डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर
प्रोफेसर (एग्रोनॉमी ), कृषि महाविद्यालय,
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय,कृषकनगर,रायपुर (छत्तीसगढ़)
कृषि और पशु पालन का चोली दामन का साथ है परन्तु भारत में पशुधन को साल में 8-9 महीने अपौष्टिक सूखा चारा ही नसीब होता है। दरअसल वर्ष के कम से कम दो तिहाई समय देश के सभी क्षेत्रों में हरे चारे की किल्लत रहती है। किसान अपने पशुओं को सुबह शाम धान का पुआल या अन्य अपौष्टिक सुखा चारा ही दे पाते है और फिर चरने के लिए खुल्ला छोड़ देते है । दुधारू पशुओं को प्रतिदिन कम से कम दो किलो दाने की आवश्यकता होती है। शहरों के आसापास स्थित डेयरी कृषक अपने पशुओं को धान कट्टी या फिर गेंहू भूषा के साथ दाना-खल्ली देते है । धान पैरा कट्टी तथा गेंहू भूषा 1-2 रूपये प्रति किलो व दाना -खल्ली 10-15 रूपये प्रति किलो की दर से बाजार से लेना होती है । चारा दाना मंहगा होने के कारण पशुओं को पर्याप्त मात्रा में नहीं मिल पाता है। इसके चलते पशुओं में तेजी से बढ़ती कुपोषाण की समस्या के कारण आज हमारे यहां प्रति पशु प्रति दिन का दूध उत्पादन एक लीटर या इससे भी कम है। इसी वजह से दुग्ध उत्पादन घाटे का व्यवसाय होता जा रहा है जिससे किसानो का पशुधन के प्रति मोह भंग होता जा रहा है।
पशुआहार के विकल्प की खोज में एक विस्मयकारी फर्न-अजोला सदाबहार चारे के रूप में उपयोगी हो सकता है। दूध की बढ़ती मांग के लिए आवश्यक है कि पशुपालन व्यवसाय को अधिक लाभकारी बनाया जाए। इसके लिए जरूरी है की पशु पालन में दाने-चारे में आने वाली लागत (वर्तमान में यह 70 प्रतिशत से अधिक बैठती है ) को कम करना होगा। इसमें प्रकृति प्रदत्त अजोला की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। यह सर्वविदित है कि पशुओं के संतुलित आहार में हरे चारों की अहम भूमिका होती है, इसे नाकारा नहीं जा सकता है। भारत में पशुओं के लिए हरे चारे की उपलब्धता में निरंतर कमी परिलक्षित हो रही है। वनों एवं पारंपरिक चारागाहों का क्षेत्रफल दिनोंदिन घटता चला जा रहा है । कृषि के आधुनिकीकरण की वजह से फसल प्रति-उत्पाद(भूसा,कड़वी, पैरा कुट्टी आदि) में भी कमीं आ रही है जोकि अन्यथा पशु आहार के रूप में उपयोग किया जाता रहा है। हरे चारे अथवा पौष्टिक आहार की इस कमीं की पूर्ति बाजार से मंहगे व गुणवत्ता विहीन पशु आहार से की जा रही है। यही वजह है जिसके कारण दुग्ध उत्पादन लागत में वृद्धि और पशुपालन घाटे का सौदा होता जा रहा है। इस समस्या के लिए अजोला उत्पादन पशुपालको के लिए वरदान बन सकता है। इसे घर-आंगन में उगा सकते है और साल भर हरा चारा उत्पादन कर सकते हैं। देश के विभिन्न क्षेत्रों से अजोला उत्पादन के बेहतर नतीजे सामने आ रहे है ।
अजोला एक विस्मयकारी अद्भुत पौधा
दरअशल अजोला तेजी से बढ़ने वाली एक प्रकार की जलीय फर्न है, जो पानी की सतह पर तैरती रहती है। धान की फसल में नील हरित काई की तरह अजोला को भी हरी खाद के रूप में उगाया जाता है और कई बार यह खेत में प्राकर्तिक रूप से भी उग जाता है। इस हरी खाद से भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ती है और उत्पादन में भी आशातीत बढ़ोत्तरी होती है। एजोला की सतह पर नील हरित शैवाल सहजैविक के रूप में विध्यमान होता है। इस नील हरित शैवाल को एनाबिना एजोली के नाम से जाना जाता है जो कि वातावरण से नत्रजन के स्थायीकरण के लिए उत्तरदायी रहता है। एजोला शैवाल की वृद्धि के लिए आवश्यक कार्बन स्त्रोत एवं वातावरण प्रदाय करता है । इस प्रकार यह अद्वितीय पारस्परिक सहजैविक संबंध अजोला को एक अदभुद पौधे के रूप में विकसित करता है, जिसमें कि उच्च मात्रा में प्रोटीन उपलब्ध होता है। प्राकृतिक रूप से यह उष्ण व गर्म उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में पाया जाता है। देखने में यह शैवाल से मिलती जुलती है और आमतौर पर उथले पानी में अथवा धान के खेत में पाई जाती है।
पशुओं को अजोला चारा खिलाने के लाभ
अजोला सस्ता, सुपाच्य एवं पौष्टिक पूरक पशु आहार है। इसे खिलाने से वसा व वसा रहित पदार्थ सामान्य आहार खाने वाले पशुओं के दूध में अधिक पाई जाती है। पशुओं में बांझपन निवारण में उपयोगी है। पशुओं के पेशाब में खून की समस्या फॉस्फोरस की कमी से होती है। पशुओं को अजोला खिलाने से यह कमी दूर हो जाती है। अजोला से पशुओं में कैल्शियम, फॉस्फोरस, लोहे की आवश्यकता की पूर्ति होती है जिससे पशुओं का शारिरिक विकास अच्छा है। अजोला में प्रोटीन आवश्यक अमीनो एसिड, विटामिन (विटामिन ए, विटामिन बी-12 तथा बीटा-कैरोटीन) एवं खनिज लवण जैसे कैल्शियम, फास्फ़ोरस, पोटेशियम, आयरन, कापर, मैगनेशियम आदि प्रचुर मात्रा में पाए जाते है। इसमें शुष्क मात्रा के आधार पर 40-60 प्रतिशत प्रोटीन, 10-15 प्रतिशत खनिज एवं 7-10 प्रतिशत एमीनो अम्ल, जैव सक्रिय पदार्थ एवं पोलिमर्स आदि पाये जाते है। इसमें काबर्¨हाइड्रेट एवं वसा की मात्रा अत्यंत कम होती है। अतः इसकी संरचना इसे अत्यंत पौष्टिक एवं असरकारक आदर्श पशु आहार बनाती है। यह गाय, भैंस, भेड़, बकरियों , मुर्गियों आदि के लिए एक आदर्श चारा सिद्ध हो रहा है।
दुधारू पशुओं पर किए गए प्रयोगो से साबित होता है कि जब पशुओं को उनके दैनिक आहार के साथ 1.5 से 2 किग्रा. अजोला प्रतिदिन दिया जाता है तो दुग्ध उत्पादन में 15-20 प्रतिशत वृद्धि दर्ज की गयी है। इसके साथ इसे खाने वाली गाय-भैसों की दूध की गुणवत्ता भी पहले से बेहतर हो जाती है। प्रदेश में मुर्गीपालन व्यवसाय भी बहुतायत में प्रचलित है। यह बेहद सुपाच्य होता है और यह मुर्गियों का भी पसंदीदा आहार है। कुक्कुट आहार के रूप में अजोला का प्रयोग करने पर ब्रायलर पक्षियों के भार में वृद्धि तथा अण्डा उत्पादन में भी वृद्धि पाई जाती है। यह मुर्गीपालन करने वाले व्यवसाइयों के लिए बेहद लाभकारी चारा सिद्ध हो रहा है। यही नहीं अजोला को भेड़-बकरियों, सूकरों एवं खरगोश, बतखों के आहार के रूप में भी बखूबी इस्तेमाल किया जा सकता है।
सारणीः अन्य चारा फसलों से अजोला का तुलनात्मक अध्ययनचारा फसले एवं एज¨ला वार्षिक उत्पादन (टन/हैक्टर) शुष्क भार (%) प्रोटीन की मात्रा (%)
संकर नैपियर 250 50 4
रिजका (लूर्सन) 80 16 3. 2
ल¨बिया 35 7 1. 4
ज्वार 40 32 0. 6
अजोला 730 56 20
कैसे करें अजोला का उत्पादन
अजोला का उत्पादन बहुत ही आसान है। सबसे पहले किसी भी छायादार स्थान पर 2 मीटर लंबा, 2 मीटर चौड़ा तथा 30 सेमी. गहरा गड्ढा खोदा जाता है। पानी के रिसाव को रोकने के लिए इस गड्ढे को प्लास्टिक शीट से ढंक देते है। जहां तक संभव हो पराबैंगनी किरण रोधी प्लास्टिक सीट का प्रयोग करना चाहिए। प्लास्टिक सीट सिलपोलीन एक पौलीथीन तारपोलीन है जो कि प्रकाश की पराबैगनी किरणों के लिए प्रतिरोधी क्षमता रखती है। सीमेंट की टंकी में भी एजोला उगाया जा सकता है। सीमेंट की टंकी में प्लास्टिक सीट विछाने की आवश्यकता नहीं हैं। अब गड्ढे में 10-15 किग्रा. मिट्टी फैलाना है। इसके अलावा 2 किग्रा. गोबर एवं 30 ग्राम सिंगल सुपर फॉस्फेट 10 लीटर पानी में मिलाकर गड्ढे में डाल देना है। पानी का स्तर 10-12 सेमी. तक होना चाहिए। अब 500-1000 ग्राम अजोला कल्चर गड्ढे के पानी में डाल देते हैं। पहली बार एजोला का कल्चर किसी प्रतिष्ठित संस्थान मसलन प्रदेश में स्थित कृषि विश्वविद्यालयो के मृदा सूक्ष्म जीव विज्ञानं बिभाग से क्रय करना चाहिए। अजोला बहुत तेजी से बढ़ता है और 10-15 दिन के अंदर पूरे गड्ढे को ढंक लेता है। इसके बाद से 1000-1500 ग्राम एजोला प्रतिदिन छलनी या बांस की टोकरी से पानी के ऊपर से बाहर निकाला जा सकता है। प्रत्येक सप्ताह एक बार 20 ग्राम सिंगल सुपर फॉस्फेट और 1 किलो गोबर गड्ढे में डालने से एजोला तेजी से विकसित होता है। साफ पानी से धो लेने के बाद 1.5 से 2 किग्रा. अजोला नियमित आहार के साथ पशुओं को खिलाया जा सकता है।
अजोला उत्पादन में ध्यान देने योग्य बातें
1. अजोला की तेज बढ़वार और उत्पादन के लिए इसे प्रतिदिन उपयोग हेतु (लगभग 200 ग्राम प्रति वर्गमीटर की दर से) बाहर निकाला जाना आवश्यक हैं।
2. अजोला तेैयार करने के लिए अधिकतम 30 डिग्री सेग्रे तापमान उपयुक्त माना जाता है। अतः इसे तैयार करने वाला स्थान छायादार होना चाहिए।
3. समय-समय पर गड्ढे में गोबर एवं सिंगल सुपर फॉस्फेट डालते रहें जिससे अजोला फर्न तीव्रगति से विकसित होता रहे।
4. प्रति माह एक बार अजोला तैयार करने वाले गड्ढे या टंकी की लगभग 5 किलो मिट्टी को ताजा मिट्टी से बदलेें जिससे नत्रजन की अधिकता या अन्य खनिजो की कमी होने से बचाया जा सके ।
5. एजोला तैयार करने की टंकी के पानी के पीएच मान का समय-समय पर परीक्षण करते रहें। इसका पीएच मान 5.5-7.0 के मध्य होना उत्तम रहता है।
6. प्रति 10 दिनों के अन्तराल में, एक बार अजोला तैयार करने की टंकी या गड्ढे से 25-30 प्रतिशत पानी ताजे पानी से बदल देना चाहिए जिससे नाइट्रोजन की अधिकता से बचाया जा सके ।
7. प्रति 6 माह के अंतराल में, एक बार अजोला तैयार करने की टंकी या गड्ढे को पूरी तरह खाली कर साफ कर नये सिरे से मिट्टी,गोबर, पानी एवं अजोला कल्चर डालना चाहिए।
2. अजोला तेैयार करने के लिए अधिकतम 30 डिग्री सेग्रे तापमान उपयुक्त माना जाता है। अतः इसे तैयार करने वाला स्थान छायादार होना चाहिए।
3. समय-समय पर गड्ढे में गोबर एवं सिंगल सुपर फॉस्फेट डालते रहें जिससे अजोला फर्न तीव्रगति से विकसित होता रहे।
4. प्रति माह एक बार अजोला तैयार करने वाले गड्ढे या टंकी की लगभग 5 किलो मिट्टी को ताजा मिट्टी से बदलेें जिससे नत्रजन की अधिकता या अन्य खनिजो की कमी होने से बचाया जा सके ।
5. एजोला तैयार करने की टंकी के पानी के पीएच मान का समय-समय पर परीक्षण करते रहें। इसका पीएच मान 5.5-7.0 के मध्य होना उत्तम रहता है।
6. प्रति 10 दिनों के अन्तराल में, एक बार अजोला तैयार करने की टंकी या गड्ढे से 25-30 प्रतिशत पानी ताजे पानी से बदल देना चाहिए जिससे नाइट्रोजन की अधिकता से बचाया जा सके ।
7. प्रति 6 माह के अंतराल में, एक बार अजोला तैयार करने की टंकी या गड्ढे को पूरी तरह खाली कर साफ कर नये सिरे से मिट्टी,गोबर, पानी एवं अजोला कल्चर डालना चाहिए।
अजोला की उत्पादन लागत बहुत ही कम ( प्रति किग्रा. एक रूपये से भी कम) आती है, इसलिए यह किसानो के बीच तेजी से लोकप्रिय होता जा रहा है और यही कारण है कि दक्षिण से शुरू हुआ अजोला की खेती का कारवां अब भारत के विभिन्न प्रदेशॉ तक तक जा पहुंचा है। इसकी तमाम विशेषताओं से अभिभूत किसान अपने आसपास खाली पड़ी जमीन में ही नहीं बल्कि अपने घर की छतों पर भी इसका उत्पादन कर रहे है। इस प्रकार दिन-प्रतिदिन कम होती जा रही खेती योग्य जमीन और मौसम की अनिश्चितताओ के कारण पशुओ के लिए हरे चारे के संकट से जूझ रहे किसानो व डेयरी मालिको के लिए एजोला किसी वरदान से कम नहीं है। इसे घर-आंगन में लगा कर पूरे साल हरा चारा प्राप्त कर सकते है। पशुओं के लिए स्वास्थ्यवर्घक है तो दुध उत्पादन क्षमता भी बढ़ जाती है।
नोट: इस ब्लॉग के लेख लेखक की बिना अनुमति के अन्यत्र प्रकाशित करना अपराधिक हो सकता है। अतः प्रकाशन से पूर्व लेखक की अनुमति के साथ साथ लेखक का नाम देना अनिवार्य है।
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