डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर
प्राध्यापक (सश्यविज्ञान)इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय,
कृषक नगर, रायपुर (छत्तीसगढ़)
चावल सघनीकरण पद्धति (एस .आर .आई .)
भारतीय
किसानो ने उन्नत किस्मों का चुनाव, खाद एंव उर्वारकों का प्रयोग तथा पौधे
सरंक्षण उपायों को अपनाकर धान की उपज बढ़ाने में सफलता हासिल की है परंतु
बीते कुछ वर्षो से धान की उत्पादकता में संतोषजनक वृद्धि नही हो पा रही
है।शोध संस्थानों तथा प्रदर्शन प्रक्षेत्रों पर 50-60 क्विंटल प्रति
हेक्टेयर धान की उपज प्राप्त की जा रही है। बढ़ती जनसंख्या और घटते संसाधन
को देखते हुए वर्तमान समय में संकर किस्मों को अपनाते हुए नई तकनीक से
खेती कर प्रति इकाई उत्पादन बढ़ाने के अलावा हमारे पास उपज बढ़ाने के और
कोई विकल्प शेष नहीं है। उपलब्ध संसाधनों के बेहतर प्रबंधन से, जिसमें
उर्वरक तथा जल उपयोग क्षमता बढ़ाना शमिल है, धान की उत्पादन लागत भी कम की
जा सकती है।
चावल सघनीकरण पद्धति क्या है ?
प्रति
इकाई क्षेत्र से कम-से-कम लागत में धान का अधिकतम उत्पादन प्राप्त करने
मेडागास्कर में फादर हेनरी डी लौलनी ने धान उत्पादन तकनीक विकसित की, जो
सघनीकरण पद्धति अर्थात् मेडागास्कर तकनीक के नाम से लोकप्रिय हो रही है।
भूमि, श्रम, पूँजी और पानी के समक्ष उपयोग से धान उत्पादन में अच्छी वृद्धि
की जा सकती हैं।श्री पद्धति में कम दूरी पर कम उम्र का पौधा रोपा जाता है
जिसमें उर्वरक एंव जल का न्यूनतम एंव सक्षम उपयोग करते हुए प्रति इकाई
अधिकतम उत्पादन लेने की रणनीति अपनाई जाती है। इस पद्धति में धान के पौधे
से अधिक कंशे निकलते हैं तथा दाने पुष्ट होते हैं। एशिया के विकासशील
देशोें यथा चीन, बंगलादेश, पाकिस्तान, श्रीलंका, आदि ने कापी समय से इस
पद्धति को अपना लिया है। भारत में भी अनेक स्थानों पर इस पद्धति से 7-10 टन
प्रति हेक्टेयर उत्पादन लिया जा चुका है। भारत के दक्षिणी राज्यों में
श्री पद्धति से धान उगाने का प्रचलन तेजी से बढ़ रहा है। इस तकनीक को
अपनाने से छत्तीसगढ़ में सिंचित अवस्था में धान की औसत उत्पादकता कम से कम
6-7 टन प्रति हेक्टेयर तक ली जा सकती है।
पौध रोपणी एंव खेत की तैयारी
संकर
अथवा अधिक कल्ले देने वाली उन्नत किस्मों का प्रयोग करें। रोपणी हेतु चुने
गये खेत की दो तीन बार जुताई कर मिट्टी भुरभूरी कर लें। एक मीटर
चौड़ी एंव आवश्यकतानुसार लंबी तथा 15-30 सेमी. ऊँची क्यारी बनायें। क्यारी
के दोनों ओर सिंचाई नाली बनाना आवश्यक है। एक हेक्टर क्षेत्र के लिए 100
वर्ग मीटर की रोपणी पर्याप्त है। क्यारी में 50 किलोग्राम कम्पोस्ट मिलाकर
समतल कर दें। प्रति हेक्टेयर 7-8 किग्रा. बीज का प्रयोग करें। उपचारित बीज
को (प्रति क्यारी 90-100 ग्राम बीज या 9-10 ग्राम प्रति वर्ग मीटर के हिसाब
से ) समान रूप से छिड़क कर पुनः कंपोस्ट या गोबर खाद से बीज ढँक दें।रोपणी
पर धान के पैरा की तह बिछाने से बीज सुरक्षित रहते है। क्यारियों में 1-2
दिन के अंतराल से फब्बारा से सिंचाई करें। बोने के 3 दिन बाद रोपणी में
बिछाई गई धान के पैरा की परत हटा दें।
चटाईयुक्त रोपणी :
इसमें अंकुरित बीज बोये जाते हैं। समतल स्थान पर प्लास्टिक शीट बिछायें।
इसके ऊपर 1 मीटर लम्बा, आधा मीटर चौड़ा तथा 4 सेमी गहरा लकड़ी का
फ्रेम रखें। इस फ्रेम में मिट्टी का मिश्रण (70 प्रतिशत मृदा, 20
प्रतिशत गोबर की सड़ी हुई खाद व 10 प्रतिशत धान की भूसी ) तथा 1.5 किग्रा
डायआमोनिसयम फास्फेट (डीएपी) मिलाकर भर दिया जाता है।बीज की निर्धारित
मात्रा को 24 घंटे पानी में भिगोकर रखने के बाद पानी निथार देते है। अब
90-100 ग्राम बीज प्रति वर्ग मीटर की दर से समान रूप से बोकर सूखी मिट्टि
की पतली तह (5 मिमि) से ढँक देते हैं। अब इस पर झारे की सहायता से पानी का
छिड़काव करें जब तक कि फेम की पूरी मिट्टी तर न हो जाए। अब लकड़ी का
फ्रेम हटाकर उपर्युक्तानुसार अन्य क्यारियाँ तैयार करें। इन क्यारियों में
2-3 दिन के अंतराल से सिंचाई करें। बोआई के 6 दिन बाद क्यारियों में पानी
की पतली तह बनाएं रखे तथा रोपाई के 2 दिन पूर्व पानी निकाल दें। बोने के
8-10 दिन में चटाई युक्त रोपणी तैयार हो जाएगी।
पौध रोपाई:
रोपाई हेतु पारंपरिक धान की खेती के समान खेती के समान खेत की जुताई करें
एंव समुचित मात्रा में गोबर की खाद मिलाएँ। खेत में पानी भर कर अच्छी तरह
से मचाई पश्चात पाटा चलाकर खेत को समतल कर लेना चाहिए। प्रत्येक 3-4 मीटर
की दूरी पर क्यारी का निर्माण करें जिससे जल निकासी संभव हो सके।रोपाई
पूर्व खेत से जल निकाल देना चाहिए। मार्कर की सहायता से दोनों ओर 25 ग 25
सेमी. कतार (लाइन) बनायें और दोनों कतारों के जोड पर पौधा लगाएँ।
कम
उम्र की रोपणी: धान की पौध 15 दिन से अधिक की होने पर पौधों की वृद्धि को
कम कर देती है। सामान्यतौर पर 12-14 दिन के पौधे इस पद्धति से रोपाई हेतु
उपयुक्त रहते हैं।दो पत्ती अवस्था या 8-10 दिन के धान के पौधे के कंसे व
जड़ दोनों में सामान्यत: 30-40 दिन की रोपणी की तुलना में ज्यादा वृद्धि
देखी गई है, जिससे पौधे नमी व पोषक तत्वों को अच्छे से ग्रहण करते हैं,
फलस्वरूप अधिक पैदावार प्राप्त होती है। पौधे उखाड़ने के बाद शीघ्र रोपाई
करना आवश्यक है। रोपाई वाले खेत में पानी भरा नहीं होना चाहिए।
एक
स्थान पर एक पौध की रोपाई: परम्परागत रूप से एक स्थान पर 2-3 पौधों की
रोपाई की जाती है, जबकि इस विधि में एक स्थान पर केवल एक ही पौधा 2 सेमी.
की गहराई पर सीधा लगाया जाता है। एक पौधे को बीज व मिट्टि सहित अँगूठे व
कनिष्का अँगुली की सहायता से दोनों कतार के जोड़ पर रोपित करना चाहिए।
पौधे-से-पौधे
की समान दूरी: कतारों में रोपाई की तुलना में चैकोर विधि से धान की रोपाई
करने से पौधे को पर्याप्त प्रकाश मिलता है व जड़ों की वृद्धि होती है। कतार
तथा पौधे-से-पौधे की दूरी 25 ग 25 सेमी. रखते हैं। मिट्टी के प्रकार व उर्वरकता के आधार पर यह दूरी
घटाई-बढाई जा सकती है। पौधों की दूरी अधिक रखने से जडो़ की वृद्धि ज्यादा
होती है तथा कंसे भी अधिक बनते हैं, साथ ही वायु का आगमन व प्रकाश संश्लेषण
भी अच्छा होगा जिससे पौधे स्वस्थ व मजबूत कंसे अधिक संख्या में निकलेंगे
जिनमें दानों का भराव भी अधिक होगा।
रोपणी
से पौधे इस प्रकार उखाड़े जिससे उनके साथ मिट्टी,बीज और जड़े बिना धक्का
के यथास्थिति में बाहर आ जाएँ तथा इन्हें उखाड़ने के तुरन्त बाद मुख्य खेत
में इस प्रकार रोपित करें कि उनकी जड़े अधिक गहराई में न जाएँ ।ऐसा करने से
पौधे शीघ्र ही स्थापित हो जाते हैं।
जल प्रबंध
श्री
पद्धति में खेत को नम रखा जाता है। खेत में प्रत्येक 3-4 मीटर के अंतराल
से जल निकास हेतु एक फीट गहरी नाली बनाएँ जिससे खेत से जल निकासी होती रहे।
वानस्पतिक वृद्धि की अवस्था में जड़ों को आर्द्र रखने लायक पानी दिया जाता
है, जिससे खेत में बहुत पतली दरारें उत्पन्न हो जाती हैं। ये दरारें पौधे
की जड़ों को आॅक्सीजन कराती हैं, जिससे जड़ों का फैलाव व वृद्धि अच्छी होती
है एवं जड़ें पोषक तत्वों को मृदा ग्रहण कर पौधे के विभिन्न भागों में
पहुँचाने में अधिक सक्षम होती है। वानस्पतिक अवस्था के पश्चात् फूल आने के
समय खेत को 2.5-3 सेमी. पानी से भर दिया जाता है और कटाई से 25 दिन पूर्व
पानी को खेत से निकाल देते हैं।
खाद एंव उर्वरक उपयोग
किसी
भी स्श्रोत द्वारा तैयार जैविक खाद या हरी खाद का उपयोग करने से पोषक
तत्वों की उपलब्धता में बढ़ोत्तरी के साथ-साथ भूमि में कार्बनिक पदार्थ की
मात्रा भी बढ़ती है,जो पौधे की अच्छी बढ़वार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती
है। मिट्टि परीक्षण कर पोषक तत्वों की मात्रा का निर्धारण करें। प्रारंभिक
वर्षो में 10-12 टन हेक्टेयर गोबर की खाद देना चाहिए। गोबर की खाद की
उपलब्धता कम होने पर 120:60:40 किग्रा. क्रमशः नत्रजन, स्फूर एंव पोटाश
प्रति हेक्टेयर देना चाहिए। स्फुर व पोटाश की सम्पूर्ण मात्रा रोपाई से
पहले तथा नत्रजन को तीन किस्तों में (25 प्रतिशत रोपाई के एक सप्ताह बाद,
कंसे फूटते समय 50 प्रतिशत तथा शेष मात्रा गभोट प्रारंभ होते समय ) देना
चाहिए।
खरपतवार नियंत्रण एंव निदाई
खेत
में पानी भरा नही रहने से खरपतवार प्रकोप अधिक हो सकता है। अतः रोपाई के
10-15 दिन बाद हस्तचलित निदाई यंत्र ताउची गुरमा(कोनो वीडर) द्वारा 15 दिन
के अंदर से 2-3 बार निंदाई करते हैं, जिससे न केवल नींदा समाप्त होते हैं,
वरन् जड़ों में वायु का प्रवाह भी बढ़ता है, जो जड़ों की वृद्धि व पौधों के
पोषक तत्वों को ग्रहण करने की क्षमता में भी वृद्धि करता है।
इंदिरा
गाँधी कृषि विश्वविद्यालय व कृषि विभाग द्वारा किये गये परीक्षणों के
उत्साहजनक परिणाम आये है। रायपुर में मेडागास्कर विधि के कुछ अवयवों जैसे
रोपणी की उम्र, पौधे से पौधे की समान दूरी व एक स्थान पर एक पौधे की रोपाई
के प्रयोग किये गये, जिसमें औसतन 48 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उत्पादन आया,
जबकि परंपरागत उन्नत पद्धति द्वारा औसत उत्पादन 42 क्विंटल प्रति हेक्टेयर
मिला। अंबिकापुर में पूरी विधि का प्रयोग किया गया, जिसमें 15 दिन रोपा,
एक स्थान पर एक पौधा, 15 ग 15 सेमी. पर रोपाई, पानी की कम मात्रा का प्रयोग
व रोटरी वीडर द्वारा निंदाई व कम्पोस्ट खाद का उपयोग किया गया जिससे
पारंपरिक विधि की उपज की तुलना में 16 प्रतिशत तक की उपज में बढ़ोत्तरी
देखी गई। सस्य विभाग, इं. गां. कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर में कन्हार
मिट्टी में किये गये परीक्षण परिणाम बताते हैं कि श्री पद्धति में नत्रजन,
स्फुर व पोटाश क्रमशः 60:40:40 किग्रा. के साथ 5 टन गोबर की खाद प्रति
हेक्टेयर देने से पारंपरिक रोपा पद्धति की अपेक्षा प्रति इकाई अधिकतम कंसे,
बालियाँ प्रति पौधा, दानों की संख्या प्रति बाली तथा उपज एंव शुद्ध लाभ प्रति हेक्टेयर, अधिक
प्राप्त किया जा सकता है।
चावल सघनीकरण पद्धति (एसआर आइ ) के प्रमुख लाभ -
1. श्री पद्धति में बीज कम (5-6किग्रा.) लगता है जबकि पारंपरिक विधि में 50-60किग्रा. बीज लगता है।
2. इस पद्धति में धान की फसल से कम पानी में अधिकतम उपज ली जा सकती है।
3. उर्वरक और रासायनिक दवाओं (कीटनाशक) का कम प्रयोग किया जाता है।
4. प्रति इकाई अधिकतम कंसे (30-50) जिनमें पूर्ण रूप से भरे हुए एंव उच्चतर वजन वाले पुष्पगुच्छ (पेनिकल्स) प्राप्त होते हैं।5. फसल में कीट-रोग प्रकोप की न्यूनतम संभावना होती है।
6. समय पर रोपाई और संसाधनों की बचत होती है।
7. अधिक उपज प्राप्त होती है।
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