गुरुवार, 18 अप्रैल 2013

विलम्ब से गेहूँ बुवाई की उन्नत तकनीक



                                                                        डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर 
                                                                      प्राध्यापक (सश्यविज्ञान)
                                                                 इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय, 
                                                                  कृषक नगर, रायपुर (छत्तीसगढ़)

    भारत के अनेक गेहूँ उत्पादक राज्यों धान फसल की खेती के कारण  गेहूँ की बुवाई में विलम्ब हो जाता  है । मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़ आदि राज्यों  में गेहूँ की बुवाई बहुधा धान, तोरिया, आलू, गन्ना की पेड़ी या अरहर के बाद की जाती है जिससे गेहूँ की उपज काफी कम प्राप्त होती है।गेहूँ की विलम्बित बुवाई से भी अच्छा उत्पादन लिया जा सकता है, इसके लिए निम्न सस्य तकनीकें अपनाना चाहिए:
1. विलम्बित बुवाई के लिए कम अवधि में तैयार होने वाली किस्में जैसे एचडी 2285, राज 3777, राज 3765, अरपा  आदि का प्रयोग किया जाना चाहिए ।
2. प्रति हैक्टर 125 किग्रा. बीज दर (सामान्य से 25 प्रतिशत अधिक) का प्रयोग करना चाहिए क्योकि देर से बुवाई करने से पौधो  में कल्ले  कम निकलते है । बीज को  रात भर पानी में भिंगो कर 24 घण्टे बाद अंकुरित कर बोआई हेतु प्रयुक्त करें ।
3. खेत की अन्तिम जुताई के समय सड़ी हुई गोबर की खाद  5-7 टन प्रति हैक्टर की दर से मिट्टी में मिलाएं । फसल में उर्वरक नाइट्रोजनःफॉस्फोरसःपोटाश को  क्रमशः 80:40:30 किग्रा. प्रति हैक्टर की दर से प्रयोग करना चाहिए । नत्रजन की मात्रा  सामान्य गेहूँ की अपेक्षा कम ही रखी जाती है ।
4. विलम्ब से बोये गये गेहूँ में सामान्य की अपेक्षा जल्दी-जल्दी सिंचाइयो  की आवश्यकता पड़ती है । पहली सिंचाई बोने के 25-30 दिन पर शिखर जडें  बनते समय अवश्य करें । आगामी सिंचाईयाँ फसल व मृदा की आवश्यकतानुसार 15-20 दिन के अन्तराल पर करें ।
5.अन्य सभी सस्य क्रियाएँ सामान्य गेहूँ की भांति अपनाना चाहिए ।

धान-गेहूँ फसल चक्र में गेंहू से अधिकतम उपज लेने के सूत्र

    भारत में धान-गेंहूँ एक महत्वपूर्ण फसल प्रणाली है जिसके अन्तर्गत लगभग 10.5 मिलियन हैक्टर क्षेत्र  आता है । खरीफ की विभिन्न फसलों के बाद गेहूँ की खेती की जाती है जैसे धान, मक्का, उर्द, मूंग आदि। धान के बाद गेहूँ की खेती में अनेक समस्याये  आती हैं जिन पर समुचित ध्यान न दिया जाए तो गेहूँ की उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। धान-गेहूँ फसल चक्र  की प्रमुख समस्याएँ हैं-
1. धान-गेहूँ दोनों ही अधिक पोषक तत्व चाहने वाली एक ही कुल की  धान्य फसले  हैं। इस फसल पद्धति के अपनाने से प्रमुख पोषक तत्वो  के अलावा भी कुछ विशेष पोषक तत्व जैसे कि जिंक व सल्फर की भूमि में कमी आ सकती है।
2. धान की खेती के दौरान लेह तैयार (पडलिंग) करने  में मृदा की भौतिक दशा बिगड़ जाती है। इसके कारण गेहूँ की फसल को मिट्टी की वांछित दशा नहीं मिल पाती है।
3. धान-गेहूँ दोनों ही अदलहनी फसले होने के कारण उर्वरकों विशेषकर नाइट्रोजन की अधिक आवश्यकता पड़ती है।
4. गेहूँ के लिए खेत की तैयारी हेतु पर्याप्त समय नही मिलता जिससे खरपतवारों का प्रकोप अधिक होता है। बहुधा धान की कटाई विलम्ब से होने पर गेहूँ की बोआई समय पर नहीं हो पाती है। इससे गेहूँ का उत्पादन कम होता है।

धान के बाद गेहूँ की अच्छी उपज लेने  के उपाय

1. धान की कटाई भूमि की सतह से करना: धान के तने और पत्तो में कार्बन की मात्रा अधिक तथा नाइट्रोजन की कम होती है, जिसके कारण धान का पुआल यदि खेत में रह जाता है, तो जाड़े में यह सड़ता नहीं है तथा दीमक का प्रकोप बढ़ जाता है। यह देखा गया है कि जिस स्थान पर खेत में धान के ज्यादा अवशेष रह जाते हैं। वहाँ पर प्राथमिक अवस्था में गेहूँ की फसल पीली पड़ जाती है जिससे उत्पादन पर विपरित प्रभाव पड़ता है। अतः धान की फसल को भूमि की सतह से ही काट लेना चाहिए।
2.कम्बाइन से धान की कटाई करने पर खेत में फैले पुआल के सूखने पर उसे जलाने के पश्चात खेत की जुताई करना चाहिए।
3.खेत की तैयारी के लिए उचित यंत्रों का प्रयोग करना चाहिए। धान रोपाई हेतु खेत मचाई अर्थात  पडलिंग के कारण जमीन की सतह के नीचे कड़ी परत बन जाती है, जो रबी फसलों की जड़ो के बढ़वार में बाधक होती है। अतः गेहूँ बोने के लिए खेत की पहली दो जुताई डिस्क हैरों से करने के बाद कल्टीवेटर या देशी हल से अन्य जुताइयाँ करनी चाहिए। इससे भूमि के अन्दर की कड़ी सतह टूट जाएगी और ढेले भी नहीं होंगे।
4. धान के अवशेष को सड़ाने के लिए बैक्टीरिया भूमि मे उपस्थित नाइट्रोजन को अपने पोषण के लिए प्रयोग कर लेते है।  जिससे गेहूँ की फसल को प्रारम्भिक अवस्था में नाइट्रोजन की आपूर्ति एक समस्या है अतः गेहूँ को दी जाने वाली नाइट्रोजन में से 10 किग्रा. नाइट्रोजन प्रारम्भिक जुताई करते समय (पलेवा से पहले) ही खेत में डाल देनी चाहिए। इससे धान के अवशेष शीघ्र ही सड़ गल जाते हैं और गेहूँ की फसल को प्रारम्भिक अवस्था में नाइट्रोजन की कमी महसूस नही होती है।
5. गेहूँ की बोआई अच्छी प्रकार से पंक्तियों मे करना चाहिए। धान के बाद गेहूँ लेने की अवस्था में बोआई सीड ड्रिल या नाई (पोरा) द्वारा कूड में ही करना चाहिए। छिटकवाँ विधि से बीज ज्यादा लगता है तथा बीज बराबर दूरी व गहराई पर नहीं पड़ता है। इससे वांछित पौध संख्या नहीं होती और उत्पादन कम होता है।
6. पहली सिंचाई जल्दी नहीं करना चाहिए। धान के खेत में कटाई के बाद भी भूमि की कड़ी सतह के आस पास काफी नमी रहती है। अतः पहली सिंचाई बोने के 4-5 सप्ताह बाद ही करना चाहिए।
7. गेहूँ के बाद दलहनी फसलें जैसे उर्द या मूंग की खेती करना चाहिए। इससे भूमि की भौतिक दशा और उर्वरता में सुधार होता है।

गेंहूँ एक विश्वव्यापी फसल-अधिकतम उपज के वैज्ञानिक नुस्खे

                                                                          डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर 

                                                                       प्राध्यापक (सश्यविज्ञान)
                                                                 इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय, 
                                                                  कृषक नगर, रायपुर (छत्तीसगढ़)

                                                      

                                                                     गेंहूँ का आर्थिक महत्व 

            गेहूँ विश्वव्यापी महत्त्व की फसल है। मुख्य रूप से एशिया में धान की खेती की जाती है, तो भी विश्व के सभी प्रायद्वीपों में गेहूँ उगाया जाता है। विश्व की बढ़ती जनसंख्या के लिए गेहूँ लगभग 20 प्रतिशत आहार कैलोरी की पूर्ति करता है। भारत में धान के बाद गेहुँ सबसे महत्वपूर्ण खाद्यान्न फसल है जिसका देश के खाद्यान्न उत्पादन में लगभग 35 प्रतिशत का योगदान  है। गेहूँ के दाने में 12 प्रतिशत नमी, 12 प्रतिशत प्रोटीन, 2.7 प्रतिशत रेशा, 1.7 प्रतिशत वसा, 2.7 प्रतिशत खनिज पदार्थ व 70 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट  पाया जाता है। भारत में गेहूँ के आटे का उपयोग मुख्य रूप से रोटी बनाने में किया जाता है, परन्तु विकसित देशो  में गेहूँ के आटे में खमीर पैदा कर उसका उपय¨ग डबल रोटी, बिस्कुट आदि तैयार करने में किया जाता है । गेहूँ में ग्लूटिन की मात्रा  अधिक होने के कारण इसके आटे का प्रयोग बेकरी उद्योग में भी किया जाता है । इसके अलावा सूजी, रबा, मैदा, दलिया, सेवई, चोंकर (पशुओ  के लिए), उत्तम किस्म की शराब  आदि बनाने में भी गेहूँ का प्रय¨ग बहुतायत में किया जा रहा है । गेहूँ के भूसे का प्रयोग पशुओ को  खिलाने में किया जाता है ।

        गेहूँ की खेती विश्व के प्रायः हर भाग में होती है । संसार की कुल 23 प्रतिशत भूमि पर गेहूँ की ख्¨ती की जाती है ।  विश्व में सबसे अधिक क्षेत्र फल में गेहूँ उगाने वाले   प्रमुख तीन  राष्ट्र भारत, रशियन फैडरेशन और  संयुक्त राज्य अमेरिका है । गेहूँ उत्पादन में चीन के बाद भारत तथा अमेरिका का क्रम आता है ।औसत   उपज के मामले में फ्रांस का पहला स्थान (7107 किग्रा. प्रति हैक्टर) इजिप्ट का दूसरा (6501 किग्रा.) तथा  चीन का तीसरा (4762 किग्रा) क्रम पर है ।
    देश में गेहूँ की औसत उपज लगभग 2907 किग्रा. प्रति हैक्टर आती है  । भारत के केरल, मणिपुर व नागालैण्ड राज्यों को छोड़कर अन्य सभी राज्यों मे गेहूँ की खेती की जाती है परन्तु गेहूँ का अधिकांश क्षेत्रफल उत्तरी  भारत में है। देश में सर्वाधिक क्षेत्रफल मे गेहूँ उत्पन्न करने वाले प्रथम तीन राज्य क्रमशः उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश एवं पंजाब है। इनके अलावा  हरियाणा, राजस्थान, बिहार, गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश, पश्चिम बंगाल प्रमुख गेहूँ उत्पादक राज्य है।  छत्तीसगढ़ राज्य में गेहूँ की खेती का तेजी से विस्तार ह¨ रहा है । राज्योदय के समय (2001-2002) जहां 143.8 लाख हैक्टर में गेहूँ की खेती प्रचलित थी वहीं वर्ष 2009-10 में 177.96 हजार हैक्टर क्षेत्रफल में गेहूँ बोया गया तथा 1306 किग्रा. प्रति हैक्टर औसत उपज प्राप्त हुई। प्रदेश के सरगुजा, दुर्ग और  राजनांदगांव जिलो  में सबसे अधिक क्षेत्र फल में गेंहू की खेती की जाती है । इन जिलो  के अलावा बिलासपुर, रायपुर तथा  जांजगीर जिलो  में भी गेंहू की खेती की जा रही है । उत्पादन के मामले  में सरगुजा, बिलासपुर व  दुर्ग अग्रणी जिलो  की श्रेणी में आते है । प्रदेश के दंतेबाड़ा जिले  में गेंहू की सर्वाधिक ओसत उपज (1975 किग्रा. प्रति हैक्टर) ली जा रही है ।

गेंहू  से भरपूर उपज और अधिकतम लाभ हेतु सस्य-तकनीक 

उपयुक्त जलवायु क्षेत्र 

                गेहूँ मुख्यतः एक ठण्डी एवं शुष्क  जलवायु की फसल है अतः फसल बोने के समय 20 से 22  डि से , बढ़वार के समय इष्टतम ताप 25 डि से  तथा पकने के समय  14 से 15 डि से तापक्रम उत्तम  रहता है। तापमान  से अधिक होने पर फसल जल्दी पाक जाती है और उपज घट जाती है। पाल्¨ से फसल क¨ बहुत नुकसान होता है । बाली लगने के समय पाला  पड़ने पर बीज अंकुरण शक्ति ख¨ देते है और  उसका विकास रूक जाता है । छ¨टे दिनो  में पत्तियां   और कल्लो  की बाढ़ अधिक होती है जबकि दिन बड़ने के साथ-साथ बाली निकलना आरम्भ होता है। इसकी खेती के लिए 60-100 से. मी. वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्र उपयुक्त रहते है। पौधों की वृद्धि के लिए  वातावरण में 50-60 प्रतिशत आर्द्रता उपयुक्त पाई गई है। ठण्डा शीतकाल तथा गर्म ग्रीष्मकाल गेंहूँ की बेहतर फसल के लिए उपयुक्त माना जाता है । गर्म एवं नम  जलवायु गेहूँ के लिए उचित नहीं होती, क्योंकि ऐसे क्षेत्रों में फसल में रोग अधिक लगते है।

भूमि का चयन 

     गेहूँ सभी प्रकार की कृषि य¨ग्य भूमियों में पैदा हो सकता है परन्तु दोमट से भारी दोमट, जलोढ़ मृदाओ  मे गेहूँ की खेती सफलता पूर्वक की जाती है। जल निकास की सुविधा होने पर मटियार दोमट  तथा काली मिट्टी में भी इसकी अच्छी फसल ली जा सकती है। कपास की काली मृदा  में गेहूँ की खेती के लिए सिंचाई की आवश्यकता कम पड़ती है। भूमि का पी. एच. मान 5 से 7.5 के बीच में होना फसल के लिए उपयुक्त  रहता है क्योंकि अधिक क्षारीय या अम्लीय भूमि   गेहूं के लिए अनुपयुक्त ह¨ती है।  
खेत  की तैयारी
    अच्छे  अंकुरण  के लिये एक बेहतर भुरभुरी  मिट्टी की आवश्यकता होती है। समय पर जुताई  खेत में नमी संरक्षण के लिए भी आवश्यक है। वास्तव में खेत की तैयारी करते समय हमारा लक्ष्य यह होना चाहिए कि बोआई के समय खेत खरपतवार मुक्त  हो, भूमि में पर्याप्त नमी हो तथा मिट्टी इतनी भुरभुरी हो जाये ताकि बोआई आसानी से उचित गहराई तथा समान दूरी पर की जा सके। खरीफ की फसल काटने के बाद खेत की पहली जुताई  मिट्टी पलटने वाले हल (एमबी प्लोऊ ) से करनी चाहिए जिससे खरीफ फसल के अवशेष   और खरपतवार मिट्टी मे दबकर सड़ जायें। इसके  बाद आवश्यकतानुसार 2-3 जुताइयाँ देशी हल - बखर या कल्टीवेटर से करनी चाहिए। प्रत्येक जुताई के बाद पाटा देकर खेत समतल कर लेना चाहिए। ट्रैक्टर चालित र¨टावेटर यंत्र्ा से ख्¨त एक बार में बुवाई हेतु तैयार ह¨ जाता है ।  सिंचित क्षेत्र  में धान-गेहूँ फसल चक्र में विलम्ब से खाली होने वाले  धान के खेत की समय से बुवाई करने के लिए धान की कटाई से पूर्व सिंचाई कर देते है तथा शून्य भू-परिष्करण बुवाई करके मृदा की भौतिक  अवस्था का संरक्षण, समय से बुवाई, खेती व्यय में कमी तथा सघन कृषि के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ बनती है । धान-गेहूँ चक्र वाले  क्षेत्र में यह विधि बहुत प्रचलित होती जा  रही है ।

उन्नत किस्में

               फसल उत्पादन मे उन्नत किस्मों के बीज का महत्वपूर्ण स्थान है। गेहूँ की किस्मों का चुनाव जलवायु, बोने का समय और क्षेत्र के आधार पर करना चाहिए।

गेहूँ की प्रमुख उन्नत किस्मो  की विशेषताएं

1.रतन: इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित यह किस्म सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त है। यह किस्म 112 दिन में पकती है। दाना गोल होता है। सूखा व गेरूआ रोधक किस्म है जो औसतन 19 क्विंटल  प्रति हैक्टर उपज देती है।
2.अरपा: इंदिरा गांधी विश्वविद्यालय द्वारा विकसित यह किस्म देर से बोने के लिए सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त है। यह किस्म 112 दिन में पकती है। दाना अम्बर रंग का होता है। अधिक तापमान, गेरूआ रोग व कटुआ कीट रोधक किस्म है जो औसतन 23-24 क्विंटल  प्रति हैक्टर उपज देती है।
3.नर्मदा 4: यह पिसी सरबती किस्म, काला और भूरा गेरूआ निरोधक है। यह असिंचित एवं सीमित सिंचाई क्षेत्रों के लिये उपयुक्त है। इसके पकने का समय 125 दिन हैं इसकी पैदावार 12-19 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर है। इसका दाना सरबती  चमकदार होता है। यह चपाती बनाने के लिये विशेष उपयुक्त है।
4. एन.पी.404: यह काला और भूरा गेरूआ निरोधक कठिया किस्म असिंचित दशा के लिये उपयुक्त है। यह 135 दिन मे पक कर तैयार होती है। पैदावार 10 से 11 क्विंटल  प्रति हेक्टयर होती है। इसका दाना बड़ा, कड़ा और सरबती रंग का होता है।
5. मेघदूत: यह काला और भूरा गेरूआ निरोधक कठिया जाति असिंचित अवस्था के लिये उपयुक्त है। इसके पकने का समय 135 दिन है। इसकी पदौवार 11 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर होती है। इसका दाना एन.पी.404 से कड़ा होता है।
6.हायब्रिड 65: यह पिसिया किस्म है, जो भूरा गेरूआ निरोधक है। यह 130 दिन में पकती है। इसकी पैदावार असिंचित अवस्था में 13 से 19 क्विंटल  प्रति हेक्टयर होती है। इसका दाना, सरबती, चमकदार, 1000 बीज का भार 42 ग्राम होता है।
7.मुक्ता: यह पिसिया किस्म है जो भूरा गेरूआ निरोधक है। असिंचित अवस्था के लिये उपयुक्त है। यह 130 दिन में पकती है। इसकी पैदावार 13 - 15 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर होती है। इसका दाना सरबती लम्बा और चमकदार होता है।
8.सुजाता: यह पिसिया (सरबती) किस्म काला और भूरा गेरूआ सहनशील है। असिंचित अवस्था के लिए उपयुक्त है। यह 130 दिन में पकती है। इसकी पैदावा 13 - 17 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर होती है। इसका दाना, सरबती, मोटी और चमकदार होता है।
9.सोनालिका: यह गेरूआ निरोधक, अंबर रग की, बड़े दाने वाले किस्म। यह 110 दिनों में पककर तैयार हो जाता है। देर से बोने के लिए उपयुक्त है। धान काटने के बाद जमीन तैयार कर बुवाई की जा सकती है। इसकी पैदावार 30 से 35 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर होती है।
10.कल्याण सोना (एच.डी.एम.1593): इसका दाना चमकदार, शरबती रंग का होता है। यह किस्म 125 दिन मे पक जाती है। पैदावार प्रति हेक्टेयर 30 से 35 क्विंटल  तक होती है। गेरूआ र¨ग से प्रभावित यह किस्म अभी भी काफी प्रचलित है।
11.नर्मदा 112: यह पिसिया (सरबती) किस्म है जो काला और भूरा गेरूआ निरोधक है। असिंचित एवं सीमित सिंचाई वाले क्षेत्रो के लिए उपयुक्त है।इसके पकने का समय 120 - 135 दिन है। इसकी पैदावार 14 - 16 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर होती है। इसका दाना सरबती चमकदार और बड़ा होता है। इह चपाती बनाने के लिए विशेष उपयुक्त है।
12.डब्ल्यू.एच. 147: यह बोनी पिसी किस्म काला और भूरा गेरूआ निरोधक है। सिंचित अवस्था के लिये उपयुक्त है। बाले गसी हुई मोटी होती है। इसका पकने का समय 125 दिन होता है। इसका दाना मोटा सरबती होता है। इसकी पैदावार 40 से 45 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।
13.एच.डी. 4530: यह बोनी कठिया किस्म काला और भूरा गेरूआ निरोधक है। सिंचित अवस्था के लिए उपयुक्त है। बाले गसी हुई और मोटी होती है। इसका पकने का समय 130 दिन होता है। इसका दाना मोटा, सरबती और कड़क होता है। इसकी पैदावार 35 क्विंटल/ हेक्टेयर होती है।
14. शेरा (एच.डी.1925): देर से बोने के लिए यह जाति उपयुक्त है। यह गेरूआॅ निरोधक है यह कम समय 110 दिन में पक जाती है। इसका दाना आकर्षक होता है।इसकी पैदावार लगभग 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।
15. जयराज: इसकी ऊँचाई 100 से. मी. है। यह जाति 115 दिन मे पकती है। इसके दाने सरबती मोटे (1000 दानो का भार 49 ग्राम) व चमकदान होते है। यह गेरूआ प्रतिबंधक सिंचित अवस्था के लिए उपयुक्त है। यह किस्म दिसम्बर के प्रथम सप्ताह तक बोई जा सकती है। इसकी पैदावार 38 से 40 क्विंटल/हेक्टेयर होती है।
16. जे.डब्लू.-7: यह देर से तैयार (130 - 135 दिन) होने वाली किस्म है। बीज सरबती, मुलायम से हल्के कड़े (1000 बीज का भार 46 ग्राम) होते है। रोटी हेतु उत्तम , सी - 306 से अधिक प्रोटीन होता है। इसकी औसत उपज 23 - 25 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर है।

गेहूँ की नवीन उन्नत किस्मो  के गुणधर्म

1. जे.डब्लू.-1106: यह मध्यम अवधि (115 दिन) वाली किस्म है जिसके पौधे सीधे मध्यम ऊँचाई के होते है। बीज का आकार सिंचित अवस्था में बड़ा व आकर्षक होता है। सरबती तथा अधिक प्रोटीन युक्त किस्म है जिसकी आसत उपज 40 - 50 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर है।
2. अमृता (एच.आई. 1500): यह सरबती श्रेणी की नवीनतम सूखा निरोधक किस्म है।  इसका पौधा अर्द्ध सीधा तथा ऊँचाई 120 - 135 से. मी. होती है। दाने मध्यम गोल, सुनहरा (अम्बर) रंग एवं चमकदार होते है। इसके 1000 दानों का वजन 45 - 48 ग्राम और बाल आने का समय 85 दिन है। फसल पकने की अवधि 125 - 130 दिन तथा आदर्श परिस्थितियों में 30 - 35 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर उपज देती है।
3. स्वर्णा (एच.आई.-1479): समय से बोने हेतु मध्य प्रदेश की उर्वरा भूमियो के लिए शीघ्र पकने वाली गेरूआ निरोधक किस्म है। गेहू का दाना लम्बा, बोल्ड, आकर्षक, सरबती जैसा चमकदार व स्वादिष्ट होता है। इसके 1000 दानो का वजन 45 - 48 ग्राम होता है। फसल अवधि 110 दिन हे। इस किस्म से 2 - 3 सिंचाइयों से अच्छी उपज ली जा सकती है। गेहूँ की लोक-1 किस्म के विकल्प के रूप में इसकी खेती की जा सकती है।
4. हर्षित (एचआई-1531): यह सूखा पाला अवरोधी मध्यम बोनी (75 - 90 से. मी. ऊँचाई) सरबती किस्म है। इसके दाने सुडौल, चमकदार, सरबती एवं रोटी के लिए उत्तम है जिसे सुजाता किस्म के विकल्प के रूप में उगाया जा सकता है। फसल अवधि 115 दिन है तथा 1 - 2 सिंचाई में 40 क्विंटल प्रति हेक्टेयर से अधिक उपज देती है।
5. मालव शक्ति (एचआई - 8498): यह कम ऊँचाई वाली (85 से.मी) बोनी कठिया (ड्यूरम) किस्म है। यह नम्बर - दिसम्बर तक बोने हेतु उपयुक्त किस्म है। इसका दाना अत्यन्त आकर्षक, बड़ा, चमकदार, प्रोटीन व विटामिन ए की मात्रा अधिक, अत्यन्त स्वादिष्ट होता है। बेकरी पदार्थ, नूडल्स, सिवैया, रवा आदि बनाने के लिए उपयुक्त है। बाजार भाव अधिक मिलता है तथा गेहूँ निर्यात के लिए उत्तम किस्म है। इसकी बोनी नवम्बर से लेकर दिसम्बर के द्वितीय सप्ताह तक की जा सकती है। इसकी फसल लोक-1 से पहले तैयार हो जाती है। इससे अच्छी उपज लेने के लिए 4 - 5 पानी आवश्यक है।
6. मालवश्री (एचआई - 8381): यह कठिया गेहूँ की श्रेणी में श्रेष्ठ किस्म है। इसके पौधे बौने (85 - 90 से.मी. ऊँचाई), बालियों के बालों का रंग काला होता है। यह किस्म 4 - 5 सिंचाई मे बेहतर उत्पादन देती है। इसके 1000 दानों का वजन 50 - 55 ग्राम एवं उपज क्षमता 50 - 60 क्विंटल  प्रति हेक्टर है।
    राज-3077 गेहूँ की ऐसी नयी किस्म है, जिसमें अन्य प्रजातियों की अपेक्षा 12 प्रतिशत अधिक प्रोटीन पाया जाता है। इसे अम्लीय एवं क्षारीय दोनों प्रकार की मिट्टियों में बोया जा सकता है।

बीजोपचार

    बुआई के लिए ज¨ बीज इस्तेमाल किया जाता है वह रोग मुक्त,  प्रमाणित तथा क्षेत्र विशेष के लिए अनुशंषित उन्नत किस्म का  होना चाहिए। बीज मे किसी दूसरी किस्म का बीज नहीं मिला होना चाहिए। बोने से पूर्व बीज के अंकुरण प्रतिशत का परीक्षण अवश्य कर लेना चाहिए। यदि प्रमाणित बीज  न हो तो उसका शोधन अवश्य करे ।  खुला कण्डुआ  या कर्नाल बन्ट आदि रोगों  की रोकथाम के लिए  कार्बेन्डाजिम (बाविस्टीन) या कार्बोक्सिन (बीटावैक्स) रसायन 2.5 ग्राम  मात्रा  प्रति किग्रा. बीज की दर से उपचारित करना चाहिए। इसके अलावा रोगों की रोकथाम के लिए ट्राइकोडरमा विरडी की 4 ग्राम मात्रा  1 ग्राम कार्बेन्डाजिम के साथ प्रति किग्रा बीज की दर से बीज श¨धन किया जा सकता है ।

बोआई का समय

    गेंहूँ रबी की फसल है जिसे शीतकालीन मौसम   में उगाया जाता है । भारत के विभिन्न भागो  में गेहूँ का जीवन काल भिन्न-भिन्न रहता है । सामान्य तौर  पर गेहूं की बोआई अक्टूबर से दिसंबर तक की जाती है तथा फसल की कटाई फरवरी से मई तक की जाती है । जिन किस्मों की अवधि 135 - 140 दिन है, उनको नवम्बर के प्रथम पखवाड़े   में व जो किस्में पकने में 120 दिन का समय लेती है, उन्हे 15 - 30 नवम्बर तक बोना चाहिए। गेहूँ की शीघ्र बुवाई करने पर बालियाँ पहले  निकल आती है तथा उत्पादन कम होता है जबकि तापक्रम पर बुवाई करने पर  अंकुरण देर से होता है । प्रयोगो  से यह देखा गया है कि लगभग 15 नवम्बर के आसपास  गेहूँ बोये जाने पर अधिकतर बोनी किस्में अधिकतम उपज देती है । अक्टूबर के उत्तरार्द्ध में बोयी गई लंबी किस्मो  से भी अच्छी उपज प्राप्त की जा सकती है । असिंचित अवस्था   में बोने का उपयुक्त समय बर्षा ऋतु समाप्त होते ही मध्य अक्टूबर के लगभग है। अर्द्धसिंचित अवस्था मे जहाँ पानी सिर्फ 2 - 3 सिंचाई के लिये ही उपलब्ध हो, वहाँ बोने का उपयुक्त समय 25 अक्टूबर से 15 नवम्बर तक है। सिंचित गेहूँ बोने का उपयुक्त समय नवम्बर का प्रथम पखवाड़ा है। बोनी में 30 नवम्बर से अधिक देरी नहीं होना चाहिए। यदि किसी कारण से बोनी विलंब   से करनी हो तब देर से बोने वाली किस्मो की बोनी दिसम्बर के प्रथम सप्ताह तक हो जाना चाहिये। देर से बोयी गई फसल को  पकने से पहले  ही सूखी और  गर्म हवा  का सामना करना पड़ जाता है जिससे दाने सिकुड़  जाते है तथा  उपज कम हो  जाती है ।
बीज दर एवं पौध अंतर
    चुनी हुई किस्म के बड़े-बड़े  साफ, स्वस्थ्य और  विकार रहित दाने, जो  किसी उत्तम फसल से प्राप्त कर सुरंक्षित स्थान पर रखे  गये हो, उत्तम बीज होते है । बीज दर भूमि मे नमी की मात्रा, बोने की विधि तथा किस्म पर निर्भर करती है। बोने गेहूँ   की खेती के लिए बीज की मात्रा  देशी गेहूँ   से अधिक होती है । बोने गेहूँ के लिए 100-120 किग्रा. प्रति हैक्टर तथा देशी  गेहूँ के लिए 70-90 किग्रा. बीज प्रति हैक्टर की दर से बोते है । असिंचित गेहूँ  के लिए बीज की मात्रा 100 किलो प्रति हेक्टेर व कतारों के बीच की दूरी 22 - 23 से. मी. होनी चाहिये। समय पर बोये जाने वाले  सिंचित गेहूं  मे बीज दरं 100 - 125 किलो प्रति हेक्टेयर व कतारो की दूरी 20-22.5 से. मी. रखनी चाहिए। देर वालीसिंचित गेहूं की बोआई के लिए बीज दर 125 - 150 कि. ग्रा. प्रति हेक्टेयर तथा पंक्तियों के मध्य 15 - 18 से. मी. का अन्तरण रखना उचित रहता है। बीज को रात भर पानी में भिंगोकर बोना लाभप्रद है। भारी चिकनी मिट्टी में नमी की मात्रा आवश्यकता से कम या अधिक रहने तथा ब¨आई में बहुत देर हो  जाने पर अधिक बीज ब¨ना चाहिए । मिट्टी के कम उपजाऊ ह¨ने या फसल पर रोग या कीटो  से आक्रमण की सम्भावना होने पर भी बीज अधिक मात्रा में डाले  जाते है ।
    प्रयोगों में यह देखा गया है कि पूर्व - पश्चिम व उत्तर - दक्षिण क्रास बोआई  करने पर गेहूँ की अधिक उपज प्राप्त होती है। इस विधि में कुल बीज व खाद की मात्रा, आधा - आधा करके उत्तर - दक्षिण और पूर्व - पश्चिम दिशा में बोआई की जाती है। इस प्रकार पौधे सूर्य की रोशनी  का उचित उपयोग प्रकाश संश्लेषण  मे कर लेते है, जिससे उपज अधिक मिलती है।गेहूँ मे प्रति वर्गमीटर 400 - 500 बालीयुक्त पौधे  होने से अच्छी उपज प्राप्त होती है।

बीज बोने की गहराई

    बौने गेहुँ की बोआई में गहराई का विशेष महत्व होता है, क्योंकि बौनी किस्मों में प्राकुंरचोल  की लम्बाई 4 - 5 से. मी. होती है। अतः यदि इन्हे गहरा बो दिया जाता है तो अंकुरण बहुत कम होता है। गेहुँ की बौनी किस्मों क¨ 3-5 से.मी. रखते है । देशी (लम्बी) किस्मों  में प्रांकुरच¨ल की लम्बाई लगभग 7 सेमी. ह¨ती है । अतः इनकी बोने की गहराई 5-7 सेमी. रखनी चाहिये।

बोआई की विधियाँ

    आमतौर  पर गेहूँ की बोआई चार बिधियो  से (छिटककर, कूड़ में चोगे या सीड ड्रिल से तथा डिबलिंग) से की जाती है   । गेहूं बोआई हेतु स्थान विशेष की परिस्थिति अनुसार विधियाँ प्रयोग में लाई जा सकती हैः
1. छिटकवाँ विधि : इस विधि में बीज को हाथ से समान रूप से खेत में छिटक दिया जाता है और पाटा अथवा देशी हल चलाकर बीज को  मिट्टी से ढक दिया जाता है। इस विधि से गेहूँ उन स्थानो  पर बोया जाता है, जहाँ अधिक वर्षा होने या मिट्टी भारी दोमट होने से नमी अपेक्षाकृत अधिक समय तक बनी रहती है । इस विधि से बोये गये गेहूँ का अंकुरण ठीक से नही हो पाता, पौध  अव्यवस्थित ढंग से उगते है,  बीज अधिक मात्रा में लगता है और पौध  यत्र्-तत्र् उगने के कारण निराई - गुड़ाई  में असुविधा होती है परन्तु अति सरल विधि होने के कारण कृषक इसे अधिक अपनाते है ।
2. हल के पीछे कूड़ में बोआई : गेहूँ बोने की यह सबसे अधिक प्रचलित विधि है । हल के पीछे कूँड़ में बीज गिराकर दो विधियों से बुआई की जाती है -
(अ) हल के पीछे हाथ से बोआई (केरा विधि): इसका प्रयोग उन स्थानों पर किया जाता है जहाँ बुआई अधिक क्षेत्र  में की जाती  है तथा ख्¨त में पर्याप्त नमी ह¨ । इस विधि मे देशी हल के पीछे बनी कूड़ो  में जब एक व्यक्ति खाद और  बीज मिलाकर हाथ से बोता चलता है तो  इस विधि को  केरा विधि कहते है । हल के घूमकर दूसरी बार आने पर पहले  बने कूँड़ कुछ स्वंय ही ढंक जाते है । सम्पूर्ण खेत में बोआई हो   जाने के बाद पाटा चलाते है, जिससे बीज भी ढंक जाता है और  खेत भी चोरस हो  जाता है ।
(ब) देशी हल के पीछे नाई बाँधकर बोआई (पोरा विधि): इस विधि का प्रयोग असिंचित क्षेत्रों या नमी की कमी वाले क्षेत्रों में किया जाता है। इसमें नाई, बास या चैंगा हल के पीछे बंधा रहता है। एक ही आदमी हल चलाता है तथा दूसरा बीज डालने का कार्य करता है। इसमें उचित दूरी पर देशी हल द्वारा 5 - 8 सेमी. गहरे कूड़ में बीज पड़ता है । इस विधि मे बीज समान गहराई पर पड़ते है जिससे उनका समुचित अंकुरण होता है। कार्यक्षमता बढ़ाने के लिए देशी हल के स्थान पर कल्टीवेटर का प्रयोग कर सकते हैं क्योंकि कल्टीवेटर से एक बार में तीन कूड़ बनते है।
3. सीड ड्रिल द्वारा बोआई: यह पोरा विधि का एक सुधरा रूप है। विस्तृत क्षेत्र  में बोआई करने के लिये यह आसान तथा सस्ता ढंग है  । इसमे बोआई बैल चलित या ट्रेक्टर चलित बीज वपित्र द्वारा की जाती है। इस मशीन में पौध अन्तरण   व बीज दर का समायोजन  इच्छानुसार किया जा सकता है। इस विधि से बीज भी कम लगता है और बोआई निश्चित दूरी तथा गहराई पर सम रूप से हो पाती है जिससे अंकुरण अच्छा होता है । इस विधि से  बोने में समय कम लगता है ।
4. डिबलर द्वारा  बोआईः इस विधि में प्रत्येक बीज क¨ मिट्टी में छेदकर निर्दिष्ट स्थान पर मनचाही गहराई पर ब¨ते है । इसमें  एक लकड़ी का फ्रेम को खेत में रखकर दबाया जाता है तो खूटियो से भूमि मे छेद हो जाते हैं जिनमें 1-2 बीज प्रति छेद की दर से डालते हैं। इस विधि से बीज की मात्रा काफी कम (25-30 किग्रा. प्रति हेक्टर) लगती है परन्तु समय व श्रम अधिक लगने के कारण उत्पादन लागत बढ़ जाती है।
5. फर्ब विधि : इस विधि में सिंचाई जल बचाने के उद्देश्य से ऊँची उठी हुई क्यारियाँ तथा नालियाँ बनाई जाती है । क्यारियो  की चोड़ाई इतनी रखी जाती है कि उस पर 2-3 कूड़े आसानी से ब¨ई जा सके तथा नालियाँ सिंचाई के लिए प्रय¨ग में ली जाती है । इस प्रकार लगभग आधे सिंचाई जल की बचत ह¨ जाती है । इस विधि में सामान्य प्रचलित विधि की तुलना में उपज अधिक प्राप्त ह¨ती है । इसमें ट्रैक्टर चालित यंत्र् से बुवाई की जाती है । यह यंत्र् क्यारियाँ बनाने, नाली बनाने तथा क्यारी पर कूंड़ो  में एक साथ बुवाई करने का कार्य करता है ।
6.शून्य कर्षण सीड ड्रिल विधि: धान की कटाई के उपरांत किसानों को रबी की फसल गेहूं आदि के लिए खेत तैयार करने पड़ते हैं। गेहूं के लिए किसानों को अमूमन 5-7 जुताइयां करनी पड़ती हैं। ज्यादा जुताइयों की वजह से किसान समय पर गेहूं की ब¨आई नहीं कर पाते, जिसका सीधा असर गेहूं के उत्पादन पर पड़ता है। इसके अलावा इसमें लागत भी अधिक आती है। ऐसे में किसानों को अपेक्षित लाभ नहीं मिल पाता। शून्य कर्षण से किसानों का समय तो बचता ही है, साथ ही लागत भी कम आती है, जिससे किसानों का  लाभ काफी बढ़ जाता है। इस विधि के माध्यम से खेत की जुताई और बिजाई दोनों ही काम एक साथ हो जाते हैं। इससे बीज भी कम लगता है और पैदावार करीब 15 प्रतिशत बढ़ जाती है। खेत की तैयारी में लगने वाले श्रम व सिंचाई के रूप में भी करीब 15 प्रतिशत बचत होती है। इसके अलावा खरपतवार प्रक¨प भी कम होता है, जिससे खरपतवारनाशकों का खर्च भी कम हो जाता है। समय से बुआई होने से पैदावार भी अच्छी होती है।  
जीरो टिल सीड ड्रिल मशीन
        यह  गो .पं.कृषि विश्व विद्यालय द्वारा विकसित एक ऐसी मशीन है जिसकी मदद से  धान की फसल की कटाई के तुरन्त बाद नमीयुक्त खेत में बिना खेत की तैयारी किये सीधे गेहूँ की बुवाई की जा  सकती है । इसमें लगे कूंड बनाने वाले फरो-ओपरन के बीच की दूरी को कम या ज्यादा किया जा सकता है। यह मशीन गेहूं और धान के अलावा दलहन फसलों के लिए भी बेहद उपयोगी है। इससे दो घंटे में एक हेक्टेयर क्षेत्र में बुआई की जा सकती है। इस मशीन को 35 हॉर्स पॉवर शक्ति के ट्रैक्टर से चलाया जा सकता है। मशीन में फाल की जगह लगे दांते मानक गहराई   तक मिट्टी को चीरते हैं। इसके साथ ही मशीन के अलग-अलग चोंगे में रखा खाद और बीज कूंड़ में गिरता जाता है।

खाद एवं उर्वरक

    फसल की प्रति इकाई पैदावार बहुत कुछ खाद एवं उर्वरक की मात्रा  पर निर्भर करती है । गेहूँ में हरी खाद, जैविक खाद एवं रासायनिक खाद का प्रयोग किया जाता है । खाद एवं उर्वरक की मात्रा गेहूँ की किस्म, सिंचाई की सुविधा, बोने की विधि आदि कारकों पर निर्भर करती है। प्रयोगों से ज्ञात होता है कि लम्बे देशी गेहूँ द्वारा भूमि से लगभग 50 कि.ग्रा. नाइट्रोजन, 21 कि.ग्रा. फास्फोरस तथा 6 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर ग्रहण कर लिया जाता है जबकि 50 क्विंटल  उपज देने वाले बौने गेहूँ द्वारा भूमि से लगभग 150 कि.ग्रा. नाइट्रोजन, 70-80 कि.ग्रा. फास्फोरस तथा 125-150 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हेक्टर ग्रहण कर लिया जाता है। अतः अधिकतम उपज के लिए भूमि में पोषक तत्वों की पूर्ति की जाती है परन्तु उपलब्धता के आधार पर नाइट्रोजन की कम से कम आधी मात्रा गोबर खाद या काम्पोस्ट के माध्यम से देना अधिक लाभप्रद पाया गया है।
    खेत  में 10-15 टन प्रति हेक्टर की दर से सडी हुई गोबर की खाद या कम्पोस्ट फैलाकर जुताई के समय बो आई पूर्व मिट्टी में मिला देना चाहिए । रासायनिक उर्वरको  में नाइट्रोजन, फास्फोरस , एवं पोटाश  मुख्य है । सिंचित गेहूँ में (बौनी किस्में) बोने के समय आधार मात्रा के रूप में 125 किलो नत्रजन, 50 किलो स्फुर व 40 किलो पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिये। देशी किस्मों में 60:30:30 किग्रा. प्रति हेक्टेयर के अनुपात में उर्वरक देना चाहिए। असिंचित गेहूँ की देशी किस्मों मे आधार मात्रा के रूप में 40 किलो नत्रजन, 30 किलो स्फुर व 20 किलो पोटाश प्रति हेक्टेयर बोआई के समय हल की तली में देना चाहिये। बौनी किस्मों में 60:40:30 किलों के अनुपात में नत्रजन, स्फुर व पोटाश बोआई के समय देना लाभप्रद पाया गया है।
    परीक्षणो  से सिद्ध हो चुका है कि  सिंचित गेहूँ में नाइट्रोजन की मात्रा एक बार में न देकर दो या तीन बार  में देना अच्छा रहता है। साधारण भूमियों में आधी मात्रा बोते समय और शेष आधी मात्रा पहली सिंचाई के समय देनी चाहिए। हल्की भूमियों में नाइट्रोजन को तीन बार मे (एक तिहाई बोने के समय, एक-तिहाई पहली सिंचाई पर तथा शेष एक-तिहाई दूसरी सिंचाई पर) देना चाहिए। असिंचित दशा मे  नत्रजन, फास्फोरस व पोटाश युक्त उर्वरकों को बोआई के समय ही कूड़ मे बीज से 2-3 से.मी. नीचे व 3-4 से.मी. बगल में देने से इनकी अधिकतम मात्रा  फसल को  प्राप्त हो  जाती है । मिट्टी परीक्षण के आधार पर खाद की मात्रा में परिवर्तन किया जा सकता है। यदि मिट्टी परीक्षण में जस्ते की कमी पाई गई हो तब 20-25 किलो जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर बोआई के पहले मिट्टी मे अच्छी प्रकार मिला देना चाहिये।

सिंचाई

    भारत मे लगभग 50 प्रतिशत क्षेत्र में गेहूँ की खेती असिंचित दशा में की जाती है। परन्तु बौनी किस्मों से अधिकतम उपज के लिए सिंचाई आवश्यक है। गेहूँ की बौनी किस्मों को 30-35 हेक्टर से.मी. और देशी किस्मों  को 15-20 हेक्टर से.मी. पानी की कुल आवश्यकता होती है। उपलब्ध जल के अनुसार गेहूँ में सिंचाई क्यारियाँ बनाकर करनी चाहिये। प्रथम सिंचाई में औसतन 5 सेमी. तथा बाद की सिंचाईयों में 7.5 सेमी. पानी देना चाहिए। सिंचाईयो  की संख्या और  पानी की मात्रा  मृदा के प्रकार, वायुमण्डल का तापक्रम तथा ब¨ई गई किस्म पर निर्भर करती है । फसल अवधि की कुछ विशेष क्रान्तिक अवस्थाओं  पर बौनी किस्मों में सिंचाई करना आवश्यक होता है। सिंचाई की ये क्रान्तिक अवस्थाएँ निम्नलिखित हैं -
1. पहली सिंचाई शीर्ष जड प्रवर्तन अवस्था  पर अर्थात बोने के 20 से 25 दिन पर सिंचाई करना चाहिये। लम्बी किस्मों में पहली सिंचाई सामान्यतः बोने के लगभग 30-35 दिन बाद की जाती है।
2. दूसरी सिंचाई दोजियां निकलने की अवस्था  अर्थात बोआई के लगभग 40-50 दिन बाद।
3.तीसरी सिंचाई सुशांत अवस्था  अर्थात ब¨आई के लगभग 60-70 दिन बाद ।
4. च©थी सिंचाई फूल आने की अवस्था  अर्थात बोआई के 80-90 दिन बाद ।
5. दूध बनने तथा शिथिल अवस्था  अर्थात बोने के 100-120 दिन बाद।
    पर्याप्त सिंचाईयां उपलब्ध ह¨ने पर बौने  गेहूं में 4-6 सिंचाई देना श्रेयस्कर होता है । यदि मिट्टी काफी हल्की या बलुई है त¨ 2-3 अतिरिक्त सिंचाईय¨ं की आवश्यकता ह¨ सकती है । सीमित मात्रा में जलापूर्ति  की स्थित  में सिंचाई का निर्धारण निम्नानुसार किया जाना चाहिए:
    यदि केवल दो सिंचाई की ही सुविधा उपलब्ध है, तो पहली सिंचाई बोआई के 20-25 दिन बाद (शीर्ष जड प्रवर्तन अवस्था ) तथा दूसरी सिंचाई फूल आने के समय बोने के 80-90 दिन बाद करनी चाहिये।यदि पानी तीन सिंचाईय¨ हेतु उपलब्ध है तो  पहली सिंचाई  शीर्ष जड प्रवर्तन अवस्था पर (बोआई के 20-22 दिन बाद), दूसरी तने में गाँठें बनने (बोने क 60-70 दिन बाद) व तीसरी दानो में दूध पड़ने के समय (100-120 दिन बाद) करना चाहिये।
    गेहूँ की देशी लम्बी बढ़ने वाली किस्मो  में 1-3 सिंचाईयाँ करते हैं। पहली सिंचाई बोने के 20-25 दिन बाद, दूसरी सिंचाई बोने के 60-65 दिन बाद और तीसरी सिंचाई बोने के 90-95 दिन बाद करते हैं ।
असिंचित अवस्था  में मृदा नमी का प्रबन्धन
    खेत की जुताई कम से कम करनी चाहिए तथा जुताई के बाद पाटा चलाना चाहिए। जुताई का कार्य प्रातः व शायंकाल में करने से वाष्पीकरण  द्वारा नमी का ह्रास कम होता है। खेत की मेड़बन्दी अच्छी प्रकार से कर लेनी चाहिए, जिससे वर्षा के पानी को खेत में ही संरक्षित किया ता सके। बुआई पंक्तियों में 5 सेमी. गहराई पर करना चाहिए। खाद व उर्वरकों की पूरी मात्रा, बोने के पहले कूड़ों में 10-12 सेमी. गहराई में दें। खरपतवारों पर समयानुसार नियंत्रण करना चाहिए।

खरपतवार नियंत्रण

    गेहूँ के साथ अनेक प्रकार के खरपतवार भी खेत में उगकर पोषक तत्वों, प्रकाश, नमी आदि के लिए फसल के साथ प्रतिस्पर्धा  करते है। यदि इन पर नियंत्रण नही किया गया तो गेहूँ की उपज मे 10-40 प्रतिशत तक हानि संभावित है। बोआई से 30-40 दिन तक का समय खरपतवार प्रतिस्पर्धा के लिए अधिक क्रांतिक ;ब्तपजपबंस) रहता है। गेहूँ के खेत में चैड़ी पत्ती वाले और घास कुल के खरपतारों का प्रकोप होता है।
1. चैड़ी पत्ती वाले खरपतवार: कृष्णनील, बथुआ, हिरनखुरी, सैंजी, चटरी-मटरी, जंगली गाजर आदि के नियंत्रण हेतु 2,4-डी इथाइल ईस्टर 36 प्रतिशत (ब्लाडेक्स सी, वीडान) की 1.4 किग्रा. मात्रा  अथवा 2,4-डी लवण 80 प्रतिशत (फारनेक्सान, टाफाइसाड) की 0.625 किग्रा.  मात्रा को  700-800 लीटर पानी मे घोलकर एक हेक्टर में बोनी के 25-30 दिन के अन्दर छिड़काव करना चाहिए।
2. सँकरी पत्ती वाले खरपतवार: गेहूँ में जंगली जई व गेहूँसा   का प्रकोप अधिक देखा जा रहा है। यदि इनका प्रकोप अधिक हो तब उस खेत में गेहूँ न बोकर बरसीम या रिजका  की फसल लेना लाभदायक है। इनके नियंत्रण के लिए पेन्डीमिथेलिन 30 ईसी (स्टाम्प) 800-1000 ग्रा. प्रति हेक्टर अथवा आइसोप्रोटयूरॉन 50 डब्लू.पी. 1.5 किग्रा. प्रति हेक्टेयर को  बोआई के 2-3 दिन बाद 700-800 लीटर पानी में घोलकर प्रति हे. छिड़काव करें। खड़ी फसल में बोआई के 30-35 दिन बाद मेटाक्सुरान की 1.5 किग्रा. मात्रा को 700 से 800 लीटर पानी में मिलाकर प्रति हेक्टेयर छिड़कना चाहिए। मिश्रित खरपतवार की समस्या होेने पर आइसोप्रोट्यूरान 800 ग्रा. और 2,4-डी 0.4 किग्रा. प्रति हे. को मिलाकर छिड़काव करना चाहिए। गेहूँ व सरस¨ं की मिश्रित खेती में खरपतवार नियंत्र्ण हेतु पेन्डीमिथालिन सर्वाधिक उपयुक्त तृणनाशक है ।

कटाई-गहाई

    जब गेहूँ के दाने पक कर सख्त हो जाय और उनमें नमी का अंश 20-25 प्रतिशत तक आ जाये, फसल की कटाई करनी चाहिये। कटाई हँसिये से की जाती है। बोनी किस्म के गेहूँ को पकने के बाद खेत में नहीं छोड़ना चाहिये, कटाई में देरी करने से, दाने झड़ने लगते है और पक्षियों  द्वारा नुकसान होने की संभावना रहती है। कटाई के पश्चात् फसल को 2-3 दिन खलिहान में सुखाकर मड़ाई  शक्ति चालित थ्रेशर से की जाती है। कम्बाइन हारवेस्टर का प्रयोग करने से कटाई, मड़ाई तथा ओसाई  एक साथ हो जाती है परन्तु कम्बाइन हारवेस्टर से कटाई करने के लिए, दानो  में 20 प्रतिशत से अधिक नमी नही होनी चाहिए, क्योकि दानो  में ज्यादा नमी रहने पर मड़ाई या गहाई ठीक से नहीं ह¨गी ।

उपज एवं भंडारण

    उन्नत सस्य तकनीक से खेती करने पर सिंचित अवस्था में गेहूँ की बौनी  किस्मो से लगभग 50-60 क्विंटल  दाना के अलावा 80-90 क्विंटल  भूसा/हेक्टेयर प्राप्त होता है। जबकि देशी लम्बी किस्मों से इसकी लगभग आधी उपज प्राप्त होती है। देशी  किस्मो से असिंचित अवस्था में 15-20 क्विंटल  प्रति/हेक्टेयर उपज प्राप्त होती है। सुरक्षित भंडारण हेतु दानों में 10-12% से अधिक नमी नहीं होना चाहिए। भंडारण के पूर्ण क¨ठियों तथा कमरो को साफ कर लें और दीवालों व फर्श पर मैलाथियान 50% के घोल  को 3 लीटर प्रति 100 वर्गमीटर की दर से छिड़कें। अनाज को बुखारी, कोठिलों  या कमरे में रखने के बाद एल्युमिनियम फास्फाइड 3 ग्राम की दो गोली प्रति टन की दर से रखकर बंद कर देना चाहिए।

ताकि सनद रहे: कुछ शरारती तत्व मेरे ब्लॉग से लेख को डाउनलोड कर (चोरी कर) बिभिन्न पत्र पत्रिकाओ और इन्टरनेट वेबसाइट पर अपने नाम से प्रकाशित करवा रहे है।  यह निंदिनिय, अशोभनीय व विधि विरुद्ध कृत्य है। ऐसा करना ही है तो मेरा (लेखक) और ब्लॉग का नाम साभार देने में शर्म नहीं करें।तत्संबधी सुचना से मुझे मेरे मेल आईडी पर अवगत कराना ना भूले। मेरा मकसद कृषि विज्ञानं की उपलब्धियो को खेत-किसान और कृषि उत्थान में संलग्न तमाम कृषि अमले और छात्र-छात्राओं तक पहुँचाना है जिससे भारतीय कृषि को विश्व में प्रतिष्ठित किया जा सके।

बुधवार, 17 अप्रैल 2013

धान की भरपूर उपज एवं मुनाफे के लिए आवश्यक है कीट एवं रोगों से फसल की सुरक्षा

धान की फसल अवधि के दौरान गर्म एंव नम वातावरण रहता है जो कि कीट पतंगों की वृद्धि तथा प्रजनन के लिए उपयुक्त रहता है।सामान्यत: धान की उपज घटाने में 33 प्रतिशत खरपतवार, 26 प्रतिशत, 20प्रतिशत कीट, 8 प्रतिशत चूहे,3 प्रतिशत चिड़ियाँ एंव 10 प्रतिशत अन्य कारक उत्तरदायी हैं। धान फसल से  भरपूर उपज एवं आर्थिक लाभ के लिए फसल को हानिकारक कीट एवं रोगों से बचाना आवश्यक होता है। धान के प्रमुख हानिकारक कीट-रोग तथा उनके नियंत्रण के उपाय अग्र प्रस्तुत है:

धान के प्रमुख कीट एवं  नियंत्रण 


               धान की लगभग सभी अवस्थाओं में किसी-न-किसी विनाशकारी कीटों के आक्रमण की संभावना बनी रहती है। विभिन्न अवस्थाओं में संभावित कीट प्रकोप निम्नानुसार हो सकता हैः
थरहा अवस्था: गंगई, तना छेदक, थ्रिप्स व हरा माहो।
कंसा अवस्था: गंगई, तना छेदक, हरा व सफेद माहो, भूरा माहो, चितरी व बंकी, माइट, हिस्पा।
गभोट अवस्था: तना छेदक, भूरा व सफेद माहो।
दूधिया व बाली पकने की अवस्था: तना भेदक, भूरा व सफेद माहो।
समन्वित कीट नियंत्रण के प्रमुख उपाय
1. ग्रीष्म की जुताई एंव फसल चक्र: ग्रीष्म काल में वर्षा होने पर गहरी जुताई करें जिससे फाफा के अंड़े, तनाछेदक व गंगई की इल्लियाँ, कटुआ कीट की इल्ली व शंखी नष्ट हो जाय। एक ही प्रकार के कीट का आक्रमण होने की दशा में फसल को बदलकर बोने से कीट प्रकोप कम होता है।
2. समय से बोनी व रोपाई: जून में थरहा की बुवाई और जुलाई में रोपाई करें तो कीट समस्या कम हो जाती है।
3. निरोधक जातियों को समस्या ग्रस्त क्षेत्र में लगायें जैसे-गंगई प्रभावित क्षेत्र में: सुरेखा, फाल्गुना, रूचि
, अभया, दंतेश्वरी,महामाया, आई. आर. 36 हरा माहो संभावित क्षेत्रों में विक्रम, आर्या, प्रगति तथा चितरी व बंकी प्रभावित क्षेत्रों में महामाया किस्म लगाना चाहिए।
4. शीघ्र पकने वाली धान की  अन्नदा जैसी किस्मों को समय पर लगाने से कीटों का आक्रमण कम होता है।
5. निरीक्षण पथ: हर तीन मीटर रोपाई के बाद 30 सेमी. की खाली जगह छोड़े। खेत में समय-समय पर निरीक्षण करते रहें। निरीक्षण पथ से दवा के छिड़काव एंव भुरकाव में भी सुविधा होती है।
6. स्वच्छ खेती: खेत में कीड़ो के अन्य पोषक पौधों (खरपतवार आदि) को नष्ट करते रहें, जिससे  कीड़ों को छुपने व पनपने का स्थान न मिल सकें।
7. प्रकाश प्रपंच: रात्रि में प्रकाश की ओर आकर्षित करने हेतु कीडो़ं के लिये प्रकाश प्रपंच लगायें। जिससे तना  छेदक, गंगई, माहो, फाफा, चितरी, बंकी इत्यादि के प्रौढ दिखने पर अंदाज लगा सकते हैं कि अगले 10-15 दिनों में कौन से कीड़ों का आक्रमण होने वाला है तथा किस प्रकार की दवाई संग्रहित करनी है इसकी योजना बना सकते हैं।
8. रोपा लगाने के पूर्व थरहा (रोपणी) के प्रभावित भाग निकाल दें: रोपणी से पौधा उखाड़कर रोपा लगाने के पूर्व गंगई के पोंगे, तनाछेदक से प्रभावित कंसे, तनाछेदक के अंड़े समूह हिस्पा व चितरी से प्रभावित पक्तियों को निकाल कर नष्ट कर दें।
9. परजीवी व परभक्षी जीवों का संरक्षण करें: प्रकृति ने स्वतः ही कीटों की जनसंख्या नियंत्रण में रखने के लिए परजीवी, परभक्षी एंव रोगजनक की व्यवस्था रखी है।लगभग 40-60 प्रतिशत कीट इन प्राकृतिक शत्रुओं द्वारा स्वतः ही नियंत्रण में रहते है।धान फसल के मित्र जीवों की संख्या बढ़ाने हेतु कीटनाशकों का प्रयोग सावधानीपूर्वक करना चाहिए।
10. उर्वरकों का संतुलित मात्रा में उपयोग: नत्रजन युक्त उर्वरक फसल में 3-4 बार बाँट कर दें। स्फुर व पोटाँश युक्त खाद की निर्धारित मात्रा खेत में अवश्य डालें। पोटाश तत्व से पौधों में प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जातीहै अधिक प्रकोप होने की स्थिति में कीट नियंत्रण करने के बाद नत्रजन उर्वरक देवें।
11. रासायनिक नियंत्रण: जब कीडे आर्थिक हानि स्तर पर पहुँचने लगे  तब कीटनाशकों का उपयोग करे।
धान की विभिन्न अवस्थाओं में रासायनिक कीट नियंत्रण
थरहा अवस्था
 गंगई, तनाभेदक, थ्रिप्स व हरा माहो -कार्बोफुरान या फोरेट दानेदार दवा एक किलो ग्राम सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर अथवा मोनोक्रोटोफास या कार्बेरिल 0.5 किलो ग्राम सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर का उपयोग करें।
गंगई ग्रसित क्षेत्र में रोपाई के पहले धान के पौधे की जड़ों का उपचार क्लोरपायरीफास 0.02 प्रतिशत घोल में 12 घंटे तक या एक प्रतिशत यूरिया के साथ इसी दिवा के घोल में 3 घंटे तक डुबाकर करें।
कंसा अवस्था
गंगई: कार्बोफुरान 0.75 किलो ग्राम, फोरेट, क्विनालफास या फेन्थियान दानेदार दवा एक किलोग्राम सक्रिया तत्व प्रति हेक्टेयर का उपयोग करें।
तनाभेदक: कार्बोफुरान दानेदार 0.75 किलो ग्राम स. त. प्रति हेक्टेयर या फोरेट, क्विनालफास 1.0 कि. ग्रा. सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर का उपयोग करें।
हरा व सफेद माहो: मोनोक्रोटोफास, कार्बेरिल, क्लोरपायरीफास, क्विनालफास, फास्फामिडान 0.5 कि.ग्रा. सक्रिय तत्व या सायपरमेथ्रिन 0.1 कि. ग्रा. सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर दानेदार दवा का उपयोग करें।
भूरा माहो: कार्बोरिल 0.75 कि.ग्रा.,मोनोक्रोटोफास, फोसालोन या क्लोरपायरीफास 0.5कि.ग्रा.सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर का छिड़काव करें।
चितरी व बंकी:  मोनोक्रोटोफास, ट्राइएजोफास या फेन्थियान 0.5 कि. ग्रा. सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर छिड़काव करें।
माइट: केल्थेन 0.5 कि.ग्रा. सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर छिड़काव करें। सक्रिय तत्व प्रतिहेक्टेयर छिड़काव करें।
हिस्पा: फोसालोन, क्लोरपायरीफास, क्रिनालफास, मोनोक्रोटोफास या फेन्थियान 0.5 कि. ग्रा. सक्रिय तत्व के प्रति हेक्टेयर छिड़काव करें।
गभोट अवस्था 
तनाभेदक: क्विनालफास, फोसालोन, मोनोक्रोटोपास, क्लोरपायरीफास  0.5 किलो ग्राम सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर छिड़काव करे। यदि आक्रमण कम न हो तो 7 से 10 दिन बाद दोबारा छिड़काव करे। चितरी, हरा माहो, माइट के लिये पहले बतलाये अनुसार दवा डाले।
भूरा माहो व सफेद माहो: कार्बेरिल एक किलो ग्राम, मोनोक्रोटोफास, फोसालोन या क्लोरपायरीफास 0.5 कि.ग्रा. सक्रिय तत्व प्र्रति हेक्टेयर के हिसाब से छिड़काव करें। दानेदार दवा का उपयोग न करें।
दूधिया व वाली पकने की अवस्था
तना भेदक: उपरोक्तनुसार दवाओं का दोपहर बाद छिड़काव करें।
भूरा माहो एंव हरा माहो: उपर्युक्तानुसार दवाओं का छिड़काव करें या फालीडाल, कार्बेरिल या क्रिनालफास पावडर 25 से 30 कि. ग्रा. प्रतिहेक्टेयर उपयोग करें। इससे कटुआ कीट का नियंत्रण भी होता है। छिड़काव शाम के समय करें। संभव हो तो पावर स्प्रेेयर का उपयोग करें। फसल कटने के पहले कटुआ कीट का अधिक आक्रमण होने पर मैलाथियान 500 मि.ली. व डाइक्लोरवास 225 मि. ली. मिलाकर उपयोग करें।
दवा घोल बनाने पानी की मात्रा:
थरहा अवस्था 500-600 लीटर प्रति हेक्टेयर
रोपाई से 30 दिन तक 200-300 लीटर प्रति हेक्टेयर
रोपाई के 31 से 50 दिन तक        500-600 लीटर प्रति हेक्टेयर
रोपाई के 51 दिन बाद 700-800 लीटर प्रति हेक्टेयर

धान के प्रमुख रोग एवं नियंत्रण के उपाय 

धान का सर्वाधिक महत्वपूर्ण रोग बदरा (झुलसा) है। इसके बाद पर्णच्छद विगलन रोग, भुरा धब्बा रोग, कूट कलिका रोग, धारीदार जीवाणु जनित रोगों का प्रकोप भी अनेक राज्यों  में देखा गया है।
1. झुलसा रोग (ब्लास्ट): इसके लक्षण पत्तियों, बाली की गर्दन एंव तने की निचली गठानों पर प्रमुख रूप से दिखाई देते हैं।प्रारंभिक अवस्था में निचली पत्तियों पर हल्के बैंगनी रंग के छोटे-छोटे धब्बे बनते हैं।जो धीरे-धीरे बढ़कर आँख के समान बीच में चैडे व किनारों पर सँकरे हो जाते हैं। इन धब्बों के बीच का रंग हल्के भूरे रंग होता है। जिससे दानों के भरने पर असर पड़ता है। फसल काल के दौरान जब रात्रि का तापमान 20 से 220 से. व आर्द्रता 95 प्रतिशत से अधिक होती है तब इस रोग का तीव्र प्रकोप होने की संभावना होती है।
नियंत्रण ऐसे करें : रोग के प्रारंभिक लक्षण दिखते ही हिनोसान या बाविस्टिन (0.1प्रतिशत) रसायन का छिड़काव 12-15 दिन के अन्तर से करना चाहिए। रोग रोधी जातियोें जैसे -रासी, आदित्य, तुलसी, एम. टी. यू., महामाया आदि की बुवाई करनी चाहिए। समय पर बुवाई और संतुलित उर्वरकों का उपयोग इस रोग को सीमित करने में मदद करते हैं।
2. जीवाणु जनित झुलसा रोग (बैक्टीरियल लीफ ब्लाइट): इस रोग के प्रारंभिक लक्षण पत्तियों पर रोपोई या बुवाई के 20 से 25 दिन बाद दिखाई देते हैं।सबसे पहले पत्ती के किनारे वाला ऊपरी भाग हल्का नीला-सा हो  जाता है तथा फिर मटमैला हरापन हरापन लिये हुए पीला सा होने लगता है रोग ग्रसित पौधे कमजोर हो जाते हैं और उनमें कंसे कम निकलते हैं। दाने पूरी तरह नहीं भरते व पैदावार कम हो जाती है।
नियंत्रण ऐसे करें : नियंत्रण हेतु संतुलित उर्वरकों का उपयोग करना चाहिए। नत्रजनयुक्त खादों का उपयोग निर्धारित मात्रा से नही करना चाहिए। रोग होने की दशा में पोटाॅश का उपयोग लाभकारी होता है। रोग होने की दशा में खेत से अनावश्यक पानी निकालते रहना चाहिए। रोगरोंधी अथवा रोग सहनशील किस्मों जैसे-आशा, महामाया, अभया तथा बम्लेश्वरी का चुनाव करना चाहिये। रासायनिक उपचार इस बीमारी के लिए प्रभावकारी नहीं है।
3. पर्णच्छद विगलन रोग(शीथ राट): इस रोग के लक्षण धान की पोटरी वाली अवस्था में दिखाई देते हैं।पोटरी के निचले हिस्से पर हल्के भूरे रंग के धब्बे बनते हैं। इस रोग की वजह से बाली पौटरी के बाहर नहीं आ पाती है। रोग की वजह से बदरा बढ़ जाता है और उत्पादन बहुत कम हो जाता है।
नियंत्रण ऐसे करें : धान बीज को बुवाई से पूर्व नमक के घोल मेें डूबाने से हल्के तथा खराब बीज (बदरा) ऊपर आ जाते हैं एंव स्वस्थ पुष्ट बीज नीचे बैठ जाते हैं। स्वस्थ बीज का चयन कर बुवाई के लिये उपयोग करना चाहिए। बीजोपचार कर बोआई करने पर इस रोग का प्रसार कम करने में मदद मिलती है।पोटरी अवस्था के समय बाविस्टिन (0.1प्रतिशत) अथवा डाइथेन एम-45 (0.3प्रतिशत) का छिड़काव करना लाभकारी है।रोग रोधी किस्मों का चयन करना चाहिए।
4. भूरा धब्बा रोग (ब्राउन स्पाट): पत्तियों पर भूरे रंग के धब्बे बन जाते है जो गोल या अंडाकार होते हैं व पत्तियों की सतह पर समान रूप से फैले रहते हैं। ये धब्बे प्रायः एक पीले रंग के वृत्त से घिरे रहते हैं जो इस रोग की खास पहचान है। दानों के ऊपर भी बहुत छोटे-छोटे गहरे भूरे या काले रंग के धब्बे बनते हैं।बीज अंकुरण के समय पौध सड़ने की वजह से पौधों की संख्या कम हो जाती है जो धान उत्पादन कम होने का प्रमुख कारण है।
नियंत्रण ऐसे करें : बीजोपचार द्वारा इस रोग से होने वाले नुकसान को काफी हद तक कम किया जा सकता है। रोग की तीव्रता बहुत अधिक होने पर मैन्कोजेब 0.25 प्रतिशत अथवा हिनोसान 0.1 प्रतिशत का छिड़काव लाभप्रद रहता है। निरोधक जातियों का चुनाव करना चाहिए। खेत को समतल रखें तथा संतुलित उर्वरकों का उपयोग करें। ध्यान रखें कि पानी की कमी न होने पाये इसके लिये समयानुसार सिंचाई करते रहें।
5. कूट कलिका रोग: धान का यह रोग फफूंद  से होता है। इस क्षेत्र में इस रोग को लाई फूटना कहते है। रोग के लक्षण बाल निकलने के बाद दानों पर दिखाई देते है। जिससे उन दानों का आकार काफी बड़ा हो जाता ग्रसित दानों का रंग पहिले मटमैला हरा फिर नारंगी व धान पकने के समय काला हो जाता है। इस प्रकोप की वजह से दाने स्मट बाल (गेंद) में बदल जाते हैं।इसमें काले रंग का पावडर होता है जो बीजाणुओं का समूह होता है।
नियंत्रण ऐसे करें : संतुलित मात्रा में उर्वरकों का उपयोग करे।बाली निकलने की प्रारंभिक अवस्था में और 50 प्रतिशत पुष्पीकरण होने पर फफूँदनाशकों जैसे मेंकोजेब 0.25 प्रतिशत या ताम्रयुक्त दवा के दो छिड़काव रोग को नियंत्रित करने में सहायक होते हैं। जिन किस्मों में इस रोग का प्रकोप अधिक होता है उन किस्मों को नही उगाना चाहिए।
6. धारीदार जीवाणु जनित रोग: इस रोग के लक्षण पत्तियों की सतह पर पीली मटमैली धारियों के रूप में दिखाई देते हैं।जो पत्तियों की मुख्य शिराओं के समानान्तर होती हैं।पत्ती का ग्रसित भाग पहले नारंगी से ईट के रंग का होकर सूखने लगता है।पौधे कमजोर हो जाते है व उत्पादन कम हो जाता है।
नियंत्रण के उपाय: जीवाणु रहित प्रमाणित बीज विश्वसनीय स्थान से लेकर उपयोग में लाएँ। खेतों के आस-पास तथा चारों ओर पायी जाने वाली जंगली धान की रोगग्राही किस्मों को नष्ट कर देना चाहिए। खड़ी फसल में रोग के लक्षण दिखने पर स्ट्रेप्टोसाइक्लीन (0.025 प्रतिशत) एंव कापर आक्सी क्लोराइड  (0.5 प्रतिशत)  का छिड़काव करना चाहिए। रोगरोधी किस्में जैसे जागृति, कृष्णा, साबरमती आदि का चयन करना चाहिए।
7. खैरा रोग: यह रोग मिट्टी  में जस्ते की कमी से होता है। प्रभावित फसल की निचली पत्तियाँ पीली पड़ना शुरू हो जाती हैं और बाद में पत्तियों पर कत्थई रंग के छिटकवाँ धब्बे उभरने लगते है। कल्ले कम निकलते है तथा पौधों की वृद्धि रूक जाती है।
नियंत्रण के उपाय: यह रोग न लगे, इसके लिए 25 किग्रा. जिंक सल्फेट प्रतिहे. की दर से रोपाई या बोआई से पूर्व खेत की तैयारी के समय डालना चाहिए। रोग लगने के बाद इसकी रोकथाम के लिए 5 किग्रा. जिंक सल्फेट तथा 2.5 किग्रा. चूना 600-700 लीटर पानी में घोलकर प्रति. हे. छिड़काव करें।

चावल सघनीकरण पद्धति (एस .आर .आई .): सीमित संसाधनों से धान की अधिकतम उपज

                                                      डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर 

                                                                      प्राध्यापक (सश्यविज्ञान)
                                                                 इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय, 
                                                                  कृषक नगर, रायपुर (छत्तीसगढ़)

                                    चावल सघनीकरण पद्धति (एस .आर .आई .)

                      भारतीय किसानो ने उन्नत किस्मों का चुनाव, खाद एंव उर्वारकों का प्रयोग तथा पौधे सरंक्षण उपायों को अपनाकर धान की उपज बढ़ाने में सफलता हासिल की है परंतु बीते कुछ वर्षो से धान की उत्पादकता में संतोषजनक वृद्धि नही हो पा रही है।शोध संस्थानों तथा प्रदर्शन प्रक्षेत्रों पर 50-60 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर धान की उपज प्राप्त की जा रही है। बढ़ती जनसंख्या और घटते संसाधन को देखते हुए वर्तमान समय में संकर किस्मों को अपनाते हुए नई तकनीक  से खेती कर प्रति इकाई उत्पादन बढ़ाने के अलावा हमारे पास उपज बढ़ाने के और कोई विकल्प शेष नहीं है। उपलब्ध संसाधनों के बेहतर प्रबंधन से, जिसमें उर्वरक तथा जल उपयोग क्षमता बढ़ाना शमिल है, धान की उत्पादन लागत भी कम की जा सकती है।
चावल सघनीकरण पद्धति क्या है ?
           प्रति इकाई क्षेत्र से कम-से-कम लागत में धान का अधिकतम उत्पादन प्राप्त करने मेडागास्कर में फादर हेनरी  डी लौलनी ने धान उत्पादन तकनीक विकसित की, जो सघनीकरण पद्धति अर्थात् मेडागास्कर तकनीक के नाम से लोकप्रिय हो रही है। भूमि, श्रम, पूँजी और पानी के समक्ष उपयोग से धान उत्पादन में अच्छी वृद्धि की जा सकती हैं।श्री पद्धति में कम दूरी पर कम उम्र का पौधा रोपा जाता है जिसमें उर्वरक एंव जल का न्यूनतम एंव सक्षम उपयोग करते हुए प्रति इकाई अधिकतम उत्पादन लेने की रणनीति अपनाई जाती है। इस पद्धति में धान के पौधे से अधिक कंशे निकलते हैं तथा दाने पुष्ट होते हैं। एशिया के विकासशील देशोें यथा चीन, बंगलादेश, पाकिस्तान, श्रीलंका, आदि ने कापी समय से इस पद्धति को अपना लिया है। भारत में भी अनेक स्थानों पर इस पद्धति से 7-10 टन प्रति हेक्टेयर उत्पादन लिया जा चुका है। भारत के दक्षिणी राज्यों में श्री पद्धति से धान उगाने का प्रचलन तेजी से बढ़ रहा है। इस तकनीक को अपनाने से छत्तीसगढ़ में सिंचित अवस्था में धान की औसत उत्पादकता कम से कम 6-7 टन प्रति हेक्टेयर तक ली जा सकती है।
पौध रोपणी एंव खेत की तैयारी 
                    संकर अथवा अधिक कल्ले देने वाली उन्नत किस्मों का प्रयोग करें। रोपणी हेतु चुने गये खेत की दो तीन बार जुताई कर मिट्टी  भुरभूरी कर लें। एक मीटर चौड़ी  एंव आवश्यकतानुसार लंबी तथा 15-30 सेमी. ऊँची क्यारी बनायें। क्यारी के दोनों ओर सिंचाई नाली बनाना आवश्यक है। एक हेक्टर क्षेत्र के लिए 100 वर्ग मीटर की रोपणी पर्याप्त है। क्यारी में 50 किलोग्राम कम्पोस्ट मिलाकर समतल कर दें। प्रति हेक्टेयर 7-8 किग्रा. बीज का प्रयोग करें। उपचारित बीज को (प्रति क्यारी 90-100 ग्राम बीज या 9-10 ग्राम प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से ) समान रूप से छिड़क कर पुनः कंपोस्ट या गोबर खाद से बीज ढँक दें।रोपणी पर धान के पैरा की तह बिछाने से बीज सुरक्षित रहते है। क्यारियों में 1-2 दिन के अंतराल से फब्बारा से सिंचाई करें। बोने के 3 दिन बाद रोपणी में बिछाई गई धान के पैरा की परत हटा दें।
चटाईयुक्त रोपणी : इसमें अंकुरित बीज बोये जाते हैं। समतल स्थान पर प्लास्टिक शीट बिछायें। इसके ऊपर 1 मीटर लम्बा, आधा मीटर चौड़ा  तथा 4 सेमी गहरा लकड़ी का फ्रेम  रखें। इस फ्रेम  में मिट्टी  का मिश्रण (70 प्रतिशत मृदा, 20 प्रतिशत गोबर की सड़ी हुई खाद व 10 प्रतिशत धान की भूसी ) तथा 1.5 किग्रा डायआमोनिसयम फास्फेट (डीएपी) मिलाकर भर दिया जाता है।बीज की निर्धारित मात्रा को 24 घंटे पानी में भिगोकर रखने के बाद पानी निथार देते है। अब 90-100 ग्राम बीज प्रति वर्ग मीटर की दर से समान रूप से बोकर सूखी मिट्टि की पतली तह (5 मिमि) से ढँक देते हैं। अब इस पर झारे की सहायता से पानी का छिड़काव करें जब तक कि फेम की पूरी मिट्टी  तर न हो जाए। अब लकड़ी का फ्रेम  हटाकर उपर्युक्तानुसार अन्य क्यारियाँ तैयार करें। इन क्यारियों में 2-3 दिन के अंतराल से सिंचाई करें। बोआई के 6 दिन बाद क्यारियों में पानी की पतली तह बनाएं रखे तथा रोपाई के 2 दिन पूर्व पानी निकाल दें। बोने के 8-10 दिन में चटाई युक्त रोपणी तैयार हो जाएगी।
पौध रोपाई: रोपाई हेतु पारंपरिक धान की खेती के समान खेती के समान खेत की जुताई करें एंव समुचित मात्रा में गोबर की खाद मिलाएँ। खेत में पानी भर कर अच्छी तरह से मचाई पश्चात पाटा चलाकर खेत को समतल कर लेना चाहिए। प्रत्येक 3-4 मीटर की दूरी पर क्यारी का निर्माण करें जिससे जल निकासी संभव हो सके।रोपाई पूर्व खेत से जल निकाल देना चाहिए। मार्कर की सहायता से दोनों ओर 25 ग 25 सेमी. कतार (लाइन) बनायें और दोनों कतारों के जोड पर पौधा लगाएँ।
कम उम्र की रोपणी: धान की पौध 15 दिन से अधिक की होने पर पौधों की वृद्धि को कम कर देती है। सामान्यतौर पर 12-14 दिन के पौधे इस पद्धति से रोपाई हेतु उपयुक्त रहते हैं।दो पत्ती अवस्था या 8-10 दिन के धान के पौधे के कंसे व जड़ दोनों में सामान्यत: 30-40 दिन की रोपणी की तुलना में ज्यादा वृद्धि देखी गई है, जिससे पौधे नमी व पोषक तत्वों को अच्छे से ग्रहण करते हैं, फलस्वरूप अधिक पैदावार प्राप्त होती है। पौधे उखाड़ने के बाद शीघ्र रोपाई करना आवश्यक है। रोपाई वाले खेत में पानी भरा नहीं होना चाहिए।
एक स्थान पर एक पौध की रोपाई: परम्परागत रूप से एक स्थान पर 2-3 पौधों की रोपाई की जाती है, जबकि इस विधि में एक स्थान पर केवल एक ही पौधा 2 सेमी. की गहराई पर सीधा लगाया जाता है। एक पौधे को बीज व मिट्टि सहित अँगूठे व कनिष्का अँगुली की सहायता से दोनों कतार के जोड़ पर रोपित करना चाहिए।
 पौधे-से-पौधे की समान दूरी: कतारों में रोपाई की तुलना में चैकोर विधि से धान की रोपाई करने से पौधे को पर्याप्त प्रकाश मिलता है व जड़ों की वृद्धि होती है। कतार तथा पौधे-से-पौधे की दूरी 25 ग 25 सेमी. रखते हैं। मिट्टी के प्रकार व उर्वरकता के आधार पर यह दूरी घटाई-बढाई जा सकती है। पौधों की दूरी अधिक रखने से जडो़ की वृद्धि ज्यादा होती है तथा कंसे भी अधिक बनते हैं, साथ ही वायु का आगमन व प्रकाश संश्लेषण भी अच्छा होगा जिससे पौधे स्वस्थ व मजबूत कंसे अधिक संख्या में निकलेंगे जिनमें दानों का भराव भी अधिक होगा।
रोपणी से पौधे इस प्रकार उखाड़े जिससे उनके साथ मिट्टी,बीज और जड़े बिना धक्का के यथास्थिति में बाहर आ जाएँ तथा इन्हें उखाड़ने के तुरन्त बाद मुख्य खेत में इस प्रकार रोपित करें कि उनकी जड़े अधिक गहराई में न जाएँ ।ऐसा करने से पौधे शीघ्र ही स्थापित हो जाते हैं।

जल प्रबंध 

          श्री पद्धति में खेत को नम रखा जाता है। खेत में प्रत्येक 3-4 मीटर के अंतराल से जल निकास हेतु एक फीट गहरी नाली बनाएँ जिससे खेत से जल निकासी होती रहे। वानस्पतिक वृद्धि की अवस्था में जड़ों को आर्द्र रखने लायक पानी दिया जाता है, जिससे खेत में बहुत पतली दरारें उत्पन्न हो जाती हैं। ये दरारें पौधे की जड़ों को आॅक्सीजन कराती हैं, जिससे जड़ों का फैलाव व वृद्धि अच्छी होती है एवं जड़ें पोषक तत्वों को मृदा ग्रहण कर पौधे के विभिन्न भागों में पहुँचाने में अधिक सक्षम होती है। वानस्पतिक अवस्था के पश्चात् फूल आने के समय खेत को 2.5-3 सेमी. पानी से भर दिया जाता है और कटाई से 25 दिन पूर्व पानी को खेत से निकाल देते हैं।
खाद एंव उर्वरक उपयोग 
              किसी भी स्श्रोत द्वारा तैयार जैविक खाद या हरी खाद का उपयोग करने से पोषक तत्वों की उपलब्धता में बढ़ोत्तरी के साथ-साथ भूमि में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा भी बढ़ती है,जो पौधे की अच्छी बढ़वार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। मिट्टि परीक्षण कर पोषक तत्वों की मात्रा का निर्धारण करें। प्रारंभिक वर्षो में 10-12 टन हेक्टेयर गोबर की खाद देना चाहिए। गोबर की खाद की उपलब्धता कम होने पर 120:60:40 किग्रा. क्रमशः नत्रजन, स्फूर एंव पोटाश प्रति हेक्टेयर देना चाहिए। स्फुर व पोटाश की सम्पूर्ण मात्रा रोपाई से पहले तथा नत्रजन को तीन किस्तों में (25 प्रतिशत रोपाई के एक सप्ताह बाद, कंसे फूटते समय 50 प्रतिशत तथा शेष मात्रा गभोट प्रारंभ होते समय ) देना चाहिए।
खरपतवार नियंत्रण एंव निदाई 
                   खेत में पानी भरा नही रहने से खरपतवार प्रकोप अधिक हो सकता है। अतः रोपाई के 10-15 दिन बाद हस्तचलित निदाई यंत्र ताउची गुरमा(कोनो वीडर) द्वारा 15 दिन के अंदर से 2-3 बार निंदाई करते हैं, जिससे न केवल नींदा समाप्त होते हैं, वरन् जड़ों में वायु का प्रवाह भी बढ़ता है, जो जड़ों की वृद्धि व पौधों के पोषक तत्वों को ग्रहण करने की क्षमता में भी वृद्धि करता है। 
           इंदिरा गाँधी  कृषि विश्वविद्यालय व कृषि विभाग द्वारा किये गये परीक्षणों के उत्साहजनक परिणाम आये है। रायपुर में मेडागास्कर विधि के कुछ अवयवों जैसे रोपणी की उम्र, पौधे से पौधे की समान दूरी व एक स्थान पर एक पौधे की रोपाई के प्रयोग किये गये, जिसमें औसतन 48 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर उत्पादन आया, जबकि परंपरागत उन्नत पद्धति द्वारा औसत उत्पादन 42 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर मिला। अंबिकापुर में पूरी विधि का प्रयोग किया गया, जिसमें 15 दिन रोपा, एक स्थान पर एक पौधा, 15 ग 15 सेमी. पर रोपाई, पानी की कम मात्रा का प्रयोग व रोटरी वीडर द्वारा निंदाई व कम्पोस्ट खाद का उपयोग किया गया जिससे पारंपरिक विधि की उपज की तुलना में 16 प्रतिशत तक की उपज में बढ़ोत्तरी देखी गई। सस्य विभाग, इं. गां. कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर में कन्हार मिट्टी  में किये गये परीक्षण परिणाम बताते हैं कि श्री पद्धति में नत्रजन, स्फुर व पोटाश क्रमशः 60:40:40 किग्रा. के साथ 5 टन गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर देने से पारंपरिक रोपा पद्धति की अपेक्षा प्रति इकाई अधिकतम कंसे, बालियाँ प्रति पौधा, दानों की संख्या प्रति बाली तथा  उपज एंव शुद्ध लाभ प्रति हेक्टेयर, अधिक प्राप्त किया जा सकता है।

चावल सघनीकरण पद्धति (एसआर आइ ) के प्रमुख लाभ  -
1. श्री पद्धति में बीज कम (5-6किग्रा.) लगता है जबकि पारंपरिक विधि में 50-60किग्रा. बीज लगता है।
2. इस पद्धति में धान की फसल से कम पानी में अधिकतम उपज ली जा सकती है।
3. उर्वरक और रासायनिक दवाओं (कीटनाशक) का कम प्रयोग किया जाता है।
4. प्रति इकाई अधिकतम कंसे (30-50) जिनमें पूर्ण रूप से भरे हुए एंव उच्चतर वजन वाले पुष्पगुच्छ (पेनिकल्स) प्राप्त होते हैं।
5. फसल में कीट-रोग प्रकोप की न्यूनतम संभावना होती है।
6. समय पर रोपाई और संसाधनों की बचत होती है।
7. अधिक उपज प्राप्त होती है।

ताकि सनद रहे: कुछ शरारती तत्व मेरे ब्लॉग से लेख को डाउनलोड कर (चोरी कर) बिभिन्न पत्र पत्रिकाओ और इन्टरनेट वेबसाइट पर अपने नाम से प्रकाशित करवा रहे है।  यह निंदिनिय, अशोभनीय व विधि विरुद्ध कृत्य है। ऐसा करना ही है तो मेरा (लेखक) और ब्लॉग का नाम साभार देने में शर्म नहीं करें।तत्संबधी सुचना से मुझे मेरे मेल आईडी पर अवगत कराना ना भूले। मेरा मकसद कृषि विज्ञानं की उपलब्धियो को खेत-किसान और कृषि उत्थान में संलग्न तमाम कृषि अमले और छात्र-छात्राओं तक पहुँचाना है जिससे भारतीय कृषि को विश्व में प्रतिष्ठित किया जा सके।


सोमवार, 15 अप्रैल 2013

मक्का से अधिक उपज एवं आमदनी हेतु सस्य तकनीक

                                                                         डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर 
                                                                      प्राध्यापक (सश्यविज्ञान)
                                                                 इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय, 
                                                                  कृषक नगर, रायपुर (छत्तीसगढ़)

                                                                 खाधान्य फसलों की रानी-मक्का
           मक्का विश्व की एक प्रमुख खाद्यान्न फसल है। मक्का में विद्यमान अधिक उपज क्षमता  और  विविध उपयोग के कारण इसे खाधान्य फसलों की रानी कहा जाता है। पहले मक्का को  विशेष रूप से गरीबो  का मुख्य भोजन माना जाता था परन्तु अब ऐसा नही है । वर्तमान में इसका उपयोग मानव आहार (24 %) के  अलावा कुक्कुट आहार (44 % ),पशु आहार (16 % ), स्टार्च (14 % ), शराब (1 %) और  बीज (1 %) के  रूप में किया जा रहा है । गरीबों का भोजन मक्का अब अपने पौष्टिक गुणों के कारण अमीरों के मेज की शान बढ़ाने लगा है। मक्का के दाने में 10 प्रतिशत प्रोटीन, 70 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट, 4 प्रतिशत तेल, 2.3 प्रतिशत क्रूड फाइबर, 1.4 प्रतिशत राख तथा 10.4 प्रतिशत एल्ब्यूमिनोइड पाया जाता है। मक्का के  में भ्रूण में 30-40 प्रतिशत तेल पाया जाता है। मक्का की प्रोटीन में जीन  प्रमुख है जिसमें ट्रिप्टोफेन तथा लायसीन नामक दो आवश्यक अमीनो अम्ल की कमी पाई जाती है। परन्तु विशेष प्रकार की उच्च प्रोटीन युक्त मक्का में ट्रिप्तोफेंन   एवं लाईसीन पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है जो  गरीब लोगो को  उचित आहार एवं पोषण प्रदान करता है साथ ही पशुओ  के  लिए पोषक आहार है । यह पेट के अल्सर और गैस्ट्रिक अल्सर से  छुटकारा दिलाने में सहायक है, साथ ही यह वजन घटाने में भी सहायक होता है। कमजोरी में यह बेहतर ऊर्जा प्रदान करता है और बच्चों के सूखे के रोग में अत्यंत फायदेमंद है। यह मूत्र प्रणाली पर नियंत्रण रखता है, दाँत मजबूत रखता है, और कार्नफ्लेक्स के रूप में लेने से हृदय रोग में भी लाभदायक होता है।मक्का के स्टीप जल में एक जीवाणु को पैदा करके इससे पेनिसिलीन दवाई तैयार करते हैं।
    अब मक्का को  कार्न, पॉप कार्न, स्वीट कॉर्न, बेबी कॉर्न आदि अनेको  रूप में पहचान मिल चुकी है । किसी अन्य फसल में इतनी विविधता कहां देखने को  मिलती है । विश्व के अनेक देशो  में मक्का की खेती प्रचलित है जिनमें क्षेत्रफल एवं उत्पादन के हिसाब से संयुक्त राष्ट्र अमेरिका, चीन और  ब्राजील का विश्व में क्रमशः प्रथम, द्वितिय एवं तृतीय स्थान है । पिछले कुछ वर्षो  में मक्का उत्पादन के  क्षेत्र में भारत ने नये कीर्तिमान स्थापित किये है जिससे वर्ष 2010-11 में मक्का का उत्पादन 217.26 लाख टन के  उच्च स्तर पर पहुंच गया है एवं उत्पादकता 2540 किग्रा. प्रति हैक्टर के  स्तर पर है जो वर्ष 2005-06 की अपेक्षा 600 किलोग्राम . अधिक है । यही वजह है कि मक्का की विकास दर खाद्यान्न फसलो  में सर्वाधिक है जो  इसकी बढ़ती लोकप्रियता को  दर्शाती है । भारत में सर्वाधिक क्षेत्रफल में मक्का उगाने वाले  राज्यो  में कर्नाटक, राजस्थान एवं आन्ध्र प्रदेश आते है जबकि औसत  उपज के मान से आन्ध्र प्रदेश का देश में सर्वोच्च  (4873 किग्रा. प्रति हैक्टर) स्थान रहा है जबकि तमिलनाडू (4389 किग्रा)  का द्वितिय और  पश्चिम बंगाल  तृतीय (3782 किग्रा.) स्थान पर रहे है ।    छत्तीसगढ़ के सभी जिलो  में मक्के की खेती की जा रही है वर्ष 2009-10 के आँकड़ों के हिसाब से प्रदेश में 171.22 हजार हेक्टेयर (खरीफ) और 15.59 हजार हेक्टेयर में (रबी) मक्का बोई गई जिससे क्रमशः 1439 व 1550 किग्रा. प्रति हेक्टेयर ओसत उपज दर्ज की गई।

भूमि का चयन एवं खेत की तैयारी

    मक्का की खेती लगभग सभी प्रकार की कृषि योग्य भूमियों में की जा सकती है परन्तु अधिकतम पैदावार के लिए गहरी उपजाऊ दोमट मिट्टी  उत्तम होती है, जिसमे वायु संचार व जल निकास उत्तम हो तथा जीवांश पदार्थ प्रचुर मात्रा में हों। मक्का की फसल के लिए मिट्टी का पीएच मान 6.5 से 7.5 के मध्य ( अर्थात न अम्लीय और  न क्षारीय) उपयुक्त रहता हैं। जहाँ पानी जमा ह¨ने की सम्भावना ह¨ वहाँ मक्के की फसल नष्ट ह¨ जाती है । खेत में 60 से.मी के अन्तर से मादा कूंड पद्धति  से वर्षा ऋतु में मक्का की बोनी करना लाभदायक पाया गया है।
भूमि की जल व हवा संधारण क्षमता बढ़ाने तथा उसे नींदारहित करने के उद्देश्य  से ग्रीष्म-काल में भूमि की गहरी जुताई करने के उपरांत कुछ समय के लिये छोड़ देना चाहिए। पहली वर्षा होने के बाद खेत में दो बार देशी हल या हैरो से जुताई  करके मिट्टी नरम बना ल्¨ना चाहिए, इसके बाद पाटा चलाकर कर खेत समतल किया जाता है। अन्तिम जोताई के समय गोबर की खाद या कम्पोस्ट मिट्टी में मिला देना चाहिए ।

उन्नत किस्में

संकर किस्में: गंगा-1, गंगा-4, गंगा-11, डेक्कन-107, केएच-510, डीएचएम-103, डीएचएम-109, हिम-129, पूसा अर्ली हा-1 व 2, विवेक हा-4, डीएचएम-15 आदि ।
सकुल किस्में: नर्मदा मोती, जवाहर मक्का-216, चन्दन मक्का-1,2 व 3, चन्दन सफेद मक्का-2, पूसा कम्पोजिट-1,2 व 3, माही कंचन, अरून, किरन, जवाहर मक्का-8, 12 व 216 , प्रभात, नवजोत आदि ।
विशिष्ट मक्का की अच्छी उपज लेने के लिए निम्नलिखित उन्नत प्रजातियों के शुद्ध एवं प्रमाणित बीज ही बोये जाने चाहिए।
1.उत्तम प्र¨टीन युक्त मक्का (क्यूपूपूपीएम): एच.क्यू  पी.एम.1 एवं 5 एवं शक्ति-1 (संकुल)
2.पाप कार्न: वी. एल. पापकार्न, अम्बर, पर्ल एवं जवाहर
3.बेबी कार्न: एच. एम. 4 एवं वी.एल. बेबी कार्न-1
4.मीठी मक्का: मधुरप्रिया एवं एच.एस.सी. -1(संकर)- 70-75 दिन, उपज-110 से 120 क्विंटल  प्रति है., 250-400  क्विंटल  हरा चारा।
5.चारे हेतु: अफ्रीकन टाल, जे-1006, प्रताप चरी-6

बोआई का समय

    भारत में मक्का की बोआई वर्षा प्रारंभ होने पर की जाती है। देश के विभिन्न भागों में (खरीफ ऋतु) बोआई का उपयुक्त समय जून के अंतिम सप्ताह से जुलाई के प्रथम पखवाड़े तक का होता है। शोध परिणामों से ज्ञात होता है कि मक्का की अगेती बोआई (25 जून तक) पैदावार के लिए उत्तम रहती है। देर से बोआई करने पर उपज में गिरावट होती है। रबी में अक्टूबर अंतिम सप्ताह से 15 नवम्बर तक बोआई करना चाहिए तथा जायद में बोआई हेतु फरवरी के अंतिम सप्ताह से मार्च तृतीय सप्ताह तक का समय अच्छा रहता है। खरीफ की अपेक्षा रबी में बोई गई मक्का से अधिक उपज प्राप्त होती है क्योंकि खरीफ में खरपतवारों की अधिक समस्या होती है, पोषक तत्वों का अधिक ह्यस होता है, कीट-रोगों का अधिक प्रकोप होता है तथा बदली युक्त मौसम केे कारण पौधों को सूर्य ऊर्जा कम उपलब्ध हो पाती हैं।जबकि रबी ऋतु में जल एंव मृदा प्रबंधन बेहतर होता है। पोषक तत्वों की उपलब्धता अधिक रहती है। कीट,रोग व खरपतवार प्रकोप कम होता है और फसल को प्रकाश व तापक्रम इष्टतम मात्रा में प्राप्त होता है।

सही बीज दर

    संकर मक्का का प्रमाणित बीज प्रत्येक वर्ष किसी विश्वसनीय संस्थान से लेकर बोना चाहिये। संकुल मक्का  के लिए एक साल पुराने भुट्टे के बीज जो  भली प्रकार  सुरक्षित रखे  गये हो , बीज के लिए अच्छे रहते है । पहली फसल कटते ही अगले  वर्ष बोने के लिए स्वस्थ्य फसल की सुन्दर-सुडोल बाले (भुट्टे) छाँटकर उन्हे उत्तम रीति से संचित करना चाहिए । यथाशक्ति बीज को  भुट्टे से हाथ द्वारा अलग करके बाली के बीच वाल्¨ दानो  का ही उपयोग अच्छा रहता है । पीटकर या मशीन द्वारा अलग किये गये बीज टूट जाते है जिससे अंकुरण ठीक नहीं होता ।  भुट्टे के ऊपर तथा नीचे के दाने बीच के दानो  की तुलना में शक्तिशाली नहीं पाये गये है । बोने के पूर्व बीज की अंकुरण शक्ति का पता लगा लेना अच्छा होता  है । यदि अंकुरण परीक्षण नहीं किया गया है तो प्रति इकाई अधिक बीज बोना अच्छा रहता है । बीज का माप, बोने की विधि, बोआई का समय तथा मक्के की किस्म के आधार पर बीज की मात्रा  निर्भर करती है ।  प्रति एकड़ बीज दर एवं पौध  अंतरण निम्न सारणी में दिया गया है ।
                                           सामान्य मक्का     क्यूपीएम    बेबी कार्न    स्वीट कार्न    पाप कार्न    चारे हेतु
बीज दर (किग्रा. प्रति एकड़)             8-10              8           10-12            2.5-3          4-5           25-30
कतार से कतार की दूरी (सेमी)         60-75         60-75           60               75             60               30
पौधे  से पौधे  की दूरी (सेमी.)            20-25         20-22       15-20            25-30         20               10

    ट्रेक्टर चलित मेज प्लांटर अथवा देशी हल की सहायता से  रबी मे 2-3 सेमी. तथा जायद व खरीफ में 3.5-5.0 सेमी. की गहराई पर बीज बोना चाहिए। बोवाई किसी भी विधि से की जाए परंतु खेत में पौधों की कुल संख्या 65-75 हजार प्रति हेक्टेयर रखना चाहिए। बीज अंकुरण के 15-20 दिन के बाद अथवा 15-20 सेमी. ऊँचाई ह¨ने पर अनावश्यक घने पौधों की छँटाई करके पौधों के बीच उचित फासला स्थापित कर खेत में इष्टतम पौध संख्या स्थापित करना आवश्यक है। सभी प्रकार की मक्का में एक स्थान पर एक ही पौधा  रखना उचित पाया गया है ।

बीज उपचार 

    संकर मक्का के बीज पहले  से ही कवकनाशी से उपचारित ह¨ते है अतः इनको  अलग से उपचारित करने की आवश्यकता नहीं होती है । अन्य प्रकार के बीज को थायरम अथवा विटावेक्स नामक कवकनाशी  1.5 से 2.0 ग्राम प्रतिकिलो बीज की दर से उपचारित करना चाहिए जिससे पौधों क¨ प्रारम्भिक अवस्था में रोगों  से बचाया जा सके ।

बोआई की विधियाँ

मक्का बोने की तीन विधियाँ यथा छिटकवाँ, हल के पीछे और  डिबलर विधि प्रचलित है, जिनका विवरण यहां प्रस्तुत हैः
1.छिटकवाँ विधि:  सामान्य  तौर पर किसान छिटककर बीज बोते है तथा ब¨ने के बाद पाटा या हैरो  चलाकर बीज ढकते है । इस विधि से बोआई करने पर बीज अंकुरण ठीक से नहीं ह¨ पाता है, पौधे  समान और  उचित दूरी पर नहीं उगते  जिससे बांक्षित  उपज के लिए प्रति इकाई इश्टतम पौध  संख्या प्राप्त नहीं हो  पाती है । इसके अलावा फसल में निराई-गुड़ाई (अन्तर्कर्षण क्रिया) करने में भी असुविधा होती है । छिटकवाँ विधि में बीज भी अधिक लगता है ।
2. कतार बौनी : हल के पीछे कूँड में बीज की बोआई  सर्वोत्तम  विधि है । इस विधि में कतार से कतार तथा पौध  से पौध  की दूरी इष्टतम रहने से पौधो  का विकास अच्छा होता है । उपज अधिक प्राप्त होती है । मक्का की कतार बोनी के लिए मेज प्लान्टर का भी उपयोग किया जाता है ।
वैकल्पिक जुताई-बुवाई
        विभिन्न संस्थानो  में हुए शोध परिणामो  से ज्ञात होता है कि शून्य भूपरिष्करण, रोटरी टिलेज एवं फर्ब पद्धति जैसी तकनीको को  अपनाकर किसान भाई उत्पादन लागत को  कम कर अधिक उत्पादन ले सकते है ।
जीरो टिलेज या शून्य-भूपरिष्करण तकनीक
          पिछली फसल की कटाई के उपरांत बिना जुताई किये मशीन द्वारा मक्का की बुवाई करने की प्रणाली को जीरो टिलेज कहते हैं। इस विधि से बुवाई करने पर खेत की जुताई करने की आवश्यकता नही पड़ती है तथा खाद एवम् बीज की एक साथ बुवाई की जा सकती है। इस तकनीक से चिकनी मिट्टी के अलावा अन्य सभी प्रकार की मृदाओं में मक्का की खेती की जा सकती है। जीरो टिलेज मशीन साधारण ड्रिल की तरह ही है, परन्तु इसमें टाइन चाकू की तरह होता है। यह टाइन मिट्टी में नाली के आकार की दरार बनाता है, जिसमें खाद एवम् बीज उचित मात्रा में सही गहराई पर पहुँच जाता है।
फर्ब तकनीक से बुवाई
                 मक्का की बुवाई सामान्यतः कतारो  में की जाती है। फर्ब तकनीकी किसानों में प्रचलित इस विधि से सर्वथा भिन्न है। इस तकनीक में मक्का को ट्रेक्टर चलित रीजर-कम ड्रिल से मेंड़ों पर एक पंक्ति में बोया जाता है। पिछले कुछ वर्षों के अनुसंधान में यह पाया गया हैं कि इस तकनीक से खाद एवम् पानी की काफी बचत होती है और उत्पादन भी प्रभावित नही होता हैं। इस तकनीक से बीज उत्पादन के लिए भी मक्का की खेती की जा रही है। बीज उत्पादन का मुख्य उद्देश्य अच्छी गुणवता वाले अधिक से अधिक बीज उपलब्ध कराना है।

खाद एंव उर्वरक

    मक्का की भरपूर उपज लेने के लिए संतुलित मात्रा में खाद एंव उर्वरकों का प्रयोग आवश्यक है। मक्के को  भारी फसल की संज्ञा दी जाती है जिसका भावार्थ यह है कि इसे अधिक मात्रा  में पोषक तत्वो  की आवश्यकता पड़ती है । एक हैक्टर मक्के की अच्छी फसल भूमि से ओसतन 125 किग्रा. नत्रजन, 60 किग्रा. फॉस्फ¨रस तथा  75 किलोग्राम पोटाश ग्रहण कर लेती है।अतः मिट्टी में इन प¨षक तत्वो  का पर्याप्त मात्रा  में उपस्थित रहना अत्यन्त आवश्यक है । भूमि में नाइट्रोजन की कमी होनेपर पौधा  छोटा और  पीला रह जाता है, जबकि फॉस्फ़ोरस कम होने पर फूल व दानो  का विकास कम होता है । साथ ही साथ जडो  का विकास भी अवरूद्ध ह¨ जाता है । भूमि में पोटाश की न्यूनता पर  कमजोर पौधे  बनते है, कीट-रोग का आक्रमण अधिक होता है । पौध  की सूखा सहन करने की क्षमता कम हो  जाती है । दाने पुष्ट नहीं बनते है । मक्के की फसल में 1 किग्रा नत्रजन युक्त उर्वरक देने से 15-25 किग्रा. मक्के के दाने प्राप्त होते हैं। मक्के की फसल में पोषक तत्वो  की पूर्ति के लिए  जीवाशं तथा रासायनिक खाद का मिलाजुला  प्रयोग बहुत लाभकारी पाया गया है। खाद एंव उर्वरकों की सही व संतुलित मात्रा का निर्धारण खेत की मिट्टी परीक्षण के बाद ही तय किया जाना चाहिए।
    मक्का बुवाई से 10-15 दिन पूर्व 10-15 टन प्रति हेक्टेयर सड़ी हुई गोबर की खाद खेत में अच्छी तरह मिला देना चाहिए। मक्का में 150 से 180 किलोग्राम नत्रजन, 60-70 किलो ग्राम फास्फ़ोरस, 60-70 किलो ग्राम पोटाश तथा 25 किलो ग्राम जिंक सल्पेट प्रति हैक्टर देना उपयुक्त पाया गया है। संकुल किस्मो  में नत्रजन की मात्रा  उपरोक्त की 20 प्रतिशत कम देना चाहिए । मक्का की देशी किस्मो  में नत्रजन, स्फुर व पोटाश की उपरोक्त मात्रा  की आधी मात्रा  देनी चाहिए । फास्फोरस, पोटाश और जिंक की पूरी मात्रा तथा 10 प्रतिशत नाइट्रोजन को  आधार डोज (बेसल) के रूप में बुवाई के समय देना चाहिए। शेष नाइट्रोजन की मात्रा को चार हिस्सों में निम्नलिखित विवरण के अनुसार देना चाहिए।
20 प्रतिशत नाइट्रोजन फसल में चार पत्तियाँ आने के समय देना चाहिए।
30 प्रतिशत नाइट्रोजन फसल में 8 पत्तियाँ आने के समय देना चाहिए।
30 प्रतिशत नाइट्रोजन फसल पुष्पन अवस्था में हो या फूल आने के समय देना चाहिए तथा
10 प्रतिशत नाइट्रोजन का प्रयोग दाना भराव के समय करना चाहिए।

सिचाई हो समय पर 

    मक्के की प्रति इकाई उपज  पैदा करने के लिए अन्य फसलो  की अपेक्षा अधिक पानी लगता है । शोध परिणामों में पाया गया है कि  मक्के में वानस्पतिक वृद्धि (25-30 दिन) व मादा फूल आते समय (भुट्टे बनने की अवस्था में) पानी की कमी से उपज में काफी कमी हो जाती है। अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए मादा फूल आने की अवस्था में किसी भी रूप से पानी की कमी नहीं होनी चाहिए। खरीफ मौसम में अवर्षा की स्थिति में आवश्यकतानुसार दो से तीन जीवन रक्षक सिंचाई चाहिये।
    छत्तीसगढ़ में  रबी मक्का के लिए 4 से 6 सिंचाई की आवश्यकता होती है। यदि 6 सिंचाई की सुविधा हो तो 4-5 पत्ती अवस्था, पौध  घुटनों तक आने  से पहले व तुरंत बाद, नर मंजरी आते समय, दाना भरते समय तथा दाना सख्त होते समय सिंचाई देना लाभकारी रहता है। सीमित पानी उपलब्ध होने पर एक नाली छोड़कर दूसरी नाली में पानी देकर करीब 30 से 38 प्रतिशत पानी की बचत की जा सकती है। सामान्य तौर पर मक्के के पौधे 2.5 से 4.3 मि.ली. प्रति दिन जल उपभोग कर लेते है। मौसम के अनुसार मक्के को पूरे जीवन काल(110-120 दिन) में 500 मि. ली. से 750 मि.ली. पानी की आवश्यकता होती है। मक्के के खेत में जल भराव  की स्थिति में फसल को भारी क्षति होती है। अतः यथासंभव खेत में जल निकाशी की ब्यवस्था करे।

खरपतवारो से फसल की सुरक्षा 

    मक्के की फसल तीनों ही मौसम में खरपतवारों से प्रभावित होती है। समय पर खरपतवार नियंत्रण न करने से मक्के की उपज में 50-60 प्रतिशत तक कमी आ जाती है। फसल खरपतवार प्रतियोगिता के लिए बोआई से 30-45 दिन तक क्रांन्तिक समय माना जाता है। मक्का में प्रथम निराई 3-4 सप्ताह बाद की जाती है जिसके 1-2 सप्ताह बाद बैलो  से चलने वाले  यंत्रो  द्वारा कतार के बीच की भूमि गो ड़ देने से पर्याप्त लाभ होता है । सुविधानुसार दूसरी गुड़ाई कुदाल आदि से की जा सकती है । कतार में बोये गये पौधो  पर जीवन-काल में, जब वे 10-15 सेमी. ऊँचे हो , एक बार मिट्टी चढ़ाना  अति उत्तम होता है । ऐसा करने से पौधो  की वायवीय जड़ें  ढक जाती है तथा उन्हें  नया सहारा मिल जाता है जिससे वे लोटते (गिरते)नहीं है । मक्के का पोधा  जमीन पर लोट   जाने पर साधारणतः टूट जाता है जिससे फिर कुछ उपज की आशा रखना दुराशा मात्र ही होता है ।
प्रारंम्भिक 30-40 दिनों तक एक वर्षीय घास व चैड़ी पत्ती वाले खरपतवारों  के नियंत्रण हेतु एट्राजिन नामक नीदनाशी 1.0 से 1.5 किलो प्रति हेक्टेयर को 1000 लीटर पानी में घोलकर बुआई के तुरंत बाद खेत में छिड़कना चाहिए। खरपवारनाशियो  के छिड़काव के समय मृदा सतह पर पर्याप्त नमी का होना आवश्यक रहता है। इसके अलावा एलाक्लोर 50 ईसी (लासो) नामक रसायन 3-4 लीटर प्रति हक्टेयर की दर से 1000 लीटर पानी में मिलाकर बोआई के बाद खेत में समान रूप से छिड़कने से भी फसल में 30-40 दिन तक खरपतवार नियंत्रित रहते हैं। इसके बाद 6-7 सप्ताह में एक बार हाथ से निंदाई-गुडाई व मिट्टी चढ़ाने का कार्य करने से मक्के की फसल पूर्ण रूप से खरपतवार रहित रखी जा सकती है।

कटाई-गहाई

    मक्का की प्रचलित उन्नत किस्में बोआई से पकने तक लगभग 90 से 110 दिन तक समय लेती हैं। प्रायः बोआई  के 30-50 दिन बाद ही मक्के में फूल लगने लगते है तथा 60-70 दिन बाद ही हरे भुट्टे भूनकर या उबालकर खाने लायक तैयार हो  जाते है । आमतौर पर  संकुल एंव संकर मक्का की किस्मे पकने पर भी हरी दिखती है, अतः इनके सूखने की प्रतिक्षा न कर भुट्टो कर तोड़ाई करना  चाहिए।     एक आदमी दिन भर में 500-800 भुट्टे तोड़ कर छील सकता है । गीले भुट्टों  का ढेर लगाने से उनमें फफूंदी  लग सकती है जिससे दानों की गुणवत्ता खराब हो जाती है। अतः भुट्टों को छीलकर धूप में तब तक सुखाना चाहिए जब तक दानों में नमी का अंश 15 प्रतिशत से कम न हो जाये। इसके बाद दानों को गुल्ली से अलग किया जाता है। इस क्रिया को शैलिंग कहते है।

उपज एंव भंडारण

    सामान्य तौर पर सिंचित परिस्थितियों में संकर मक्का की उपज 50-60 क्विंटल ./हे. तथा संकुल मक्का की उपज 45-50 क्विंटल ./हे. तक प्राप्त की जा सकती है। मक्का के भुट्टो  की पैदावार लगभग 45000-50000 प्रति हैक्टर अती है । इसके अलावा 200-225 क्विंटल हरा चारा प्रति हैक्टर भी प्राप्त होता है ।

ताकि सनद रहे: कुछ शरारती तत्व मेरे ब्लॉग से लेख को डाउनलोड कर (चोरी कर) बिभिन्न पत्र पत्रिकाओ और इन्टरनेट वेबसाइट पर अपने नाम से प्रकाशित करवा रहे है।  यह निंदिनिय, अशोभनीय व विधि विरुद्ध कृत्य है। ऐसा करना ही है तो मेरा (लेखक) और ब्लॉग का नाम साभार देने में शर्म नहीं करें।तत्संबधी सुचना से मुझे मेरे मेल आईडी पर अवगत कराना ना भूले। मेरा मकसद कृषि विज्ञानं की उपलब्धियो को खेत-किसान और कृषि उत्थान में संलग्न तमाम कृषि अमले और छात्र-छात्राओं तक पहुँचाना है जिससे भारतीय कृषि को विश्व में प्रतिष्ठित किया जा सके।

रविवार, 14 अप्रैल 2013

गन्ने की पेड़ी फसल से अधिकतम उपज लेने के गुर

                                         
                                                                           डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर 
                                                                      प्राध्यापक (सश्यविज्ञान)
                                                                 इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय, 
                                                                  कृषक नगर, रायपुर (छत्तीसगढ़)


                                                      आर्थिक लाभ का साधन है गन्ने की पेड़ी फसल  
    एक बार बोए गये गन्ने की फसल  काट लेने के उपरान्त उसी गन्ने से दूसरी फसल लेने के प्रक्रिया को  पेड़ी कहते है । गन्ने की रोपी गई फसल की कटाई के उपरान्त उसी खेत में रोपित फसल की जड़ों से गन्ने के नये पौधे निकलते है। इससे गन्ने की जो फसल प्राप्त होती है उसे गन्ने की पेड़ी या जड़ी (रेटून) कहते है । आमतौर पर गन्ने की फसल से एक या दो पेड़ी की फसल अवश्य लेंना चाहिए। देश में लगभग दो तिहाई क्षेत्र में पेड़ी की फसल  ली जाती है।
    पेड़ी रखने से खेत की तैयारी, बीज एवं बुवाई का खर्च, श्रम एवं समय की बचत ह¨ती है । अतः पेड़ी फसल का उत्पादन व्यय कम आता है । पेड़ी फसल अपेक्षाकृत कम समय में पककर तैयार ह¨ जाती है जिससे उस खेत में दूसरी फसल जैसे गेहूँ, चना आदि की बुवाई समय से हो सकती है । पेड़ी की फसल शीघ्र तैयार ह¨ने के कारण चीनी मिलो  में शीघ्र पेराई कार्य शुरू हो  जाता है । पेड़ी की फसल लेने से मुख्य फसल में दी गई उर्वरको  की मात्रा  के अवशेष (विशेषकर स्फुर व पोटाश आदि) का उपयोग हो  जाता है । नई बोई गई फसल (नोलख) की अपेक्षा पड़ी फसल को  कम सिंचाई की आवश्यकता हो ती है । इस फसल से प्राप्त गन्ने में चीनी प्रतिशत अधिक पाया जाता है ।एक ही खेत में लगातार गन्ने की फसल  कई वर्ष तक खड़ी रहने के कारण फसल पर कीट-रोग का प्रकोप बढ़ जाता है । भूमि की उर्वरा शक्ति एवं उपजाऊपन में कमी होती है । कभी-कभी फसल कमजोर होने के कारण उपज कम प्राप्त होती है जिससे आर्थिक नुकसान हो  सकता है ।
गन्ना किस्म को-8 6 0 3 2 

कैसे लें  गन्ने की पेड़ी फसल से बेहतर उत्पादन

    पेड़ी फसल का उचित सस्य-प्रबन्धन न करने से गन्ने की उत्पादकता कम हो जाती है। प्रायः पेड़ी की पैदावार मुख्य फसल(नोलख) से कम होती है। पेड़ी की फसल से अधिकतम उपज लेने के लिए निम्न सस्य तकनीक अपनाना आवश्यक है ।
1. पेडी हेतु उन्ही किस्मों का चयन करें जिनमें जड़ी उत्पादन क्षमता अधिक हो, उदाहरण के लिए को-86032, को-85004 (प्रभा)आदि।
2. पेड़ी के लिये गन्ने को सही समय पर काटना चाहिये। फरवरी के पहले सप्ताह तक काटे गये गन्ने की पेड़ी अच्छी होती है।  मार्च के बाद काटे गये गन्ने की पेडी़ अच्छी नही होती हैं।
3. गन्ने की पहली फसल (नोलख) क¨ जमीन की सतह के पास से ही काटा जावें ।ऊपर से काटने पर कल्लो  की संख्या कम हो  जाती है । यदि मिट्टी चढ़ाई गई हो , तो  अच्छा यही रहेगा कि मिट्टी को  गिराने के बाद ही गन्ना काटा जाए ।
4. कटाई कें तुरंत बाद कुडें कचरे तथा सूखी पत्तियों  को आग लगाकर जला देना चाहियें। इन पत्तियों को खेत में सडा दिया जाए तो खाद का कार्य करेंगी परंतु भूमि में पत्तियां खाद के लिए छोडना होतो भूमि का उपचार आवश्यक रहता है।
5. पेड़ी वाले खेत में, जहाँ जगह खाली हो वहाँ नया गन्ना लगाएं। इस कार्य हेतु गन्ने का ऊपरी भाग प्रयोंग में लायें। गन्ने के टुकडे बोने का उचित समय वही होगा जब खेत पहली सिंचाई के बाद काम करने की स्थिति में आ जाये।
6. पेड़ी मे मुख्य फसल की तुलना मे अधिक सिंचाइयों क आवश्यकता होती है, इसलिये उसमें अधिक पानी देना चाहिये। प्रत्येक सिंचाई में 6-7 सेमी. पानी देना चाहिये। वर्षा ऋतु के पहले 15 दिन के अंतर से तथा बाद में 20 दिन के अंतर से सिंचाई करते रहना चाहिये।
7. खेत के बतर में आने पर गरेडों के दोनो ओर हल चलाकर पुरानी गरेडों (नालियाँ) को तोड़ देना चाहिए। इससे पुरानी जड़ टूट जाती है तथा भूमि में वायु संचार बढ़ जाता हैं जिससे नई जड़ों का विकास होता है।
8. पेड़ी को मुख्य फसल की अपेक्षा अधिक खाद-उर्वरक की आवश्यकता होती है। अतः इसमे गोबर की खाद 12-15 गाड़ी, 300 कि. ग्रा. नत्रजन, 75 कि.ग्रा. स्फुर व 25 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर के हिसाब से देना चाहिये।नत्रजन की एक तिहाई मात्रा तथा स्फुर व पोटाश की पूरी मात्रा गरेडों (नालियो) में   देना चाहिए। नत्रजन का दूसरा भाग, तीन माह बाद तथा शेष एक तिहाई, अंतिम बार मिट्टी चढ़ाते समय देना चाहिये।
9. खाद देने के बाद देशी हल या रिजर में पटिया बाँध कर गन्ने के ठुठों पर मिटटी चढाएँ तथा सिंचाई करें।
10. पेड़ी फसल में भी जैव उर्वरक यथा 2.5 कि. ग्रा. एजोटोबैक्टर व 5 कि. ग्रा. पी. एस. बी.प्रति हेक्टेयर का प्रयोग करने से नत्रजन व स्फुर की  लगभग 20 प्रतिशत बचत होती है।
11. कीट-बीमारियों से प्रभावित फसल की पेड़ी कभी नही लेना चहिये। पेड़ी फसल के ठुँठो  पर एमीसान -6 दवा 300 ग्रा. 400 लिटर पानी  घोलकर हजारे की  मदद से छिडकें। यदि पपड़ी कीट की आशंका हो तो उपरोक्त दवा के साथ मैलाथियान 50 ई. सी. 750 मि. ली. मिलाकर प्रति हेक्टेयर छिड़काव करें।
12. फसल पर मिटटी चढ़ाना तथा पौधों की बँधाई करना भी आवश्यक है। जब पौधों की लम्बाई 7-8 फुट हो जावे (वर्षा ऋतु) तो बँधाई का काम शुरू कर देना चाहिये।
13. पेड़ी फसल मुख्य फसल की अपेक्षा जल्दी पककर तैयार हो जाती हैं। अतः इसे पहले ही काट लेना चाहिये । जल्दी पकने वाली किस्मो  की पेडी 9-10 महीने में पककर तैयार हो जाती हैं तथा देर से पकने देर से पकने वाले गन्ने 10-12 महीने में तैयार होती है। देर से काटने पर पैदावार कम मिलने के अलावा शक्कर की मात्रा में कमी आ जाती है और गुड भी दानेदार नहीं बनता है।

काबुली चने की खेती भरपूर आमदनी देती

                                                  डॉ. गजेन्द्र सिंह तोमर प्राध्यापक (सस्यविज्ञान),इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषि महाव...