डॉ. गजेंद्र सिंह तोमर
प्राध्यापक (शस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)
राजमा (फेसियोलस वल्गेरिस) को फ्रेंच बीन कहते है। इसकी फलियां किडनी के आकार जैसी होती है, इसलिए इसे किडनी बीन के नाम से भी जाना जाता है । मटर एवं बरबटी की तरह राजमे की खेती भी द्विउद्देश्य यानि सब्जी एवं दाना के लिए की जाती है । स्वाद और सेहत के लिहाज से राजमा की फलियां (बीन्स) सबसे महत्वपूर्ण होती है और इसकी जायकेदार सब्जी प्रायः सभी लोग बेहद पसंद करते है। अधिक मांग होने की वजह से बाजार में इसकी बीन्स सबसे मंहगे दामों में बिकती है। इसलिए राजमा को नकदी फसल के रूप में उगाया जाने लगा है। नरम एवं गूदेदार फलियो वाली किस्मों का फ्रेन्चबीन के रूप में सब्जी के लिए तथा
तुलनात्मक कड़ी फलियो वाली किस्मों को दाना के लिए उगाया जाता हैं। राजमा खाने में स्वादिष्ट और
स्वास्थ्यवर्धक होता है और मुनाफे की दृष्टि से अन्य दलहनों से बेहतरीन फसल है। राजमा के दानों में सामान्यतः 22.9 प्रतिशत
प्रोटीन,
60.6 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट पाया जाता है। इसके 100 ग्राम
दानों में 260 मिली ग्राम कैल्शियम, 410 मिली ग्राम फाॅस्फोरस एवं 5.8 मिली ग्राम लौह तत्व पाये
जाते हैं जो मानव स्वास्थ्य के लिए बहुत ही उपयोगी हैं।
उपयुक्त जलवायु
भारत के मैदानी क्षेत्रों में
राजमा की खेती रबी ऋतु में की जाती है। इसकी फसल वृद्धि के लिए वातावरण का तापक्रम
20-25 डिग्री सेग्रे. के मध्य होना उचित रहता है। राजमा की फसल अन्य रबी दलहनो की अपेक्षा
पाले के प्रति अधिक संवेदनशील है।
भूमि का चयन एवं खेत की तैयारी
राजमा की खेती के लिए
गहरे-हल्के गठन वाली बलुई दोमट से बुलई चिकनी मृदायें उपयुक्त रहती हैं। अधिक जल
धारण क्षमता वाली छत्तीसगढ़ की डोरसा तथा कन्हार मिट्टियाँ उपयुक्त हैं। मृदा
अभिक्रिया 6.5 से 7.5 उत्तम रहती है। लवणीय तथा क्षारीय मृदायें अनुपयुक्त रहती
हैं। खेत में जल निकास की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए एवं खेत खरपतवार मुक्त होना
चाहिये। भूमि में नमी की कमी होने पर
पलेवा देकर खेत तैयार करना चाहिये। प्रथम जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से तथा 2 - 3 जुताईयाँ
देशी हल या कल्टीवेटर से करने के पश्चात् पाटा चलाकर खेत समतल कर लेना चाहिए। दीमक
से फसल सुरक्षा हेतु क्लोरपायरीफास 1.2 प्रतिशत 20 किलो प्रति हेक्टेयर की दर से
अंतिम जुताई के समय मिट्टी में मिलाना चाहिए।
राजमा की उन्नत किस्में
उदय: यह बड़े दानों वाली
किस्म है जिसके 100 दानों का वजन 44 ग्राम आता है तथा इसके दानों का रंग
सफेद-चित्तीदार होता है। यह किस्म 125-130 दिनों में पककर तैयार हो जाती है तथा इसकी
अधिकतम उत्पादन क्षमता 20 - 25 क्विंटल/हेक्टेयर हैं।
एच.यू.आर.-137: इसके दाने
बड़े,
भूरा-लाल रंग लिये तथा 100 दानों का वजन 45 ग्राम होता है।
यह 100-110 दिनों में पककर औसतन 15-16 क्विंटल/हेक्टेयर उत्पादन देती है।
व्ही.एल.60:
यह खरीफ एवं रबी दोनों मौसम के लिये उपयुक्त हैं। इसके दानों का रंग भूरा एवं 100
दानों का वजन 36 ग्राम होता है। यह 110 - 115 दिन में पककर 15 - 20 क्विंटल/हेक्टेयर दाना उपज देती है।
एच.यू.आर.15: सफेद दानों
वाली किस्म है। इसके 100 दानों का वजन 40 ग्राम है तथा 120-125 दिनों में पककर
तैयार होती है। इसकी उत्पादकता 18 – 22 क्विंटल/हेक्टेयर है।
बुआई का समय
राजमा के पौधों की अच्छी बढ़वार और उपज के लिए सही समय पर बुआई करना आवश्यक है। भूमि का तापमान 25 डिग्री सेग्रे. तापमान आने पर
राजमा की बुवाई करना चाहिए। समान्यतः यह तापमान अक्टूबर के तीसरे सप्ताह में आता
है । सामान्यतौर पर 15 अक्टूबर से 15 नवम्बर राजमा की बुआई हेतु अनुकूल समय होता है। इसके
बाद बुआई करने पर उपज घट जाती है।
बीज दर एवं बीजोपचार
अधिक उपज के लिए स्वस्थ एवं
उच्च गुणवत्ता वाला बीज बुआई हेतु प्रयोग करना चाहिए। सामान्यतः 100 से 110 किलो
ग्राम बीज प्रति हेक्टेयर का प्रयोग करते हैं। बड़े दानों वाली किस्मों,
(100 दानों का वजन 35 - 40
ग्राम) का बीज 120 से 140 किलो प्रति हेक्टेयर प्रयोग करना चाहिए। फसल को बीज जनित रोगों से
बचाने के लिए बुवाई से पूर्व बीज का शोधन फफूँदीनाशी रसायन जैसे थायरस या
कार्बेन्डाजिम (बाविस्टीन 50 डब्लूपी) 3 ग्राम प्रति किलो ग्राम बीज के हिसाब से
उपचारित करना आवश्यक है।
बोआई की विधि
राजमा की बोआई हल के पीछे
कूड़ों मे करनी चाहिए। कतार- से-कतार की दूरी 30 - 40 से. मी. तथा पौधे-से-पौधे की दूरी 10 से. मी. रखे। बीज को 8 से 10 से. मी. गहराई पर बोना चाहिए। इसके
लिए पाटा चलाकर बीज ढकना चाहिए। राजमा की अच्छी पैदावार लेके के लिए 2.5 से 3.0
लाख पौधे प्रति हेक्टेयर उपयुक्त रहते है। यदि भूमि मंे नमी कम है तो राजमा की
बुवाई पलेवा देकर अन्यथा बुवाई के बाद हल्की सिंचाई करना लाभप्रद रहता है।
खाद्य एवं उर्वरक
राजमा की अधिक उप लेने के
लिए खाद एवं उर्वरकों का प्रयोग करना आवश्यक है। गोबर की खाद या कम्पोस्ट 5-7 टन
प्रति हेक्टेयर की दर से खेत की अंतिम जुताई के समय मिलाना चाहिए। अनय दलहनी फसलों
की अपेक्षा राजमा में नत्रजन की अधिकमात्रा लगती है क्योंकि इसकी जड़ें उथली होने
के अलावा वायुमण्डलीय नत्रजन स्थिरीकरण के लिए आवश्यक ग्रन्थियाँ इसकी जड़ो मे नही
पायी जाती है। सामान्यतः 100 किलो नत्रजन,
60 किलो स्फुर, 20 किलो पोटाॅश तथा 20 किग्रा. जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर
देना चाहिए। नत्रजन की आधी मात्रा तथा स्फुर, पोटाश और जिंक सल्फेट की पूरी मात्रा बुवाई के समय कूड़ों
में बीज के नीचे प्रयोग करना चाहिए। नत्रजन की शेष आधी मात्रा पहली सिंचाई के समय
खड़ी फसल में देना लाभप्रद पाया गया है।
सिंचाई एवं जल निकास
राजमा कि जड़ें उथली होने के
कारण नम भूमि एव अधिक पानी की जरूरत पड़ती है। राजमा को 25 दिन की अन्तराल से तीन -
चार सिंचाईयों (बुआई के 25, 50, 75 तथा 100 दिन बाद) की आवश्यकता पड़ती है। सिंचाई हल्की करें तथा खेत में पानी रूकना नहीं चाहिए। अतः समुचित
जल निकास आवश्यक है।
खरपतवार नियंत्रण
खरपतवार नियंत्रण के लिए
राजमा की फसल में 1 - 2 निराई- गुड़ाई की आवश्यकता पड़ती है। पहली निंदाई प्रथम
सिंचाई के बाद करना चाहिए। गुड़ाई के समय पौधों पर थोड़ी मिट्टी चढ़ाना लाभप्रद रहता
है। खरपतवार के रासायनिक नियंत्रण हेतु पेन्डीमेथलीन 0.75 से 1.0 किग्रा. प्रति
हेक्टेयर को 500 - 600 लिटर पानी में घोल कर बुवाई के तुरंत बाद (अंकुरण से पूर्व)
छिड़काव करना चाहिए। छिड़काव के समय भूमि में पर्याप्त नमी होनी चाहिये।
कटाई-गहाई एवं उपज
आमतौर पर अक्टूबर-नवम्बर में
फसल पक जाती है। राजमा की फल्लियाँ पीली पड़कर पकने लगें तब कटाई करना चाहिए अन्यथा
फल्लियाँ चटकने लगती हैं। कटाई करके फसल को सुखाकर गहाई की जाती है तथा दानों को
खुली धूप में सुखा लेना चाहिए। आमतौर पर राजमा की उन्नत खेती से 25 -
30 क्विंटल/हेक्टेयर दानों की उपज प्राप्त हो जाती है।