गुरुवार, 24 दिसंबर 2015

प्रधानमंत्री का आह्वान : खेत के पांचवे हिस्से में करें दलहनों का उत्पादन

डाॅ.गजेन्द्र सिंह तोमर, साक्षी तिवारी बजाज एवं मधुलिका सिंह
   सस्यविज्ञान विभाग
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर

भारत में दाल-रोटी अथवा दाल-चावल से गुजारा करने वाले गरीबों  की थाली से अब दाल गायब होती जा रही है। दाल रोटी खाओं-प्रभु के गुण गाओं के जुमले की जगह अब गरीबों और माध्यम वर्गीय परिवारों के लिए नोंन  रोटी खाओं फिर भी प्रभु के गुण गाओं जैसी कहावत प्रासंगिक हो गई है।  दरअसल एक तो मानसून की बदमिजाजी, कीट-रोग आक्रमण के कारण दलहनों की सीमित पैदावार ऊपर से देश में उपलब्ध दाल से अधिकतम कमाने  लालसा के चलते व्यापारी एवं बिचोलिए दाल की जमाखोरी एवं कालाबाजारी का अवैध खेल खेलने लग जाते है जिसका सीधा असर गरीब व मध्यम वर्गीय परिवारों  पर पड़ता है। आसमान छूती मंहगाई के  कारण अब दालों  की खपत निरन्तर धटती जा रही है जिससे लोग कुपोषण एवं अन्य स्वास्थ्यजनक बीमारियों का शिकार होते जा रहे है। दलहन न सिर्फ शाकाहारी बल्कि मांसाहारियों के लिए भी प्रोटीन का सबसे सुलभ, सस्ता एवं व्यवहारिक स्त्रोत  था । इन दिनों तेजी से बढ़ रही महंगाई ने मुर्गी और दाल को बाजार में बराबर कर दिया है। दोनों का दाम बराबरी पर पहुंच जाने से मांसाहार के शौकीन दाल की जगह मुर्गा खाना बेहतर समझ रहे। दाल और मुर्गी के दाम में तुलना करने के बाद लोग चुटकी ले रहे हैं- तब घर की मुर्गी दाल बराबर थी, अब बाजार में मुर्गी और दाल बराबर हो गई है। अब बेचारे मध्यम वर्गीय शाकाहारी परिवारों के पास कोई विकल्प शेष नहीं बचा क्योंकि हरी सब्जियाँ भी उनकी पहुँच से बाहर है।

भोजन में दालों  का महत्व             

दाल-रोटी अथवा  दाल-चावल की जीवन शैली को  अपनाने वाली भारत की अधिकांश जनसंख्या शाकाहारी है । प्रोटीन का प्रमुख स्त्रोत होने के साथ ही दालें विभिन्न खनिज लवणों , कार्बोहाइड्रेटस, भस्म व विटामिन आदि की पूर्ति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। दालों का घटता हुआ उपभोग भारत के लिए खतरे की घंटी है क्योंकि भारत चीन की तरह कार्बोहाइट्रेट के ज्यादा और प्रोटीन के कम उपभोग के कारण मधुमेह के रोगियों की राजधानी के रुप में विकसित हो रहा है। भारतीय कृषि पद्धति में भी दालों की खेती का महत्वपूर्ण स्थान है। दलहनी फसलें भूमि को आच्छाद प्रदान करती है जिससे भूमि का क्षरण कम होता है। दलहनी फसलों  की जड़ों  में एक विशेष प्रकार की गांठे (नोड्यूल्स) पाये जाते है जो कि वातावरण में उपलब्ध नत्रजन को  भूमि में स्थिरीकरण का कार्य करती है जिससे मृदा उर्वरता और  फसल की उत्पादकता बढ़ती है। इनकी जड़ प्रणाली मूसला होने के कारण कम वर्षा वाले शुष्क क्षेत्रों में भी इनकी खेती सफलतापूर्वक की जाती है। इन फसलों के दानों के छिलकों में प्रोटीन के अलावा फाॅस्फोरस अन्य खनिज लवण काफी मात्रा मं पाये जाते है जिससे पशुओं और मुर्गियों के महत्वपूर्ण रातब  के रूप में इनका प्रयोग किया जाता है। दलहनी फसलें हरी खाद के रूप में प्रयोग की जाती है जिससे भूमि में जीवांश पदार्थ  तथा नत्रजन की मात्रा में बढ़ोत्तरी होती है। दालो के अलावा इनका प्रयोग मिठाइयाँ, नमकीन आदि व्यंजन बनाने मे किया जाता है। इन फसलों की खेती सीमान्त और कम उपजाऊ भूमियों मे की जा सकती है। कम अवधि की फसलें होने के कारण बहुफसली प्रणाली  मे दलहनों  का महत्वपूर्ण योगदान है जिससे अन्न उत्पादन बढ़ाने में दलहनी फसलें सहायक सिद्ध हो रही है। यही नहीं दलहन की खेती पर्यावरण-संरक्षण के लिहाज से भी अत्यंत उपयोगी है। अनुमानों के मुताबिक एक किलोग्राम मांस के उत्पादन में एक किलोग्राम दाल के उत्पादन की तुलना में पाँच गुना कम पानी लगता है। इसके अतिरिक्त एक किलोग्राम दाल के उत्पादन में 0.5 किलोग्राम कार्बनडाय आक्साइड का उत्सर्जन होता है जबकि 1 किलोग्राम मांस के उत्पादन में 9.5 किलोग्राम कार्बनडाय आॅक्साइड का का उत्सर्जन वातावरण में होता है।
अन्तराष्ट्रीय दलहन वर्ष

प्रोटीन शक्ति एवं स्वास्थ्य में दालों के महत्व, दलहनों  की खेती एवं व्यवसाय तथा दालों  का भोजन में महत्त्व  से संबंधित विश्व भर में जनजागुरकता पैदा करने के  उद्देश्य से वर्ष 2016 को संयुक्त राष्ट्र संघ ने अन्तराष्ट्रीय दलहन वर्ष घोषित किया है। तो  आईये हम सब भारतवासी वर्ष 2016 से जन-जन को   प्रोटीन शक्ति से तरो ताजा एवं स्वास्थ्यवर्धक बनाने में अपना योगदान देने में अग्रणी भूमिका अदा करें।
भारत के  प्रधानमंत्री की चिन्ता
                भारत के  लोकप्रिय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के नारे ‘जय जवान, जय किसान’ को दोहराते हुए किसानों से कहा, ‘‘देश में दलहनों की पैदावार बहुत कम है और मैं किसानों से अपील करता हूं कि यदि उनके पास पांच एकड़ जमीन है तो वे कम से कम एक एकड़ यानी खेती के पांचवे हिस्से में दलहनों की खेती करें।’’ उन्होंने कहा कि दलहनों का उत्पादन बढ़ने से इसकी आपूर्ति बढ़ाने में मदद मिलेगी और आयात पर निर्भरता कम होगी। गौरतलब है कि इस साल दलहन का उत्पादन निर्धारित लक्ष्य से 20 लाख टन कम हुआ है। कृषि मंत्रालय द्वारा जारी उत्पादन से संबंधित आकड़ों के मुताबिक वर्ष 2014-15 में 1 करोड़ 70 लाख टन दलहन का उत्पादन हुआ जो कि बीते दो सालों की तुलना में भी कम है।  दलहन का उत्पादन आवश्यकता से कम होने के  कारण भारत को हर साल आयात पर एक बड़ी रकम खर्च करनी पड़ती है । वर्ष 2012-13 में देश में कुल 40.2 लाख टन दाल का आयात किया गया । जबकि 2013-14 में घरेलू बाजार में 30.4 लाख टन दाल विदेशों से आयात किया गया लेकिन इस वर्ष खराब मानसून के  कारण दलहन उत्पादन काफी कम होने की आशंका है । ऐसे में आयात का आंकड़ा 55 लाख टन तक पहुंच सकता है । भारत कनाडा, ऑस्ट्रेलिया म्यानामार और अफ्रीकी देशों से दाल का आयात करता है ।
भारत में प्रति व्यक्ति दाल की उपलब्धता
                 भारत वैश्विक दलहन उत्पादन, उपभोग और आयात के मामले में दुनिया में शीर्ष पर है. । वैश्विक दलहन के उत्पादन में भारत की हिस्सेदारी 25 प्रतिशत की है जबकि उपभोग में 27 प्रतिशत की और आयात में 14 प्रतिशत की भागीदारी है। वर्ष 1971 में प्रति व्यक्ति दाल की उपलब्धता देश में 51.1 ग्राम प्रतिदिन थी जो साल 2013 में घटकर 41.9 ग्राम प्रतिदिन रह गई । विश्व स्वास्थ्य संगठन के  अनुसार दाल की उपलब्धता 80 ग्राम प्रति दिन प्रतिव्यक्ति होना चाहिए। परन्तु दालों की कीमतों  में लगातार आई तेजी ने आम आदमी की थाली से दाल गायब कर दी है। सुपोषित एवं स्वस्थ्य भारत के  लिए प्रति व्यक्ति दालों  की उपलब्धता बढ़ाना अत्यन्त आवश्यक है।

भारत में दलहन उत्पादनः वर्तमान एवं भविष्य

  
              दलहन के उत्पादन, आयात और उपभोग से संबंधित अध्ययन से ज्ञात ह¨ता है कि निकट भविष्य में देश दलहन के मामले में आत्मनिर्भरता हासिल करना चुनौती भरा कार्य है। एक अनुमान के  अनुसार वर्ष 2030 तक भारत की आबादी के 1.68 अरब होने का अनुमान हैं और बढ़ी हुई इस आबादी के लिए 32 मिलियन टन दाल की सालाना जरुरत होगी। इस जरुरत को पूरा करने के लिए दलहन के उत्पादन का मौजूदा रकबे (ढाई करोड़ हैक्टेयर) में 30-50 लाख हैक्टेयर का इजाफा करना पड़ेगा और मौजूदा उत्पादन (764 किग्रा. प्रतिहैक्टेयर) को लगभग दोगुना (1361 किग्रा. प्रति हैक्टेयर) करना होगा। लेकिन देश में दलहन के उत्पादन के बीतें वर्षो के आकड़ों  से आने वाले दिनों में ऐसी बढ़वार के संकेत नहीं मिलते । बीते छह दशक यानी 1950-51 से 2013-14 तक दलहन के रकबे में महज 60 लाख हैक्टेयर  का इजाफा हुआ है जबकि दलहन के उत्पादन की संयुक्त सालाना वृद्धि दर 1 प्रतिशत से भी कम (0.64 प्रतिशत) रही है। भारत में दालों की जरुरत से संबंधित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पल्स रिसर्च की विजन-2050 रिपोर्ट के अनुसार तीन दशक बाद भारत में सालाना 50 लाख टन दलहन की जरुरत होगी और इसके लिए दलहन के उत्पादन की सालाना वृद्धि दर 4.2 प्रतिशत रहनी चाहिए । भारत में होने वाले दालों के उत्पादन में सबसे ज्यादा चना का उत्पादन होता है । देश में कुल दाल उत्पादन का 48 फीसद चना, जबकि 17 प्रतिशत अरहर, 10 प्रतिशत  उड़द, 7 प्रतिशत  मूंग और अन्य दालों का उत्पादन 18 प्रतिशत होता है ।

आखिर क्यों नहीं बढ रहा भारत में दालों  का उत्पादन

                    दुनियाँ के अमूमन 171 देशों में दलहनों  का उत्पादन होता है । विश्व में लगभग 723 लाख हेक्टेयर रकबे में दाल की फसलें उगाई जाती है जिससे करीब 644 लाख टन दाल का उत्पादन होता है । जिसमें भारत अकेले पूरी दुनियाँ के करीब 25 प्रतिशत दाल का उत्पादन करता है । भारत में कुल बुआई क्षेत्र के करीब 33 प्रतिशत हिस्से पर दाल की फसलें  उगाई जाती है । हालांकि प्रति हेक्टेयर के हिसाब से भारत काफी पीछे है यहां प्रति हेक्टेयर करीब 700 किलो दाल का उत्पादन होता है जबकि फ्रांस में सबसे ज्यादा प्रति हेक्टेयर 4,219 किलो दाल का उत्पादन होता है । प्रति हेक्टेयर उत्पादन में फ्रांस के बाद कनाडा दूसरे नंबर पर आता है जहाँ  प्रति हेक्टेयर 1,936 किलो दाल का उत्पादन होता है । जबकि अमेरिका में प्रति हेक्टेयर 1,882 किलो दाल का उत्पादन होता है । हमारे पड़ोशी देश चीन में 1,596 किलो प्रति हेक्टेयर के ओषत मान से दालें पैदा के जा रही है । खाद्यान्न सुरक्षा के  साथ-साथ भारत में पोषण सुरक्षा भी सुनिष्चित करने  लिए  जरूरत इस बात की है कि दलहन उत्पादन बढ़ाने के लिए राज्य सरकारों, वैज्ञानिकों, कृषि प्रसार अधिकारिओं को मिलकर दलहन उत्पादन बढ़ाने के लिए कृषक हितैषी रीति-नीति और तकनीक को अमलीजामा पहनाने का हर संभव प्रयास किया जाए। इसके लिए सबसे पहले उन कारको  की तरफ हमें ध्यान  देना होगा जिसकी वजह से उत्पादन में समस्याएं आती है।
    भारत में दलहनों  की उत्पादकता 1950-51 में 441 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर थी जो वर्ष 2013-14 में बढ़कर 764 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर तो  हो गई लेकिन इनके उत्पादन की वार्षिक वृद्धि दर मात्र 0.64 प्रतिशत बानी हुई है।  जबकि चावल एवं गेंहू के उत्पादन की वार्षिक वृद्धि दर क्रमशः 1.90 एवं 2.75 प्रतिशत और तिलहन की 1.53 प्रतिशत रही है ।
    गेहूँ और  धान की तरह दलहनी फसलों को  किसानों  ने अभी तक नहीं अपनाया है। क्योंकि दलहनों की खेती  अनिश्चितता और जोखिम भरी मानी जाती है। ऐसी जमीन  जो गेंहूँ और  धान की खेती के लायक नहीं होती, उसी में दलहनो  की खेती अवैज्ञानिक तरीके से की जाती है। साथ ही इन फसलों के  सस्य प्रबंधन पर भी बिल्कुल ध्यान नहीं दिया जाता है ।
   1960 और 1970 के दशक में दालों के उत्पादन में भारी गिरावट आई क्योंकि हरित क्रांति के अंतर्गत दलहन की खेती की जगह उच्च उत्पादकता वाले गेहूं और चावल की खेती को बढ़ावा मिला तथा इन्हीं दो अनाजों के लिए उच्च गुणवत्ता की तकनीक का इस्तेमाल हुआ।
   वर्ष 1966-67 से 2012-13 के बीच चावल की खेती के अन्तर्गत सिंचित क्षेत्र 38 प्रतिशत से बढ़कर 59 प्रतिशत और गेहूं की खेती के  तहत सिंचित क्षेत्र 48 प्रतिशत से बढ़कर 93 प्रतिशत हो गया जबकि दालों के मामले में यह आंकड़ा 9 प्रतिशत से बढ़कर 16 प्रतिशत तक ही जा सका है।
    दलहनी फसलों के अन्तर्गत बोये जाने वाला लगभग 87 प्रतिशत क्षेत्र वर्षा पर निर्भर है । मानसून की अनियमिता के  कारण इन फसलों  की बुवाई समय पर नहीं हो  पाती है, जिसके  कारण प्रति इकाई पौधों  की संख्या सामान्य से कम स्थापित हो पाती  है। इन फसलों  की क्रांतिक अवस्थाओं के समय सूखा या जल की कमी से उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।
   रबी की दलहनी फसलों  को  पाला व रात्रि के  कम तापमान से भारी क्षति होती है । इसके  अलावा लगातार बदली  वाले मौसम व वर्षा के  कारण खरीफ की दलहनी फसलों  में कीट-व्याधिओं का प्रकोप भी बढ़ जाता है । खरीफ में जल भराव के  कारण भी उत्पादन में गिरावट आ जाती है।
   दलहनीे  फसलों  की प्रारम्भिक वृद्धि  धीमी होने की वजह से खेत में खरपतवारों से प्रकाश,पानी और पोषक तत्वों के लिए कड़ा  पड़ता है जिससे  फसल बढ़वार व उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।
    दलहनी फसलों  का समर्थन मूल्य फसल के  बाजारीय मूल्य से काफी कम होने की  वजह से किसान को अपेक्षित लाभ नहीं मिल पाता है।
    दलहनी फसलों  में कीट-रोग प्रतिरोधी तथा अधिक उपज देने वाली कम अवधि में तैयार होने वाली किस्मों  का अभाव है, जिसके  कारण इनकी उत्पादकता में इजाफा नहीं हो  पा रहा है।इनकी उन्नत किस्मों के विकास एवं प्रसार पर शीघ्र ध्यान देने की आवश्यकता है। 

 दलहनों  का उत्पादन बढ़ाने के  संभावित उपाय

1.   दलहनी फसलों  की खेती के  अन्तर्गत  अतिरिक्त क्षेत्र विस्तार करना होगा । इसके  लिए चावल-गेंहू फसल चक्र में विविधता लाते हुए कम अवधि में तैयार होने वाली अरहर, काबुली चना, मटर और  गर्मी की मूँग फसल को बढ़ावा देना चाहिए।
2.   धान के  बाद पड़ती भूमियों में मूँग, उड़द, तिवड़ा व मसूर जैसी दलहनी फसलों  की खेती को  प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है। इससे दलहनों  का क्षेत्र व उत्पादन बढ़ेगा।
3.  अंतरवर्ती फसल प्रणाली के  अन्तर्गत बसंतकालीन गन्ने के  साथ उड़द, मूँग की खेती, मूंगफली, सोयाबीन, ज्वार व बाजरा के  साथ लघु अवधि वाली अरहर की खेती, सरसों  व अलसी के  साथ चना व मसूर की खेती को बढ़ावा देने से दलहनों के अन्तर्गत 4-5 मिलियन हैक्टेयर अतिरिक्त क्षेत्रफल में खेती संभव हो  सकती है जिससे दलहन का उत्पादन बढ़ेगा साथ ही भूमि की उर्वरा शक्ति में भी इजाफा होगा।
4.  वर्षाधीन क्षेत्रों  में वर्षा जल संरक्षण के  आवश्यक उपाय करते हुए दलहनी फसलों के  लिए जीवन रक्षक सिंचाई की व्यवस्था करना चाहिए।
5.  दलहनी फसलों में राइजोबियम कल्चर के  इस्तेमाल से न सिर्फ नत्रजन की उपलब्धता बढती है, बल्कि उत्पादन में भी वृद्धि होती है। उन्नत किस्म के  प्रमाणित बीजों  की उपलब्धता के  साथ-साथ गुणवत्ता वाला राइजोबियम कल्चर सही समय पर किसानों  को  उपलब्ध कराया जाना चाहिए। ज्ञात हो  दलहनी फसलों के   लिए अलग-अलग किस्म के  कल्चर की अवश्यकता होती है। वर्तमान में निम्न गुणवत्ता वाले राइजोबियम कल्चर के  पैकेट किसानों को  मिल पाते है जिससे उपज में वांक्षित लाभ नहीं होता है।
6. धान-गेंहू की भांति दलहनी फसलों से अधिकतम उत्पादन एवं लाभ अर्जित करने के लिए, उनमें खाद-उर्वरक एवं पौध संरक्षण उपाय अपनाने की आवश्यकता है।
7. दलहनी फसलों   की कटाई-गहाई उचित समय पर करना आवश्यक होता है क्योंकि देर से कटाई करने पर इनकी फल्लियाँ-दाना खेत में झड़ जाते है जिससे उपज में भारी कमी हो  जाती है।
8. दलहनी फसलों  की उपज भंण्डारण के  दौरान कीड़ो  से अधिक क्षति होती है। वैज्ञानिक तरीके  से इनके  भण्डारण एवं रखरखाव   की व्यवस्था सुनिश्चित होना चाहिए।
9. सभी दलहनी फसलों के लिए सरकार इनकी खेती के लागत मूल्य एवं उपयोगिता के अनुसार न्यूनतम समर्थन मूल्य की प्रति वर्ष घोषणा करें एवं चावल की तरह दालों की सरकारी खरीद एवं मिलिंग की उचित वयवस्था करें। 
10. दलहनी फसलों की खेती एक जोखिम भरा कार्य है अतः जैविक या फिर अजैविक कारणों  से फसल की क्षति होने पर फसल बीमा के तहत फसल की लगत एवं श्रम मूल्य  बराबर  भुगतान की पुख्ता पुख्ता व्यस्था होना चाहिए।   इससे किसानों में दलहन की खेती के प्रति रुझान बढ़ेगा और देश में दालों का उत्पादन बढ़ेगा तथा प्रति व्यक्ति दालों की उपलब्धता में आशातीत बढ़ोत्तरी होगी। 
          आशा करता हूँ की अंतराष्ट्रीय दलहन वर्ष-2016 के दरम्यान दलहनों की खेती के अंतर्गत क्षेत्र एवं उत्पादन में बांक्षित सफलता प्राप्त होगी। विश्व में दलहन क्रांति के लिए समर्पित वर्ष-2016 के सुभ अवसर पर सभी किसानों, कृषि वैज्ञानिकों, कृषि छात्रों, कृषि और कृषक कल्याण के लिए समर्पित सभी अधिकारिओं, मीडिया के तमाम लोगों एवं देशवासियों  को कृषि विमर्ष ब्लॉग की तरफ से हार्दिक शुभ कामनाएं। 

नोट : कृपया लेखक की बिना अनुमति के इस लेख को अन्य किसी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित करने की चेष्टा न करें। यदि लेख प्रकाशित करना ही है तो लेख के साथ ही लेखक एवं  संस्था का नाम अनिवार्य रूप से अंकित करेंगे।

काबुली चने की खेती भरपूर आमदनी देती

                                                  डॉ. गजेन्द्र सिंह तोमर प्राध्यापक (सस्यविज्ञान),इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषि महाव...