मंगलवार, 30 अक्तूबर 2018

कृषि विज्ञान के प्रणेता कौटिल्य का कृषि शाष्त्र


डॉ गजेंद्र सिंह तोमर, प्रोफ़ेसर(एग्रोनोमी)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्व विद्यालय,
राज मोहिनी देवी कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र,
अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)
                    कौटिल्य को कृषि विज्ञान का प्रणेता माना जाता है।  कृषि विज्ञान के क्षेत्र में जो भी शोध हुए है और आगे भी होना है, उन सबके पीछे हमारे वेद-पुराणों और कौटिल्य के अर्थ शाष्त्र की महत्वपूर्ण भूमिका है। मेगस्थनीज और चन्द्रगुप्त मौर्य शासन कल में कौटिल्य का अर्थशास्त्र लिखा गया है ।  इस महँ एतिहासिक ग्रन्थ में कृषि को एक धार्मिक कार्य बताया गया है।   मेगस्थनीज ने अपने विवरण में लिखा है की भूमि के अधिकांश भाग पर सिंचाई होती है तथा उसमे एक वर्ष में दो  फसलें तैयार होती है, परन्तु  कौटिल्य ने एक वर्ष में तीन  फसलें पैदा करने का विवरण दिया है।  कौटिल्य के अनुसार वर्षा ऋतु के प्रारंभ में शालि (धान), कोद्रव (कोदो), प्रियंगु (कंगनी),वरक (मोठ) तथा कुछ दलहन बोये जायें. वर्षा के मध्य में मुदग (मूंग), उड़द आदि बोये जायें. वर्षा ऋतु की समाप्ति के बाद कुसुंबा, मसूर, कुलत्थ(कुल्थी),यव (जौ),गोधूम (गेंहू),कलाय (चना) और सर्षद (सरसों) आदि को बोया जायें। कौटिल्य ने अन्य फसलों का भी उल्लेख किया है, इनमे ईक्षु(ईख) और कार्पास(कपास) आदि शामिल है।  मेगस्थनीज ने उपरोक्त फसलों के अतिरिक्त ज्वार, अनेक प्रकार की दालें, विविध प्रकार की धान, तथा वास्फोरम नामक एक अनाज का भी उल्लेख किया है।  कौटिल्य धान आदि की फसलों को श्रेष्ठ मानते थे तथा साग-सब्जी की फसल को मध्यम.आधुनिक युग में दो फसलें लेने को ही उन्नत कृषि माना जाता है, पर कौटिल्य के समय तीन फसलें पैदा होती थीं-जो हैमन (रबी), ग्रैष्मिक (खरीफ) और केदार (जायद) कहलाती थीं। 
         कौटिल्य ने इस बारे में भी लिखा है की कौन-सी भूमि में कौन-सी फसल बोई जाए. उनके अनुसार जो भूमि फेनाघट (नदी के जल से आप्लावित हो जाती हो) उस भू में वल्ली फल (खरबूजा, तरबूज, ककड़ी आदि) बोयी जाए, जो भूमि परिवाहान्त (सिंचित) हो उस पर पिप्पली, मृद्धीका (अंगूर) और गन्ना बोया जाये, जो भूमि कूप पर्यन्त (कुओं के समीप स्थित) हो, उस पर साग सब्जी और मूल (गाजर,मूली, शकरकंद) आदि बोये जायें, जो भूमि हरणीपर्यन्त (जहाँ पहले तालाब रहते हों और उनके सूख जाने पर भूमि में नमीं रहती हो) उस पर हरी फसलें बोई जायें और क्यारियों की मेंड़ों पर सुगंध देने वाले और औषधियों के लिए उपयोगी पौधे लगाये जायें।
        कौटिल्य अर्थशास्त्र में अनेक फलों, फूलों, खाद्यान्नों, कांड-मूल, मसालों आदि का उल्लेख है।  इनमे मरीच (मिर्च), श्रंगि (अदरक), धनिया, जीरा, नींबू, आम, आंवला, बेर, झरबेरी, जामुन, कटहल और अनार आदि के नाम तो है ही, कई ऐसी वस्तुओं और फसलों के नाम है, जिनका अर्थ हमें ज्ञात नहीं है।  चाणक्य ने गन्ने के रस से गुड़ मत्स्यन्डिका (चीनी) के उपयोग से नीबू, आम तथा अन्य फलों का शरबत बनाने का भी उल्लेख किया है.कौटिल्य कृषि कर्म को धार्मिक अनुष्ठान मानते थे।  इसलिए उन्होंने लिखा है जब बीजों को बोना प्रारंभ किया जाये तो कुछ बीजों को पानी में भिगोकर तथा इन भीगे हुए बीजों के बीच में स्वर्ण (सोना) रख कर यह मंत्र पढ़ा जाय-
                                         प्रजापतये काश्यपाय देवाय च नमः सदा
                                         सीता में ऋदध्यतां देवी बीजे च धनेषुच.. (कौटिल्य अर्थशास्त्र 2/24)
            अर्थात प्रजापति और कश्यप देवताओं को सदा नमस्कार है।  हमारी कृषि में सदा वुद्धि हो और हमारे बीजों और धन में देवी का निवास हो।
          मोर्य काल में अच्छी फसल की कामना के लिए देवी-देवताओं की पूजा अर्चना की जाती थी. यद्यपि सिंचाई के पर्याप्त प्रबंध थे, फिर भी वर्षा कब होगी और कैसे होगी इसे भी ज्योतिष के आधार पर जानने का प्रयत्न किया जाता था।  कौटिल्य के मतानुसार बृहस्पति ग्रह की स्थिति और गति से, शुक्र के उदय और अस्त से और सूर्य के स्वरुप और विकार से वर्षा के सम्बन्ध में अनुमान लगान चाहिए।
              भारत में कृषि मात्र व्यवसाय नहीं थी, इसे एक पवित्र कर्म, धार्मिक अनुष्ठान तथा सामाजिक दायित्व का कार्य माना जाता था।  यह धार्मिक और सामाजिक कर्म सफलता और सुगमतापूर्वक संपन्न हो इसलिए अनेक देवी-देवताओं की अराधना की जाती थी। वैसे आज भी इस परम्परा का पालन अनेक राज्यों के किसान और ग्रामीण भाई  कर रहे है। कई गावों में खेतों में हल चलाने, बीज बोने, कुआ खोदने आदि का मुहूर्त निकलवाने की आज भी परम्परा है।  इसके पीछे धारणा यही है की पवित्र कार्य, शुभ समय पर निर्विघ्न संपन्न हो।  फसल कट कर घर  आ जाने पर त्यौहार मनाने तथा देवी-देवताओं की पूजा-उपासना की परम्परा आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में कायम है। दीपावली पर गाय और बैलों की पूजा हमारी प्राचीन परंपरा आज भी पूरी श्रद्धा से की जाती है।  होली, बैसाखी, लोहड़ी, नवाखाई आदि त्यौहार नई फसल आने के उपलक्ष्य में ही तो आयोजित होते है। 
नोट:   कृपया ध्यान रखें बिना लेखक की आज्ञा के इस लेख को अन्यंत्र प्रकाशित करना अवैद्य माना जायेगा। यदि प्रकाशित करना ही है तो लेख में  ब्लॉग का नाम,लेखक का नाम और पता देना अनिवार्य रहेगा। साथ ही प्रकाशित पत्रिका की एक प्रति लेखक को भेजना सुनिशित करेंगे।

कोई टिप्पणी नहीं:

काबुली चने की खेती भरपूर आमदनी देती

                                                  डॉ. गजेन्द्र सिंह तोमर प्राध्यापक (सस्यविज्ञान),इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषि महाव...