डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर
प्राध्यापक (सश्यविज्ञान)
इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय,
कृषक नगर, रायपुर (छत्तीसगढ़)
गेंहूँ का आर्थिक महत्व
गेहूँ विश्वव्यापी महत्त्व की फसल है। मुख्य रूप से एशिया में धान की खेती की जाती है, तो भी विश्व के सभी प्रायद्वीपों में गेहूँ उगाया जाता है। विश्व की बढ़ती जनसंख्या के लिए गेहूँ लगभग 20 प्रतिशत आहार कैलोरी की पूर्ति करता है। भारत में धान के बाद गेहुँ सबसे महत्वपूर्ण खाद्यान्न फसल है जिसका देश के खाद्यान्न उत्पादन में लगभग 35 प्रतिशत का योगदान है। गेहूँ के दाने में 12 प्रतिशत नमी, 12 प्रतिशत प्रोटीन, 2.7 प्रतिशत रेशा, 1.7 प्रतिशत वसा, 2.7 प्रतिशत खनिज पदार्थ व 70 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट पाया जाता है। भारत में गेहूँ के आटे का उपयोग मुख्य रूप से रोटी बनाने में किया जाता है, परन्तु विकसित देशो में गेहूँ के आटे में खमीर पैदा कर उसका उपय¨ग डबल रोटी, बिस्कुट आदि तैयार करने में किया जाता है । गेहूँ में ग्लूटिन की मात्रा अधिक होने के कारण इसके आटे का प्रयोग बेकरी उद्योग में भी किया जाता है । इसके अलावा सूजी, रबा, मैदा, दलिया, सेवई, चोंकर (पशुओ के लिए), उत्तम किस्म की शराब आदि बनाने में भी गेहूँ का प्रय¨ग बहुतायत में किया जा रहा है । गेहूँ के भूसे का प्रयोग पशुओ को खिलाने में किया जाता है ।
गेहूँ की खेती विश्व के प्रायः हर भाग में होती है । संसार की कुल 23 प्रतिशत भूमि पर गेहूँ की ख्¨ती की जाती है । विश्व में सबसे अधिक क्षेत्र फल में गेहूँ उगाने वाले प्रमुख तीन राष्ट्र भारत, रशियन फैडरेशन और संयुक्त राज्य अमेरिका है । गेहूँ उत्पादन में चीन के बाद भारत तथा अमेरिका का क्रम आता है ।औसत उपज के मामले में फ्रांस का पहला स्थान (7107 किग्रा. प्रति हैक्टर) इजिप्ट का दूसरा (6501 किग्रा.) तथा चीन का तीसरा (4762 किग्रा) क्रम पर है ।
देश में गेहूँ की औसत उपज लगभग 2907 किग्रा. प्रति हैक्टर आती है । भारत के केरल, मणिपुर व नागालैण्ड राज्यों को छोड़कर अन्य सभी राज्यों मे गेहूँ की खेती की जाती है परन्तु गेहूँ का अधिकांश क्षेत्रफल उत्तरी भारत में है। देश में सर्वाधिक क्षेत्रफल मे गेहूँ उत्पन्न करने वाले प्रथम तीन राज्य क्रमशः उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश एवं पंजाब है। इनके अलावा हरियाणा, राजस्थान, बिहार, गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, पश्चिम बंगाल प्रमुख गेहूँ उत्पादक राज्य है। छत्तीसगढ़ राज्य में गेहूँ की खेती का तेजी से विस्तार ह¨ रहा है । राज्योदय के समय (2001-2002) जहां 143.8 लाख हैक्टर में गेहूँ की खेती प्रचलित थी वहीं वर्ष 2009-10 में 177.96 हजार हैक्टर क्षेत्रफल में गेहूँ बोया गया तथा 1306 किग्रा. प्रति हैक्टर औसत उपज प्राप्त हुई। प्रदेश के सरगुजा, दुर्ग और राजनांदगांव जिलो में सबसे अधिक क्षेत्र फल में गेंहू की खेती की जाती है । इन जिलो के अलावा बिलासपुर, रायपुर तथा जांजगीर जिलो में भी गेंहू की खेती की जा रही है । उत्पादन के मामले में सरगुजा, बिलासपुर व दुर्ग अग्रणी जिलो की श्रेणी में आते है । प्रदेश के दंतेबाड़ा जिले में गेंहू की सर्वाधिक ओसत उपज (1975 किग्रा. प्रति हैक्टर) ली जा रही है ।
गेंहू से भरपूर उपज और अधिकतम लाभ हेतु सस्य-तकनीक
उपयुक्त जलवायु क्षेत्र
गेहूँ मुख्यतः एक ठण्डी एवं शुष्क जलवायु की फसल है अतः फसल बोने के समय 20 से 22 डि से , बढ़वार के समय इष्टतम ताप 25 डि से तथा पकने के समय 14 से 15 डि से तापक्रम उत्तम रहता है। तापमान से अधिक होने पर फसल जल्दी पाक जाती है और उपज घट जाती है। पाल्¨ से फसल क¨ बहुत नुकसान होता है । बाली लगने के समय पाला पड़ने पर बीज अंकुरण शक्ति ख¨ देते है और उसका विकास रूक जाता है । छ¨टे दिनो में पत्तियां और कल्लो की बाढ़ अधिक होती है जबकि दिन बड़ने के साथ-साथ बाली निकलना आरम्भ होता है। इसकी खेती के लिए 60-100 से. मी. वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्र उपयुक्त रहते है। पौधों की वृद्धि के लिए वातावरण में 50-60 प्रतिशत आर्द्रता उपयुक्त पाई गई है। ठण्डा शीतकाल तथा गर्म ग्रीष्मकाल गेंहूँ की बेहतर फसल के लिए उपयुक्त माना जाता है । गर्म एवं नम जलवायु गेहूँ के लिए उचित नहीं होती, क्योंकि ऐसे क्षेत्रों में फसल में रोग अधिक लगते है।
भूमि का चयन
गेहूँ सभी प्रकार की कृषि य¨ग्य भूमियों में पैदा हो सकता है परन्तु दोमट से भारी दोमट, जलोढ़ मृदाओ मे गेहूँ की खेती सफलता पूर्वक की जाती है। जल निकास की सुविधा होने पर मटियार दोमट तथा काली मिट्टी में भी इसकी अच्छी फसल ली जा सकती है। कपास की काली मृदा में गेहूँ की खेती के लिए सिंचाई की आवश्यकता कम पड़ती है। भूमि का पी. एच. मान 5 से 7.5 के बीच में होना फसल के लिए उपयुक्त रहता है क्योंकि अधिक क्षारीय या अम्लीय भूमि गेहूं के लिए अनुपयुक्त ह¨ती है।
खेत की तैयारी
अच्छे अंकुरण के लिये एक बेहतर भुरभुरी मिट्टी की आवश्यकता होती है। समय पर जुताई खेत में नमी संरक्षण के लिए भी आवश्यक है। वास्तव में खेत की तैयारी करते समय हमारा लक्ष्य यह होना चाहिए कि बोआई के समय खेत खरपतवार मुक्त हो, भूमि में पर्याप्त नमी हो तथा मिट्टी इतनी भुरभुरी हो जाये ताकि बोआई आसानी से उचित गहराई तथा समान दूरी पर की जा सके। खरीफ की फसल काटने के बाद खेत की पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल (एमबी प्लोऊ ) से करनी चाहिए जिससे खरीफ फसल के अवशेष और खरपतवार मिट्टी मे दबकर सड़ जायें। इसके बाद आवश्यकतानुसार 2-3 जुताइयाँ देशी हल - बखर या कल्टीवेटर से करनी चाहिए। प्रत्येक जुताई के बाद पाटा देकर खेत समतल कर लेना चाहिए। ट्रैक्टर चालित र¨टावेटर यंत्र्ा से ख्¨त एक बार में बुवाई हेतु तैयार ह¨ जाता है । सिंचित क्षेत्र में धान-गेहूँ फसल चक्र में विलम्ब से खाली होने वाले धान के खेत की समय से बुवाई करने के लिए धान की कटाई से पूर्व सिंचाई कर देते है तथा शून्य भू-परिष्करण बुवाई करके मृदा की भौतिक अवस्था का संरक्षण, समय से बुवाई, खेती व्यय में कमी तथा सघन कृषि के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ बनती है । धान-गेहूँ चक्र वाले क्षेत्र में यह विधि बहुत प्रचलित होती जा रही है ।
उन्नत किस्में
फसल उत्पादन मे उन्नत किस्मों के बीज का महत्वपूर्ण स्थान है। गेहूँ की किस्मों का चुनाव जलवायु, बोने का समय और क्षेत्र के आधार पर करना चाहिए।
गेहूँ की प्रमुख उन्नत किस्मो की विशेषताएं
1.रतन: इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित यह किस्म सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त है। यह किस्म 112 दिन में पकती है। दाना गोल होता है। सूखा व गेरूआ रोधक किस्म है जो औसतन 19 क्विंटल प्रति हैक्टर उपज देती है।
2.अरपा: इंदिरा गांधी विश्वविद्यालय द्वारा विकसित यह किस्म देर से बोने के लिए सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त है। यह किस्म 112 दिन में पकती है। दाना अम्बर रंग का होता है। अधिक तापमान, गेरूआ रोग व कटुआ कीट रोधक किस्म है जो औसतन 23-24 क्विंटल प्रति हैक्टर उपज देती है।
3.नर्मदा 4: यह पिसी सरबती किस्म, काला और भूरा गेरूआ निरोधक है। यह असिंचित एवं सीमित सिंचाई क्षेत्रों के लिये उपयुक्त है। इसके पकने का समय 125 दिन हैं इसकी पैदावार 12-19 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। इसका दाना सरबती चमकदार होता है। यह चपाती बनाने के लिये विशेष उपयुक्त है।
4. एन.पी.404: यह काला और भूरा गेरूआ निरोधक कठिया किस्म असिंचित दशा के लिये उपयुक्त है। यह 135 दिन मे पक कर तैयार होती है। पैदावार 10 से 11 क्विंटल प्रति हेक्टयर होती है। इसका दाना बड़ा, कड़ा और सरबती रंग का होता है।
5. मेघदूत: यह काला और भूरा गेरूआ निरोधक कठिया जाति असिंचित अवस्था के लिये उपयुक्त है। इसके पकने का समय 135 दिन है। इसकी पदौवार 11 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है। इसका दाना एन.पी.404 से कड़ा होता है।
6.हायब्रिड 65: यह पिसिया किस्म है, जो भूरा गेरूआ निरोधक है। यह 130 दिन में पकती है। इसकी पैदावार असिंचित अवस्था में 13 से 19 क्विंटल प्रति हेक्टयर होती है। इसका दाना, सरबती, चमकदार, 1000 बीज का भार 42 ग्राम होता है।
7.मुक्ता: यह पिसिया किस्म है जो भूरा गेरूआ निरोधक है। असिंचित अवस्था के लिये उपयुक्त है। यह 130 दिन में पकती है। इसकी पैदावार 13 - 15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है। इसका दाना सरबती लम्बा और चमकदार होता है।
8.सुजाता: यह पिसिया (सरबती) किस्म काला और भूरा गेरूआ सहनशील है। असिंचित अवस्था के लिए उपयुक्त है। यह 130 दिन में पकती है। इसकी पैदावा 13 - 17 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है। इसका दाना, सरबती, मोटी और चमकदार होता है।
9.सोनालिका: यह गेरूआ निरोधक, अंबर रग की, बड़े दाने वाले किस्म। यह 110 दिनों में पककर तैयार हो जाता है। देर से बोने के लिए उपयुक्त है। धान काटने के बाद जमीन तैयार कर बुवाई की जा सकती है। इसकी पैदावार 30 से 35 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।
10.कल्याण सोना (एच.डी.एम.1593): इसका दाना चमकदार, शरबती रंग का होता है। यह किस्म 125 दिन मे पक जाती है। पैदावार प्रति हेक्टेयर 30 से 35 क्विंटल तक होती है। गेरूआ र¨ग से प्रभावित यह किस्म अभी भी काफी प्रचलित है।
11.नर्मदा 112: यह पिसिया (सरबती) किस्म है जो काला और भूरा गेरूआ निरोधक है। असिंचित एवं सीमित सिंचाई वाले क्षेत्रो के लिए उपयुक्त है।इसके पकने का समय 120 - 135 दिन है। इसकी पैदावार 14 - 16 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है। इसका दाना सरबती चमकदार और बड़ा होता है। इह चपाती बनाने के लिए विशेष उपयुक्त है।
12.डब्ल्यू.एच. 147: यह बोनी पिसी किस्म काला और भूरा गेरूआ निरोधक है। सिंचित अवस्था के लिये उपयुक्त है। बाले गसी हुई मोटी होती है। इसका पकने का समय 125 दिन होता है। इसका दाना मोटा सरबती होता है। इसकी पैदावार 40 से 45 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।
13.एच.डी. 4530: यह बोनी कठिया किस्म काला और भूरा गेरूआ निरोधक है। सिंचित अवस्था के लिए उपयुक्त है। बाले गसी हुई और मोटी होती है। इसका पकने का समय 130 दिन होता है। इसका दाना मोटा, सरबती और कड़क होता है। इसकी पैदावार 35 क्विंटल/ हेक्टेयर होती है।
14. शेरा (एच.डी.1925): देर से बोने के लिए यह जाति उपयुक्त है। यह गेरूआॅ निरोधक है यह कम समय 110 दिन में पक जाती है। इसका दाना आकर्षक होता है।इसकी पैदावार लगभग 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।
15. जयराज: इसकी ऊँचाई 100 से. मी. है। यह जाति 115 दिन मे पकती है। इसके दाने सरबती मोटे (1000 दानो का भार 49 ग्राम) व चमकदान होते है। यह गेरूआ प्रतिबंधक सिंचित अवस्था के लिए उपयुक्त है। यह किस्म दिसम्बर के प्रथम सप्ताह तक बोई जा सकती है। इसकी पैदावार 38 से 40 क्विंटल/हेक्टेयर होती है।
16. जे.डब्लू.-7: यह देर से तैयार (130 - 135 दिन) होने वाली किस्म है। बीज सरबती, मुलायम से हल्के कड़े (1000 बीज का भार 46 ग्राम) होते है। रोटी हेतु उत्तम , सी - 306 से अधिक प्रोटीन होता है। इसकी औसत उपज 23 - 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है।
गेहूँ की नवीन उन्नत किस्मो के गुणधर्म
1. जे.डब्लू.-1106: यह मध्यम अवधि (115 दिन) वाली किस्म है जिसके पौधे सीधे मध्यम ऊँचाई के होते है। बीज का आकार सिंचित अवस्था में बड़ा व आकर्षक होता है। सरबती तथा अधिक प्रोटीन युक्त किस्म है जिसकी आसत उपज 40 - 50 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है।
2. अमृता (एच.आई. 1500): यह सरबती श्रेणी की नवीनतम सूखा निरोधक किस्म है। इसका पौधा अर्द्ध सीधा तथा ऊँचाई 120 - 135 से. मी. होती है। दाने मध्यम गोल, सुनहरा (अम्बर) रंग एवं चमकदार होते है। इसके 1000 दानों का वजन 45 - 48 ग्राम और बाल आने का समय 85 दिन है। फसल पकने की अवधि 125 - 130 दिन तथा आदर्श परिस्थितियों में 30 - 35 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है।
3. स्वर्णा (एच.आई.-1479): समय से बोने हेतु मध्य प्रदेश की उर्वरा भूमियो के लिए शीघ्र पकने वाली गेरूआ निरोधक किस्म है। गेहू का दाना लम्बा, बोल्ड, आकर्षक, सरबती जैसा चमकदार व स्वादिष्ट होता है। इसके 1000 दानो का वजन 45 - 48 ग्राम होता है। फसल अवधि 110 दिन हे। इस किस्म से 2 - 3 सिंचाइयों से अच्छी उपज ली जा सकती है। गेहूँ की लोक-1 किस्म के विकल्प के रूप में इसकी खेती की जा सकती है।
4. हर्षित (एचआई-1531): यह सूखा पाला अवरोधी मध्यम बोनी (75 - 90 से. मी. ऊँचाई) सरबती किस्म है। इसके दाने सुडौल, चमकदार, सरबती एवं रोटी के लिए उत्तम है जिसे सुजाता किस्म के विकल्प के रूप में उगाया जा सकता है। फसल अवधि 115 दिन है तथा 1 - 2 सिंचाई में 40 क्विंटल प्रति हेक्टेयर से अधिक उपज देती है।
5. मालव शक्ति (एचआई - 8498): यह कम ऊँचाई वाली (85 से.मी) बोनी कठिया (ड्यूरम) किस्म है। यह नम्बर - दिसम्बर तक बोने हेतु उपयुक्त किस्म है। इसका दाना अत्यन्त आकर्षक, बड़ा, चमकदार, प्रोटीन व विटामिन ए की मात्रा अधिक, अत्यन्त स्वादिष्ट होता है। बेकरी पदार्थ, नूडल्स, सिवैया, रवा आदि बनाने के लिए उपयुक्त है। बाजार भाव अधिक मिलता है तथा गेहूँ निर्यात के लिए उत्तम किस्म है। इसकी बोनी नवम्बर से लेकर दिसम्बर के द्वितीय सप्ताह तक की जा सकती है। इसकी फसल लोक-1 से पहले तैयार हो जाती है। इससे अच्छी उपज लेने के लिए 4 - 5 पानी आवश्यक है।
6. मालवश्री (एचआई - 8381): यह कठिया गेहूँ की श्रेणी में श्रेष्ठ किस्म है। इसके पौधे बौने (85 - 90 से.मी. ऊँचाई), बालियों के बालों का रंग काला होता है। यह किस्म 4 - 5 सिंचाई मे बेहतर उत्पादन देती है। इसके 1000 दानों का वजन 50 - 55 ग्राम एवं उपज क्षमता 50 - 60 क्विंटल प्रति हेक्टर है।
राज-3077 गेहूँ की ऐसी नयी किस्म है, जिसमें अन्य प्रजातियों की अपेक्षा 12 प्रतिशत अधिक प्रोटीन पाया जाता है। इसे अम्लीय एवं क्षारीय दोनों प्रकार की मिट्टियों में बोया जा सकता है।
बीजोपचार
बुआई के लिए ज¨ बीज इस्तेमाल किया जाता है वह रोग मुक्त, प्रमाणित तथा क्षेत्र विशेष के लिए अनुशंषित उन्नत किस्म का होना चाहिए। बीज मे किसी दूसरी किस्म का बीज नहीं मिला होना चाहिए। बोने से पूर्व बीज के अंकुरण प्रतिशत का परीक्षण अवश्य कर लेना चाहिए। यदि प्रमाणित बीज न हो तो उसका शोधन अवश्य करे । खुला कण्डुआ या कर्नाल बन्ट आदि रोगों की रोकथाम के लिए कार्बेन्डाजिम (बाविस्टीन) या कार्बोक्सिन (बीटावैक्स) रसायन 2.5 ग्राम मात्रा प्रति किग्रा. बीज की दर से उपचारित करना चाहिए। इसके अलावा रोगों की रोकथाम के लिए ट्राइकोडरमा विरडी की 4 ग्राम मात्रा 1 ग्राम कार्बेन्डाजिम के साथ प्रति किग्रा बीज की दर से बीज श¨धन किया जा सकता है ।
बोआई का समय
गेंहूँ रबी की फसल है जिसे शीतकालीन मौसम में उगाया जाता है । भारत के विभिन्न भागो में गेहूँ का जीवन काल भिन्न-भिन्न रहता है । सामान्य तौर पर गेहूं की बोआई अक्टूबर से दिसंबर तक की जाती है तथा फसल की कटाई फरवरी से मई तक की जाती है । जिन किस्मों की अवधि 135 - 140 दिन है, उनको नवम्बर के प्रथम पखवाड़े में व जो किस्में पकने में 120 दिन का समय लेती है, उन्हे 15 - 30 नवम्बर तक बोना चाहिए। गेहूँ की शीघ्र बुवाई करने पर बालियाँ पहले निकल आती है तथा उत्पादन कम होता है जबकि तापक्रम पर बुवाई करने पर अंकुरण देर से होता है । प्रयोगो से यह देखा गया है कि लगभग 15 नवम्बर के आसपास गेहूँ बोये जाने पर अधिकतर बोनी किस्में अधिकतम उपज देती है । अक्टूबर के उत्तरार्द्ध में बोयी गई लंबी किस्मो से भी अच्छी उपज प्राप्त की जा सकती है । असिंचित अवस्था में बोने का उपयुक्त समय बर्षा ऋतु समाप्त होते ही मध्य अक्टूबर के लगभग है। अर्द्धसिंचित अवस्था मे जहाँ पानी सिर्फ 2 - 3 सिंचाई के लिये ही उपलब्ध हो, वहाँ बोने का उपयुक्त समय 25 अक्टूबर से 15 नवम्बर तक है। सिंचित गेहूँ बोने का उपयुक्त समय नवम्बर का प्रथम पखवाड़ा है। बोनी में 30 नवम्बर से अधिक देरी नहीं होना चाहिए। यदि किसी कारण से बोनी विलंब से करनी हो तब देर से बोने वाली किस्मो की बोनी दिसम्बर के प्रथम सप्ताह तक हो जाना चाहिये। देर से बोयी गई फसल को पकने से पहले ही सूखी और गर्म हवा का सामना करना पड़ जाता है जिससे दाने सिकुड़ जाते है तथा उपज कम हो जाती है ।
बीज दर एवं पौध अंतर
चुनी हुई किस्म के बड़े-बड़े साफ, स्वस्थ्य और विकार रहित दाने, जो किसी उत्तम फसल से प्राप्त कर सुरंक्षित स्थान पर रखे गये हो, उत्तम बीज होते है । बीज दर भूमि मे नमी की मात्रा, बोने की विधि तथा किस्म पर निर्भर करती है। बोने गेहूँ की खेती के लिए बीज की मात्रा देशी गेहूँ से अधिक होती है । बोने गेहूँ के लिए 100-120 किग्रा. प्रति हैक्टर तथा देशी गेहूँ के लिए 70-90 किग्रा. बीज प्रति हैक्टर की दर से बोते है । असिंचित गेहूँ के लिए बीज की मात्रा 100 किलो प्रति हेक्टेर व कतारों के बीच की दूरी 22 - 23 से. मी. होनी चाहिये। समय पर बोये जाने वाले सिंचित गेहूं मे बीज दरं 100 - 125 किलो प्रति हेक्टेयर व कतारो की दूरी 20-22.5 से. मी. रखनी चाहिए। देर वालीसिंचित गेहूं की बोआई के लिए बीज दर 125 - 150 कि. ग्रा. प्रति हेक्टेयर तथा पंक्तियों के मध्य 15 - 18 से. मी. का अन्तरण रखना उचित रहता है। बीज को रात भर पानी में भिंगोकर बोना लाभप्रद है। भारी चिकनी मिट्टी में नमी की मात्रा आवश्यकता से कम या अधिक रहने तथा ब¨आई में बहुत देर हो जाने पर अधिक बीज ब¨ना चाहिए । मिट्टी के कम उपजाऊ ह¨ने या फसल पर रोग या कीटो से आक्रमण की सम्भावना होने पर भी बीज अधिक मात्रा में डाले जाते है ।
प्रयोगों में यह देखा गया है कि पूर्व - पश्चिम व उत्तर - दक्षिण क्रास बोआई करने पर गेहूँ की अधिक उपज प्राप्त होती है। इस विधि में कुल बीज व खाद की मात्रा, आधा - आधा करके उत्तर - दक्षिण और पूर्व - पश्चिम दिशा में बोआई की जाती है। इस प्रकार पौधे सूर्य की रोशनी का उचित उपयोग प्रकाश संश्लेषण मे कर लेते है, जिससे उपज अधिक मिलती है।गेहूँ मे प्रति वर्गमीटर 400 - 500 बालीयुक्त पौधे होने से अच्छी उपज प्राप्त होती है।
बीज बोने की गहराई
बौने गेहुँ की बोआई में गहराई का विशेष महत्व होता है, क्योंकि बौनी किस्मों में प्राकुंरचोल की लम्बाई 4 - 5 से. मी. होती है। अतः यदि इन्हे गहरा बो दिया जाता है तो अंकुरण बहुत कम होता है। गेहुँ की बौनी किस्मों क¨ 3-5 से.मी. रखते है । देशी (लम्बी) किस्मों में प्रांकुरच¨ल की लम्बाई लगभग 7 सेमी. ह¨ती है । अतः इनकी बोने की गहराई 5-7 सेमी. रखनी चाहिये।
बोआई की विधियाँ
आमतौर पर गेहूँ की बोआई चार बिधियो से (छिटककर, कूड़ में चोगे या सीड ड्रिल से तथा डिबलिंग) से की जाती है । गेहूं बोआई हेतु स्थान विशेष की परिस्थिति अनुसार विधियाँ प्रयोग में लाई जा सकती हैः
1. छिटकवाँ विधि : इस विधि में बीज को हाथ से समान रूप से खेत में छिटक दिया जाता है और पाटा अथवा देशी हल चलाकर बीज को मिट्टी से ढक दिया जाता है। इस विधि से गेहूँ उन स्थानो पर बोया जाता है, जहाँ अधिक वर्षा होने या मिट्टी भारी दोमट होने से नमी अपेक्षाकृत अधिक समय तक बनी रहती है । इस विधि से बोये गये गेहूँ का अंकुरण ठीक से नही हो पाता, पौध अव्यवस्थित ढंग से उगते है, बीज अधिक मात्रा में लगता है और पौध यत्र्-तत्र् उगने के कारण निराई - गुड़ाई में असुविधा होती है परन्तु अति सरल विधि होने के कारण कृषक इसे अधिक अपनाते है ।
2. हल के पीछे कूड़ में बोआई : गेहूँ बोने की यह सबसे अधिक प्रचलित विधि है । हल के पीछे कूँड़ में बीज गिराकर दो विधियों से बुआई की जाती है -
(अ) हल के पीछे हाथ से बोआई (केरा विधि): इसका प्रयोग उन स्थानों पर किया जाता है जहाँ बुआई अधिक क्षेत्र में की जाती है तथा ख्¨त में पर्याप्त नमी ह¨ । इस विधि मे देशी हल के पीछे बनी कूड़ो में जब एक व्यक्ति खाद और बीज मिलाकर हाथ से बोता चलता है तो इस विधि को केरा विधि कहते है । हल के घूमकर दूसरी बार आने पर पहले बने कूँड़ कुछ स्वंय ही ढंक जाते है । सम्पूर्ण खेत में बोआई हो जाने के बाद पाटा चलाते है, जिससे बीज भी ढंक जाता है और खेत भी चोरस हो जाता है ।
(ब) देशी हल के पीछे नाई बाँधकर बोआई (पोरा विधि): इस विधि का प्रयोग असिंचित क्षेत्रों या नमी की कमी वाले क्षेत्रों में किया जाता है। इसमें नाई, बास या चैंगा हल के पीछे बंधा रहता है। एक ही आदमी हल चलाता है तथा दूसरा बीज डालने का कार्य करता है। इसमें उचित दूरी पर देशी हल द्वारा 5 - 8 सेमी. गहरे कूड़ में बीज पड़ता है । इस विधि मे बीज समान गहराई पर पड़ते है जिससे उनका समुचित अंकुरण होता है। कार्यक्षमता बढ़ाने के लिए देशी हल के स्थान पर कल्टीवेटर का प्रयोग कर सकते हैं क्योंकि कल्टीवेटर से एक बार में तीन कूड़ बनते है।
3. सीड ड्रिल द्वारा बोआई: यह पोरा विधि का एक सुधरा रूप है। विस्तृत क्षेत्र में बोआई करने के लिये यह आसान तथा सस्ता ढंग है । इसमे बोआई बैल चलित या ट्रेक्टर चलित बीज वपित्र द्वारा की जाती है। इस मशीन में पौध अन्तरण व बीज दर का समायोजन इच्छानुसार किया जा सकता है। इस विधि से बीज भी कम लगता है और बोआई निश्चित दूरी तथा गहराई पर सम रूप से हो पाती है जिससे अंकुरण अच्छा होता है । इस विधि से बोने में समय कम लगता है ।
4. डिबलर द्वारा बोआईः इस विधि में प्रत्येक बीज क¨ मिट्टी में छेदकर निर्दिष्ट स्थान पर मनचाही गहराई पर ब¨ते है । इसमें एक लकड़ी का फ्रेम को खेत में रखकर दबाया जाता है तो खूटियो से भूमि मे छेद हो जाते हैं जिनमें 1-2 बीज प्रति छेद की दर से डालते हैं। इस विधि से बीज की मात्रा काफी कम (25-30 किग्रा. प्रति हेक्टर) लगती है परन्तु समय व श्रम अधिक लगने के कारण उत्पादन लागत बढ़ जाती है।
5. फर्ब विधि : इस विधि में सिंचाई जल बचाने के उद्देश्य से ऊँची उठी हुई क्यारियाँ तथा नालियाँ बनाई जाती है । क्यारियो की चोड़ाई इतनी रखी जाती है कि उस पर 2-3 कूड़े आसानी से ब¨ई जा सके तथा नालियाँ सिंचाई के लिए प्रय¨ग में ली जाती है । इस प्रकार लगभग आधे सिंचाई जल की बचत ह¨ जाती है । इस विधि में सामान्य प्रचलित विधि की तुलना में उपज अधिक प्राप्त ह¨ती है । इसमें ट्रैक्टर चालित यंत्र् से बुवाई की जाती है । यह यंत्र् क्यारियाँ बनाने, नाली बनाने तथा क्यारी पर कूंड़ो में एक साथ बुवाई करने का कार्य करता है ।
6.शून्य कर्षण सीड ड्रिल विधि: धान की कटाई के उपरांत किसानों को रबी की फसल गेहूं आदि के लिए खेत तैयार करने पड़ते हैं। गेहूं के लिए किसानों को अमूमन 5-7 जुताइयां करनी पड़ती हैं। ज्यादा जुताइयों की वजह से किसान समय पर गेहूं की ब¨आई नहीं कर पाते, जिसका सीधा असर गेहूं के उत्पादन पर पड़ता है। इसके अलावा इसमें लागत भी अधिक आती है। ऐसे में किसानों को अपेक्षित लाभ नहीं मिल पाता। शून्य कर्षण से किसानों का समय तो बचता ही है, साथ ही लागत भी कम आती है, जिससे किसानों का लाभ काफी बढ़ जाता है। इस विधि के माध्यम से खेत की जुताई और बिजाई दोनों ही काम एक साथ हो जाते हैं। इससे बीज भी कम लगता है और पैदावार करीब 15 प्रतिशत बढ़ जाती है। खेत की तैयारी में लगने वाले श्रम व सिंचाई के रूप में भी करीब 15 प्रतिशत बचत होती है। इसके अलावा खरपतवार प्रक¨प भी कम होता है, जिससे खरपतवारनाशकों का खर्च भी कम हो जाता है। समय से बुआई होने से पैदावार भी अच्छी होती है।
जीरो टिल सीड ड्रिल मशीन
यह गो .पं.कृषि विश्व विद्यालय द्वारा विकसित एक ऐसी मशीन है जिसकी मदद से धान की फसल की कटाई के तुरन्त बाद नमीयुक्त खेत में बिना खेत की तैयारी किये सीधे गेहूँ की बुवाई की जा सकती है । इसमें लगे कूंड बनाने वाले फरो-ओपरन के बीच की दूरी को कम या ज्यादा किया जा सकता है। यह मशीन गेहूं और धान के अलावा दलहन फसलों के लिए भी बेहद उपयोगी है। इससे दो घंटे में एक हेक्टेयर क्षेत्र में बुआई की जा सकती है। इस मशीन को 35 हॉर्स पॉवर शक्ति के ट्रैक्टर से चलाया जा सकता है। मशीन में फाल की जगह लगे दांते मानक गहराई तक मिट्टी को चीरते हैं। इसके साथ ही मशीन के अलग-अलग चोंगे में रखा खाद और बीज कूंड़ में गिरता जाता है।
खाद एवं उर्वरक
फसल की प्रति इकाई पैदावार बहुत कुछ खाद एवं उर्वरक की मात्रा पर निर्भर करती है । गेहूँ में हरी खाद, जैविक खाद एवं रासायनिक खाद का प्रयोग किया जाता है । खाद एवं उर्वरक की मात्रा गेहूँ की किस्म, सिंचाई की सुविधा, बोने की विधि आदि कारकों पर निर्भर करती है। प्रयोगों से ज्ञात होता है कि लम्बे देशी गेहूँ द्वारा भूमि से लगभग 50 कि.ग्रा. नाइट्रोजन, 21 कि.ग्रा. फास्फोरस तथा 6 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर ग्रहण कर लिया जाता है जबकि 50 क्विंटल उपज देने वाले बौने गेहूँ द्वारा भूमि से लगभग 150 कि.ग्रा. नाइट्रोजन, 70-80 कि.ग्रा. फास्फोरस तथा 125-150 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हेक्टर ग्रहण कर लिया जाता है। अतः अधिकतम उपज के लिए भूमि में पोषक तत्वों की पूर्ति की जाती है परन्तु उपलब्धता के आधार पर नाइट्रोजन की कम से कम आधी मात्रा गोबर खाद या काम्पोस्ट के माध्यम से देना अधिक लाभप्रद पाया गया है।
खेत में 10-15 टन प्रति हेक्टर की दर से सडी हुई गोबर की खाद या कम्पोस्ट फैलाकर जुताई के समय बो आई पूर्व मिट्टी में मिला देना चाहिए । रासायनिक उर्वरको में नाइट्रोजन, फास्फोरस , एवं पोटाश मुख्य है । सिंचित गेहूँ में (बौनी किस्में) बोने के समय आधार मात्रा के रूप में 125 किलो नत्रजन, 50 किलो स्फुर व 40 किलो पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिये। देशी किस्मों में 60:30:30 किग्रा. प्रति हेक्टेयर के अनुपात में उर्वरक देना चाहिए। असिंचित गेहूँ की देशी किस्मों मे आधार मात्रा के रूप में 40 किलो नत्रजन, 30 किलो स्फुर व 20 किलो पोटाश प्रति हेक्टेयर बोआई के समय हल की तली में देना चाहिये। बौनी किस्मों में 60:40:30 किलों के अनुपात में नत्रजन, स्फुर व पोटाश बोआई के समय देना लाभप्रद पाया गया है।
परीक्षणो से सिद्ध हो चुका है कि सिंचित गेहूँ में नाइट्रोजन की मात्रा एक बार में न देकर दो या तीन बार में देना अच्छा रहता है। साधारण भूमियों में आधी मात्रा बोते समय और शेष आधी मात्रा पहली सिंचाई के समय देनी चाहिए। हल्की भूमियों में नाइट्रोजन को तीन बार मे (एक तिहाई बोने के समय, एक-तिहाई पहली सिंचाई पर तथा शेष एक-तिहाई दूसरी सिंचाई पर) देना चाहिए। असिंचित दशा मे नत्रजन, फास्फोरस व पोटाश युक्त उर्वरकों को बोआई के समय ही कूड़ मे बीज से 2-3 से.मी. नीचे व 3-4 से.मी. बगल में देने से इनकी अधिकतम मात्रा फसल को प्राप्त हो जाती है । मिट्टी परीक्षण के आधार पर खाद की मात्रा में परिवर्तन किया जा सकता है। यदि मिट्टी परीक्षण में जस्ते की कमी पाई गई हो तब 20-25 किलो जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर बोआई के पहले मिट्टी मे अच्छी प्रकार मिला देना चाहिये।
सिंचाई
भारत मे लगभग 50 प्रतिशत क्षेत्र में गेहूँ की खेती असिंचित दशा में की जाती है। परन्तु बौनी किस्मों से अधिकतम उपज के लिए सिंचाई आवश्यक है। गेहूँ की बौनी किस्मों को 30-35 हेक्टर से.मी. और देशी किस्मों को 15-20 हेक्टर से.मी. पानी की कुल आवश्यकता होती है। उपलब्ध जल के अनुसार गेहूँ में सिंचाई क्यारियाँ बनाकर करनी चाहिये। प्रथम सिंचाई में औसतन 5 सेमी. तथा बाद की सिंचाईयों में 7.5 सेमी. पानी देना चाहिए। सिंचाईयो की संख्या और पानी की मात्रा मृदा के प्रकार, वायुमण्डल का तापक्रम तथा ब¨ई गई किस्म पर निर्भर करती है । फसल अवधि की कुछ विशेष क्रान्तिक अवस्थाओं पर बौनी किस्मों में सिंचाई करना आवश्यक होता है। सिंचाई की ये क्रान्तिक अवस्थाएँ निम्नलिखित हैं -
1. पहली सिंचाई शीर्ष जड प्रवर्तन अवस्था पर अर्थात बोने के 20 से 25 दिन पर सिंचाई करना चाहिये। लम्बी किस्मों में पहली सिंचाई सामान्यतः बोने के लगभग 30-35 दिन बाद की जाती है।
2. दूसरी सिंचाई दोजियां निकलने की अवस्था अर्थात बोआई के लगभग 40-50 दिन बाद।
3.तीसरी सिंचाई सुशांत अवस्था अर्थात ब¨आई के लगभग 60-70 दिन बाद ।
4. च©थी सिंचाई फूल आने की अवस्था अर्थात बोआई के 80-90 दिन बाद ।
5. दूध बनने तथा शिथिल अवस्था अर्थात बोने के 100-120 दिन बाद।
पर्याप्त सिंचाईयां उपलब्ध ह¨ने पर बौने गेहूं में 4-6 सिंचाई देना श्रेयस्कर होता है । यदि मिट्टी काफी हल्की या बलुई है त¨ 2-3 अतिरिक्त सिंचाईय¨ं की आवश्यकता ह¨ सकती है । सीमित मात्रा में जलापूर्ति की स्थित में सिंचाई का निर्धारण निम्नानुसार किया जाना चाहिए:
यदि केवल दो सिंचाई की ही सुविधा उपलब्ध है, तो पहली सिंचाई बोआई के 20-25 दिन बाद (शीर्ष जड प्रवर्तन अवस्था ) तथा दूसरी सिंचाई फूल आने के समय बोने के 80-90 दिन बाद करनी चाहिये।यदि पानी तीन सिंचाईय¨ हेतु उपलब्ध है तो पहली सिंचाई शीर्ष जड प्रवर्तन अवस्था पर (बोआई के 20-22 दिन बाद), दूसरी तने में गाँठें बनने (बोने क 60-70 दिन बाद) व तीसरी दानो में दूध पड़ने के समय (100-120 दिन बाद) करना चाहिये।
गेहूँ की देशी लम्बी बढ़ने वाली किस्मो में 1-3 सिंचाईयाँ करते हैं। पहली सिंचाई बोने के 20-25 दिन बाद, दूसरी सिंचाई बोने के 60-65 दिन बाद और तीसरी सिंचाई बोने के 90-95 दिन बाद करते हैं ।
असिंचित अवस्था में मृदा नमी का प्रबन्धन
खेत की जुताई कम से कम करनी चाहिए तथा जुताई के बाद पाटा चलाना चाहिए। जुताई का कार्य प्रातः व शायंकाल में करने से वाष्पीकरण द्वारा नमी का ह्रास कम होता है। खेत की मेड़बन्दी अच्छी प्रकार से कर लेनी चाहिए, जिससे वर्षा के पानी को खेत में ही संरक्षित किया ता सके। बुआई पंक्तियों में 5 सेमी. गहराई पर करना चाहिए। खाद व उर्वरकों की पूरी मात्रा, बोने के पहले कूड़ों में 10-12 सेमी. गहराई में दें। खरपतवारों पर समयानुसार नियंत्रण करना चाहिए।
खरपतवार नियंत्रण
गेहूँ के साथ अनेक प्रकार के खरपतवार भी खेत में उगकर पोषक तत्वों, प्रकाश, नमी आदि के लिए फसल के साथ प्रतिस्पर्धा करते है। यदि इन पर नियंत्रण नही किया गया तो गेहूँ की उपज मे 10-40 प्रतिशत तक हानि संभावित है। बोआई से 30-40 दिन तक का समय खरपतवार प्रतिस्पर्धा के लिए अधिक क्रांतिक ;ब्तपजपबंस) रहता है। गेहूँ के खेत में चैड़ी पत्ती वाले और घास कुल के खरपतारों का प्रकोप होता है।
1. चैड़ी पत्ती वाले खरपतवार: कृष्णनील, बथुआ, हिरनखुरी, सैंजी, चटरी-मटरी, जंगली गाजर आदि के नियंत्रण हेतु 2,4-डी इथाइल ईस्टर 36 प्रतिशत (ब्लाडेक्स सी, वीडान) की 1.4 किग्रा. मात्रा अथवा 2,4-डी लवण 80 प्रतिशत (फारनेक्सान, टाफाइसाड) की 0.625 किग्रा. मात्रा को 700-800 लीटर पानी मे घोलकर एक हेक्टर में बोनी के 25-30 दिन के अन्दर छिड़काव करना चाहिए।
2. सँकरी पत्ती वाले खरपतवार: गेहूँ में जंगली जई व गेहूँसा का प्रकोप अधिक देखा जा रहा है। यदि इनका प्रकोप अधिक हो तब उस खेत में गेहूँ न बोकर बरसीम या रिजका की फसल लेना लाभदायक है। इनके नियंत्रण के लिए पेन्डीमिथेलिन 30 ईसी (स्टाम्प) 800-1000 ग्रा. प्रति हेक्टर अथवा आइसोप्रोटयूरॉन 50 डब्लू.पी. 1.5 किग्रा. प्रति हेक्टेयर को बोआई के 2-3 दिन बाद 700-800 लीटर पानी में घोलकर प्रति हे. छिड़काव करें। खड़ी फसल में बोआई के 30-35 दिन बाद मेटाक्सुरान की 1.5 किग्रा. मात्रा को 700 से 800 लीटर पानी में मिलाकर प्रति हेक्टेयर छिड़कना चाहिए। मिश्रित खरपतवार की समस्या होेने पर आइसोप्रोट्यूरान 800 ग्रा. और 2,4-डी 0.4 किग्रा. प्रति हे. को मिलाकर छिड़काव करना चाहिए। गेहूँ व सरस¨ं की मिश्रित खेती में खरपतवार नियंत्र्ण हेतु पेन्डीमिथालिन सर्वाधिक उपयुक्त तृणनाशक है ।
कटाई-गहाई
जब गेहूँ के दाने पक कर सख्त हो जाय और उनमें नमी का अंश 20-25 प्रतिशत तक आ जाये, फसल की कटाई करनी चाहिये। कटाई हँसिये से की जाती है। बोनी किस्म के गेहूँ को पकने के बाद खेत में नहीं छोड़ना चाहिये, कटाई में देरी करने से, दाने झड़ने लगते है और पक्षियों द्वारा नुकसान होने की संभावना रहती है। कटाई के पश्चात् फसल को 2-3 दिन खलिहान में सुखाकर मड़ाई शक्ति चालित थ्रेशर से की जाती है। कम्बाइन हारवेस्टर का प्रयोग करने से कटाई, मड़ाई तथा ओसाई एक साथ हो जाती है परन्तु कम्बाइन हारवेस्टर से कटाई करने के लिए, दानो में 20 प्रतिशत से अधिक नमी नही होनी चाहिए, क्योकि दानो में ज्यादा नमी रहने पर मड़ाई या गहाई ठीक से नहीं ह¨गी ।
उपज एवं भंडारण
उन्नत सस्य तकनीक से खेती करने पर सिंचित अवस्था में गेहूँ की बौनी किस्मो से लगभग 50-60 क्विंटल दाना के अलावा 80-90 क्विंटल भूसा/हेक्टेयर प्राप्त होता है। जबकि देशी लम्बी किस्मों से इसकी लगभग आधी उपज प्राप्त होती है। देशी किस्मो से असिंचित अवस्था में 15-20 क्विंटल प्रति/हेक्टेयर उपज प्राप्त होती है। सुरक्षित भंडारण हेतु दानों में 10-12% से अधिक नमी नहीं होना चाहिए। भंडारण के पूर्ण क¨ठियों तथा कमरो को साफ कर लें और दीवालों व फर्श पर मैलाथियान 50% के घोल को 3 लीटर प्रति 100 वर्गमीटर की दर से छिड़कें। अनाज को बुखारी, कोठिलों या कमरे में रखने के बाद एल्युमिनियम फास्फाइड 3 ग्राम की दो गोली प्रति टन की दर से रखकर बंद कर देना चाहिए।
ताकि सनद रहे: कुछ शरारती तत्व मेरे ब्लॉग से लेख को डाउनलोड कर (चोरी कर)
बिभिन्न पत्र पत्रिकाओ और इन्टरनेट वेबसाइट पर अपने नाम से प्रकाशित करवा
रहे है। यह निंदिनिय, अशोभनीय व विधि विरुद्ध कृत्य है। ऐसा करना ही है
तो मेरा (लेखक) और ब्लॉग का नाम साभार देने में शर्म नहीं करें।तत्संबधी
सुचना से मुझे मेरे मेल आईडी पर अवगत कराना ना भूले। मेरा मकसद कृषि
विज्ञानं की उपलब्धियो को खेत-किसान और कृषि उत्थान में संलग्न तमाम कृषि
अमले और छात्र-छात्राओं तक पहुँचाना है जिससे भारतीय कृषि को विश्व में
प्रतिष्ठित किया जा सके।