शनिवार, 13 अप्रैल 2013

छत्तीसगढ में गन्ने की सफल खेती कैसे

                                                                      डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर 

                                                                      प्राध्यापक (सश्यविज्ञान)
                                                                 इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय, 
                                                                  कृषक नगर, रायपुर (छत्तीसगढ़)

                                                               गन्ने का आर्थिक महत्व 

    भारतवर्ष को  गन्ने की मातृभूमि  माना जाता है। इक्षु या ईख की सृष्टि महर्षि विश्वामित्र ने की और  नवनिर्मित स्वर्ग का यह सर्वप्रथम पौधा माना जाता था। वह स्वर्ग त¨ अब नहीं है पर महर्षि की यह अमूल्य देन अब भी मानव का हित साधक बना हुआ है । गन्ना भारत वर्ष की प्रमुख नकदी फसलों में से एक है, जिसका देश में कृषि उत्पादन का सकल मूल्य लगभग 7.5 प्रतिशत है। लगभग 50 मिलियन किसान अपनी जीविका के लिए गन्ने की खेती पर निर्भर हैं और इतने ही खेतिहर मजदूर हैं, जो गन्ने के खेतों में काम करके अपनी जीविका कमाते हैं। भारत में र्निमित सभी मुख्य मीठाकारकों के लिए गन्ना एक मुख्य कच्चा माल है। इसका उपयोग दो प्रमुख कुटीर उद्योगों प्रमुख रूप से गुड़ तथा खंडसारी उद्योगों में भी किया जाता है। इन दोनों उद्योगों से लगभग 10 मिलियन टन मीठाकारकों (गुड़ और खंडसारी) का उत्पादन होता है जिससे देश में हुए गन्ने के उत्पादन का लगभग 28-35 प्रतिशत गन्ने का उपयोग होता है। गन्ने का रस सफेद शक्कर, खाण्डसारी तथा गुड़ बनाने में काम आता है। गन्ने का उपयोग विभिन्न रूपों में किया जाता है। इसके कुल उत्पादन का लगभग 35-55% शक्कर बनाने, 40 -42% गुड़ बनाने, 3-4 % खाण्डसारी व 17 -18% गन्ना चूसने के लिए किया जाता है।  मानव मात्र को  शक्ति देने के लिये जितनी भी फसल उत्पादित करते है उनमें गन्ने का सर्वश्रेष्ठ स्थान है । केवल 0.25 हैक्टर भूमि से उत्पादित गन्ने की उपज से जो  शक्ति  मिलती है वह 10 लाख कैलोरी होती है और यह एक मनुष्य के लिये वर्ष भर कार्य करने की शक्ति देने के लिये पर्याप्त है ।  भारत में शक्कर उद्य¨ग 30,000 करोड़ का व्यवसाय है  जिसका कपड़ा उद्योग के बाद दूसरा स्थान है । गन्ना पैदा करने से ल्¨कर शक्कर उत्पादन में बहुत बड़ी संख्या में लोगों को रोजगार उपलब्ध  है।  चीनी, गन्ने की खोई तथा शीरा  गन्ना उद्योग के मुख्य सह-उत्पाद हैं। शराब  बनाने में प्रयुक्त होने वाला शीरा भी गन्ने से ही प्राप्त होता है। साधारण चीनी कारखाने में 100 टन गन्ने से औसतन  10 टन शक्कर, 4 टन, शीरा 3 टन प्रेस मड (जैव उर्वरक में प्रयोग होता है) तथा 30 टन ख¨ई प्राप्त होती है । इसके अलावा 30 टन गन्ने का ऊपर का भाग और  पत्तियाँ भी निकलती है जिसे चारे या खाद के रूप में प्रयोग किया जा सकता है । इसकी खोई से कागज, कार्डबोर्ड आदि बनाये जाते है। गन्ने का ऊपरी भाग (अगोला) पशुओं के लिए पौष्टिक चारे के रूप में उपयोग रहता है।
      भारत में गन्ने की खेती लगभग 4.42 मिलियन हेक्टेयर  क्षेत्रफल में की जा रही है जिससे 285.03 मिलियन टन गन्ना  उत्पादन प्राप्त होता है । देश में गन्ने की औसत उपज  69 टन  प्रति हेक्टेयर है।  भारत में सम्पूर्ण गन्ना उत्पादन की दृष्टि से उत्तर प्रदेश का प्रथम, महाराष्ट्र का द्वितीय तथा तमिलनाडु का तृतीय स्थान है । औसत उपज के मान से तमिलनाडू (106197 किग्रा), पश्चिम बंगाल (93085 किग्रा.) तथा  कर्नाटक (83018 किग्रा.) का क्रमशः प्रथम, द्वितिय एवं तृतीय स्थान है  । देश में 93.2 प्रतिशत  सिंचित क्षेत्र  में गन्ने की फसल  ली जाती है । छत्तीसगढ़ के  कबीरधाम, जगदलपुर, सरगुजा, दुर्ग, बिलासपुर व रायपुर जिलो  में गन्ने की खेती बड़े पैमाने पर की जा रही है । सर्वाधिक उत्पादन देने वाले  जिलो  में कबीरधाम, जगदलपुर एवं सरगुजा जिले  आते है। छत्तीसगढ़ में गन्ने की खेती 23.61 हजार हेक्टेयर में की जाती है जिससे 65.36 हजार टन गन्ना उत्पादित होता है। छत्तीसगढ़ में गन्ने की औसत उत्पादकता 27.68 टन प्रति हेक्टेयर है जो राष्ट्रीय उत्पादकता (69 टन प्रति हे.) से काफी कम है। एक अनुमान के अनुसार भारत में वर्ष 2020 तक चीनी एवं मिठास उत्पादन की 27.39 मिलियन टन की अनुमानित मांग संभावित है  । इस लक्ष्य को  प्राप्त करने के लिए 100 टन प्रति हैक्टर औसत उपज तथा  11 प्रतिषत चीनी प्रत्यादन के साथ 415 मिलियन टन तक गन्ने के उत्पादन में वृद्धि का लक्ष्य हमारे सामने है । इसके लिए गन्ना फसल के अन्तर्गत क्षेत्र  विस्तार के अलावा बेहतरीन सुधरी हुई प्रजातियो और  उन्नत तकनीकी के माध्यम से प्रति इकाई क्षेत्र  में गन्ने की उपज में   बदोत्तरी  तथा चीनी प्रतिदान में यथोचित वृद्धि लाने की महती आवश्यकता है । छत्तीसगढ में कबीरधाम, बाल¨द (दुर्ग) एवं सरगुजा में सहकारी शक्कर कारखाने स्थापित किये गये है । अतः गन्ना क्षेत्र विस्तार और  उत्पादन की अपार संभावनाएं है । गन्ने की अधिकतम उपज तथा  आर्थिक लाभ के लिए उन्नत किस्मो  के बीज और  उत्पादन की आधुनिक तकनीक  विस्तार करने की आवश्यकता है । छत्तीसगढ़ राज्य मे गन्ना उत्पादन और  औसत उपज बढ़ाने के लिए आधुनिक सस्य तकनीक के प्रमुख पहलू अग्र प्रस्तुत है ।

गन्ना खेती के लिए उपयुक्त है छत्तीसगढ़ की जलवायु

    गन्ना के लिए उष्ण कटिबन्धीय जलवायु की आवश्यकता पड़ती है। गन्ना बढ़वार के समय लंबी अवधि तक गर्म व नम मौसम तथा अधिक वर्षा का होना सर्वोत्तम पाया गया है। गन्ना बोते समय साधारण तापमान, फसल तैयार होते समय आमतौर पर शुष्क व ठण्डा मौसम, चमकीली धूप और पाला रहित रातें उपयुक्त रहती है। छत्तीसगढ़ क¨ प्रकृति ने ऐसी ही जलवायु से नवाजा है । गन्ने के अंकुरण के लिए 25-32 डि से.  तापमान  उचित रहता है। गन्ने की बुआई और फसल बढ़वार के लिए 20- 35 डि से. तापक्रम उपयुक्त रहता है। इससे कम या अधिक तापमान पर वृद्धि घटने लगती है। गन्ने की खेती उन सभी क्षेत्रों में सफलतापूर्वक की जा सकती है जहाँ वार्षिक वर्षा 75 - 120 सेमी. तक होती है। समय पर वर्षा न होने पर सिंचाई आवश्यक है। पानी की कमी होने पर गन्ने मे रेशे अधिक उत्पन्न होते हैं और अधिक वर्षा में शक्कर का प्रतिशत कम हो जाता है। गन्ने की विभिन्न अवस्थाओं के लिए आर्द्रता 56 - 87 प्रतिशत तक अनुकूल होती है। सबसे कम आर्द्रता कल्ले बनते समय एवं सबसे अधिक, गन्ने की वृद्धि के समय चाहिए। सूर्य के प्रकाश  की अवधि एवं तापमान का गन्ने में सुक्रोज निर्माण पर अधिक प्रभाव पड़ता है। प्रकाश की उपस्थिति में कार्बोहाइड्रेट बनता है जिससे गन्ने के भार में वृद्धि होती है। लम्बे दिन तथा तेज चमकदार धूप से गन्ने में कल्ले अधिक बनते हैं। तेज हवाएँ गन्ने के लिए हानिकारक है क्योंकि इससे गन्ने गिर जाते हैं जिससे गन्ने की उपज और गुणवत्ता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।

भूमि का चयन एवं खेत की तैयारी

    गन्ने की खेती बलुई दोमट से  दोमट और भारी मिट्टी मे सफलता पूर्वक की जा सकती है परंतु गहरी तथा उत्तम जल निकास वाली दोमट मृदा जिनकी मृदा अभिक्रिया 6.0 से 8.5 होती है, सर्वात्तम रहती है। उचित जल निकास वाली जैव पदार्थ व पोषक तत्वो से परिपूर्ण भारी मिट्टियो  में भी गन्ने की खेती सफलतार्पूक की जा सकती है।  अम्लीय मृदाएं  इसकी खेती के लिए हांनिकारक होती है।
    गन्ने की पेड़ी लेने के कारण इसकी फसल लम्बे समय (2 - 3 वर्ष) तक खेत में रहती है । इसलिए खेत की गहरी जुताई आवश्यक है। खेत तैयार करने के लिए सबसे पहले पिछली फसल के अवशेष भूमि से हटाते है। इसके बाद जुताई  की जाती है और जैविक खाद मिट्टी में मिलाते है। इसके लिए रोटावेटर उपकरण उत्तम रहता है। खरीफ फसल काटने के बाद खेत की गहरी जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से की जाती है । इसके बाद 2 - 3 बार देशी हल अथवा कल्टीवेटर से जुताई करने के पश्चात् पाटा चलाकर खेत की मिट्टी को भुरभुरा तथा खेत समतल कर लेना चाहिए। हल्की मिट्टियो  की अपेक्षा भारी मिट्टी में अधिक जुताईयाँ करनी पड़ती है ।

बेहतर उपज के लिए अपनाएं  उन्नत किस्में

         गन्ने की उपज क्षमता का पूर्ण रूप से दोहन करने के लिए उन्नत किस्मो  के स्वस्थ बीज का उपयोग क्षेत्र विशेष की आवश्यकता के अनुरूप करना आवश्यक है। रोग व कीट मुक्त बीज नई फसल (नोलख फसल) से लेना चाहिए। गन्ने की पेड़ी फसल को  बीज के रूप में प्रयुक्त नहीं करना चाहिए। छत्तीसगढ. के लिए अनुमोदित गन्ने की नवीन उन्नत किस्मों की विशेषताएँ यहाँ प्रस्तुत है ।

1.को -8371(भीम): यह किस्म नवम्बर-जनवरी में लगाने के लिए उपयुक्त है । स्मट रोग रोधी, सूखा व जल जमाव सहनशील । इसकी उपज 117.7 टन प्रति हैक्टर तथा रस में 18.6 प्रतिषत शुक्रोस पाया जाता है ।
2.को -85004 (प्रभा): शीघ्र तैयार ह¨ने वाली इस किस्म की उपज क्षमता 90.5 टन  प्रति हैक्टर  है तथा रस में 19.5 प्रतिशत शुक्र¨स ह¨ता है ।  नवम्बर-जनवरी में लगाने के लिए यह उपयुक्त किस्म  है । यह स्मट   रोग रो धी , रेड रॉट से मध्यम प्रभावित, पेड़ी फसल हेतु उपयुक्त किस्म है।
3.को -86032 (नैना): मध्यम समय में तैयार ह¨ने वाली इस किस्म से 102 टन  प्रति हैक्टर उपज  प्राप्त ह¨ती है एवं रस में 20.1 प्रतिशत शुक्र¨स ह¨ता है । मैदानी क्षेत्रो  में नवम्बर-जनवरी में लगाने हेतु उपयुक्त है । स्मट व रेड रॉट रोग रो धी ह¨ने के साथ साथ सूखा र¨धी किस्म है ज¨ पेड़ी फसल के लिए उपयुक्त है ।
4 .को -87044 (उत्तरा): मध्य समय में तैयार होने वाली यह किस्म नवम्बर-जनवरी में लगाने के लिए उपयुक्त है । उपज 101 टन  प्रति हैक्टर तथा रस में शुक्र¨स 18.3 प्रतिशत । स्मट रोग मध्य अवरोधी तथा रेड रोट रोग से मध्य प्रभावित है।
5 .को -88121(कृष्ना):मध्य समय में तैयार होने वाली यह किस्म छत्तीसगढ में  नवम्बर-जनवरी में लगाने के लिए उपयुक्त किस्म है । उपज 88.7 टन  तथा रस में 18.6 प्रतिषत शुक्रोश  पाया जाता है । स्मट रोग रो धी, सूखा सहन यह किस्म गुड़ बनाने के लिए श्रेष्ठ है ।
पायरिल्ला प्रभावित क्षेत्रो के लिए: को. जेएन. 86 - 141 उपयुक्त है।
गुड़ के लिए: को. जेएन. 86 - 141 (सूखा सहनशील), को जेएन. 86 - 572 (चूसने हेतु नरम), को. जेएन. 86 - 2072, को. 86032 (जड़ी फसल के लिए उत्तम), को. जेएन, 86 - 2087 उपयुक्त किस्म है।
गन्ने की अन्य प्रमुख उन्नत किस्मों की विशेषताएँ
किस्म का                          शक्कर        अवधि            गन्ना पैदावार
नाम                                     (%)           (माह)              (टन/हे.)
को. जेएन. 86 - 141            21.10        10 - 12            90 - 100
को. जेएन. 86 - 572            20.01        10 - 12            90 - 110
को. 7314                            18.80        10 - 12            90 - 100
को. जेएन. 86 - 2072          19.90        10 - 12            90 - 100
को. 7219                            18.16        12 - 14            100 - 120
को. 86032                          17.18        12 - 14            110 - 120
को. 7318                            18.16        12 - 14            100 - 120
को. 6304                            18.80        12 - 14            100 - 120
को. जेएन. 86 - 600            19.06        12 - 14            100 - 120
को. जेएन. 86 - 2087          19.04        12 - 14            100 - 120
को. पंत 90 - 223                 18.02        12 - 14            100 - 120
को. पंत 92 - 227                 18.03        12 - 14            100 - 120

गन्ना बोआई-रोपाई का समय

    गन्ने की बुआई के समय वातावरण का तापमान 25 - 32 डिग्री से.गे. अच्छा माना जाता है। भारत के उत्तरी राज्यों में इतना तापमान वर्ष में दो बार रहता है - एक बार अक्टूबर-नवम्बर में तथा दूसरी बार फरवरी-मार्च में। अतः इन दोनों ही समय पर गन्ना बोया जा सकता है। भारत में गन्ने की बुआई शरद ऋतु (सितम्बर - अक्टूबर), बसन्त ऋतु (फरवरी - मार्च) एवं वर्षा ऋतु (जुलाई) में की जाती है।छत्तीसगढ़ में शरद व बसंत ऋतु में ही गन्ना ब¨या जाना लाभप्रद है ।
1. शरद कालीन बुआई: वर्षा ऋतु समाप्त होते ही शरद कालीन गन्ना लगाया जाता है। गन्ना लगाने का सबसे अच्छा समय अक्टूबर - नवम्बर रहता है। देर से बुआई करने पर तापक्रम घटने लगता है, फलस्वरूप अंकुरण कम होता है और उपज में कमी आ जाती है। फसल वृद्धि के लिए लम्बा समय, भूमि में नमी का उपयुक्त स्तर और प्रारम्भिक बढ़वार के समय अनुकूल मौसम मिलने के कारण शरद ऋतु की बुआई से 15-20 प्रतिशत अधिक उपज और रस में शक्कर की मात्रा ज्यादा प्राप्त होती है।
2. बसंत कालीन बुआई: रबी फसलों की कटाई के बाद बसंत कालीन गन्ने की बुआई फरवरी - मार्च मे की जाती है। भारत मे लगभग 85 प्रतिशत क्षेत्र में गन्ने की बुआई इसी ऋतु में की जाती है। इस समय बोई गई गन्ने की फसल को 4 - 5 माह का वृद्धि काल ही मिल पाता है और चरम वृद्धि काल के दौरान फसल को नमी की कमी और अधिक तापक्रम तथा गर्म हवाओं का सामना करना पड़ता है जिससे शरद कालीन बुआई की अपेक्षा बसंतकालीन गन्ने से उपज कम प्राप्त होती है।

कैसा हो  गन्ने का बीज

    उत्तर भारत मे गन्ने की फसल मे बीज नहीं बनते है। अतः गन्ने की बुआई वानस्पतिक प्रजनन (तने के टुकड़ों) विधि से की जाती है। गन्ना बीज चयन एवं बीज की तैयारी से सम्बन्धित निम्न बातें ध्यान में रखना आवश्यक है।
1. बीज के लिए गन्ने का भाग
    अपरिपक्व गन्ने अथवा गन्ने के ऊपरी भाग का प्रयोग बीज के लिए करना चाहिए । वस्तुतः गन्ने के ऊपरी हिस्से से लिये गये बीज शीघ्र अंकुरित ह¨ जाते है, जबकि निचले भाग से लिए गए टुकड़े देर से जमते है, क्योंकि ऊपरी भाग की आँखे  ताजी एवं स्वस्थ होने के कारण शीघ्र जम जाती है, जबकी निचले भाग की पुरानी आँख पर एक कठोर परत जम जाती है जो अंकुरण में बाधक होती है। गन्ने के ऊपरी 1/3 हिस्से में घुलनशील नत्रजन युक्त पदार्थ, नमी तथा ग्लूकोज की मात्रा अपेक्षाकृत अधिक होती है जिससे गन्ने के टुकड़ो को अंकुरण के लिए तुरन्त शक्ति मिल जाती है और जमाव शीघ्र हो जाता है। गन्ने के निचले हिस्से में सुक्रोज (जटिल अवस्था में) होने से देर में अंकुरण होता है। इसके अलावा ऊपरी भाग में पोर छोटे होते है। इसलिए पंक्ति की प्रति इकाई लम्बाई में अपेक्षाकृत अधिक कलियाँ पाई जा सकती है और इस प्रकार रिक्त स्थान होने की संभावना कम हो जाती है।
    फूल आने के बाद गन्ना का प्रयोग बुआई के लिए नहीं करना चाहिए क्योंकि गन्ने में पिथ बनने के कारण अंकुरित होने वाले भाग में पोषक तत्वों की कमी हो जाती है।
2. गन्ने को टुकड़ों में काटकर बोना
    गन्ना के पूरे तने को  न बोकर इसको काटकर (2 - 3 आँख वाले टुकड़े) छोटे - छोटे टुकड़ों में बोया जाता है। क्योकि गन्ने के पौधे या तने में शीर्ष सुषुप्तावस्था  पाई जाती है। यदि पूरा गन्ना  बगैर काटे बो दिया जाता है, तो उसका ऊपरी हिस्सा त¨ अंकुरित ह¨ जाता है परन्तु नीचे वाला भाग नहीं जमता। गन्ने के पेड़ में कुछ ऐसे हार्मोन्स भी पाये जाते है जो पौधें में ऊपर से नीचे की अ¨र प्रवाहित ह¨ते है तथा इन हार्मोन्स का प्रभाव नीचे की आँख के ऊपर प्रतिकूल पड़ता है। कुछ हार्मोन्स गन्ने की आँख या कली को विकसित होने से रोकते है । गन्ने को  टुकड़ो  में काट कर बोने से इन हार्मोन्स का प्रवाह रूक जाता है। जिससे प्रत्येक आँख अपना कार्य सही ढंग से करने लगती है। इसके अलावा गन्ने को टुकड़ों में काटने से कटे हुए हिस्सों से पानी एवं खनिज लवण शीघ्र प्रवेश कर जाते है, जो शीघ्र अंकुरण में सहायक होते है।
3. गन्ने के टुकड़ो  को  सीधा नहीं तिरछा काटा जाए
    बीज के लिए गन्ने के टुकड़ो  को हमेशा तिरछा काटा जाना चाहिए क्योंकि सीधा काटने से गन्ना फट जाता है जिससे उनसे काफी रस निकल जाता है और बीज में कीट-रोग लगने की संभावना भी बढ़ जाती है। तिरछा काटने से गन्ना फटता नहीं है और उसका जल-लवण अवशोषण क्षेत्र  भी बढ़ जाता है। शीघ्र अंकुरण के लिए टुकड़ो  का अधिक अवशोषण क्षेत्र सहायक होता है। सीधा काटने से कटा क्षेत्र कम रहता है अर्थात्  अवशोषण क्षेत्र समिति होता है।बोआई के लिए गन्ने के तीन आँख वाले टुकड़े सर्वोत्तम माने जाते है, परन्तु आमरतोर पर  अब दो  आँख वाले  टुकडे  का प्रयोग होने लगा है ।

सही हो बीज बोने की दर 

    गन्ने की बीज दर  टुकड़े के अंकुरण प्रतिशत, गन्ने की किस्म, बोने के समय आदि कारको  पर निर्भर करती है। सामान्यतौर पर गन्ने की 50-60 प्रतिशत कलिकायें ही अंकुरित होती है। नीचे की आँखें अपेक्षाकृत कम अंकुरित होती है। बोआई हेतु मोटे गन्ने की मात्रा अधिक एवं पतले गन्ने की मात्रा कम लगती है। शरदकालीन  ब¨आई में गन्ने में अंकुरण प्रतिशत अधिक होता है। अतः बीज की मात्रा भी कम लगती है। बसंतकालीन गन्ने में कम अंकुरण होने के कारण अपेक्षाकृत अधिक बीज लगता है। एक हेक्टेयर ब¨आई के लिए तीन कलिका वाले 35,000 - 40,000 (75 - 80 क्विंटल ) तथा दो कलिका वाले 40,000 - 45,000 (80 - 85  क्विंटल ) टुकड़ों की आवश्यकता पड़ती है। इन टुकड़ों को आँख - से - आँख  या सिरा - से - सिरा मिलाकर लगाया जाता है। गन्ने के टुकड़ों को 5 - 7 सेमी. गहरा बोना चाहिए तथा कलिका  के ऊपर 2.5 से. मी. मिट्टी चढ़ाना चाहिए।

बीज उपचार से फसल सुरक्षा 

    फसल को रोगो  से बचाव हेतु गन्ने के टुकड़ो को एमीसान नामक कवकनाशी की  250 ग्राम  मात्रा को 200 लीटर पानी के घोल में 5 से 10 मिनट तक डुबाना चाहिये। इस दवा के न मिलने पर 600 ग्राम डायथेन एम - 45 का प्रयोग करना चाहिए । रस चूसने वाले कीड़ो की रोकथाम के लिए उक्त घोल में 500 मि. ली. मेलाथियान कीटनाशक मिला लेना चाहिए। गन्ने के टुकड़ों को लगाने के पूर्व मिट्टी के तेल व कोलतार के घोल  अथवा क्लोर¨पायरीफाॅस दवा को 2.5  मिली मात्रा प्रति लीटर पानी में मिलाकर गन्ना बीज के टुकड़ों के किनारों को डुबाकर उपचारित करने से दीमक आदि भूमिगत कीटो का प्रकोप कम हो जाता है। अच्छे अंकुरण के लिए बीजोपचार से पूर्व गन्ने के बीजू टुकड़ों को 24 घन्टे तक पानी में डुबाकर रखना चाहिए। गन्ना कारखाने में उपलब्ध नम - गर्म हवा संयंत्र में (54 डि. से. पर 4 घंटे तक) गन्ने के टुकड़ों को उपचारित करने पर बीज निरोग हो जाता है।

गन्ना लगाने की विधियाँ

    गन्ने की बुवाई सूखी या पलेवा की हुई गीली दोनो  प्रकार की भूमि पर की जाती है । सूखी भूमि में  पोरिया (गन्ने के टुकड़े) डालने के तुरन्त बाद सिंचाई की जाती है  । गीली बुवाई में पहले  पानी नालियो या खाइयो  में छोड़ा जाता है और फिर गीली भूमि में पोरियो  को रोपा जाता है । गन्ने की बुआई भूमि की तैयारी , गन्ने की किस्म, मिट्टी का प्रकार, नमी की उपलब्धता, बुआई का समय आदि के अनुसार निम्न विधियों से की जाती है:
1. समतल खेत में गन्ना बोना: इसमें 75 - 90 सेमी. की क्रमिक दूरी पर देशी हल या हल्के डबल मोल्ड बोर्ड हल से 8 - 10 सेमी. गहरे कूँड़ तैयार किये जाते है। इन कूडों में गन्ने के टुकड़ों की बुआई (एक सिरे से दूसरे सिरे तक) करके पाटा चलाकर  मिट्टी से 5-7 सेमी. मिट्टी से ढंक दिया जाता है। आज कल  ट्रेक्टर चालित गन्ना प्लांटर से भी बुआई की जाती है।
2. कूँड़ में गन्ना बोनाः इस विधि  मे गन्ना रिजर द्वारा उत्तरी भारत में  10 - 15 सेमी. गहरे कूँड़ तथा दक्षिण भारत मे 20 सेमी. गहरे कूँड़ तैयार किये जाते है। गन्ने के टुकड़ों को एक - दूसरे के सिरे से मिलाकर इन कूँड़¨ में बोकर ऊपर से 5-7 सेमी. मिट्टी चढ़ा देते है । इस विधि में बुवाई के तुरन्त बाद पानी दे दिया जाता है, पाटा नहीं लगाया जाता ।
3. नालियों में गन्ना बोना: गन्ने की अधिकतम उपज लेने के लिए यह श्रेष्ठ विधि है ।गन्ने की बुआई नालियों में करने के लिए 75 - 90 सेमी. की दूरी पर 20 - 25 सेमी. गहरी एवं 40 सेमी. चौड़ी नालियाँ बनाई जाती है। सामान्यतः 40 सेमी. की नाली और 40 सेमी. की मेढ़ बनाते है। गन्ने के टुकड़ों को  नालियों के मध्य में लगभग 5 - 7 सेमी. की गहराई पर बोते है तथा कलिका के ऊपर 2.5 सेमी. मिट्टी होना आवश्यक है। प्रत्येक गुड़ाई के समय थोड़ी सी मिट्टी मेढ़ो की नाली में गिराते रहते है। वर्षा आरम्भ होने तक मेढ़ो की सारी मिट्टी नालियों में भर जाती है और खेत समतल हो जाता है। वर्षा आरंभ हो जाने पर गन्ने में  नत्रजन की टापड्रेसिंग करके जड़ों पर मिट्टी चढ़ा देते हैं। इस प्रकार मेढ़ों के स्थान पर नालियाँ और नालियों के स्थान पर मेढ़ें बन जाती हैं। इन नालियों द्वारा जल निकास भी हो जाती है। इस विधि से गन्ना लगाने के लिए ट्रेक्टर चालित गन्ना प्लान्टर यंत्र सबसे उपयुक्त रहता है। नालियो  में गन्ने की रोपनी करने से फसल गिरने से बच जाती है । खाद एवं पानी की बचत होती है । गन्ने की उपज में 5-10 टन प्रति हैक्टर की वृद्धि होती है । गन्ना नहीं गिरने से चीनी की मात्रा  में भी वृद्धि पायी जाती है ।
4. गन्ना बोने की दूरवर्ती रोपण विधि (स्पेस ट्रांस्प्लान्टिंग):  यह विधि भारतीय गन्ना अनुसंधान संस्थान, लखनऊ द्वारा विकसित की गई है । इसमें 50 वर्ग मीटर क्षेत्र में (1 वर्ग मीटर की 50 क्यारियाँ) पोधशाला बनाते हैं। इनमें एक आँख वाले 600 - 800 टुकड़ें लगाते हैं। इसमें सिर्फ 20  क्विंटल ही  बीज  लगता है। बीज हेतु गन्ने के  ऊपरी भाग का ही प्रयोग करना चाहिए। क्यारियों में नियमित रूप से सिंचाई करें। बीज लगाने के 25 - 30 दिन बाद (3 - 4 पत्ती अवस्था) पौध को मुख्य खेत में रोपना  चाहिए। इस विधि से गन्ना लगाने हेतु पौध स्थापित होने तक खेत में नमी रहना आवश्यक है। इस विधि से बीज की बचत होती है। खेत में पर्याप्त गन्ना (1.2 लाख प्रति हे.) स्थापित होते हैं। फसल में कीट-रोग आक्रमण कम होता है। परंपरागत विधियों की अपेक्षा लगभग 25 प्रतिशत अधिक उपज मिलती है।
5. गन्ना बोने की दोहरी पंक्ति विधिः भारतीय गन्ना अनुसंधान संस्थान, लखनऊ द्वारा विकसित गन्ना लगाने की यह पद्धति अच्छी उपजाऊ एवं सिंचित भूमियो  के लिए उपयुक्त रहती है । दोहरी पंक्ति विधि में गन्ने के दो  टुकड़ो  को  अगल-बगल बोया जाता है जिससे प्रति इकाई पौध घनत्व बढ़ने से पैदावार में 25-50 प्रतिशत तक बढोत्तरी होती है ।

अधिकतम उपज के लिए खाद एवं उर्वरक 

             गन्ने की 100 टन प्रति हे. उपज देने वाली फसल भूमि से लगभग 208 किलो नत्रजन, 53 किलो फास्फोरस तथा  280 किलो पोटाश ग्रहण करती है। अतः वांक्षित उत्पादन के लिए गन्ने में खाद एवं उर्वरको  को  सही एवं संतुलत मात्रा में  देना आवश्यक रहता है । खेत की अंतिम जुताई के पूर्व 10-12 टन प्रति हेक्टेयर अच्छी सड़ी गोबर की खाद भूमि में मिला दें। यदि मिट्टी  परीक्षण  नहीं किया गया है तो प्रति हे. 120 - 150 किग्रा. नत्रजन, 80 किग्रा. स्फुर व 60 किग्रा. पोटाश की अनुशंसा की जाती है। यदि भूमि मे जस्ते की कमी हो तो 20 से 25 किग्रा. जिंक सल्फेट प्रति हे. गन्ना लगाते समय देना चाहिए । बसन्तकालीन फसल में नत्रजन की आधी मात्रा तथा स्फूर और पोटाश की पूरी मात्रा गन्ना लगाने के समय कूँड़ में डालें । नत्रजन की शेष मात्रा बआई के 80 - 90 दिन बाद दी जाना चाहिए । शरदकालीन गन्ने में भी नत्रजन की आधी मात्रा तथा स्फूर और पोटाश की पूरी मात्रा गन्ना लगाने के समय कूँड़ में डालें। नत्रजन की शेष मात्रा बुआई के 110 - 120 दिन बाद दी जानी चाहिए। पोषक तत्वो  की कुल आवश्यकता का एक तिहाई हिस्सा गोबर की खाद या कम्पोस्ट द्वारा तथा शेष दो तिहाई भाग रसायनिक उर्वरक के रूप मे देने से गन्ने के उत्पादन व गुणवत्ता में वृद्धि होती है तथा भूमि की उर्वरा शक्ति में सुधार होता है। इस तरह उर्वरकों का प्रयोग करने पर अधिक लाभ व उत्पादन मिलता है।

समय पर सिंचाई और जल निकासी

    गन्ने की फसल को जीवन काल में 200-300 सेमी. पानी की आवश्यकता होती है। फसल की जलमांग  क्षेत्र, मृदा का प्रकार, किस्म, बुआई का समय और बोने की विधि पर निर्भर करती है। गन्ने की विभिन्न अवस्थाओं में जल माँग को निम्नानुसार विभाजित किया गया है -
    फसल अवस्थाएँ                        समय (दिन)        जलमाँग (सेमी.
1.    अंकुरण                                   बुआई से 45            30
2.    कल्ले बनने की अवस्था              45 से 120            55
3.    वृद्धि काल                                 120 से 270            100
4.    पकने की अवस्था                      270 से 360            65                        
    गन्ने में सर्वाधिक पानी की माग बुआई के 60 दिन से लेकर 250 दिन तक होती है। फसल में प्रति सिंचाई 5-7 सेमी. पानी देनी चाहिए। गर्मी में 10 दिन व शीतकाल में 15 से 20 के अंतर से सिंचाई करें। मृदा में उपलब्ध नमी 50 प्रतिशत तक पहुचते ही गन्ने की फसल में सिंचाई कर देनी चाहिए। शरदकालीन फसल के लिए औसतन 7 सिंचाईयाँ (5 मानसून से पहले व 2 मानसून के बाद) और बसन्तकालीन फसल के लिए 6 सिंचाईयों की आवश्यकता पड़ती है। पानी की कमी वाली स्थिति में गरेडों  में सूखी पत्तियाँ बिछाने से सिंचाई संख्या कम की जा सकती हैं। खेत को छोटी-छोटी क्योरियों में बाँटकर नालियों मे सिंचाई करना चाहिए। फव्वारा विधि से सिंचाई करने से पानी बचत होती है तथा उपज में भी बढोत्तरी होती है।
    वर्षा ऋतु में मृदा मे उचित वायु संचार बनाये रखने के लिए जल - निकास का प्रबन्ध करना अति आवश्यक ह। इसके लिए नाली में बोये गये गन्ने की नालियों को बाहरी जलनिकास नाली से जोड़ देना चाहिए। जल निकास के अभाव मे जड़ों का विकास ठीक से नहीं होता है। सबसे अधिक क्रियाशील द्वितीयक जड़े मरने लगती है। पत्तियाँ पीली पड़ जाती है जिससे प्रकाश संश्लेषण  की क्रिया मन्द पड़ जाती है। गन्ने की उपज और सुक्रोज की मात्रा घट जाती है। अतः सिंचाई के साथ साथ गन्ने मे जल निकास भी आवश्यक है।

गन्ना विकास हेतु आवश्यक है पौधो  पर मिट्टी चढ़ाना

    गन्ने में खरपतवार नियंत्रण एवं अंकुरण बढ़ाने के उद्देश्य से गन्ने के अंकुरण से पहले  ही खेत की गुड़ाई की जाती है जिसे अंधी गुड़ाई  कहते है। इसका  प्रमुख उद्देश्य वर्षा के पश्चात् मृदा पपड़ी  को तोड़ना, कड़ी मिट्टी को ढीला करना, गन्ने के खुले टुकड़ों को ढँकना, खरपतवारों  को नष्ट करना तथा सड़े - गले टुकड़ों को निकालकर अंकुरित गन्ने को बोना है। इससे ख्¨त में वायु संचार तथा मृदा नमी संरक्षण भी ह¨ता है । गुड़ाई का यह कार्य कुदाली अथवा बैल चालित कल्टीवेटर द्वारा किया जा सकता है।इसके बाद गन्ने को गिरने से बचाने के लिए दो बार गुड़ाई करके पौधों पर मिट्टी चढाना   चाहिए। अप्रैल या मई माह में प्रथम बार व जून माह में दूसरी बार यह कार्य करना चाहिए। गुड़ाइयों से मिट्टी में वायु संचार, नमी धारण करने की क्षमता,  खरपतवार नियंत्रण तथा कल्ले विकास मे प्रोत्साहन मिलता है।

गन्ने के पौधो को  सहारा भी देना है 

    गन्ने की फसल को गिरने  से बचाने हेतु जून - जुलाई में  बँधाई की क्रिया  की जाती है। इसमें गन्नों के झुड   को जो कि समीपस्थ दो पंक्तियों में रहते हैं, आर - पार पत्तियों से बाँध देते है। गन्ने की हरी पत्तियों के समूह को एक साथ नहीं बाँधते है क्यांेकि इससे प्रकाश संश्लेषण बाधित होती है। लपेटने  की क्रिया में एक - एक झुंड को पत्तियों के सहारे तार या रस्सी से लपेट देते है और बाँस या तार के सहारे तनों को खड़ा रखते है। यह खर्चीली विधि है। इसके लिए गुडीयत्तम की विधि सर्वोत्तम है। इस विधि में जब गन्ने के तने 75 - 150 सेमी. के हो जाते है तब नीचे की सूखी एवं हरी पत्तियों की सहायता से रस्सियाँ बांध ली जाती है और उन्हे गन्ने की ऊँचाई तक लपेट देते है। इससे गन्ने की कोमल किस्में फटती नहीं है। सहारा देना  विधि से बाँधे या लपेटे हुए झुंडों  को सहारा देने के लिए बाँस या तार का प्रयोग करते है। उपर्युक्त क्रियाओं से गन्ने का गिरना रूक जाता है और उपज में भी वृद्धि होती है।  

खरपतवारो को रखे काबू में 

    शदरकालीन  गन्ने का अंकुरण 3 - 4 सप्ताह में तथा बसन्तकालीन गन्ने का अंकुरण 4 - 5 सप्ताह में हो जाता है गन्ने की बुआई के 1 - 2 सप्ताह बाद एक प्रच्छन गुडाई  करनी चाहिए। इससे अंकुरण शीघ्र हो जाती है तथा खरपतवार   भी कम आते है। अंकुरण के 3 माह तक खरपतवार की सघनता के अनुसार 3 से 4 बार निंदाई करना आवश्यक है जिससे कल्ले ज्यादा बनतें है। शरदकालीन गन्ने में चैड़ी पत्ती वाले खरपतवारों (बथुआ, मटरी, अकर, कृष्णनील, मकोय आदि) की रोकथाम के लिए 2, 4-डी (80 प्रतिशत सोडियम साल्ट) 1 किग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से 700 लीटर पानी में घोलकर बुआई से 25 -30 दिन बाद या खरपतवारों की 3-4 पत्ति अवस्था से पहले छिड़कना चाहिए। बसन्तकालीन गन्ने की फसल में सिमाजीन या एट्राजिन या एलाफ्लोर 2 किग्रा. प्रति हे. की दर से 700 लीटर पानी में घोलकर बुआई के तुरन्त बाद छिड़काव करना चाहिये। छिड़काव करते समय खेत में नमी होना आवश्यक है। गन्ने में कहीं-कहीं जड़ परीजीवी जैसे स्ट्राइगा (स्ट्राइगा ल्युटिया) से भी क्षति ह¨ती है । यह हल्के हरे रंग का 15-30 सेमी लम्बा पोधा होता है जो  गन्ने की जड़ से पोषण लेता है । इसकी रोकथाम के लिए 2,4-डी (सोडियम साल्ट) 2.5 किग्रा. प्रति हेक्टर 2250 लिटर पानी में घ¨लकर छिड़कने से  यह नष्ट ह¨ जाता है । इस परिजीवी की कम संख्या ह¨ने पर इसे उखाड़कर नष्ट किया जा सकता है ।

गन्ने के साथ साथ बोनस फासले भी 

    गन्ना की खेती धान, गेहूँ, मक्का, ज्वार, आलू या सरसो के बाद की जाती है। शरदकालीन गन्ना के साथ आलू की सह फसली खेती में गन्ना की बुआई अक्टूूबर के प्रथम सप्ताह में कतारों में 90 सेमी. की दूरी पर करना चाहिए। गन्ने की दो कतारों के बीच आलू की एक कतार पौधे की दूरी 15 से.मी. रखकर ब¨ना चाहिए। शरदकालीन गन्ना के साथ चना या मसूर की सह फसली खेती हेतु गन्ने की दो पंक्तियों के मध्य (90 सेमी.) चना या मसूर की 2 कतारें 30 सेमी. की दूरी पर बोना चाहिए। बसन्तकालीन गन्ना के साथ मूँग की सह फसली खेती में गन्ना की बुआई फरवरी में 90 से.मी. की दूरी पर करते है। गन्ने की दो पंक्तियों के मध्य मूँग या उड़द की दो कतारें 30 से.मी. की दूरी पर बोना चाहिए। मूँग व उड़द की बीज दर 7 - 8 किग्रा. प्रति हैक्टर रखते है।

सही समय पर कटाई

    गन्ने की फसल 10 - 12 माह में पककर तैयार हो जाती है। गन्ना पकने पर इसके तने को ठोकने पर धातु जैसी आवाज आती है। गन्ने को मोड़ने पर गाँठों  पर आसानी से टूटने लगता है। गन्ने की कटाई उस समय करनी चाहिए जब रस में सुक्रोज की मात्रा  सर्वाधिक हो। गन्ने के रस में चीनीे की मात्रा (पकने का सही समय) हैण्डरिफ्रेक्ट्र¨मीटर से ज्ञात की जा सकती है। फसल की कटाई करते समय ब्रिक्स रिडिंग 17 - 18 के बीज में होना चाहिए या फिर पौधों के रस में ग्लूकोज 0.5 प्रतिशत से कम होने पर कटाई करना चाहिए। फेहलिंग घोल के प्रयोग से रस में ग्लूकोज का  प्रतिशत ज्ञात किया जा सकता है। तापक्रम बढ़ने से सुक्रोज का परिवर्तन ग्लूकोज मे होने लगता है। गन्ना सबसे निचली गाँठ से जमीन की सतह में गंडासे से काटना चाहिए। कटाई के पश्चात् 24 घंटे के भीतर गन्ने की पिराई कर लें अथवा कारखाना  भिजवाएँ क्योकि काटने के बाद गन्ने के भार में 2 प्रतिशत प्रतिदिन की कमी आ सकती है। साथ ही कारखाने में शक्कर की रिकवरी  भी कम मिलती है। यदि किसी कारणवश गन्ना काटने के बाद रखना पड़े तो उसे छाँव में ढेर के रूप में रखें। हो सके तो, ढेर को ढँक दें तथा प्रतिदिन पानी का छिड़काव करें।

अब मन बांक्षित उपज

    गन्ने की उपज मृदा, जलवायु, किस्म, सस्य प्रबन्धन पर निर्भर करती है। सामान्यतया औसतन 400 - 500 क्विंटल प्रति हेक्टेयर गन्ना पैदा होता है। उचित प्रबंध होने पर 700 - 90 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर तक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।  रस की गुणवत्ता उसमें उपलब्ध सुक्रोज की मात्रा से आँकी जाती है, जो गन्ने की किस्म, भूमि, जलवायु, कटाई काल तथा पेरे गये तने के भाग पर निर्भर करती है। प्रायः रस में 12 - 24 प्रतिशत तक सुक्रोज रहती है। जिन गन्नों में 18 -20 प्रतिशत तक सुक्रोज होती है उन्हे आदर्श माना जाता है। देशी विधि से 6-7 प्रतिशत तथा चीनी मिलों से 9 - 10 प्रतिशत शक्कर प्राप्त होती है।  औसतन गन्ने के रस से 12 - 13 प्रतिशत गुड़, 18 - 20 प्रतिशत राब तथा 9 -11 प्रतिशत चीनी प्राप्त होती है। गन्ने में 13-24 प्रतिशत सुक्रोज तथा 3-5 प्रतिशत शीरा पाया जाता है।

सदा बहार तिलहनी फसल सूरजमुखी की वैज्ञानिक खेती

                                  सदा बहार तिलहनी फसल- सूरजमुखी

                                                              डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर 
                                                            प्राध्यापक (सश्यविज्ञान)
                                                      इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय,
                                                        कृषक नगर, रायपुर (छत्तीसगढ़)
    सूरजमूखी पुष्पन अवस्था में यह फसल खेती के अधीन आने वाले सारे क्षेत्र को सुन्दर व दर्शनीय बना देती है और पकने पर यह हमें उच्च कोटि का खाद्य तेल प्रदान करती है। प्राकश व ताप असंवेदी  होने के कारण इस फसल पर प्रकाश व तापक्रम का प्रभाव नहीं पड़ता है, अतः वर्ष में किसी भी समय इसे उगाया जा सकता है। इसलिए इस फसल को  सभी मोसमो  की फसल की संज्ञा दी गई है । कम अवधि (90 - 100 दिन) में तैयार होने के कारण बहु फसली खेती के लिए यह एक उत्तम फसल है। सूर्यमुखी से कम बीज दर  में थोड़े समय में अधिक बीज उत्पादन  किया जा सकता है।
    इसके बीज में 40 - 50 प्रतिशत तेल व 20 - 25 प्रतिशत तक प्रोटीन होती है। सूर्यमुखी का तेल स्वादिष्ट एवं विटामिन ए, डी और ई से परिपूर्ण होता है। इसका तेल हल्के पीले  रंग, स्निग्ध गंध, उच्च धूम बिन्दु वाला होता है जिसमें  बहु - असतृप्त वसा अम्ल विशेष रूप से लिनोलीइक अम्ल की अधिकता (64 प्रतिशत) होती है, जो कि रूधिर कोलेस्टेराल की वृद्धि को रोकने  के अलावा उस पर अपचायक प्रभाव  भी डालता है । इसलिए ह्रदय रोगियों के लिए इसका तेल लाभप्रद पाया गया है। पोषण महत्व की दृष्टि से लिनोलीइक अम्ल अत्यावश्यक वसा अम्ल है, जिसकी आपूर्ति आहार  द्वारा होती है। इसलिए सूर्यमुखी का तेल अधिकांश वनस्पति तेलो की अपेक्षा बेहतर और कुसुम के तेल के समकक्ष माना जाता है। इसके तेल का उपयोग वनस्पति घी (डालडा) तैैयार करने में भी किया जाता है। इसकी गिरी  काफी स्वादिष्ट होती है। इसे कच्चा या भूनकर मूँगफली की भाँति खाया जाता है। गिरी का प्रयोग चिरौंजी या खरबूजे की गिरी के स्थान पर किया जाता है। तेल निकालने के पश्चात् प्राप्त खली पशुओं को खिलाने के लिए उपयोगी है जिसमें 40 - 44 प्रतिशत प्रोटीन होती है। सूरजमुखी की उपज बाजार में अच्छे मूल्य पर आसानी से बेची जा सकती है। सूरजमुखी की फसल के साथ मधुमक्खी पालन भी किया जा सकता है।
    सूर्यमुखी (हेलिऐन्थस ऐनुअस एल) के वंश नाम की उत्पत्ति ग्रीक शब्दों हेलिआस जिसका अर्थ है सूर्य एवं ऐन्थस (फूल) से हुई है। इसका फ्रैंच नाम टूर्नेसाल है, जिसका शाब्दिक अर्थ है - सूर्य के साथ घूमना। सूर्यमुखी का जन्म स्थान दक्षिण पश्चिमी अमेरिका एवं मेक्सिको माना जाता है। मेक्सिको से स्पेन होते हुए यह यूरोप पहुँची जहाँ पर अलंकारित पौधों  के रूप मे सूर्यमुखी उगाई जाने लगी तथा पूर्वी यूरोप तिलहन फसल के रूप में इसकी खेती प्रारम्भ हुई।  दुनियां में सूर्यमुखी की ख्¨ती 21.48 मिलियन हैक्टर क्षेत्र फल में की गई जिससे 1227.4 किग्रा. प्रति हैक्ट की दर से 26.366 मिलियन टन उत्पादन दर्ज किया गया । सर्वाधिक रकबे  में सूर्यमुखी उगाने वाले  प्रथम तीन देशो  में रूस, यूक्रेन व भारत देश आते है जबकि उत्पादन में रूस, अर्जेन्टिना एवं यूक्रेन आते है । प्रति हैक्टर औसत उपज के मामले  में फ्रांस प्रथम (2373.5 किग्रा), चीन द्वितिय (1785.7 किग्रा) एवं और अर्जेन्टिना तृतीय (1701.4 किग्रा.) स्थान पर स्थापित रहे है । भारत में सूर्यमुखी को लगभग 1.81 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में लगाया जाता हे  जिससे  लगभग 1.16 मिलियन टन उत्पादन प्राप्त होता है  तथा 639 किग्रा. प्रति हैक्टर  हे  औशत उपज आती हे  । सबसे अधिक क्षेत्र फल में सूर्यमुखी उगाने तथा अधिकतम उत्पादन देने वाले  प्रथम तीन राज्यो  में कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश एवं महाराष्ट्र राज्य है जबकि औसत उपज के मामले  में उत्तर प्रदेश प्रथम (1889 किग्रा. प्रति हैक्टर), हरियाना द्वितिय (1650 किग्रा. प्रति हैक्टर) एवं बिहार तृतीय (1388 किग्रा) स्थान पर रहे है । छत्तीसगढ़ में सुर्यमुखी की खेती सभी जिलो  में कुछ न कुछ  में की जा  रही है । रायगढ़, राजनांदगांव, दुर्ग, महासमुन्द एवं बिलासपुर जिल¨ं में सूर्यमुखी बड़े पैमाने पर उगाया जा रहा है । सवसे अधिक उत्पादन देने वाल्¨ प्रथम तीन जिल¨ं में रायगढ़, राजनांदगांव व दुर्ग जिल्¨ आते है । अ©सत उपज के मामल्¨ में रायगढ़ जिल्¨ का प्रथम स्थान (1410 किग्रा. प्रति हैक्टर) है, जिसके बाद धमतरी और  महासमुन्द जिले  का स्थान आता है ।
जलवायु
    सूरजमुखी प्रकाशकाल  के प्रति असंवेदनशील, कम अवधि तथा अधिक अनुकूलन के कारण सभी मौसमों की फसल कहलाती है। सुखाग्रस्त  अथवा बारानी क्षेत्रों में यह फसल देरी से (अगस्त में ) एवं अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में इसे रबी के मौसम (अक्टूबर - नवम्बर) मे उगाया जाता है। सिंचाई की सुविधा हो तो जायद(गर्मी) के मौसम में भी इसे उगाया जा सकता है। उन क्षेत्रों में जहाँ समान रूप से वितरित 500 - 700 मिमी. वार्षिक वर्षा होती है तथा फूल आने के पूर्व समाप्त हो जाती है, इसकी खेती के लिए उपयुक्त है। फुल और बीज बनते समय तेज वर्षा और हवा से फसल गिर जाती है। सूरजमुखी की वानस्पतिक वृद्धि  के समय गर्म एवं नम जलवायु की आवश्यकता होती है, परन्तु फल आने और परिपक्व होने  के समय चटक धूप वाले दिन आवश्यक है। बीज अंकुरण एवं पौध बढ़वार के समय ठण्डी जलवायु की आवश्यकता होती है। बीज अंकुरण के समय 25-30 डि.से.तापक्रम अच्छा रहता है तथा 15 डि.से.  से कम तापक्रम पर अंकुरण प्रभावित होता है। इसकी फसल क¨ 20-25 डि.से.    तापक्रम की आवश्यकता होती है। गर्म दिन और ठण्डी रातें फसल के लिए सर्वोत्तम मानी जाती है। सामान्यतौर पर फुल आते समय  से अधिक तापक्रम होने पर बीज की उपज और तेल की मात्रा मे गिरावट होती है। इसी प्रकार  16 डि.से.   से कम तापमान होने पर बीज निर्माण व तेल प्रतिशत मे कमी आती है। आतपौध्भिद होते हुए भी सूरजमुखी मक्का व आलू की तुलना में छाया को अधिक अच्छी तरह सहन कर सकती है। इसके पौधे का आतपानुवर्ती संचलन मुख्यतया धूप के फलस्वरूप विभेदी आॅक्सिन सांद्रणों के कारण तने के मुड़ने से होता है। आॅक्सिन के अंतर्जात उद्दीपन के कारण होने वाले इस प्रकार के संचलन को हैबिट कहते है। शीत ऋतु में कम तापमान ह¨ने के कारण फसल देर से परिपक्व (लगभग 130 दिन में) ह¨ती है, जबकि खरीफ के म©सम में उच्च तापमान ह¨ने के कारण यह शीघ्र पकती (80 दिन) है ।

भूमि का चयन 

    सूर्यमुखी की खेती सिंचित बलुई मृदाओं से लेकर उच्च जल धारण क्षमता वाली मटियार मृदाओ तक तथा 6.5 से 8.0 पीएच मान वाली विविध प्रकार की भूमियो मे की जा सकती है। अच्छी उपज के लिए गहरी, उर्वरा, जैवांश युक्त तथा उदासीन अभिक्रिया वाली बलुई दोमट भूमि सर्वोत्तम है। खरीफ की फसल हल्की, रेतीली और पानी के उत्तम निकास वाली भूमि मे ली जा सकती है। यह फसल अस्थाई सूखे का मुकाबला कर सकती है और इसलिए इसे कम वर्षा होने वाले क्षेत्रो मे सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है। रबी फसल के लिए दोमट - कपास की काली मिट्टी  जो काफी दिनों तक नमी संरक्षित रख सके, इसके लिए उपयुक्त होती है।

भूमि की तैयारी

    सूरजमुखी के लिए ख्¨त की मृदा हल्की एवं भुरभुरी  होनी चाहिए । पिछली फसल काटने के पश्चात् खेत मे एक या दो बार हल या कल्टीवेटर चलाकर खरपतवार नष्ट करते हुए मिट्टी भुरभुरी एवं समतल कर लेनी चाहिए। अंतिम जुताई करने से पूर्व 25 किलो क्लोरपायरीफास प्रति हेक्टेयर भूरक देना चाहिए। रबी की फसल के लिए भूमि की तैयारी अन्य रबी फसलों के समान ही करना चाहिए। वर्षा निर्भर क्षेत्रों मे नमी संरक्षण हेतु उपाय करना चाहिए। सिंचित क्षेत्रों में खरीफ की फसल काटने के तुरंत बाद, जमीन की परिस्थिति के अनुसार जुताई करनी चाहिए। दो या तीन बार कल्टीवेटर चलाकर मिट्टी को भुरभुरा कर पाटा द्वारा भूमि को समतल  करना चाहिए। सूर्यमुखी के बीज का छिलका म¨टा ह¨ने के कारण नमी क¨ धीमी गति से स¨खते है । इसलिए ब¨आई के समय ख्¨त में पर्याप्त नमी का रहना आवश्यक पाया गया है । जलभराव की स्थिति क¨ यह फसल सहन नही कर सकती है । अतः खेत मे जल निकास की पर्याप्त व्यवस्था करना भी आवश्यक है।

उन्नत किस्में

    सूर्यमुखी की संकुल किस्मों (माडर्न तथा रशियन किस्में) से कम तथा संकर किस्मो से अधिक उपज प्राप्त होती है।रशियन किस्में  में विन्मिक, पेरिडविक, अर्माविसर्कज ,अर्माविरेक आदि है ।
सूरजमुखी की संकर व उन्नत किस्मो  की विशेषताएं
किस्म का नाम                     अवधि (दिन)        उपज (क्विंटल /हे.)        तेल (%)
मार्डन                                     80 - 85                           7 - 8            38 - 39
विनियमन                             115 - 120                    15 - 25            41 - 43
ज्वालामुखी (संकर)                 95 - 115                     25 - 28            39 - 40
दिव्यमुखी (संकर)                    85 - 90                      25 - 28            41 - 42
एमएसएफएच.-8(संकर)          90 - 95                      25 - 28            42 - 44
एमएसएफएच-17(संकर)       100 - 105                   10 - 15            42 - 44
केबीएसएच-1(संकर)                 90 - 95                    18 - 20            41 - 42
केबीएसएच-44(संकर)            105 - 110                   20 - 25            42 - 44

सूर्यमुखी की अन्य संकर व उन्नत किस्मो  के गुणधर्म

1. जेएसएल-1 (जवाहर सूर्यमुखी): इसका दाना मध्यम आकार का ठोस व काले रंग का चमटा होता है। यह किस्म जल्दी अर्थात् 120 से 125 दिनों में पककर तैयार हो जाती है । तेल की मात्रा 50 प्रतिशत तथा औसत पैदावार 15 से 20 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर होती है। यह किस्म मध्यप्रदेश के सभी क्षेत्रों मे खरीफ एवं रबी मौसमों के लिये उपयुक्त है।
2. अर्माविस्किज (ई. सी. 68415): इसका दाना मध्यम आकार का ठोस, हल्के काले रंग का तथा कुछ छोटा रहता है। यह किस्म 125से 130 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। उपज क्षमता 9-10 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर है। यह खरी मौसम के लिए मध्यप्रदेश के सभी क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है। यह रसियन किस्म है।
3. पैरिडोविक (ई. सी. 68414): इस किस्म का दाना ई. सी. 64415 के समान ही होता है, लेकिन रंग का गहरा काल होता है। यह देरी से (130 से 135 दिनों में) पकती है तथा इसके बीज में तेल की मात्रा 42 प्रतिशत होती है। औसत पैदावार 10 से 12 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर होती है। खरीफ एवं रबी दोनों मौसमों मे मालवा एवं निमाड़ क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है। यह भी रसियन किस्म है।
4. डीआरएसएफ-108: यह 90 - 95 दिन मे तैयार होने वाली सूखा सहनशील किस्म है। औसतन 22-25 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त होती है। बीज में 40 प्रतिशत तेल होता है। असिंचित क्षेत्रों में खरीफ ऋतु के लिए उपयुक्त किस्म है।
5. एमएलएसएफएच-82: यह 85-100 दिन में तैयार होने वाली सूखा सहनशील किस्म है। औसतन 22-25 क्विंटल  प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त होती है। बीज में 35 प्रतिशत तेल ह¨ता है। मध्य प्रदेश एवं छत्तिससगढ़ के लिए उपयुक्त संकर किस्म है।

बीज दर एवं बीज उपचार

    सूरजमुखी का  प्रमाणित बीज ही उपयोग में लाना चाहिए। सूरजमुखी के बीज भार में हलके (5.6 से 7.5 ग्राम प्रति 100 बीज) ह¨ते है । सूरजमुखी की संकुल किस्मों के लिए 8-10 किग्रा. तथा संकर किस्मो के लिए 6-7 किग्रा. बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त रहता है।बुआई के पूर्व बीज को 24 घंटे पानी में भिगोकर बोने से अंकुरण प्रतिशत बढ़ता है। बोनी के पूर्व बीज को कैप्टान या थाइरम नामक फफूँदनाशक दवा (3 ग्राम दवा प्रति किलो बीज) से उपचारित करना आवश्यक है। इससे फफूँदी रोग नहीं हो पाता ।
बोआई का समय
    बहुत सी फसलो की तरह सूर्यमुखी दिन की अवधि तथा ऋतु विशेष से प्रभावित नहीं होती है और इसलिए इसकी ब¨आई किसी भी समय की जा सकती है । अत्यधिक ठण्डे मौसम को छोड़कर वर्ष के प्रायः सभी महीनो में सूर्यमुखी की बुआई की जा सकती है। खरीफ की फसल विशेषकर बारानी क्षेत्रों में अगस्त के दूसरे या तीसरे सप्ताह मे इसकी बोनी करनी चाहिये। जून व जुलाई माह में बोनी करने से उपज प्रायः कम होती है। क्योंकि परागण क्रिया करने वाले कीड़े बहुत कम आते है जिससे बीज का निर्माण ही नहीं होता या सभी बीज पोचे रह जाते है। अतः विभिन्न क्षेत्रों में बोनी का समय इस तरह निर्धारित करना चाहिए जिससे फसल मे फूल बनते समय अधिक व लगातार वर्षा न हो। सूखग्रस्त क्षेत्रों में अक्टूबर से नवम्बर के प्रथम सप्ताह तक ब¨नी की जा सकती है। वसन्तकालिक फसल की बोआई 15 जनवरी से 2 0 फरवरी तक करना उचित रहता है ।

बोआई की विधियाँ

    सूर्यमुखी की बुआई कतार या डिबलिंग विधि से करनी चाहिए। संकुल किस्मों में पंक्तियों का फासला 45 सेमी. कतार  से कतार तथा 15 से 20 सेमी. पौध  से पौध अंतर रखना चाहिए। संकर किस्मों की बोनी 60 - 75 सेमी. दूर कतारों में तथा पौध  से  पौध के बीच की दूरी 20 से 25 सेमी. रखना चाहिए। अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए 60 - 70 हजार पौधे प्रति हेक्टेयर पर्याप्त रहते है। बीज क¨ 2-4 सेमी. की गहराई पर ब¨ना उचित पाया गया है । गर्मी के समय उच्च तापमान ह¨ने के कारण मृदा की ऊपरी परत से नमी शीघ्र सूख जाती है, अतः ब¨आई 4 सेमी. की गहराई पर करना लाभकारी पाया गया है । सूरजमूखी के दानों का अंकुरण धान्यों की अपेक्षा अधिक देर से होता है, क्योकि इसके बीज का छिलका मोटा ह¨ने के कारण उनमें जल अवश¨षण  धीमी गति से ह¨ता है साथ ही इसका अंकुरण भी उपरिभूमिक  होता है। इसके अलावा मृदा की पपड़ी (क्रस्ट) अंकुरण की गति को और  अधिक मंद कर सकती है । उचित नमी एवं तापमान पर सूर्यमुखी के बीज का जमाव  प्रायः 8-10 दिन में हो जाता है।

खाद एवं उर्वरक

    पौधों की बढ़वार के लिए नाइट्रोजन, स्फुर एवं पोटाश आवश्यक तत्व है। नत्रजन तत्व की कमी से पौधो  की बढ़वार मंद पड़ जाती है । जड़ो  का विकास, बीज का आकार, उचित दाना भराव  व तेल में  बढ़ोत्र री के लिए फास्फोरस आवश्यक पोषक तत्व माना गया है। दाना भराव व रोग रोधित के लिए पोटाश एक उपयोगी तत्व है। पोटेशियम की अत्याधिक कमी ह¨ने से बीज खाली रह जाते है । दो या तीन वर्ष में एक बार 25 से 30 गाड़ी गोबर की खाद या कम्पोस्ट प्रति हेक्टेयर देना चाहिये। वर्षा निर्भर क्षेत्रों में 30 किग्रा. नत्र्ाजन, 30 किग्रा. स्फुर तथा 20 किग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर के हिसाब से बोनी के साथ देना चाहिए। सिंचितक्षेत्र   मे 60-8 0  किग्रा. नत्रजन , 60 किग्रा. स्फुर तथा 40 किग्रा. पोटाश प्रति हैक्टर देना चाहिए । सिंचित क्षेत्रों में बोनी के समय स्फुर पोटाश की पूरी मात्रा तथा नत्रजन की आधी मात्रा देनी चाहिये। शेष आधी नत्रजन की मात्रा फसल बोने के लगभग एक महीने के बाद सिंचाई के पहले देना चाहिये। लगातार सघन कृषि पद्धतियों से जस्ते व गंधक की भूमि में कमी देखी जा रही है। तिलहनी फसल होने के कारण सूर्यमुखी को सल्फर तत्व की आवश्यकता पड़ती है। बुआई के समय 20-25 किग्रा. जिंक सल्फेट देना लाभप्रद रहता है। यदि फास्फोरस को सिंगल सुपर फास्फेट के रूप में दिया जाता है, तो अलग से सल्फर देने की आवश्यकता नहीं होती है। बुआई के समय सुपर फॉस्फेट या जिंक सल्फेट नहीं दिया गया है तो फसल में फूल आने की अवस्था में जिंक सल्फेट  2.5 किग्रा. और चूना 1.25 किग्रा. को 500 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना भी लाभकारी पाया गया है।

सिंचाई

    खरीफ ऋतु में लगाई गई सूर्यमुखी की फसल क¨ सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है । अवर्षा अथवा सूख्¨ की स्थिति में 1-2 सिंचाई देने से उपज में बढ़¨त्तरी ह¨ती है । भारी वर्षा ह¨ने पर ख्¨त से जल निकासी आवश्यक है । रबी एवं जायद की सूर्यमुखी मे तीन सिंचाईयाँ प्रथम ब¨आई के 40 दिन बाद, द्वितिय ब¨आई के 75 दिन बाद (पुष्पन अवस्था) तथा तृतीय ब¨आई के 100 दिन बाद (दाना भरते समय) देना लाभ कारी रहता है । पुष्पन एवं दान¨ं के विकास की अवस्था पर नमी की कमी का फसल पर विपरीत प्रभाव पड़ता है । शीतकालीन या बसन्तकालीन सूर्यमुखी की ब¨आई एक हलकी सिंचाई करने के बाद करना लाभप्रद ह¨ता है ।

खरपतवार नियंत्रण

    अंकुरण के 10 - 12 दिन बाद पौधों - से - पौधों का अंतर 20 सेमी. रखने के लिये अनावश्यक पौधों को उखाड़ देना चाहिये तथा एक स्थान पर केवल एक ही पौधा रखना चाहिए। खरपतवार नियंत्रण हेतु कतारों के बीच में एक-दो बार गुड़ाई (बुआई के 25-30 से दिन व 40-50 दिन) करना चाहिये। सूरजमुखी का फूल भारी और बड़ा होता है जिसके कारण आँधी-पानी से पौधे गिर सकते हैं। अतः दूसरी गुड़ाई के समय पौधों पर मिट्टी चढ़ाने का कार्य भी करना चाहिए। खरपतार नियंत्रण हेतु 1 किग्रा. फ्लूक्लोरैलिन (बासालिन 45 ईसी) या पेन्डीमिथिलीन (स्टाम्प 30 ईसी) 3 लीटर प्रति हेक्टेयर का 600 - 800 लीटर पानी में मिलाकर अंकुरण से पूर्व छिड़काव करना चाहिये।

परसेचन क्रिया

    सूरजमुखी सामान्यतः परपागित फसल है। अतः अच्छे बीज पड़ने एवं उनके भराव  हेतु परसेचन क्रिया नितान्त आवश्यक है मधुमक्खियों की उपुक्त संख्या होने पर ही परागण अच्छा होता है सूरजमुखी में फूल आते समय प्रति हेक्टेयर के हिसाब से मधुमक्खियों के 2-3 छत्तों को एक माह तक रख कर मुण्डकों  में पर परागण की क्रिया को बढ़ाया जा सकता है। मधुमक्खियों की सुरक्षा हेतु कीटनाशकों का प्रयोग कम-से -कम करना चाहिये। ग्रीष्म ऋतु में मक्खियों की संख्या में कमी आ जाती है। अतः कृत्रिम परसेचन करना आवश्यक हो जाता है। इसके लिए पौधों में अच्छी तरह फल के मुंडक पर चारों ओर धीरे-धीरे घुमा देना चाहिये, जिससे परागकण आसानी से पूरे मुंडक में पहुँचकर परसेचन क्रिया में सहायक हो जाये। यह क्रिया प्रातः काल 7 बजे से 10 बजे के मध्य, एक दिन के अन्तराल से 3-4 बार करनी चाहिए। 
पक्षियों से फसल की रखवाली
    सूरजमुखी में दाना बनते समय फसल की पक्षियों से रक्षा करना चाहिए। फसल को सबसे अधिक नुकसान पहुँचाने   वाला पक्षी तोता होता है। इससे बचाव के लिए पक्षियो को उड़ाने वाले कुछ साधनों जैसे बिजूखा लगाना, पटाखा चलाना या ढोल बजाने की संस्तुति की गयी है।

फसल पद्धति

    सूरजमुखी दिन की लम्बाई के प्रति अपनी अभिक्रिया में प्रकाश उदासीन   होने के कारण इसे प्रायः सभी प्रकार के फसल चक्रों में सम्मिलित किया जा सकता है। उत्तरी भारत में यह मक्का-तोरिया/राई-सूरजमुखी, धान-सूरजमुखी, मक्का-मटर-सूरजमुखी, मक्का-आलू-सूरजमुखी आदि फसल चक्रों  में उगाई जा सकती है। अन्तः फसली खेती  के अन्तर्गत सूरजमुखी + मूँगफली (2.4), अरहर $ सूरजमुखी (1.2), सूरजमुखी + सोयाबीन (3.3), सूरजमुखी + उड़द (1.1), मूँगफली +सूरजमुखी (6.2 कतार अनुपात) में उगाना चाहिए।

कटाई एवं गहाई

    सूरजमुखी की फसल खरीफ में 80-90 दिन, रबी में 105-130 दिन तथा जायद में 100-110 दिन में तैयार हो जाती है। शीत ऋतु मे कम तापमान के कारण फसल अधिक समय में परिपक्व होती है। जब पौधों की पत्तियाँ पीली पड़ने लगें, पुष्प आधार की पिछली सतह पीली पड़ जाए और ब्रेक्ट भूरे पड़ने लगे तो उस समय फसल को काटना उपयुक्त रहता है। यह अवस्था  सामान्यतया परागण  के लगभग 45 दिन बाद आती है। इस समय मुंडक सूखे नहीं दिखते है,परन्तु बीज पक जाते हैं। बीजों में इस समय लगभग 18 प्रतिशत नमी होती है। कटाई हँसिया से या हाथ से उखाड़  कर करते हैं तथा मुंडक को अलग कर लेते हैं। कटाई पश्चात सूरजमुखी के मुंडकों  को 5-6 दिन तक सुखाने के बाद डंडों से पीटकर बीज को अलग कर लिया जाता है। अधिक क्षेत्रफल में उगाई गई फसल की गहाई थ्रेसर से भी की जा सकती है। बीजों को साफ करने के बाद धूप में सुखा लेना चाहिए।

उपज एवं भंडारण

    सूरजमुखी की संकुल किस्मों से 15 - 20  एवं संकर क्विंटल किस्मों  से 20 - 30  क्विंटल  प्रति हे. उपज प्राप्त होती है। खरीफं ऋतु की अपेक्षा रबी एवं बसंत में सूर्यमुखी की उपज अधिक प्राप्त होती है। बीज को भंडारित करने के पूर्व 2-3 दिन तक अच्छी प्रकार से सुखाना आवश्यक है। जब बीजों में नमी की मात्रा 10 प्रतिशत या इससे कम हो जाय तब उनको उचित स्थान पर संग्रहित  करना चाहिए। सूर्यमुखी के बीजों में सुसुप्तावस्था   लगभग 45 - 50 दिन की होती है।

ताकि सनद रहे: कुछ शरारती तत्व मेरे ब्लॉग से लेख को डाउनलोड कर (चोरी कर) बिभिन्न पत्र पत्रिकाओ और इन्टरनेट वेबसाइट पर अपने नाम से प्रकाशित करवा रहे है।  यह निंदिनिय, अशोभनीय व विधि विरुद्ध कृत्य है। ऐसा करना ही है तो मेरा (लेखक) और ब्लॉग का नाम साभार देने में शर्म नहीं करें।तत्संबधी सुचना से मुझे मेरे मेल आईडी पर अवगत कराना ना भूले। मेरा मकसद कृषि विज्ञानं की उपलब्धियो को खेत-किसान और कृषि उत्थान में संलग्न तमाम कृषि अमले और छात्र-छात्राओं तक पहुँचाना है जिससे भारतीय कृषि को विश्व में प्रतिष्ठित किया जा सके।

गुरुवार, 17 जनवरी 2013

धान अर्थात चावल की वैज्ञानिक खेती कैसे करें

                                                                        डॉ गजेन्द्र सिंह तोमर 
                                                                      प्राध्यापक (सश्यविज्ञान)
                                                                 इंदिरा गांधी कृषि विश्व विद्यालय, 
                                                                  कृषक नगर, रायपुर (छत्तीसगढ़)
                  धान  (ओराइजा सटाइवा) ग्रेमिनी या पोएसी कुल का महत्वपूर्ण सदस्य हे। खाद्यान्नों में धान का महत्वपूर्ण स्थान है एंव विश्व की जनसंख्या का अधिकांश भाग दैनिक भोजन में चावल का ही उपयोग करता है। चावल हमारी संस्कृति की पहचान है।बिना रोली -चावल के पूजा नहीं होती तथा माथे पर तिलक नहीं लगता। हमारे यहाँ नव -विवाहित जोड़ों पर अक्षत वर्षा की आज भी परंपरा है। विश्व में खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से चावल की फसल का विशेष योगदान है। संसार की 60 प्रतिशत आबादी के भोजन का आधार चावल                ही है। देश की लगभग 65 प्रतिशत जनसंख्या का प्रमुख खाद्यान्न चावल है। धान ही एक ऐसी फसल है जिसे समुद्र तल से नीचे तथा हिमालय की चोटी तक, भूमध्य रेखा के दोनों ओर काफी दूरी तक, गहरे पानी से  लेकर वर्षा आधारित शुष्क क्षेत्रों, विभिन्न तापमान, अम्लीय से क्षारीय भूमियों और सीधी बोआई से रोपाई इत्यादि विभिन्न परिस्थितियों में सुगमता से उगाया जा सकता है।चावल का प्रयोग विभिन्न उद्योगों में भी किया जाता है, क्योंकि इसमें स्टार्च पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है।कपड़ा उद्योग में इसका सर्वाधिक प्रयोग होता है।धान के पैरा का प्रयोग जानवरों को खिलाने तथा विभिन्न वस्तुओं की पैकिंग के लिए किया जाता है। धान की कटाई करने के बाद प्राप्त उपोत्पाद जैसे चावल की भूसी आदि का प्रयोग पशु-पक्षियों को खिलाने में किया जाता है।धान की भूसी से तेल भी निकाला जाता है जिसका प्रयोग खाने में किया जाता है। तेल का उपयोग साबुन बनााने में भी होता है।इसके अलावा चावल का प्रयोग शराब निर्माण में किया जाता है। चावल को अधिकांशतः उबालकर भात के रूप में खाया जाता है।इससे भाँति-भाँति के खाद्य पदार्थ यथा पोहा, मुरमुरा, लाई, आटे की रोटी के अलावा अब बाजार में विविध उत्पाद मिल रहे है। इस प्रकार से यह कहा जा सकता है कि धान का हमारी अर्थव्यवस्था और खाद्यान्न सुरक्षा में महत्वपूर्ण स्थान है।
धान की लहलहाती फसल 

धान उगाने वाले देश व  भारत के प्रमुख  राज्य 
धान गर्मतर जलवायु वाले प्रदेशों में सफलतापूर्वक उगाया जाता  है। विश्व का अधिकांश धान दक्षिण पूर्वी एशिया मेमं उत्पन्न होता है। चीन, जापान, भारत, इन्डोचाइना, कोरिया, थाइलैण्ड, पाकिस्तान तथा श्रीलंका धान पैदा करने वाले प्रमुख देश हैं।इटली, मिश्र, तथा स्पेन में भी धान की खेती विस्तृत क्षेत्र में होती है।भारत में धान की खेती लगभग सभी राज्यों में की जाती है किन्तु प्रमुख उत्पादक प्रदेशों में आन्ध्र प्रदेश, असम, बिहार, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, पश्चिमी बंगाल, उत्तर प्रदेश है। धान छत्तीसगढ़ की प्रमुख फसल है तथा प्रदेश के सभी जिलों में  इसकी खेती बहुतायता में होती है।मध्यप्रदेश में जबलपुर, रीवा, शहडोल, बालाघाट, कटनी आदि जिलों तथा ग्वालियर संभाग के कुछ भागों में धान की खेती प्रचलित है। विश्व के धान पैदावार करने वाले देशों में क्षेत्रफल की दृष्टि से भारत (43 मि.हे.) प्रथम स्थान पर है परन्तु उत्पादन (129 मि. टन) में द्वितीय स्थान पर है।चावल उत्पादन में चीन (185.5 मि. टन) विश्व में सबसे आगे है जिसका प्रमुख कारण वहाँ के किसानों द्वारा प्रति हेक्टेयर 6017 किग्रा. धान की पैदावार लिया जाना है। धान की औसत पैदावार के मामले में क्षेत्रीय व प्रादेशिक विषमताएँ हैं। असिंचित क्षेत्रों में धान की उत्पादकता जहाँ 2000 किग्रा. प्रति हे. से भी कम आती है, वहीं पंजाब प्रांत के सिंचित क्षेत्रों में 5800 किग्रा. प्रति. हे. तक उत्पादन लिया जा रहा है। छत्तीसगढ़ राज्य (धान का कटोरा) जहाँ बहुतायता क्षेत्र (खरीफ में 3568 हजार हे. व रबी में 162.27 हजार हे.) में धान की खेती की जाती है। यहाँ धान की औसत उपज खरीफ में 1264 किग्रा. तथा रबी में 2405 किग्रा. प्रति हेक्टेयर के इर्द गिर्द है। म. प्र. में धान की खेती 1.56 मि. हे. उत्पादन 1.46 मि. टन और उत्पादकता मात्र 938 किग्रा/हे. दर्ज की गई। प्रदेश में धान का उत्पादन खरीफ व रबी में क्रमशः 4510.13 और 390.18 हजार टन (2007-08) दर्ज किया गया हैं। अतः राष्ट्रीय व प्रादेशिक स्तर पर धान का उत्पादन बढ़ाने की व्यापक संभावनाएँ विद्यमान हैं। अनुमान है कि 11वीं पंचवर्षीय योजना के अंत (2011-2012) तक खाद्यान्न उत्पादन 337.3 करोड़ टन तक बढ़ाना होगा जिसमें से 110 करोड़ टन चावल का उत्पादन होना आवश्यक है।

उपयुक्त जलवायु     

           धान एक उष्ण तथा उपोष्ण जलवायु की फसल है। गर्म शीतोष्ण क्षेत्रों में धान की उपज अधिक होती है। धान की फसल को पूरे जीवन काल में उच्च तापमान तथा अधिक आर्द्रता के साथ अधिक जल की आवश्यकता होती है।धान और पानी का गहरा सम्बन्ध है। जहाँ वर्षा अधिक होती है वहीं धान का क्षेत्रफल अधिक होता है। जिन क्षेत्रों में वार्षिक वर्षा 140 से.मी से अधिक होती है धान की फसल सफलतापूर्वक उगाई जाती है। कम वर्षा वाले क्षेत्रों (100 सेमी. से कम) में सिंचाई के साधन होने पर धान की अच्छी उपज ली जा सकती है। पौधों की बढ़वार के लिए विभिन्न अवस्थाओं पर 21-30 डिग्री से ग्रे  तापक्रम की आवश्यकता होती है। फसल की अच्छी वृद्धि के लिए 25 से 30 डिग्री से ग्रे  तथा पकने के लिए 21-25 डिग्री से ग्रे  तापक्रम की आवश्यकता होती है। पौध बढ़वार के समय अधिक आर्द्रता परंतु फसल पकने के समय कम आर्द्रता का होना लाभदायक रहता है। सूर्य के प्रकाश का धान की पैदावार में बहुत महत्व है। अधिक उपज के लिए धूपदार मौसम आवश्यक है। पकते समय 200 घन्टे का प्रकाश होना अनिवार्य है, परन्तु दिन की लम्बाई के प्रति असंवेदन शील किस्में विकसित होने से प्रकाश अवधि का उपज पर अधिक प्रभाव नहीं पड़ता है।

भूमि का चयन 

                        धान की खेती के लिए भारी दोमट भूमि सर्वोत्तम पाई गई है। इसकी खेती हल्की अम्लीय मृदा से लेकर क्षारीय (पीएच 4.5 से 8.0 तक) मृदा में की जा सकती है। छत्तीसगढ़ में मुख्यतः चार प्रकार की भूमि भाटा, मटासी, डोरसा, एंव कन्हार पाई जाती है।मटासी भूमि भाटा से अधिक भारी तथा डोरसा भूमि से हल्की होती है तथा धान की खेती के लिए उपयुक्त होती है। डोरसा भूमि रंग तथा गुणों के आधार पर मटासी तथा कन्हार भूमि के बीच की श्रेणी में आती है। इसकी जलधारणा क्षमता मटासी भूमि की तुलना में काफी अधिक होती है। धान की कास्त के लिए सर्वथा उपयुक्त होती है।कन्हार भूमि भारी, गहरी व काली होती है। इसकी जल धारण क्षमता अन्य भूमि की अपेक्षा सर्वाधिक होती है तथा कन्हार भूमि रबी फसलों के लिए उपयोगी होती है। छत्तीसगढ़ राज्य में लगभग 77 प्रतिशत धान की खेती असिंचित अवस्था (वर्षा आधारित) में की जाती है।

धान की  उत्पादकता कम होने के कारण 

                      धान उत्पादक विकसित देशो की तुलना में भारत के किसानो द्वारा ली जा रही धान की औसत उपज काफी कम ही नहीं वरन वह आर्थिक दृष्टि से भी कृषि के द्रष्टिकोण से अलाभकारी हे।मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ की जलवायु व मिट्टियाँ धान की खेती के लिए अनुकूल होने के बावजूद भी यहाँ धान की औसत उपज राष्ट्रीय उपज से काफी कम है जिसके प्रमुख कारण है:
1. प्रदेश में 70 प्रतिशत से अधिक क्षेत्र में धान की खेती असिंचित अवस्था में की जाती है जो कि वर्षा की मात्रा व वितरण पर निर्भर करती है।कल्ले फूटने और दाना बनने की अवस्था के समय पानी की कमी से बहुधा सूखा -अकाल जैसी स्थिति निर्मित हो जाती है। इससे औसत उपज कम होती है।
2. प्रदेश के बहुसंख्यक कृषक धान की खेती परंपरागत पद्धति (छिटकवाँ विधि से बोनी, उर्वरकों व पौध संरक्षण विधियों का न्यूनतम प्रयोग) से करते हैं जिससे उन्हें वांछित उत्पादन नहीं मिलता है।
3. धान की उन्नत किस्मों का उत्पादकता में सीधा (15-20 प्रतिशत) योगदान है परंतु प्रदेश में आज भी बडे़ पैमाने पर देशी किस्मों की खेती प्रचलित है जो कि कीट-व्याधियों व सूखा से प्रभावित होती है।
4. प्रदेश में उर्वरक खपत काफी कम है तथा अधिकांश कृषक धान में उर्वरकों की असंतुलित मात्रा का प्रयोग करते हैं।
5. प्रति इकाई धान की उचित पौध संख्या स्थापित न होने से उपज कम मिलती है।
6. खरपतवारों द्वारा धान के पौधों के विकास एंव वृद्धि में बाधा होती है जिससे उपज में भारी गिरावट आती है।
7. धान में अनेक प्रकार के कीट एंव बीमारियों का प्रकोप प्रारम्भिक काल से फसल पकने की अवस्था तक होता रहता है।

खेत की तैयारी    

                 ऋगवेद में कहा गया है कि यो ना बपतेह बीजम अर्थात तैयार किये गये खेत में ही बीज बोना चाहिए, जिससे कि भरपूर अन्न पैदा हो। फसल उगाने से पहले विभिन्न यंत्रों की सहायता से खेत की अच्छी तरह से तैयार की जाती है जिससे खेत खरपतवार रहित हो जाएँ। धान के खेत की तैयार शुष्क एंव आर्द्र प्रणाली द्वारा बोने की विधि पर निर्भर करती है। शुष्क प्रणाली में खेत की तैयारी के लिए फसल के तुरन्त बाद ही खेत को मिट्टि पलटने वाले हल से जोत देते हैं। इसके बाद पानी बरसने पर जुताई करते हैं। इस प्रकार भूमि की भौतिक दशा धान के योग्य बन जाती है। गोबर की खाद, कम्पोस्ट या हरी खाद बोआई से पहले प्रारम्भिक जुताई के समय खेत में अच्छी तरह मिला देना चाहिए। 

उन्नत किस्में 

               फसलोत्पादन में उन्नत किस्मों का महत्वपूर्ण योगदान होता है। धान की उन्नत बोनी किस्मों की उपज क्षमता 8-10 टन प्रति हेक्टेयर है। क्षेत्र की जलवायु, खेतों की स्थिति के आधार पर एंव उनमें उपलब्ध मृदा नमी को  देखते हुए उपयुक्त धान की किस्मों का चयन करना चाहिए।
छत्तीसगढ़ की विभिन्न परिस्थितियों के अनुसार धान की उन्नत किस्में 
1. असिंचित ऊपरी भूमि  हेतु अनुशंसित किस्में
भूमि प्रकार किस्म अवधि उपज प्रमुख विशेषताएँ
(दिनों में) (क्वि./हे.)
 हल्की कलिंगा-3 80-90 22-25 मध्यम ऊँचाई, पतला दाना
वनप्रभा 85-95 18-20 उपर्युक्त समान
भारी भूमि आदित्य 85-95 23-25 बौनी, मोटा दाना
तुलसी 100-110 28-30 उपर्युक्त समान
पूर्णिमा 100-110 28-30 बौनी, पतला दाना
दन्तेश्वरी 100-110 28-30 बौनी, पतला दाना
2. असिंचित मध्यम भूमि 
हल्की भूमि पूर्णिमा 100-110 32-35 बौनी, लम्बा पतला दाना
               तुलसी 100-110 32-35 मोटा दाना
               अन्नदा 100-110 33-35 मोटा दाना, सूखा रोधी
               दन्तेश्वरी 100-110 34-35 लम्बा पतला दाना
भारी भूमि   आई.आर-36 115-120 37-40 लम्बा पतला दाना
              आई.आर-64 110-120 38-40 लम्बा पतला दाना
              क्रान्ति 125-130 43-45 मोटा दाना, पोहा हेतु
             महामाया 125-130 44-45 मोटा दाना, पोहा हेतु
3.  असिंचित निचली भूमि हेतु अनुशंसित किस्में 
हल्की भूमि अभया         120-125 32-35 बौनी, गंगई व ब्लास्ट रोग प्रतिरोधी, लम्बा दाना
क्रान्ति         125-130 42-45          बौनी, पोहा एंव मुरमुरा हेतु, मोटा दाना
महामाया      125-130 47-55 गंगई प्रतिरोधी, पोहा हेतु
भारी भूमि सफरी-17        140-145 40-42 ऊँची, बारीक दाना
मासूरी          140-145 38-40 ऊँची, मध्यम बारीक दाना
बम्लेश्वरी      135-140 46-50 बौनी, मोटे दानों वाली
स्वर्णा           140-150 44-45 बौनी, मध्यम दाने                        
4. सिंचित परिस्थितियों हेतु उपयुक्त किस्में 
            आई.आर-36 ,अभया ,आई.आर-64, पूसा बासमती -1 ,क्रान्ति, स्वर्णा .
महामाया ,बम्लेश्वरी ,माधुरी, साली वाहन  आदि।
5. विशेष परिस्थितियों के लिए धान की उपयुक्त किस्में

क्र. परिस्थितियां           उपयुक्त किस्में  
1. गंगई प्रभावित क्षेत्र अभया, महामाया, दन्तेश्वरी, चन्द्रहासिनी, कर्मा मासुरी,
                सम्लेश्वरी, इंदिरा सोना (संकर)
2. ब्लास्ट प्रभावित क्षेत्र अभया, तुलसी, आदित्य, समलेश्वरी, कर्मा मासुरी
3. ब्लाईट प्रभावित क्षेत्र         बम्लेश्वरी
4. करगा प्रभावित क्षेत्र श्यामला, स्वर्णा, महामाया
5. बहरा भूमि         सफरी17, मासुरी, स्वर्णा, बम्लेश्वरी, जलदुबी
6. सूखा प्रभावित क्षेत्र कलिंगा3, अन्नदा, पूर्णिमा, क्रांति, तुलसी, आदित्य
7. सुगधिंत किस्में पूसा बासमती-1, माधुरी, इन्दिरा सुगन्धित-1

मध्यप्रदेश के लिये धान की उपयुक्त किस्मों की विशेषताएँ

किस्म अवधि दाने का प्रकार उपज प्रमुख विशेषताएँ
                     (दिन) (क्विंटल ./हे.)

अति शीघ्र पकने वाली किस्में
कलिंगा-3         75 लंबा पतला 30 ऊँची पतली, सूखारोधी
जे.आर.75 80 मध्यम पतला 30 सूखारोधी
पूर्वा               85 लंबापतला                 30 बौनी,सूखारोधी किस्म
वनप्रभा 95 लंबा पतला 30 ऊँची किस्म, सूखा, झुलसन रोधी
जवाहर-201 100 लंबा पतला 35 बोनी, सूखारोधी
तुलसी 100 लंबा पतला 30 सूखा,तना छेदक, झुलसनरोधी
आदित्य 105 लंबा छोटा 30 बौनी,वर्षा निर्भर खेती हेतु
पूर्णिमा 105 लंबा पतला 30 वर्षा आधारित सीधी बोनी हेतु
अन्नदा 110 छोटा मोटा 35 बौनी, सूखारोधी किस्म
शीघ्र पकने वाली किस्में
जवाहर-353 115 लंबा पतला 35-40 मध्यम ऊँचाई, बारानी खेती
रासी              115 मध्यम पतला 35-40 वर्षा निर्भर खेती के लिये
आई.आर-64 120 लंबा पतला 35-40 रोग प्रतिरोधी सिंचित बंधान युक्त
आई.आर-36 125 लंबा पतला 40-45 रोग प्रतिरोध सिंचित बंधान युक्त
मध्यम समय में पकने वाली किस्में
माधुरी 130 लंबा सुगंधित 35-40 सिंचित बंधान युक्त क्षेत्र
क्रांति 135 मोटा गोल                    50-55 पोहा बनाने हेतु उपयुक्त
पू. बासमती-1 135 लंबा सुगंधित 30-35 सिंचित,बंधान युक्त क्षेत्र
महामाया 140 लंबा मोटा                    50-55 गंगई निरोधक
देर से पकने वाली किस्में
श्यामला 145 लंबा पतला 40-45 बैंगनी रंग, सिंचित क्षेत्र
स्वर्णा 150 लंबा पतला 50-55 बोनी
माहसुरी 150 लंबा पतला 50-55 सिंचित क्षेत्र हेतु।
सफरी-17 155 लंबा पतला 35-40 सिंचित एंव बंधान युक्त क्षेत्र हेतु।
धान की सुगन्धित  किस्में
कस्तूरी: यह किस्म उच्च उपज क्षमता, मिलिंग गुणवत्ता के साथ-साथ झुलसा रोग निरोधक एंव तना छेदक सहनशील है।
तरोरी बासमती: उत्तम गुणवत्ता वाली ऊँची किस्म है।
पूसा बासमती: बोनी किस्म है जिसे पूसा 150 एंव करनाल लोकल के संकरण से निकाला गया है। उच्च उपज उपज क्षमता एंव अच्छे गुणवत्ता वाली होती है।
यामिनी (सी.एस.आर. 30): यह किस्म प्रथम सुगंधित किस्म हैं इसकी उपज सामान्य बासमती किस्मों से 20 प्रतिशत अधिक पाई गई है एंव गुणवत्ता में तरोरी बासमती के समतुल्य है।
पूसा सुगंध -2 (पूसा 2504-1-26): इस किस्म की अवधि 130 दिन है एंव इसकी उपज क्षमता पूसा बासमती से 11 प्रतिशत ज्यादा पाई गई है एंव गुणवत्ता में तरोरी बासमती के समतुल्य हैं। यह किस्म झुलसा रोग के लिए निरोधक है।
पूसा सुगंध -3 (पूसा 2504-1-31): इस किस्म के पकने की अवधि 130 दिन है एंव इसकी उपज क्षमता तुलनात्मक रूम से पूसा बासमती से 17 प्रतिशत ज्यादा पाई गई है एंव झुलसा रोग हेतु सहनशील हैं।

बोआई या रोपाई  सही  समय पर हो  

                   पंडित जवाहर लाल ने कहा था -कृषि यानि खेती किसी चीज का इन्तजार नही कर सकती। इसलिए वर्षा प्रारंभ होते ही बोवाई का कार्य प्रारम्भ का देना चाहिये। जून मध्य जुलाई प्रथम सप्ताह तक का समय धान की बोनी के लिए सबसे उपयुक्त रहता है।बोआई में देरी से कीट व्याधियों का प्रकोप व उपज में गिरावट आती है। रोपाई हेतु नर्सरी में बीज की बोआई सिंचाई उपलब्ध होने पर जून के प्रथम सप्ताह में ही कर देना चाहिये क्योंकि जून के तीसरे सप्ताह से जुलाई मध्य तक की रोपाई से अच्छी उपज प्राप्त होती है। लेही विधि से धान के अंकुरण हेतु 6-7 दिन का समय बच जाता है अतः देरी होने पर लेही विधि से बोनी की जा सकती है।
बीज की मात्रा
अच्छी उपज के लिए खेत और बीज दोनों का महत्वपूर्ण स्थान है। चयनित किस्मों का प्रमाणित बीज किसी विश्वसनीय संस्था से प्राप्त करें। एक बार प्रमाणित किस्म का बीज बोने के 3 वर्ष तक बदलने की आवश्यकता नहीं होती हैं।बीज में अंकुरण 80-90 प्रतिशत होना चाहिये और वह रोग रहित हो। इस तरह से छाँटा हुआ बीज रोपा पद्धति में 30-40, छिड़का एंव बियासी विधि हेतु 100-120 तथा कतार बोनी में 90-100 तथा लेही पद्धति में 30-40 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग किया जाता है। प्रमाणित किस्म के बीज का प्रयोग करने पर नमक के घोल से उपचार  करने की आवश्यकता नहीं होती हैै।

बीज उपचार 

                  खेत में बोआई अथवा रोपाई करने से पूर्व बीज को उपचारित करना आवश्यक है। सबसे पहले बीज को नमक के घोल में डालें। इसके लिए 10 लिटर पानी में 1.6 किलो सामान्य नमक का घोल बनाते हैं और इस घोल में बीज डालकर हिलाया जाता है। भारी एंव स्वस्थ बीज नीचे बैठ जाएँगे और हल्के बीज ऊपर तैरने लगेंगे। हल्के बीज निकालकर अलग कर दे तथा नीचे बैठे भारी बीजों को निकालकर साफ पानी से दो-तीन बार धोएँ व छाया में सुखाएँ। फफूँद एंव जीवाणुनाशक दवाओं के घोल से बीज का उपचार करने से बीजों के माध्यम से फैलने वाले फफूँद एंव जीवाणुजनित रोग फैलने की संभावना नहीं रहती है। इसके लिए बीजों को 2 ग्राम मोनोसाल या थायरम व 2 ग्राम बाविस्टन प्रति किलो ग्राम बीज की दर से उपचारित करके बोनी करें। बैक्टीरियल रोगों की रोकथाम के लिये बीजों को 00.02 प्रतिशत स्ट्रेप्तो  साइक्लिन के घोल में डुबाकर उपचारित करना लाभप्रद रहता है।

धान की खेती की पद्धतियाँ 

               धान के लगभग 25 प्रतिशत क्षेत्र में सुनिश्चित सिंचाई की उपलब्धता है तथा लगभग 55 प्रतिशत क्षेत्र जल-मग्न (जल निकास की सुविधा न होना) एंव शेष भाग में खेती वर्षाधीन है जो उपरभूमि धान के अन्तर्गत आता है। आमतौर पर धान की प्रमुख पद्धतियाँ अग्रानुसार है।
(क) ऊँची मृदाओं में खेती ;न्चसंदके ब्नसजपअंजपवद द्धरू 
भारत में धान की खेती प्रमुख विधि उपरिभूमिखेती है। देश कुल कृषि योग्य भूमि के 60 प्रतिशत भाग में अपनाई जाती है। इससे चावल की कुल उपज का 40 प्र्रतिशत भाग प्राप्त होता है। यह पद्धति वर्षा पोषित क्षेत्रों या असिंचित क्षेत्रों में प्रचलित है। इसमें धान की बुआई निम्न विधियों से की जाती है -
1. छिटकवाँ बोवाई 
2. पंक्तियों में बोवाई हल की पीछे या ड्रिल से की जाती है।
3. बियासी पद्धति: छिटकवाँ विधि से बीज बोकर लगभग एक माह की फसल अवस्था में पानी भरे खेत में हल्की जुताई की जाती है।
(ख) निचली मृदाओं में खेती ;स्वूसंदके बनसजपअंजपवदद्ध रू
1. लेह युक्त मृदाओं में खेती: इसमें बुआई दो विधियों से करते हैं-(अ) लेही पद्धति: धान के बीज को अंकुंिरत करके मचाये हुये खेत में सीधे छिटकवाँ विधि से बोवाई और (ब) रोपाई पद्धति: नर्सरी में पौधे तैयार करके  लगभग एक माह बाद खेत मचाने के बाद कतार में पौधे रोपे जाते हैं।
2. लेह रहित मृदाओं में खेती: इसमें बुआई पंक्तियों में अथवा छिटकवाँ विधि (बियासी) से की जाती हैं।
उन्नत खुर्रा बोनी ;क्तल ैवूपदहद्ध रू
अनियमित एंव अनिश्चित वर्षा के कारण किसी-न-किसी अवस्था में प्रत्येक वर्ष धान की फसल सूखा से प्रभावित हो जाती है। अतः उपलब्ध वर्षा जल की प्रत्येक बूँद का फसल उत्पादन में समुचित उपयोग आवश्यक हो गाया है, तभी सूखे से फसल को बचाया जा सकता है। उन्नत खुर्रा बोनी में अकरस जुताई, देशी हल या टैक्ट्रर द्वारा की जाती है। जून के प्रथम सप्ताह में बैल चलित (नारी हल) या टैक्ट्रर चलित सीड ड्रील द्वारा 20 से.मी कतार-से कतार की दूरी पर धान बोया जाता है।नींदा नियंत्रण के लिए अंकुरण के पूर्व ब्यूटाक्लोर या अन्य नींदानाशक का छिड़काव किया जाता है।
बियासी विधि 
                    प्रदेश में लगभग 80 प्रतिशत क्षेत्र में धान की बुवाई बियासी विधि से की जाती है। इसमें वर्षा आरंभ होने पर जुताई कर खेत में धान के बीज को छिड़क कर देशी हल अथवा हल्का पाटा चलाया जाता है। जब फसल करीब 30-40 दिन की हो जाती है तथा खेतों में 8-10सेमी. पानी भर जाता है तब खड़ी फसल में देशी हल चलाकार बियासी करते हैं। बियासी करने के बाद चलाई समान रूप से करना चाहिए। इस विधि से भरपूर उपज लेने के लिए निम्न बातें ध्यान में रखना चाहिए:
1. खेत में जुताई के बाद उपचारित बीज की बोनी करें तथा दतारी हल चलाकर मिट्टि में हल्के से मिला दें जिससे बीज अधिक गहराई पर न जावे एंव अंकुरण भी अच्छी और एक साथ हो सके।
2. स्फुर और पोटाॅश की पूरी मात्रा तथा नत्रजन की 20 प्रतिशत मात्र बोने के समय डालें।
3. नत्रजन की बाकी मात्रा 40 प्रतिशत बियासी के समय, 20 प्रतिशत बियासी के 20-25 दिन एंव शेष 20 प्रतिशत मात्रा बियासी के 40-50 दिन बाद डालें।
4. पानी उपलब्ध होने पर बुवाई के 30-40 दिनों के अंदर बियासी करना चाहिए तथा चलाई बियासी के बाद 3 दिन के अंदर संपन्न करें।
5. बियासी करने के लिए सँकरे फाल वाले देशी हल या लोहिया हल का उपयोग करें ताकि बियासी करते समय धान के पौधों को कम-से कम क्षति पहुँचे।
6. सघन चलाई: धान की खड़ी फसल में बियासी करने से धान के बहुत से पौधे मर जाते हैं, जिससे प्रति इकाई पौधों की संख्या कम रह जाती है। जबकि अधिकतम उत्पादन के लिए बियासी के बाद खेत में पौधों की संख्या 150-200प्रति वर्गमीटर रहना चाहिए। इसके लिए बोए जाने वाले रकबे के 1/20 वें भााग में तिगुना बीज बोये। चलाई करते समय यहाँ से अतिरिक्त पौधों को उखाड़कर खेत के रिक्त स्थानों में रोपें जिससे प्रति वर्गमीटर क्षेत्र में  कम-से-कम 150-200 पौधे स्थापित हो सकें। ऐसा करने के प्रति वर्गमीटर में कम-से-कम 350-400कंसे प्राप्त हो सकते हैं।
उन्नत कतार बोनी 
                    रोपा विधि में पर्याप्त सिंचाई उपलब्ध न होने तथा बियासी विधि में पौधों के अधिक मर जाने से उत्पादन में कमी होती है, इसलिए धान की कतार में बुवाई करें। इस विधि में बुवाई यंत्रों अथवा देशी हल के पीछे बनी कतारों में सिफारिश के अनुसार उर्वरकों एंव बीज की बुवाई करें। खेतों में अच्छी बतर (ओल) की स्थिति में यंत्रों द्वारा कतार बुवाई आसानी से की जा सकती है। कतार बुवाई हेतु निम्न विधि अपनाते हैं: 
1. अकरस जुताई करें। वर्षा होने के बाद 2-3 बार जुताई करते हैं।
2. तैयार समतल खेत में टैªक्टर चलित सीड ड्रिल, इंदिरा सीड ड्रिल, नारी हल, भोरमदेव या देशी हल के पीछे 20-22सेमी. की दूरी पर कतारों में बीज बोयें।बीज बोने की गहराई 4-5 सेमी. से अधिक न हो।
3. बुवाई के समय सुझाई गई उर्वरकों की मात्रा देवें एंव सीड ड्रिल में दानेदार उर्वरकों का ही उपयोग करें।
4. नत्रजन की 20-30 प्रतिशत मात्रा बोते समय तथा 30 प्रतिशत मात्रा कंसे आते समय (बोने के 30-40दिन बाद) एंव शेष 40 प्रतिशत मात्रा गभोट के 20 दिन पहले (बुवाई के 60-70दिनों बाद) डालना चाहिए। स्फुर व पोटाॅश की पूरी मात्रा बुवाई के समय कतारों में डालें।
5. कतार बुवाई विधि में नींदा नियंत्रण पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। बुवाई के 5 दिनों के अंदर अंकुरण पूर्व नींदानाशी (प्री इमरजेंस हरबीसाइड) का प्रयोग करें। बुवाई के 20-25 दिनों बाद कतारों के बीच निदाई यंत्र से या मजदूरों द्वारा की जानी चाहिए। बुवाई के 30-35 दिनों के अंदर 2,4-डी सोडियम साल्ट 80 डब्ल्यू. पी 0.5 कि.ग्रा. का छिड़काव कतारों के मध्य करें। चैड़ी पत्ती वाले नींदा के नियंत्रण के लिए इथाक्सी सल्फुरान 15 ग्राम सक्रिय तत्व साहलोफाफ बुटाईल 100-120 ग्राम सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर या फेनाक्सीप्राप-पी-इथाइल 90 ग्राम सक्रिय तत्व प्रतिहेक्टेयर छिड़काव करें।
रोपण विधि (ट्रांस्प्लान्टिंग ) 
                इस विधि में धान की रोपाई वाले कुल क्षेत्र के लगभग 1/10 भाग में नर्सरी तैयार की जाती है तथा 20 से 30 दिनों की आयु होने पर खेतों को मचाकर रोपाई की जाती है।सिंचाई की निश्चित व्यवस्था अथवा ऐसे खेतों में जहाँ पर्याप्त वर्षा जल उपलब्ध हो, इस विधि से धान की फसल लगाई जाती है।
रोपणी की तैयारी 
1. खेत की 2-3 बार जुताई कर मिट्टि को भुरभुरी कर लें तथा अन्तिम जुताई के पूर्व 20 गाड़ी (10 टन प्रति हेक्टेयर की दर से )गोबर की खाद या कम्पोस्ट मिलाएँ।
2. खेत को समतल कर करीब एक से डेढ़ मीटर चैड़ी, दस से पंद्रह सेन्टीमीटर ऊँची एंव आवश्यकतानुसार लम्बी क्यारियाँ बनाएँ। एक हेक्टेयर क्षेत्र के लिए 1000 वर्ग मीटर रोपणी पर्याप्त होती है।
3. खेत की ढाल के अनुसार रोपणी में सिंचाई एंव जल निकास नालियाँ बनावें।
4. बनाई गयी क्यारियों मेें प्रति मीटर 40 ग्राम बारीक धान या 50 ग्राम मोटे धान का बीज बीजोपचार के बाद 10 सेंटीमीटर दूरी की कतारों में 2-3 सेंटीमीटर गहरा बोऐं। एक हेक्टेयर क्षेत्र के लिए 40-50 किलो ग्राम बीज पर्याप्त होता है।यदि अंकुरण 80 प्रतिशत से कम हो तो उसी अनुपात में बीज दर बढ़ावें। क्यारियों में बुवाई के बाद बीज को मिट्टि की हल्की परत से ढँक दें।
5. प्रतिवर्ग मीटर नर्सरी में 10 ग्राम अमोनियम सल्फेट या 5 ग्राम यूरिया अच्छी तरह मिला दें।
6. नर्सरी में पानी का जमाव न होने दे परन्तु रोपणी की मिट्टि सदैव नम रखें।
7. यदि रोपणी में पौधे नत्रजन की कमी के कारण पीली दिखाई देवें तो 15 से 30 ग्राम अमोनियम सल्फेट या 7 से 15 ग्राम यूरिया प्रति वर्ग मीटर रोपणी में देवें।
8. रोपाई में विलम्ब होने की संभावना हो तो नर्सरी में नत्रजन की टाप ड्रेसिंग न करें।
9. आवश्यकता होने पर पौध संरक्षण दवाओं का छिड़काव करें। यदि नर्सरी में सल्फर या जिंक की कमी हो तो सिफारिश अनुसार इनकी पूर्ति करें।
10. रोपाई के समय थरहा निकाल कर पौधों की जड़ों को पानी में डुबाकर रखें। रोपणी को क्यारियों से निकालने के दिन ही रोपाई करना उपयुक्त होता है। 
11. रोपणी में यदि खरपतवार हो तो उन्हें निकालने के बाद ही नत्रजन का प्रयोग करें।
धान की रोपाई 
1. यदि हरी खाद लगाई गई हो तो रोपाई के 6-8 दिन पूर्व ही हरी खाद को मिट्टि में हल चलाकर अच्छी तरह से मचाई करें। यदि खेत ऊँचा-नीचा हो तो पाटा चलाकार समतल कर लें। इसी समय उर्वरकों की आधार मात्रा प्रदान करें।
2. रोपाई के पूर्व खेत की अच्छी तरह से मचाई करें। यदि खेत ऊँचा-नीचा हो तो पाटा चलाकार समतल कर लें। इसी समय उर्वरकों की आधार मात्रा प्रदान करें।
3. सामान्य तौर पर धान की रोपणी की उम्र 20 से 30 दिन तक होनी चाहिए। जल्दी पकने वाली धान की रोपाई 20 से 25 दिन के अन्दर करें। मध्यम या देर से पकने वाली किस्मों की रोपणी की उम्र 25 से 30 दिन उपयुक्त होती है।
4. खेत मचाई के दूसरे दिन रोपाई करना ठीक रहता है। यदि रोपाई के समय खेतों में पानी अधिक भरा हो तो अतिरिक्त पानी की निकासी करें।
5. रोपा लगाते समय एक स्थान (हिल)पर 2 से 3 पौधों की रोपाई करें। पौधे सदैव सीधे एंव 2-3 सेमी. गहरे लगावें। कतारों व पौधों के बीच की दूरी 15ग10 या 15ग15 सेमी. शीघ्र पकने वाली किस्मों के लिए और 20ग10 सेमी. मध्यम व देर से पकने वाली जातियों के लिए रखना चाहिए। जहाँ ताउची गुरम (वीडर) का उपयोग करना हो वहाँ 20ग15 सेमी. की दूरी रखना उचित होगा। 
6. पौधे की उम्र 30 दिनों से अधिक हो तो सघन रोपाई कर पौधों की सख्या बढ़ाएँ। निर्धारित मात्रा से 10 प्रतिशतअधिक  नत्रजन का प्रयोग करें।
7. प्रत्येक 3 से 4 मीटर के बाद लगभग 30 सेमी. का रास्ता सस्य कार्य हेतु रखें।
8. धान की मध्यम अवधि की किस्मों का उपयोग करने से धान के बाद संचित मृदा नमी में रबी फसलें भी ली जा सकती है।
धान लगाने की लेही विधि 
                लगातार वर्षा होने अथवा बुवाई में विलम्ब होने से बतर बोनी एंव रोपणी(नर्सरी) की तैयारी करने का समय न मिल सके तो लेही विधि अपनाई जा सकती है।इसमें रोपा विधि की तरह ही खेत की मचाई की जाती है तथा अंकुरित बीज खेत में छिड़क देते है। लेही बोनी के लिए प्रस्तावित समय से 3-4 दिन पूर्व से ही बीज अंकुरित करने का कार्य शुरू कर दें। निर्धारित बीज मात्रा को रात्रि में 8-10 घन्टे भिगोना चाहिए। फिर इन भीगे हुये बीजों का पानी निथार का इन बीजों को पक्के फर्श पर रखकर बोरे से ठीक से ढँक देना चाहिये।लगभग 24-30 घंटे में बीज अंकुरित हो जायेगें। अब बोरों को हटाकर बीज को छाया में फैलाकर सुखाएँ। इन अंकुरित बीजों का प्रयोग 4-5 दिन तक कर सकते हैं।बुवाई के समय खेत में पानी अधिक न रखें अन्यथा बोये गये अंकुरित बीजों के सड़ने की संभावना रहती है। खेत में पानी के निकास की व्यवस्था करें तथा यह ध्यान रखें कि यथासंभव खेत न सूखें।

खाद एंव उर्वरक

                धान फसल में खाद एंव उर्वरकों की सही मात्रा का निर्धारण करने के लिए वहाँ फसल चक्र तथा मिट्टी  परीक्षण से प्राप्त परिणामों की जानकारी होना आवश्यक है। पोषक तत्वों का प्रबंधन इस प्रकार करना चाहिए कि मुख्य अवस्था में फसल को भूमि से पोषक तत्वों की आपूर्ति कम न हो। बोआई व रोपाई को अतिरिक्त दौजी निकलने तथा पुष्प गुच्छ प्रर्वतन की अवस्थाओं में भी आवश्यक पोषक तत्वों की पूर्ति करना चाहिए। धान की एक अच्छी फसल एक हेक्टेयर भूमि से 150-175 किलोग्राम नाइट्रोजन, 20-30 किलोग्राम फास्फोरस, 200-250 किलोग्राम पोटाश तथा अन्य पोषक तत्वों को ग्रहण करती है।रासायनिक तथा जैविक दोनों ही साधनों का उपयोग पोषक तत्वों की आपूर्ति के लिए करने से भूमि की उर्वरा शक्ति टिकाऊ बनी रहती है साथ ही धान की उपज में भी आशातीत बढ़ोत्तरी होती है।
गोबर खाद 
धान की फसल में 5-10 टन प्रति हेक्टेयर अच्छी सड़ी गोबर या कम्पोस्ट खाद का उपयोग करने से महँगे रासायनिक उर्वरकों की मात्रा में 50-60 किलो प्रति हेक्टेयर तक की कटौती की जा सकती है।इसके उपयोग से भूमि के भैतिक, रासायनिक व जैविक गुणों में सुधार होता है।इससे फसल को मुख्य पोषक तत्वों के साथ-साथ द्वितीयक व सूक्ष्म पोषक तत्वों की पूर्ति भी धीरे-धीरे होती रहती है।
हरी खाद 
रोपा विधि से लगाये गये धान में हरी खाद के उपयोग में आसानी होती है। इसके लिये सनई ढे़चा का 25 किग्रा. बीज प्रति हे. की दर से रोपाई के एक माह पूर्व मुख्य खेत में बोना चाहिए। रोपाई से पहले खेत में मचैआ करते समय खड़ी फसल को मिट्टि में अच्छी तरह मिला दें। हरी खाद के प्रयोग से 50-60 किग्रा. प्रति हे. उर्वरकों की बचत की जा सकती है।

उर्वरक देने का समय व विधि 

               स्फुर व पोटाश की पूर्ण मात्रा बुवाई या रोपाई के समय देना चाहिए। यदि बुवाई, बियासी या रोपाई के समय आधार खाद के रूप में स्फुर व पोटाश नहीं डाला गया हो या सिफारिश की गई मात्रा की आधी डाली हो तो पूरी उर्वरक की मात्रा या शेष आधी बियासी या रोपाई के 20-30 दिन के अंदर (खेत में 3-5 सेमी. जल होने पर) देना चाहिए। धान के खेत में नत्रजन विभाजित मात्रा (दूसरी सारणी के अनुसार ) में देना चाहिए।इससे नत्रजन का अच्छी तरह से उपयोग हो सकेगा। 
  धान की फसल के लिए मुख्य पोषक तत्वों की मात्रा (किग्रा. हे.)
क्र. धान की अवधि (दिनों में) नत्रजन स्फुर पोटाश
1. 80-100 40-60 20-40 10-15
2. 101 से 125(बौनी किस्में) 60-80 30-40 15-20
3. 126 से 140 80-100 40-50 20-25
4. 141 से अधिक दिन 
बौनी किस्में 80-100 40-50 20-25
ऊँची किस्में 40-60 20-30 10-15
असिंचित अवस्था में जल उपलब्धता के अनुसार उर्वरकों की संस्तुत मात्रा को 20-30 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है। यदि हरी एंव जैविक खाद का उपयोग किया गया है तो 20-25 प्रतिशत नत्रजन का उपयोग कम किया जा सकता है।
धान में नत्रजन देने का समय
फसल की अवस्था धान पकने की अवधि
                          शीघ्र तैयार होने वाली मध्यम अवधि          देर से तैयार होने वाली
                         नत्रजन(%) उम्र(दिन)          नत्रजन(%) उम्र(दिन)           नत्रजन(%) उम्र(दिन)
बियासी विधि
1. बुवाई 0            0                   10-20           0                    0              0
2. बियासी 30            20                  30-40     25-30                   25      25-30
3. कंसे 45 35-45 20         40-50                   40       45-75
4. प्रारंभिक गभोट 25 50-60 20-30      60-70                   35       65-75
कतार बोनी
1. बुवाई 30 0 20            0                        25          0
2. कंसे 45 35-45 50 40-50                     40      45-55
3. प्रारंभिक गभोट 25 50-60 30 60-70                     35      65-75
रोपाई विधि
1. रोपाई - - 30 20-25                    25       20-25
2. कंसे - - 40 40-50                    40       45-55
3. प्रारंभिक गभोट      - - 30 60-70                    35       65-75

नत्रजन उपयोग दक्षता  बढ़ाने के उपाय 

              नत्रजनयुक्त उर्वरकों में किसान यूरिया का प्रयोग ही करते हैं। धान के खेत में जलभराय के कारण यूरिया की क्षमता नाइट्रीकरण, विनाइट्रीकरण एंव वाष्पीकरण के कारण कम हो जातती है। यूरिया से प्राप्त अमोनिकल नाइट्रोजन का ह्यस कम करने तथा नाइट्राइट बनने से रोकने के हल्की गीली मिट्टि 6 भाग को, एक भाग यूरिया के साथ मिलायें। मिट्टि सूखी हो तो बारीक कर यूरिया मिलायें व पानी छिड़ककर हल्का गीला करें एंव इस मिश्रण को 2-3 दिन तक छाँव में रखें। इससे यूरिया की नत्रजन अमोनियम में बदल जाती है और कुछ हद तक नत्रजन का स्थिरीकरण हो जाता है। अधिक वर्षा होने या ज्यादा पानी भरे खेतों में डालने से नत्रजन का खेत में रिसाव द्वारा नुकसान नहीं हो पाता जिससे नत्रजन की उपलब्धता अधिक समय तक बनी रहती है।अधिक पानी भरे खेत में या लगातार वर्षा के समय यूरिया नहीं डालना चाहिए।
मिट्टि के मिश्रण से उपचारित यूरिया के अलावा नीम की खली व कोलतार मिश्रण से भी यूरिया को उपचारित कर इसकी उपयोग दक्षता बढ़ाई जा सकती है। नत्रजन की सम्पूर्ण मात्रा उपचारित यूरिया के द्वारा आधार खाद के रूप में दें। सावधानी के लिए 80 प्रतिशत उपचारित यूरिया खेत की आखरी मचाई के बाद डाले व पाटा लगाकर रोपाई करे तथा बियासी विधि में उपचारित यूरिया चलाई के बाद दें। शेष 20 प्रतिशत यूरिया 25-40 दिन के बाद उपयोग करें।कन्हार एंव डोरसा मिट्टि में इस तरीके से नत्रजन की क्षमता बढ़ जाती है। हल्की मिट्टियों में यूरिया 3 से 4 भागों में विभाजित कर डालें।
बड़े कारगर है सूक्ष्म पोषक तत्व 
देश की अधिकांश धनहा मिट्टियों में जस्ते की कमी के लक्षण दिखते हैं जैसे खेत में कहीं-कहीं फसल की बढ़वार रूक जाना। निचली पत्तियों में शिराओं के बीच पीला पड़ जाना एंव अधिक पीला पड़ने पर अग्रभाग में भूरे धब्बे दिखाई देना। इससे बीच की पत्तियों का रंग लाल-भूरा हो जाता है जो कि तनों तक फैल जाता है।जस्ते की कमी को दूर करने के लिए धान के बीच को 2.5 प्रतिशत जिंक सल्फेट के घोल में 10 घंटे या रात भर पानी में भिगोकर रखें। इसके लिए 20 लीटर पानी में 500 ग्राम जिंक सल्फेट का घोल प्रयोग करें अथवा 1000 वर्ग मीटर रोपणी में 2.5 किलोग्राम जिंक सल्फेट बुवाई के पहले मिट्टि में मिला देना चाहिए। छिड़कवाँ या कतार बोनी विधि से बोए गए धान में 25 किलोग्राम/हेक्टेयर के हिसाब से जिंक सल्फेट खेत की तैयारी या बियासी के समय देना लाभकारी पाया गया है।  
धान की खड़ी फसल में भी जस्ते का छिड़काव किया जा सकता है। एक किलो जिंक सल्फेट को 190 लीटर पानी में घोलें। इसके बाद 500 ग्राम चूने को 10 लीटर पानी में मिलाकर 15 मिनट तक पानी को स्थिर होने पर ऊपर के साफ पानी को जिंक सल्फेट के घोल में मिलाकर छिड़काव करें।
धान की बेहतर उपज के लिए जैविक उर्वरको का उपयोग 
धान में जैविक उर्वरक जैसे नील हरित काई, एजोस्पाइरिलम एंव पी. एस. बी. कल्चर आदि का प्रयोग लाभकारी होता है।
1. नील हरित काई: नील हरित काई धान फसल के लिये प्रकृति प्रदत्त अमूल्य जैविक खाद है। इसका उपयोग प्रायः धान के उन खेतों में करें, जिनमें पानी भरा रहता है।इससे लगभग 25 किलोग्राम नत्रजन प्रति हेक्टेयर के हिसाब सेधान की फसल को मिलती है जिससे लगभग 50-60 कि.ग्रा. यूरिया खाद की बचत हो जाती है।साथ-ही-साथ लगभग 10 क्विंटल कार्बनिक पदार्थ प्रति हेक्टेयर भी प्राप्त होता है, जो पूरे फसल चक्र के लिये मृदा में अनुकूल सुधार करता है।
धान की रोपाई अथवा बियासी और चलाई के 5-6 दिन बाद 5-8 सेमी. खड़े एंव स्थिर पानी में 10 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर के हिसाब से नील हरित क्रांति कल्चर का छिड़काव करें। खेत का पानी बहकर बाहर न जाये,इसका प्रबंध  कल्चर छिड़काव के पहले ही कर लें। स्फुर तथा सूर्य के प्रकाश की पर्याप्त उपलब्धता नील हरित काई की वृद्धि में बहुत अधिक सहायक होती है। नील हरित काई में एनाबीना, नोस्टाक, रिबूलेरिया, केलोथ्रिक्स, साइटोनेमा जाति की ऐसी प्रजातियाँ, जिनमें हेटेरोटिस्ट कोशाओं की संख्या अधिक हो,से बना कल्चर फसलों के लिये ज्यादा लाभदायक होता है, क्योकि ऐसी प्रजातियाँ प्रायः वायुमण्डलीय नत्रजन की अधिक मात्रा एकत्र करती हैं।
2.एजोस्पाइरिलम: यह असहजीवी जीवाणु मृदा में स्वतंत्र रूप से निवास करते हुए वायुमण्डलीय नत्रजन को इकट्ठा कर पौधों देता है। यह कल्चर उन फसलांें के लिये विशेष रूप से उपयुक्त है, जिनहें जल भराव वाली या अधिक नमी युक्त भूमि में उगाया जाता है। शोध परिणामों से यह देखा गया है कि एजोस्पाइरिलम के प्रयोग से 10 प्रतिशत तक धान फसल की उपज में वृद्धि प्राप्त की जा सकती है।
3. स्फुर घोलक जीवाणु (पी. एस. बी.) कल्चर: स्फुरधारी उर्वरकों का प्रायः 5 से 25 प्रतिशत भाग ही पौधे उपयोग कर पाते है, शेष मात्रा मृदा में अघुलनशील अवस्था में रहती है जो पौधों के लिये अनुपयोगी हो जाती है। स्फुर घोलक जीवाणु कल्चर अघुलनशील स्फुर को घोलकर पौधे को उपलब्ध कराने की क्षमता रखता है। इसके प्रयोग से लगभग 60-70 कि.ग्रा. तक सिंगल सुपर फाॅस्फेट बचाया जा सकता है या 3 से 7 प्रतिशत तक फसल की उपज में वृद्धि प्राप्त की जा सकती है।
उतेरा फसल पद्धति में उर्वरक उपयोग: असिंचित अवस्था में धान के खेत में उतेरा फसल लेने का प्रचलन है। धान की खड़ी फसले में कटाई के 15-20 दिन पहले उतेरा के रूप में तिवड़ा, बटरी, अलसी, चना, मसूर, उड़द, आदि फसलों की बोआई की जाती है। जिन क्षेत्रों में यह पद्धति अपनाई जाती है वहाँ धान की फसल में निर्धारित उर्वरकों के अलावा 20 किग्रा. स्फुर प्रति हेक्टेयर का उपयोग करना फायदेमंद रहता है।

धान फसल के असली दुष्मन :खरपतवार 


खरपतवार वे पौधे हैं, जों बिना चाहे खेत में फसल के साथ उगते हैं। धान के खेतों में मुख्यतः सांवा, मोथा, दूब, कनकउआ, करगा(जंगली धान) आदि खरपतवार बहुआ उग आते है जो कि फसल के साथ पोषक तत्वों, नमी, प्रकाश, एंव स्थान हेतु प्रतिस्पर्धा कर फसल को कमजोर कर देते हैं जिससे उत्पादन व गुणवत्ता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। ऊँची भूमि वाले धान (बियासी और कतार बोनी) में 30-90 प्रतिशत, निचली एंव जलमग्न भूमि(लेही में) 30-50 प्रतिशत तथा रोपा पद्धति में 15-20 प्रतिशत उपज में क्षति खरपतवारों द्वारा होती है। समय पर नींदा नियंत्रण से धान की पैदावार में बढोत्तरी की जा सकती है।

धान की विभिन्न पद्धतियों में खरपतवार नियंत्रण

             धान की उपज पर खरपतवारों के प्रतिकूल प्रभाव को समाप्त करना अथवा कम-से-कम करना ही खरपतवार नियंत्रण का मुख्य उद्देश्य है। खरपतवार रहित वातावरण उत्पन्न करने धान की विभिन्न अवस्थाओं या बोने की विधि के अनुसार खरपतवार नियंत्रण किया जाना चाहिए।
नर्सरी: बतर स्थिति में थरहा (नर्सरी )डालने के 3-4 दिन के अंदर ब्यूटाक्लोर या थायोबेनकार्प 1-1.5 कि./हे. या आक्साडार्यजिल 70-100 ग्राम/हे. या प्रिटिलाक्लोर +सेफनर 500 ग्राम/हे. सक्रिय तत्व का छिड़काव करें।
कतार बोनी: अकरस (सुखे खेत  में ) जुताई करें। वर्षा होने पर वर्षा के 5-6 दिन बाद फिर जुताई करें तथा बतर (ओल) आने पर कतार में धान की बुवाई करें। बुवाई के 3-4 दिन के अंदर ब्यूटाक्लोर या पेण्डीमेथीलिन या थायाबेनकार्प 1-1.5कि./हे. सक्रिय तत्व का छिड़काव करें। बुआई के 30-35 दिन बाद कतारों के बीच पतले हल द्वारा जुताई करें या हाथ से निदांई करें। धान का अंकुरण होने के 14-20 दिन में यदि सांवा तथा सकरी पत्ती वाले खरपतवारों का प्रकोप अधिक हो तो फिनाक्साप्राप या फिनाक्साप्राप या साहलोफास 80 ग्राम/हे. तथा चैडी पत्ती वाले खरपतवारों के नियंत्रण के लिये इथाॅक्सीसल्फयूरान 15 ग्राम/हे. सक्रिय तत्व का उपयोग किया जा सकता है।
बियासी विधि: इस पद्धति में धान की बुवाई दो परिस्थितियों में की जाती है (1) वर्षा से पहले  जमीन तैयार कर सूखे खेत में ही धान का छिड़काव कर हल द्वारा जमीन में मिलाया जाता है। छत्तीसगढ़ में अधिकतर क्षेत्र में धान इसी पद्दति से लगाया जाता हे। (2) वर्षा आरंभ होने पर जमीन की तैयारी कर बतर की स्थिति में बीज की बुवाई की जाती है। अतः जब बुवाई सूखी भूमि में की जाती है तब प्रथम वर्षा के 3-4 दिन के अंदर ब्यूटाक्लोर या थायोबेनकार्प 1-1.5 कि./हे. या प्रिटीलाक्लोर $ सेफनर 500-700 ग्राम/हे. सक्रिय तत्व का छिड़काव भूमि में नमी रहते करें। बतर स्थिति में बुवाई किये गये धान में बोने के 3-4 दिन के अंदर उपरोक्त शाकनाशियों में से किसी एक छिड़काव करेें। चलाई करते समय खरपतवारो को जमीन में दबा दें। आवश्यकतानुसार बियासी से 25-30 दिन बाद एक बार हाथ से निंदाई कर सकते हैं।
रोपा विधि: अच्छी मचाई तथा खेत में पानी रखना खरपतवार प्रकोप कम करने मेें सहायक होता है। रोपा लगाने के 6-7 दिन के अंदर एनीलोफाॅस 400-600 मि.ली. प्रति हेक्टेयर या ब्यूटाक्लोर या थायोबेनकार्प या पेण्डीमेथालीन 1-1.5 कि./हे. सक्रिय तत्व का प्रयोग करे। धान अंकुरण होने के 14-20 दिन मं यदि सांवा तथा सकरी पत्ती वाले खरपतवारों के नियंत्रण के लिये इथाक्सीसल्फयूरान 15 ग्राम/हे. या क्लोरिम्यूरान $ मेटासल्फयूरान 4 ग्राम/हे. सक्रिय तत्व का छिड़काव करें। खरपतवार नियंत्रण होता है वरन भूमि में इस समय डाले गये उर्वरक मुख्यतः नत्रजन की उपलब्धता धान के पौधे को ज्यादा मात्रा में होती है। यदि तावची गुरमा न हो हाथ से निंदाई करे।
लेही पद्धति: लेही पद्धति में जिस तरह से रोपा लगाने के पहले भूमिकी तैयारी की जाती है, उसी                                           तरह इस पद्धति में भी खेत की मचाई करे। भूमि में बहुत हल्का पानी रखे व अंकुरित बीज का छिड़काव करे। लेही डालने के 8-10 दिन बाद ब्यूटाक्लोर या थायोबेनकार्प 1-1.4 कि./हे.या एनीलोफास 400-600 मि.ली./हे. या 20 बाद क्लोरिम्यूरान + मेटासल्फयूरान 4 ग्राम/हे. सक्रिय तत्व का छिड़काव करें। लेही डालने के 30से 35 दिन बाद बियासी करना उत्तम होता है तथा बियासी के 3 दिन के अंदर चलाई अवश्य करें।
करगा नियंत्रण: प्रमाणित बीजों का उपयोग करे। करगा प्रभावित खेतों में बैंगनी पत्ती वाली किस्मों के धान (श्यामला) की खेती लगातार दो या तीन वर्ष करे। करगा छँटाई कम-से-कम 3 बार करे। खेतों के पास गड्ढ़ों अथवा तालाबों में लगे पसहर धान (जंगली) के पाधों का उन्मूलन करना भी आवश्यक है। 

धान में आवश्यक है सही जल प्रबंधन 

                धान फसल को अधिक पानी की आवश्यकता होती है। धान की फसल में वर्षा न होने या कम होने पर जब मृदा में नमी संतृप्त अवस्था से कम होने लगे (मिट्टि में हल्की दरार पड़ने लगे) तो सिंचाई करना आवश्यक रहता है। जल माँग भूमि के प्रकार, मौसम, भू-जल स्तर तथा किस्मों की अवधि पर निर्भर करता है। भारी से हल्की मिट्टि में लगभग 1000 मिमि. से 1500 मिमि. तक पानी लगता है। जल आवश्यकता बढ़ाने में मुख्य रूप से निचली सतहों तक रिसने वाले जल का अधिक योगदान है जो मृदा की किस्म तथा मौसम पर निर्भर करता है। यह हानि कुल आवश्यक जल करीब 30-50 प्रतिशत तक होता है।वर्षाकाल में जल की पूर्ति वर्षा से हो जाती है। वर्षा शीघ्र समाप्त होने पर सिंचाई जल की आवश्यकता पड़ती है। धान कुल जल आवश्यकता का लगभग 40प्रतिशत भाग बीज अंकुरण से कंसा बनने की अवस्था तक, 50 प्रतिशत गर्भावस्था से दूध भरने तक तथा 10 प्रतिशत फसल के पक कर तैयार होने तक लगता है। सबसे अधिक जल का उपयोग कुल जल आवश्यकता का लगभग 25 प्रतिशत गभोट अवस्था में होता।धान में कंसा विकास,गभोट, फूल आने और दाना बनते समय खेत में पानी की कमी हाने से उत्पादन प्रभावित होता है।
असिंचित धान फसल में जल प्रबंधन 
                छिटकवाँ या कतार विधि से धान की बोनी करने के बाद जब पौधे बढ़कर लगभग 5 सेमी. हो जाये तब खेत की मुही बाँधकर उसमें छापल या हल्का (1-3 सेमी.) जल स्तर रखें जिससे खरपतवार अधिक न पनपे व धान की बाढ़ पर भी विपरीत प्रभाव पड़े। पौधे जैसे-जैसे बढ़ते हैं पानी का स्तर 5-7 सेमी. तक बढ़ाये जायें एंव ध्यान रखें कि धान के पौधे पानी में न डूबे। जब धान 25-30 दिन की हो जाय तो भरे हुए पानी का उपयोग बियासी के लिए करें तथा ज्यादा पानी न भरें। कंसा अवस्था खत्म होने पर गभोट की अवस्था शुरू होती है। इस समय खेत की मुही बाँधकर 8 से 10 सेमी. वर्षा जल संग्रहण करें। अधिक वर्षा होने पर खेतों से अतिरिक्त पानी की निकासी करते रहें। वर्षा निर्भर क्षेत्रों में डबरियों में जल संग्रहण का कार्य अवश्य करें तथा इस पानी का उपयोग आवश्यकतानुसार बियासी तथा बाद की सिंचाई के लिए किया जा सकता है।असिंचित अवस्था में भी थरहा पद्धति अपनाई जा सकती है। तैयार खेतों में रोपणी डालने का कार्य शीघ्र करें। जहाँ रोपा लगाना है उन खेतों को जोतकर पानी संग्रह करें। थरहा तैयार होने पर खेत को मचाकर थरहा लगावें तथा बोता धान में बियासी की तरह जल प्रबंध करना चाहिए।  
रोपा विधि में जल प्रबंधन 
रोपा लगाने के समय मचाये गये खेत  में 1-2सेमी.से अधिक पानी न रखें कि रोपा लगाने के बाद मचाया हुआ  खेत सूखने न पावे। रोपाई के बाद एक सप्ताह तक खेत में पानी का स्तर 1-2सेमी. से रोपित पौधे जल्दी स्थापित हो जाते है। पौधे स्थापित होने के बाद कंसे फूटने की अवस्था पूर्ण होने तक उथला जल स्तर 5-7सेमी. तक बनाये रखें। अधिक वर्षा होने पर 5-7 सेमी. से अधिक जल को खेत से निकाल देना चाहिए।
देशी (ऊँची) किस्म की धान में कंसे फूटने की अवस्था पूर्ण होने से लेकर गभोट की अवस्था या बाल निकलने की अवस्था तक उथला जल स्तर 5-7 सेमी. रखें। बालियाँ निकलने के बाद खेत में उथला जल स्तर या खेत को पूर्ण रूप से गीली अवस्था में रखा जा सकता है। गभोट की अवस्था से दाना भरने की अवस्था तक पानी की कमी नहीं होनी चाहिये। कमी होने पर सिंचाई करें।
जल निकास 
खेतों में पानी बहता रहे तो जल निकास आवश्यक नहीं है। अगर खेतों का पानी स्थिर है और काफी समय से रूका हुआ है तो पूर्ण कंसे निकलने की अवस्था के बाद और फूल आना समाप्त होने के तुरंत बाद जल निकास लाभदायक होता है। जल निकास के बाद खेत को सूखने न दें तथा सिंचाई द्वारा फिर पानी भर दें।

फसल चक्र 

                   किसी निश्चित भूखण्ड पर एक निश्चित अवधि तक फसलों को इस तरह हेर-फेर कर उगाना, जिससे भूमि की उर्वरा-शक्ति का ह्यस न हो, फसल चक्र या फसल-क्रम कहलाता है। वैदिककालीन कृषकों को भी यह भली-भाँति मालूम था, कि फसलों को उदल-बदलकर चक्रीय क्रम में उगाने से मृदा की उर्वरता में अभिवृद्धि होती है। वैसे तो सुनिश्चित सिंचाई तथा अनुकूल तापमान पर वर्ष में धान की 2-3 फसलें आसानी से ली जा सकती है  परन्तु लगातार धान उगाते रहने से भूमि की उर्वरा शक्ति क्षीण होने के साथ-साथ विशेष प्रकार के घास-पात, कीट-बीमारियों से फसल ग्रसित हो जाती है जिससे उपज व गुणवत्ता में कमी आने लगती है। इसलिए फसलों को हेर-फेर कर बोने से भूमि एंव किसान दोनों को ही फायदा होता है। धान के फसल चक्र में दलहनी फसलों का समावेश एंव फसल अवशिष्टों को मिट्टि में मिलाना आदि पहलुओं पर ध्यान देना अति आवश्यक है। जहाँ सिंचाई की सुविधाँ है, वहाँ धान के साथ अन्य फसलें उगाई जा सकती हैं। अतः गेहूँ , आलू , तोरिया, बरसीम, गन्ना, सूर्यमुखी आदि को सफलतापूर्वक सघनता के साथ उगाया जा सकता है। वर्षा आधारित क्षेत्रों में, जहाँ जल निकास सुविधाएँ तथा भूमि की जल-धारण क्षमता अच्छी है, वहाँ धान के बाद दलहनी फसलों जैसे चना एंव मसूर का समावेश जल-धारण क्षमता अच्छी है, वहाँ धान के बाद दलहनी फसलों जैसे चना एंव मसूर का समावेश किया जा सकता है। प्रदेश में खेत की परिस्थिति के अनुसार निम्न फसल चक्र अपनाये जा सकते हैं।

कटाई कब और कैसे 

धान की विभिन्न किस्में लगभग 100-150 दिन में पक जाती हैं।बालियाँ निकलने के एक माह पश्चात् धान पक जाता है। जब दाने कड़े हो जायें तो फसल काट लेना चाहिए। दाने अधिक पक जाने पर झड़ने लगते है और उनकी गुणवत्ता में दोष आ जाता है। फसल काटने के 1-2 सप्ताह पूर्व खेत को सूखा लेना चाहिए जिससे पूर्ण फसल एक समान पक जाय। कटाई हैसिये या शक्तिचालित यंत्रों द्वारा की जाती है।
धान के बंडलों को खलियान में सूखने के लिए फैला देते हैं और बैलों द्वारा मडाई करते हैं।तत्पश्चात् पंखे की सहायता से ओसाई की जाती है। पैर से चलाया जाने वाला जापानी पैडी थ्रेसर का प्रयोग भी किया जाता है।
उपज एंव भंडारण: धान की देशी किस्मों से 25-30 क्विंटल /हे. छिटकवाँ धान से 15-20 क्विंटल ./हे. तथा धान की बौनी उन्नत किस्मों से 50-80 क्विंटल /हे. उपज प्राप्त की जा सकती है।धान को अच्छी तरह धूप में सूखा लेते हैं तथा दोनों में 12-13 प्रतिशत नमी पर हवा व नमी रहित स्थान पर भंडारण किया जाना चाहिए। धान को कूटकर चावल तैयार किया जाता है। धान कूटने वाले यंत्र को  पावर राइस हलर कहते हैं।इससे 66-67 प्रतिशत चावल प्राप्त होता है।जबकि हाथ से कूटने पर 70 प्रतिशत चावल प्राप्त होता है। प्रायः छिलके और चावल का अनुपात 1:2 का होता है।
नोट: सभी पाठको से निवेदन हे की अपने क्षेत्र विशेष की अनुसंशा के अनुरूप कृषि कार्य करें। कुछ कीटनाशक दवाओं  के उपयोग एवं विक्रय पर सरकार द्वारा रोक लगा दी जाती हे। अतः राजकीय कृषि बिभाग के अधिकारिओ से संपर्क कर अनुसंसित कीटनाशको या अन्य दवाओं की पुष्टि अवश्य कर लें। कृषि उपज को प्रभावित करने वाले प्राकृतिक और अन्य कारक  होते हें जिसके कारण उपज प्राप्त करने का कोई ठोस दावा नही किया जा सकता है।

काबुली चने की खेती भरपूर आमदनी देती

                                                  डॉ. गजेन्द्र सिंह तोमर प्राध्यापक (सस्यविज्ञान),इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषि महाव...