृमि नाशक होता है। शंखपुष्पी के क्षाराभ
(एल्केलाइड) में मानसिक उत्तेज़ना शामक अति महत्वपूर्ण गुण विद्यमान है। उच्च रक्तचाप, मानसिक तनाव, मिरगी और अनिद्रा जैसे रोगों में शंखपुष्पी बहुत कारगर औषधि है। इसका चूर्ण दिमागी ताकत और स्मरण
शक्ति बढ़ाने में अत्यंत गुणकारी पाया गया है। रक्त के शुद्धिकरण, आँख की बिमारियों एवं मधुमेह रोग में भी यह गुणकारी औषधि है। बढ़ते हुए बच्चों में दिमाग के विकास एवं याददास्त बढ़ाने में यह काफी कारगर है। उदर कृमि, पुरानी पेचिस, शारीरिक कमजोरी
एवं बुखार में पौधे का काढ़ा लाभदायक होता है। इसकी पत्तियों को सिगरेट की भांति
पीने से ब्रोंकाइटिस तथा अस्थमा में लाभ मिलता है। शरीर में गर्मी बढ़ने से इसकी
ताज़ी पत्तियों को पीसकर पीने से आराम मिलता है। हड्डी टूटने पर इस पौधे के रस में
मिश्री मिलाकर सेवन करने से आराम मिलता है। पत्तियों के रस को केश तेल में मिलाकर
सिर में लगाने से बालों का विकास अच्छा होता है।
49.सत्यानाशी
(अर्जीमोन मेक्सिकाना), कुल-पपवरेसी
|
सत्यानाशी पौधा फोटो बालाजी फार्म, अहिवारा,सी.जी. |
इसे अंग्रेजी में प्रिकली
पॉपी, मैक्सिकन पॉपी, संस्कृत में स्वर्णक्षीरी, कटुपर्णी तथा हिंदी में सत्यानाशी, कटेली, भड़भांड़ एवं पीलाधतुरा के नाम से जाना जाता है। यह शीत ऋतु की फसलों
का प्रमुख एक वर्षीय खरपतवार है। शुष्क क्षेत्रों की उपजाऊ भूमियों, बंजर जमीनों के अलावा बाग़-बगीचों,सड़क एवं रेल
पथ के किनारे भी यह पौधा उगता है। इसमें डंठल रहित हल्की नीली पत्तियां तने से चिपकती हुई बाहर की ओर बढती
है। पत्तियों के किनारे पर असमान कटाव एवं नुकीले कांटे पाए जाते है। इसके पौधे को
तोड़ने पर पीले रंग का द्रव्य निकलता है, इसलिए इसे स्वर्णक्षीरी कहा जाता है। पोधों में पीले रंग के पुष्प शाखाओं के
सीमाक्ष पर निकलते है। पौधों में पुष्पन
एवं फलन जनवरी से जून तक होता है। इसके बीज सरसों के बीज जैसे काले-भूरे या पीले
रंग के होते है। सत्यानाशी में बरबेरिन
तथा प्रोटोपाइन नामक क्षाराभ पाया जाता है। इसका तेल जहरीला होता है। सत्यानाशी कफ-पित्त नाशक,दस्तावर, कड़वी, कृमि, खुजली,अफरा आदि रोगों के लिए उपयोगी है। इसके पौधे का
पीला अर्क मूत्रवर्धक तथा पुनर्नवीकरण गुण वाला माना जाता है जो चर्म रोग एवं
सुजाक में उपयोगी होता है। अल्सर, वात दर्द और घमोरी में इसका प्रलेप लाभकारी होता
है। इसका काढ़ा मूत्र रोग, पथरी रोग एवं चर्म रोग में फायदेमंद होता है। कफ, खांसी,
अस्थमा एवं फेफड़ों से सम्बंधित समस्याओं में नियंत्रित मात्रा में बीज का चूर्ण
लेने से आराम मिलता है। के तेल अथवा सरसों के तेल में इसकी मिलावट वाले तेल के सेवन से ड्रापसी रोग हो जाता है। सत्यानाशी के पौधे (पंचांग) से 'स्वर्णक्षीरी तेल' बनाया जाता है जो सभी प्रकार के घावों में लगाने से घाव भर जाता है। इसके तेल
के प्रलेप से खुजली एवं अन्य चर्म रोगों में लाभ मिलता है।
50.हिरनखुरी
(कान्वाल्वुलस अर्वेन्सिस)
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हिरनखुरी फोटो साभार गूगल |
इसे अंग्रेजी में फील्ड विंड वीड तथा हिंदी में
हिरनखुरी कहते है। यह वर्ष भर बढ़ने वाली बहुवर्षीय लता है जो शीत ऋतु की फसलों एवं अन्य
पौधों से लिपटकर अथवा भूमि में रेंगकर बढती है। इसकी पत्तियां हिरन के खुर जैसी
दिखती है। पत्तियों के अक्ष में लम्बे एवं पतले पुष्पवृंत युक्त कीप के अकार के
गुलाबी पुष्प लगते है। इसकी अन्य प्रजाति में सफ़ेद पुष्प लगते है। इसकी फली में छोटे-छोटे काले-भूरे रंग के अनेक बीज बनते है।
इसकी जड़ का चूर्ण या काढ़ा विरेचक एवं वातानुलोमक होने पर लाभप्रद होता है। जलोदर
एवं मलबंधता होने पर जड़ का उपयोग किया जाता है। खुश्क त्वचा पर पत्तियों का प्रलेप
लगाने से लाभ होता है।
नोट : सभी आलेखों में वर्णित उपयोगी वनस्पति/खरपतवारों के महत्त्व को दर्शाने के लिए हमने इनसे विभिन्न रोगों के उपचार सम्बंधित जानकारी ग्रामीण क्षेत्रों के बैध/बैगा/विसरादों से विमर्ष करके एवं आयुर्वेदिक पत्र-पत्रिकाओं का अध्ययन करके संकलित कर जन जागरूकता के उद्देश्य से प्रेषित की है। कृपया अपने चिकित्सक के परामर्श के बिना किसी भी वनस्पति का उपयोग रोग निवारण हेतु न करें। अन्य उपयोगी वनस्पतियों के बारे में उपयोगी जानकारी के लिए हमारा अगला ब्लॉग देख सकते है।
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