मंगलवार, 28 अक्तूबर 2014

पशुओं का चारा ही नहीं पौष्टिक खाद्यान्न भी है जई-ओट्स

डॉ.गजेन्द्र सिंह तोमर,
प्राध्यापक (सस्यविज्ञान बिभाग)
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषक नगर, रायपुर (छत्तीसगढ़)
                     भारत में अधिकांश कृषि योग्य जमीनें खाद्यान्न, दलहन, तिलहन एवं नकदी फसलों  की खेती के अंदर आती है तथा मात्र 4.5 प्रतिशत जमीन में चारे वाली फसलों  की खेती की जा रही है। पशुओं  के  लिए पर्याप्त  गुणवत्तायुक्त चारा उपलब्ध न होने की वजह से उनकी उत्पादकता पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। अतः हमें ऐसी फसलों को  फसल चक्र में सम्मलित करना चाहिए जिससे खाद्यान्न व चारा दोनों की प्रतिपूर्ति हो  सके । जई एक ऐसी फसल है जिससे न केवल पौष्टिक हरा चारा बल्कि मानव उपभोग के  लिए स्वास्थप्रद खाद्यान्न भी उपलब्ध होता है। अब घरेलू और अन्तराष्ट्रीय बाजार में जई उत्पादों की भार मांग है जिसे देखते हुए हम जई की उपज  बढ़ाकर ना केवल देश के नागरिकों की पूर्ति  कर सकेंगे वरन इसके उत्पाद का  निर्यात कर विदेशी मुद्रा भी अर्जित कर सकते है।
            घास कूल की जई फसल (ऐवना सटाइवा) की खेती प्रमुख रूप से पशुओं के लिए हरा चारा और  दाना उत्पादन के  लिए प्रचलित है । भारत के उत्तरी भागों में शीत ऋतु में उगाई जाने वाली यह महत्वपूर्ण चारा फसल है तथा इसके दानों का उपयोग पशु दाना और गरीब लोग अपने भोजन में करते है।   दर असल जई में विद्यमान तमाम पौष्टिक गुणों के  कारण अब यह अमीरों  की रशोई की शान बनती जा रहीं है। स्वाद और  सेहत के लिहाज से जई के  दानों  में अनेक राज छुपे हुए हैं । वास्तव में पौष्टिकता और बहुमुखी गुणों से संपूर्ण जई (ओट्स) की पंहचान सिर्फ दलिया तक ही सीमित नहीं हैं। जई का भोजन में इस्तेमाल काफी लाभकारी है। जई को भाोजन में विभिन्न रूपों  में शामिल किया जा सकता है, जैसे-साबूत जई, दलिया के रूप में, जई चोकर, जई का आटा, आदि। जई के चोकर में घुलनशील फाइबर, प्रोटीन और शुगर होता है। जई चोकर का इस्तेमाल ब्रेड, बेकिंग और नाश्ते के अनाज (सेरेल्स) के रूप में किया जाता है। जई का दलिया भी लो फैट और लो कैलोरी होता है। ये दलिया खाने और पचाने में हल्का होता है। इससे भी कॉलेस्ट्राल कम होता है। जई खासकर उन लोगों के लिए काफी फायदेमंद है जिनमें विटामिन और खनिज की कमी है। जई में ओमेगा-6 और लायोलेनिक एसिड होता है ज¨ रक्त में कोलैस्ट्रॉल की मात्रा कम करने में सहायक साबित होती है। यही नहीं, यह कोलैस्ट्रॉल को बढ़ावा देने वाले तत्वों को भी खत्म करती है। इसके अलावा जई में रेशा भरपूर मात्रा में होती है जो शरीर में ग्लूकोज व इंसुलिन की मात्रा कम करके मधुमेह के खतरे को कम करता है। इसके  नियमित सेवन से  शरीर की र¨ग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। जई का एक और बड़ा फायदा है कि जई खाने से पाचनतंत्र सही तरीके से काम करता है और पेट साफ रहता है। अगर हम इसे खाने में नियमित रूप से शामिल करें, तो जई में पाए जाने वाले ये तमाम गुण हमारे शरीर के पोषण का बेहतर खयाल रखते हैं।


           पशुओं के  लिए भी जई का चारा पौष्टिक एवं स्वास्थवर्धक होता है। इसके हरे चारे में कार्बोहाइड्रेट अधिक होता है। इसके अलावा हरे चारे में 10 - 12 प्रतिशत क्रूड प्रोटीन तथा 30 - 35 प्रतिशत सूखा पदार्थ पाया जाता है। जई का चारा बरसीम या रिजका के चारे के साथ मिलाकर पशुओं को खिलाया जाता है। जई का प्रयोग हरा चारा, भूसा, हे या साइलेज के रूप में किया जाता है। इसका चारा घोड़ों एवं दुधारू पशुओं के लिए उत्तम  माना जाता है । इसमें प्रोटीन अपेक्षाकृत कम होती है, इसलिए इसको दलहनी चारा बरसीम या रिजका के साथ 1:1 या 2:1 के अनुपात में मिलाकर खिलाया जाता है । जई के अनाज से मुर्गी, भेड़, पशुओं तथा अन्य पशुओं के लिए उत्तम दाना तैयार किया जाता है।
                        मानव उपभोग के लिए आजकल बाजार में जई के  बहुत से उत्पाद ऊंचे दाम पर बिक रहे है। इसका दलिया (ओट्स) 150 से 200 रूपये प्रति  किलो की दर से बिक रहा है । पांच सितारा होटल एवं रेस्तरां में  जई  के जायकेदार व्यंजन परोसे जा रहे है।  जई उपज की अब बाजार में मांग निरंतर बढ़ती जा रही है। इस फसल की सबसे बड़ी खासियत है कि जई की खेती में मक्का, धान, गेहूं के मुकाबले लागत कम होने के साथ रासायनिक खाद व कीटनाशकों का प्रयोग भी नहीं करना पड़ता है। जई को पानी भी अधिक नहीं चाहिए।  लिहाजा सीमित संसाधनों  में जई से अधिकतम उत्पादन एवं अन्य फसलों  की अपेक्षा बेहतर मुनाफा अर्जित किया जा सकता है। जई फसल से ज्यादा उपज एवं अधिक आर्थिक लाभ लेने के लिएअग्र प्रस्तुत आधुनिक सस्य तकनीक का अनुशरण करना चाहिए।
फसल के लिए उपयुक्त जलवायु
              जई शरद ऋतु की फसल है । जई की फसल के लिए अपेक्षाकृत ठण्डी एवं शुष्क जलवायु की आवश्यकता पड़ती है। फसल वृद्धि काल के समय 15 डिग्री से 25 डिग्री सेंटीग्रेड  तापक्रम की आवश्यकता होती है। उच्च तापक्रम वाले प्रदेशों में जई की खेती नहीं होती है। जई की खेती 40 - 110 सेमी. वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में सफलतापूर्वक की जा सकती है। यह पाले या अधिक ठंड को सहन कर सकती है। परन्तु अधिक समय तक पानी की कमी से फसल वृद्धि और उपज दोनों कम हो जाती हैं।
भूमि का चुनाव 
                  जई की खेती अमूमन सभी प्रकार की जमीनों में की जा सकती है परन्तु अच्छी पैदावार के लिये दोमट मिट्टी  सबसे उत्तम मानी जाती है। इसकी खेती बुलई मिट्टी  से लेकर मटियार-दोमट मिट्टी  में भी की जा सकती है। भूमि में जल निकास का उचित प्रबन्ध होना चाहिए।
खेत की तैयारी
                     जई के खेत की तैयारी गेहूँ और जौ की भाँति की जाती है। खरीफ की फसल काट लेने के पश्चात् पहली जुताई गहरी मिट्टी पलटने वाले हलल से तथा उसके बाद 2-3 जुताइयाँ देशी हल से करके खेत को तैयार कर लिया जाता है। प्रत्येक जुताई के बाद पाटा चलाना आवश्यक रहता है। जई बोते समय खेत में पर्याप्त नमी आवश्यक है।
उन्नत किस्में
           जई की चारा एवं दाना उपज देने वाली उन्नत किस्मों  का विवरण  अग्र प्रस्तुत है।
यू.पी.ओ.-94: यह बहुकटाई (2-3) देने वाली मध्यम पछेती किस्म है, जो सिंचित क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है। पौधे 135-140 सेमी. लम्बे होते हैं। पौधे में 8 - 10 कल्ले बनते हैं, बाली लम्बी होती है। प्रति हेक्टेय 500 - 600 क्विंटल  हरा चारा तथा 17-18 क्विंटल क्विंटल बीज प्राप्त होता है। फसल गिरती नहीं, दाने खेत में नहीं छिटकते तथा पाला रोधक है।
ईसी-22034: इसके पौधे लम्बे व सीधे बढ़ने वाले होते हैं। पत्तियाँ चैड़ी और चिकनी होती हैं। बहुकटाई वाली किस्म है तथा चारा हे बनाने के लिए उत्तम रहता है। औसतन 400-500 क्ंिवटल हरा चारा प्राप्त होता है।
ओएस-6: यह एक कटाई वाली किस्म है इसक पौधे लम्बे होते हैं। फसल 145 दिन में पक कर तैयार होती है। कीट-रोग रोधी किस्म है।इससे 25 से 30 क्विंटल प्रति हेक्टर दाना उत्पादन प्राप्त होता है। 
बुन्देल जई-581: बहु कटाई वाली किस्म है जो क्राउन रस्ट, लीफ ब्लाइट, उकठा रोगों तथा माहू कीट रोधक है। हरे चारे की उपज क्षमता 440 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर होती है। सिर्फ दानों के लिए लगाया जाए तो 25 से 28 क्विंटल प्रति हैक्टर उपज प्राप्त होती है।
हरियाणा जई 114: इस किस्म से 2-3 चारा कटाइयाँ ले सकते हैं, परन्तु दान उपज प्राप्त करने के लिए पहली कटाई बाद फसल को बढ़ने के लिए छोड़ देने से दानों की अच्छी उपज प्राप्त होती । एक हेक्टेयर से लगभग 200-300  क्विंटल  हरा चारा एवं 12  से 18  क्विंटल दाना उपज प्राप्त होती है।
बोआई का समय
                   जई की बुआई अक्टूबर से लेकर दिसंबर के प्रथम सप्ताह तक कभी भी की जा सकती है परन्तु अच्छी उपज के लिए अक्टूबर का महीना ही बुआई के लिए सबसे उपयुक्त होता है क्योंकि फसल की बुआई जितनी शीघ्र की जाती है उतनी ही अधिक कटाइयाँ  और अधिक उपज प्राप्त होती हैं।
बीज दर व बोआई
              बीज सदैव कवकनाशी  रसायनों जैसे थाइरम या बाविस्टीन  आदि से उपचाारित कर बोना चाहिए। एक हेक्टेयर के लिए 75 से 80 किलोग्राम बीज पर्याप्त होता है।  पछेती बुआई में पौधें में कल्ले कम बनते हैं अतः देर से बुआई करने पर बीज दर 10 प्रतिश अधिक रखना चाहिये। इसकी बुआई कतार विधि से सीड ड्रिल या हल के पीछे पोरा  लगाकर करना चाहिए । कतार से कतार की दूरी 20 से 25 सेंटीमीटर रखना चाहिये। कतारों में बुआई करना  लाभप्रद रहता है क्योंकि छिटकवाँ तरीके से बुआई करने पर 10 से 15 प्रतिशत बीज जमीन के ऊपर रह जाते हैं। बीज की बुआई मृदा में नमी की अवस्था के अनुसार 5-7 सेमी. की गहराई पर की जाती है।
खाद एवं उर्वरक
                  बुआई से पहले खेत में 10 - 12 टन प्रति हेक्टेयर की दर से गोबर की खाद का प्रयोग करना चाहिए। इसके अलावा जई के लिए 80 से 100 किलो नत्रजन 40 से 60 किलो स्फुर व 20 से 30 किलो पोटाश प्रति हेक्टेयर देना चाहिये। कुल नत्रजन की आधी मात्रा तथा स्फुर व पोटाश की पूरी मात्रा बुआई के समय छिड़ककर मिला देनी चाहिये। शेष नत्रजन को  पहली  कटाई के बाद दिया जाना चाहिये।
सिंचाई कब और कितनी 
              जई की भरपूर पैदावार के लिए सिंचाई की पर्याप्त आवश्यकता होती है। पहली सिंचाई बुआई के 20 से 25 दिन बाद करन चाहिये। इसके पश्चात् बाद की सिंचाइयाँ 15-20 दिन के अन्तर पर की जाती है। दाने वाली फसल में फूल व दाना बनते समय सिंचाई देना आवश्यक रहता है। खेत में जल निकास का उचित प्रबंध रखना चाहिये।
खरपतार नियंत्रण
               बुआई के 20 - 25 दिन बाद एक निंदाई करना आवश्यक है अन्यथा उपज तथा चारे की पौष्टिकता कम हो जाती है। खरपतवार के रासायनिक नियंत्रण हेतु 2,4-डी अत्यन्त उत्तम है। जई की फसल 20 से 25 दिन की होने पर 500 ग्राम 2, 4-डी को 500-700  लीटर पानी में घोलकर एक हेक्टेयर में समान रूप से छिड़कना चाहिये।
कटाई का समय
               जई की खेती चारे और दाने के लिए की जाती है। अतः फसल की कटाई तथा उपज, उगाई गई फसल के उद्देश्य पर ही निर्भर करती है। सामान्य अवस्थाओं में जई की फसल की पहली कटाई 50 प्रतिशत फूल आने पर करने से अधिकतम उपज प्राप्त होती है। एक कटाई लेने के  पश्चात फसल को  दाना उपज के  लिए छोड़ देना चाहिए। केवल दाने के लिए उगाई गई जई फसल की कटाई मार्च-अप्रैल में की जाती हैं। फसल के पकने पर पौधे सूख जाते हें। देर से कटाई करने पर बालियों से दाने झड़ने लगते हैं। अतः समय पर कटाई करना आवश्यक है। कटाई  हँसिया से करते है। गहाई पशुओं  की दांय चलाकर या थ्रेसर से की जाती है ।
दाना एवं चारा उपज
                जई के हरे चारे की उपज 400 से 600 क्विंटल  तक प्राप्त हो जाती है। यदि फसल प्रथम कटाई के बाद दाने के लिए छोड़ते हैं तो 220 क्विंटल  हरा चारा, 8-10 क्विंटल  दाना तथा 15-20 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर भूसा प्राप्त होता है। सिर्फ दाने के  लिए उगाई गई फसल से 25 - 30 क्विंटल  दाना व 40-50 क्विंटल  भूसा प्रति हेक्टेयर प्राप्त होता है।
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