डाॅ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्राध्यापक, सस्य विज्ञान विभाग
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषक नगर, रायपुर (छत्तीसगढ़)
भारत की निरंतर बढ़ती हुई आबादी के लिए भोजन की आवश्यकता की पूर्ति के लिए कृषि उत्पादन बढाना और उसे टिकाऊ बनाये रखना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य हो गया है। वर्ष 2020 तक हमारे देश की जनसंख्या 1.2 अरब तक पहुँचने का अनुमान है जिसके भरण पोषण के लिए 280 मिलियन टन खाधान्न की आवश्यकता होगी। जबकि हमारा खाद्यान्न उत्पादन बीते कुछ वर्षो से 210 से 224 मिलियन टन के इर्द गिर्द हो पा रहा है। वर्ष 2020 में प्रति व्यक्ति भूमि की उपलब्धता मात्र 0.11 हेक्टेयर रहने का अनुमान है । जाहिर है कि फसलोत्पादन बढ़ाने के लिए कृषि योग्य भूमि में वृद्धि करना लगभग असंभव है। अब प्रति इकाई क्षेत्रफल से अधिक से अधिक पैदावार प्राप्त करने के अलावा हमारे पास अन्य कोई विकल्प शेष नहीं है। कृषि उत्पादन बढ़ाने में सिंचाई के बाद उर्वरक एक महत्वपूर्ण आदान है। भारत में ही नही अपितु सम्पूर्ण विश्व में फसलोत्पादन में 50 प्रतिशत बढ़ोत्तरी केवल रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से हुई है। हरित क्रांति की सफलता के फलस्वरूप भारत खाद्यान्न उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भर हो गया था, परन्तु अनेक क्षेत्रों में बीते कुछ वर्षों से खाद्यान्न उत्पादन में एक ठहराव सा आता जा रहा है। दरअसल, हरित क्रान्ति के समय हमारी मृदाएँ प्राकृतिक पोषक तत्वों से परिपूर्ण थी। फलस्वरूप खाद्यान उत्पादन में आशातीत सफलता मिली, परन्तु कृषि वैज्ञानिकों का मुख्य उद्देश्य उत्पादकता बढ़ाने के कारण मृदाओं के उर्वरा स्तर में निरन्तर कमी होती गयी। परिणाम स्वरूप पिछले दशक से अनुभव किया जा रहा है कि मुख्य फसलों के औसत उत्पादन में ठहराव की स्थिति आ गयी है। मृदा अकार्वनिक कणों, सड़े हुए कार्वनिक पदार्थो, वायु एवं जल का एक मिश्रण होती है। मृदा के भौतिक गुण, मृदा के उपयोग तथा पादप वृद्धि के प्रति इसके व्यवहार को प्रभावित करते हैं। ये गुण पौधों की जड़ों को मृदा में प्रवेश कराने, जल निकास एवं नमी धारण आदि में सहायक होते हैं। पादप पोषकों की प्राप्यता भी मृदा की भौतिक दशाओं से सम्बन्धित होती है लेकिन पिछले दशक में मृदा की भौतिक, रासायनिक एवं जैविक क्रियाओं में तीव्र गिरावट हुई है।
भारत की मृदाओं का बिगड़ता स्वास्थ्य
भूमि की उर्वरता किसी भी राष्ट्र के लिए बहुत महत्व रखती है किसी भी देश की सभ्यता का अंदाजा वहां की मृदा गुणवत्ता से आसानी से लगाया जा सकता है। अधिक अन्न उपजाओ की प्रतिस्पर्धा में रासायनिक उर्वरकों के अन्धाधुंध इस्तेमाल एवं जैविक खादों की सतत उपेक्षा के कारण देश की मृदाओं में जीवांश कार्बन का स्तर मात्र 0.17 ही रह गया है जिसके फलस्वरूप मृदा स्वास्थ्य (भौतिक, रासायनिक तथा जैविक गुणों) जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति एवं उत्पादन क्षमता में ठहराव तथा अनेक क्षेत्रों में उत्पादकता में गिरावट देखी जा रही है। निरंतर सघन खेती अपनाने, उर्वरकों के असंतुलित उपयोग के साथ-साथ जैविक खाद के कम इस्तेमाल के चलते देश के अनेक क्षेत्रों की मिट्टियों में अनेक पोषक तत्वों की खासी कमी देखने को मिल रही है। देश के ज्यादातर क्षेत्रों में मिट्टी की सेहत और उसकी उर्वरता में तेजी से गिरावट आ रही है। भारत की करीब 90 फीसदी मिट्टी में अब नाइट्रोजन की कमी है जबकि 80 फीसदी में फॉस्फोरस और 50 फीसदी में पोटेशियम की कमी है। अन्य पोषक तत्वों में सल्फर, जिंक, मैंगनीज, बोरोन की कमी काफी चिंताजनक है।यहीं नहीं धान-गेंहू फसल चक्र वाले क्षेत्रों में फसल को जितनी मात्रा में मुख्य पोषक तत्व यानी नत्रजन, स्फुर व पोटाश उर्वरक के रूप में प्रयोग किये जाते है उससे अधिक मात्रा में फसल इन तत्वों को भूमि से ग्रहण कर लेती है जिससे भूमि में इन तत्वों की बेहद कमी होती जा रही है। परिणामस्वरूप इनकी उर्वरता एवं उत्पादकता दिनो दिन नष्ट होती जा रही है। वर्तमान में बिगड़ते मृदा स्वास्थ्य गंभीर चिंता का विषय है जिसके चलते देश में कृषि संसाधनों का अधिकतम उपयोग नहीं हो पा रहा है।
मृदा स्वास्थ्य में कमी के कारण
- मृदा में लगातार खेती होने एवं फसलों की आवश्यकतानुसार संस्तुति अनुसार खाद उर्वरको का प्रयोग न किया जाना।
- जैविक खाद के अभाव के कारण मृदा में जैविक कार्बन का लगातार घटता स्तर ।
- उर्वरकों का उचित समय एवं सही विधि से प्रयोग न करने से उर्वरक उपयोग दक्षता कम होना।
- वर्षा व वायु से मृदा क्षरण के कारण पोषक तत्वों का धीरे-धीरे ह्रास होना।
- फसलों में उर्वरकों का असंतुलित प्रयोग।
- सघन खेती के प्रचलन से खेतों में एक साथ कई पोषक तत्वों की कमी होना।
- मृदा मे गौण एवं सूक्ष्म पोषक तत्वों का प्रयोग न होना।
फसल के लिए आवश्यक पोषक तत्व
पौधों के स्वस्थ विकास एवं संतुलित पोषण के लिए प्रमुख रूप से 17 तत्वों की आवश्यकता होती है जिनमें से कार्बन, हाइड्रोजन एवं आॅक्सीजन पौधे वायु एवं जल से ग्रहण करते हैं, शेष 14 तत्वों को पौधे मृदा से ग्रहण करते हैं। इनमें नाइट्रोजन, फॉस्फोरस एवं पोटाश प्रमुख तत्व हैं। पौधों की वृद्धि एवं विकास के लिए इन तत्वों की अधिक मात्रा में आवश्यकता होती है । कैल्शियम, मैग्नीशियम एवं सल्फर द्वितीयक यानी गौण पोषक तत्व हैं। प्रमुख पोषक तत्वों की अपेक्षा इन तत्वों की कम मात्रा में आवश्यकता होती है। आयरन, मैंगनीज, काॅपर, जिंक, बोराॅन, मोलिब्डिनम, क्लोरीन तथा निकल सूक्ष्म पोषक तत्व हैं जिनकी पौधों को अत्यंन्त कम मात्रा में आवश्यकता होती है । परन्तु फसल उत्पादन क्षमता को प्रमुख तत्वों के साथ-साथ सूक्षणे तत्व भी उतना ही प्रभावित करते हैं। यदि मिट्टी से पोषक तत्व निकलते रहें और उनकी आपूर्ति न की जाए तो मिट्टी की उर्वरता का ह्रास अवश्यम्भावी है। मृदा की उर्वरता को उसमें उपस्थित पोषक तत्वों की मात्रा तथा उसके भौतिक, रासायनिक तथा उसके जैविक गुण प्रभावित करते है। यदि किसी पोषक तत्व की मृदा में कमी हो जाती है तो उस पर उगने वाले पौधों का जीवन-चक्र पूरा नहीं हो पाता है। यही नहीं पौधे पोषक तत्वों की न्यूनता तथा अधिकता दोनों से प्रभावित होते है जिससे उनकी उत्पादकता घट जाती है।
अन्तराष्ट्रीय मृदा स्वास्थ्य वर्ष-2015
कृषि भूमियों के गिरते स्वास्थ्य की समस्या से भारत ही नहीं पूरा विश्व जूझ रहा है। अमूमन विश्व के सभी देशों की कृषि भूमियों में पोषक तत्वों की कम उपलब्धता की वजह तथा प्रति इकाई अधिकतम उत्पादन प्राप्त करने की प्रतिस्पर्धा में रासायनिक उर्वरकों का बेझा इस्तेमाल किया जा रहा है जिससे भूमि में पोषक तत्वों का न केवल संतुलन बिगड़ा है वरन पर्यावरण क¨ भी खासा नुकसान पहुँच रहा हैं। भौतिक, रासायनिक एवं जैविक गुणों के लिहाज से बीमार मृदाओं की उत्पादन क्षमता में तेजी से गिरावट आ रही है जिसके कारण जनसंख्या के भरण पोषण के लिए आवश्यक अनाज पैदा करना जटिल समस्या बनती जा रही है। इसी तारतम्य में संयुक्त राष्ट्र संगठन द्वारा वर्ष 2015 को अन्तराष्ट्रीय मृदा स्वास्थ्य वर्ष घोषित किया गया है जिसमें मृदा के गिरते स्वास्थ्य पर सभी देशों में जन-जागृति एवं मृदा की उर्वरता एवं उत्पादन क्षमता बढ़ाने कारगर कदम उठाने का संकल्प लिया गया है।
मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजनाः ईमानदार कोशिश आवश्यक
मृदा स्वास्थ्य के समुचित ज्ञान के अभाव में फसलों की पोषक तत्वीय आवश्यकता के अनुरूप खाद-उर्वरकों का इस्तेमाल न होने के कारण मृदा उर्वरता एवं फसल उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। अगर हमें अपनी भावी पीढ़ी के भविष्य को सुरक्षित करना है तो भूमि के स्वास्थ्य को सुधारने ओर विवेकपूर्ण ढ़ग से उर्वरकों के इस्तेमाल पर किसानों को शिक्षित करना होगा । हमें किसानों को रासायनिक उर्वरकों के साथ साथ जैव उर्वरकों के प्रयोग को बढ़ावा देने हेतु प्रेरित करना होगा । इसी सोच के चलते प्रधानमंत्री ने 19 फरवरी 2015 को राजस्थान के श्रीगंगानगर जिले के सूरतगढ़ में राष्ट्रव्यापी ‘राष्ट्रीय मृदा सेहत कार्ड’ यानि सॉयल हेल्थ कार्ड योजना का शुभारंभ किया है। प्रधानमंत्री का कहना है कि वंदे मातरम राष्ट्र गान की सुजलाम-सुफलाम भूमि बनाने का सपना पूरा करने के लिए मिट्टी का नियमित परीक्षण और उसका संतुलित पोषण जरूरी है । सॉयल हेल्थ कार्ड इसी सपने को पूरा करने की दिशा में एक कदम है। इस योजना का मुख्य उद्देश्य देश भर के किसानों को सॉयल हेल्थ कार्ड दिये जाने के लिये राज्यों को सहयोग देना है। इस योजना के तहत केंद्र सरकार ने अगले तीन वर्षों के दौरान देश भर में लगभग 14.5 करोड़ किसानों को राष्ट्रीय मृदा सेहत कार्ड उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा है। यही नहीं तीन साल बाद मृदा सेहत कार्ड का नवीकरण भी किया जायेगा, ताकि इस योजना के तहत किसानों को मिलने वाले तरह-तरह के फायदों का सिलसिला आगे भी जारी बना रहे।इस महत्वाकांक्षी योजना का मूल प्रयोजन है-स्वस्थ धरा, खेत हरा। कृषि भूमि की सेहत और खाद एवं उर्वरकों के बारे में पर्याप्त जानकारी न होने के चलते किसान आम तौर पर नाइट्रोजन का अत्यधिक प्रयोग करते हैं, जो न सिर्फ कृषि उत्पादों की गुणवत्ता के लिए खतरनाक है बल्कि इससे भूमिगत जल में नाइट्रेट की मात्रा भी बढ़ जाती है। इससे पर्यावरणीय समस्याएं भी पैदा होती हैं। किसान जब संतुलित मात्रा में खाद डालने लगेंगे, तो उनके खेतों की मिट्टी खराब नहीं होगी, फसलों की पैदावार में पर्याप्त इजाफा होगा, साथ ही किसानों की कमाई भी बढ़ेगी। इससे न केवल किसान, बल्कि आम जनता भी लाभान्वित होगी क्योंकि फसलों की ज्यादा पैदावार महंगाई को कम करने में भी सहायक होगी। इसलिए देश के समस्त किसान भाईयों को चाहिए कि वे इस महती योजना का लाभ उठाते हुए अपने प्रत्येक खेत की मिट्टी के परीक्षण आधारित मृदा सेहत कार्ड तैयार करवा कर अपनी खेती-किसानी को आर्थिक रूप से लाभकारी बनाने में अहम भूमिका निभाएँ।
क्या है मृदा सेहत कार्ड ?
मृदा सेहत पत्रक में मिट्टी की सेहत के विभिन्न संकेतकों यथा भूमि की क्षारीयता व लवणयता के गुणों के साथ साथ भूमि में कार्बनिक कार्बन का स्तर, उपलब्ध पोषक तत्वों (नत्रजन, स्फुर, पोटाश के अलावा अन्य गौण व सूक्ष्म पोषक तत्वों की मात्रा अंकित की जाती है जिसके आधार पर फसल के लिए आवश्यक उर्वरकों की मात्रा की सिफारिस की जाती है । इसके अलावा भूमि की भौतिक गुणों की भी जानकारी दी जाती है। भूमि की उर्वरा क्षमता बढ़ाने के आवश्यक उपाय भी सुझाये जाते है। आजकल उर्वरक तथा अन्य आदान मंहगे होते जा रहे हैं। अतः यह नितान्त आवश्यक हो जाता है कि किसान भाई मृदा की सेहत के आधार पर उन आवश्यक तत्वों की भूमि में पूर्ति करें जिनकी जरूरत है ताकि उचित लागत पर अधिक उपज ली जा सके । मृदा सेहत पत्रक से किसानों को अपनी भूमि की सेहत जानने तथा विभिन्न फसलों के अनुरूप उर्वरकों के विवेकपूर्ण चयन में मदद मिलती है।
मृदा सेहत कार्ड तैयार करने अर्थात मिट्टी परीक्षण की सुविधा राज्य कृषि विभाग की मृदा परीक्षण प्रयोगशालाओं, कृषि महाविद्यालयों एवं कृषि विज्ञान केन्द्रों पर उपलब्ध है। वैसे तो प्रत्येक मौसम में फसल की बुआई से पहले मिट्टी की जांच करवा लेनी चाहिए । परन्तु कम से कम तीन वर्ष में किसान को प्रत्येक खेत की मिट्टी का परीक्षण करवा कर मृदा सेहत कार्ड तैयार करवा लेना चाहिए।
मृदा सेहत कार्ड के लिए मिट्टी का नमूना
मिट्टी की जांच हेतु खेत से मिट्टी का नमूना लेने से पहले कुछ बातों का ध्यान रखना होता है। नमूना लेने से पूर्व खेत से नमूना लेने वाली जगह से खरपतवार, फसल अवशेष व कूडा-कचरा आदि हटा लें। मृदा नमूने की गहराई फसल के प्रकार, मृदा परीक्षण प्रयोगशाला की सलाह एवं कृषि पद्धतियों (ट्रेक्टर या हल से जुताई) पर निर्भर करती है। सामान्यतरू सही गहराई वह होती है जहां तक पौधों की जडों को अधिकांशतः पोषण प्राप्त होता है। जो कि फसलों के अनुसार अलग-अलग होती है। अनाज, सब्जी व फूलों की खेती के लिये नमूना 15 सेमी. की गहराई से लेना चाहिए। गहरी जड वाली फसलों के लिये नमूने की गहराई 30 सेमी तक होती है। नमूना लेने हेतु प्रत्येक खेत में 8 से 10 स्थानों का चयन करें । चयनित स्थानों पर पहले 15-20 सेन्टीमीटर की गहराई का “वी” आकार का गडढा बनायें । फिर गड्ढे की दीवार के साथ पूरी गहराई तक मिट्टी की 2.5 सेमी मोटी, एक समान परत काटकर साफ बाल्टी या तगाड़ी में एकत्रित कर लें तथा इससे जड़े और कंकड़ आदि निकाल कर अलग कर दें। खेत के विभिन्न भागों सेे इस प्रकार एकत्रित मिट्टी को छाया में सुखाने के पश्चात साफ कपड़े पर डालकर अच्छी तरह से मिला कर गोल ढेर नुमा बनाकर उसे चार बराबर भागों में बांट लेना चाहिए। फिर इन चार भागों में से आमने-सामने के दो भागों की मिट्टी रख लें । पुनः इन दोनों भागों की मिट्टी को मिलाकर चार भागों में बांट लें और आमने-सामने के दो भाग रख लें । यह क्रिया तब तक करते रहे जब तक नमूना आधा किलो न रह जाए । यह इसलिए किया जाता है ताकि लिया गया नमूना पूरे खेत का प्रतिनिधित्व करने वाला हो । इसके बाद इसे कपड़े की थैली में डालने से पहले छाया में अच्छी तरह से सुखा लें क्योंकि गीली मिट्टी का नमूना परीक्षण परिणामों को प्रभावित कर सकता है। ये सब करने के बाद कृषक संबंधी आवश्यक जानकारी की दो पर्चियां- एक थैली के अंदर डालें तथा दूसरी थैली के साथ बाहर बाधें जिसमें कृषक का नाम ,गांव, तहसील, खेत की पहचान या खेत का क्रमांक, खसरा नम्बर, सिंचाई का साधन तथा पूर्व में बोयी गई एवं प्रस्तावित फसल का नाम तथा दिनांक, का विवरण हो । प्रयोगशाला में मिट्टी की जांच के पश्चात मृदा स्वास्थ्य कार्ड में जिन घटकों का उल्लेख किया जाता है वह है मिट्टी का पी एच मान, विद्युत चालकता, जैविक कार्बन, उपलब्ध फाॅस्फोरस, उपलब्ध पोटाश के अलावा गौण व सूक्ष्म पोषक तत्वों की मात्रा अंकित की जाती है ।
खादीय सुझाव हेतु लिए गये मृदा न्यादर्श का प्रयोगशाला में विश्लेषण
तत्वों के नाम न्यूनतम मध्यम उच्चतम
जैविक कार्बन (%) 0.5 से कम 0.5 से 0.75 0.75 से अधिक
उपलब्ध नत्रजन (किग्रा/हे.) 280 से कम 280-560 560 से अधिक
उपलब्ध फासफोरस (किग्रा/हे) 10 से कम 10-24.6 24.6 से अधिक
उपलब्ध पोटाश (किग्रा/हे) 108 से कम 108 से 280 280से अधिक
उपलब्ध गंधक (मिग्रा/हे) 10.0 10.0-25.0 25.0 से अधिक
उपरोक्त तालिका के अतिरिक्त अगर मृदायें ऊसर हैं तो पीएच,ईसी तथा ईएसपी के आधार पर मृदाओं का वर्गीकरण किया जाता है। मिट्टी में जैविक पदार्थ (कार्बन) की मात्र के आधार पर जैविक खाद की सिफारिश की जाती है । जैविक खाद से मिट्टी की भौतिक संरचना व गठन बना रहता है। जैविक कार्बन के आधार पर उपलब्ध नत्रजन की गणना कर, नत्रजन उर्वरकों की सिफारिश की जाती है । नत्रजन का प्रयोग फसल में फसल में दो से तीन बार करना अच्छा होता है। इसी तरह भूमि में उपलब्ध फाॅस्फोरस का विश्लेषण कर फाॅस्फोरस उर्वरकों की सिफारिश की जाती है । फॉस्फोरस उर्वरक उपयोग पौधों की जड़ों की वृद्धि एवं फूल तथा बीजों के निर्माण के लिए आवश्यक होता है । फाॅस्फोरस युक्त उर्वरकों को पौधे के जड़ क्षेत्र के नीचे बुवाई के समय कतारों में प्रय¨ग करना चाहिए । आमतौर पर भारतीय मृदाओं में पोटाश तत्व की पर्याप्त उपलब्धता होती है परन्तु सतत सघन खेती के कारण आजकल मृदा में पोटाश की कमी भी देखने को मिल रही है । पोटाश का पौधों में पानी के उपयोग को नियंत्रित करने की क्षमता रखने के कारण, शुष्क खेती में पोटाश का विशेष महत्व है। यह पौधों को सूखा, गर्मी व सर्दी से बचाने व कीड़ों व बीमारियों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में भी मदद करता है । इसके अलावा नत्रजन, स्फुर के साथ पोटाश के प्रयोग से फलों एव उपज की गुणवत्ता एवं चमक बढ़ती है जिससे बाजार में उपज का बेहतर मूल्य प्राप्त ह¨ताहैं । रासायनिक उर्वरक की कितनी मात्रा दी जानी चाहिए यह उर्वरक में मौजूद पोषक तत्वों के प्रतिशत पर निर्भर करता है । मृदा स्वास्थ्य कार्ड में अंकित मिट्टी का पी एच मान मिट्टी की क्षारीयता व अम्लीयता को दर्शाता है । इसके आधार पर भूमि प्रबंध व सुधार की सिफारिश की जाती है । मृदा के पी एच मान से मिट्टी के स्वास्थ्य और पोषक तत्वों की उपलब्धता की जानकारी प्राप्त होती है । अगर पी एच मान 6 से 7.5 के मध्य है तो भूमि सामान्य प्रकृति की मानी जाती है अर्थात भूमि में अधिकांश पोषक तत्वों की उपलब्धता रहती है । अगर पी एच मान 6 से कम अथवा 7.5 से अधिक है तो पोंधों को पोषक तत्वों की उपलबधता कम या ज्यादा आंकी जाती है जिसका फसल पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है । मिट्टी का पी एच मान 8 से अधिक होने पर क्षारीयता की समस्या, कृषि उत्पादन को प्रभावित करती है । ऐसे खेतों में जांच आधारित जिप्सम डालने की सिफारिश की जाती है । मृदा जीर्णोद्धार के अंतर्गत गोबर की खाद, कम्पोस्ट, हरी खाद, जिप्सम उपयोग, जीवाणु खाद से बीजोपचार, सूक्ष्म तत्वों का प्रयोग इत्यादि पर ध्यान देना होगा ।
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