डॉ. गजेन्द्र सिंह तोमर
प्राध्यापक (सश्य विज्ञानं बिभाग)
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, कृषक नगर, रायपुर (छत्तीसगढ़)
काले सोने की खेती से मालामाल किसान
फैबेसी अर्थात दलहनी कुल की ग्वार फली (क्लस्टर बीन अर्थात फल्लियों का गुच्छा) को वानस्पतिक जगत में स्यामोप्सिस टेट्रागोनोलोबा के नाम से जाना जाता है। चारा व सब्जी फसल के रूप में अनादि काल से प्रचलित ग्वारफली की बहुपयोगिता एवं महत्व को देखते हुए इसे अब काला सोना (ब्लैक गोल्ड) की संज्ञा दी जा रही हैं । इसकी फलियाँ को सब्जी बनाने तथा दाना पशु आहार के रूप में प्रयोग किया जाता रहा है परन्तु अब ग्वार की खेती प्रमुख नकदी फसल के रूप में की जाने लगी है । दरअसल ग्वार बीज गोद (गम) का मुख्य स्त्रोत (28-32 प्रतिशत गोंद) है, जो कि अन्य बीजो द्वारा निर्मित गोंद से सस्ता पड़ता है । यह प्राकृतिक हाइड्रोकोलाइड का स्रोत हैं, जो कम गाढ़ेपन पर ठंडे पानी में घुलनशीन द्रव्य है। ग्वार बीज के तीन भाग होते हैं-जर्म, इंडोस्पर्म और हस्क । इंडोस्पर्म से ही ग्वार गम की उत्पत्ति होती है।
औद्योगिक दृष्टिकोण से इसका उपयोग खदानों, पेट्रोलियम वेधन और वस्त्र निर्माण में होता है। इसे जमीन से गैस निकालने के हाइड्रोलिक फ्रैक्चरिंग तरीके में इस्तेमाल किया जाता है। अमेरिकी पेट्रोलियम उद्योग और खाड़ी देशों के तेल उद्योगों द्वारा ग्वार बीजों की मुख्य तौर पर मांग होती है। अमेरिका में पाइप लाइन के जरिए पानी, गैस या तेल एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचाया जाता है। पाइप लाइन में दरारें उभरने के कारण लीकेज की गंभीर समस्या का सामना करना पड़ता था । अनुसंधान से जब यह पता चला है कि ग्वार तरल पदार्थ को कारगर तरीके से सोख लेता है। इस खूबी के कारण ही दरारों को भरने के लिए इसे उपयुक्त माना जाने लगा है। यही कारण है कि ग्वार गम की मांग विश्व में निरंतर बढ़ती जा रही है।
इसके अलावा ग्वार गोंद पाउडर का उपयोग भोजन को गाढ़ा करने और कैचअप-सॉस व आइसक्रीम जैसी अनेक खाद्य-सामग्रीं को ठोस बनाने में किया जाता है। इसके दानो में 13-15 प्रतिशत प्रोटीन पाई जाती है। घर-घर में खायी जाने वाली प्रमुख सब्जियों में से ग्वार फली एक है, जो कि औषधीय गुणों से भरपूर है। ग्वार फली में कई पौष्टिक तत्व पाए जाते हैं जो स्वास्थ के लिए गुणकारी होते हैं। यह भोजन में अरुची को दूर करके भूख को बढ़ाने वाली होती है। इसके सेवन से मांसपेशियां मजबूत बनती है ग्वार फली में प्रोटीन भरपूर मात्रा में होता है जो सेहत के लिए फायदेमंद होता है। ऐसा माना जाता है कि ग्वार फली मधुमेह के रोगी के लिए भी लाभदायक है यह शुगर के स्तर को नियंत्रित करती है , पित्त को खत्म करने वाली है। ग्वारफली की सब्जी खाने से रतौंधी का रोग दूर होजाता है। ग्वार फली को पीसकर पानी के साथ मिलाकर मोच या चोट वाली जगह पर इस लेप को लगाने से आराम मिलता है।
यही नहीं ग्वारफली के हरे पौधो को पौष्टिक चारे के रूप में भी पहले से प्रयोग में लिया जा रहा हैं, जो पशुओं द्वारा चाव से खाया जाता है। हरी खाद के रूप में भी भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ाने हेतु ग्वार लगाया जाता है । दलहनी फसल होने के कारण फसल चक्र में इसे सम्मलित करने से अगली फसल की उपज में बढ़ोत्तरी होती है । इस प्रकार सीमित संसाधनो में गुआर की खेती से बहुआयामी लाभ लिया जा सकता है।
वर्तमान में ग्वार गम (गोंद) का वैश्विक बाजार लगभग 150,000 टन प्रति वर्ष अनुमानित है। विश्व में 85 फीसदी ग्वार का उत्पादन भारत में होता है। यहां भी सबसे ज्यादा पैदावार राजस्थान में हो रही है। भारत से लगभग 115,000 टन ग्वार गम का निर्यात होता है और घरेलू बाजार लगभग 25,000 टन का है। बीते कुछ वर्षों में ग्वार की खेती ने राजस्थान के किसानो और व्यापारिओं की तकदीर तथा मरू क्षेत्र की तसवीर बदल दी है । गत वर्ष इस राज्य में ग्वार 120 से 300 रूपये प्रति किलो के भाव से बेचा गया था । ग्वार पाउडर के निर्माण हेतु अनेक प्लांट राजस्थान में स्थापित हो चुके है । देश के अन्य राज्यो यथा मध्य प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, छत्तीसगढ़, उत्तरप्रदेश आदि में भी ग्वार की खेती को बढ़ावा देते हुए ग्वार गम निर्माण हेतु उध्योग स्थापित करने से क्षेत्र के रहवाशिओं को रोजगार और किसानो के लिए आमदनी के नवीन स्त्रोत उपलब्ध होंगे।
जलवायु परिवर्तन के कारण वर्षा की बढती अनिश्चितता कृषि क्षेत्र के लिए समस्या बनती जा रही है । वर्षा पर निर्भर क्षेत्रों में गहराते जल संकट और बढ़ते तापमान की बजह से खेती किसानी संक्रमण काल से गुजर रही है । अब जरूरत है हमारी भूली बिसरी फसलें यथा ज्वार, बाजरा, लघु धन्य (कोदों , कुटकी, रागी) तथा शीघ्र तैयार होने वाली दलहनी-तिलहनी फसलों को पुनः अपनाने की ।कम लागत व सीमित संसाधन प्रबंधन वाली ग्वार की फसल अब अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर निर्यात के बढ़ते स्त्रोत व नगदी फसल के रूप में तेजी से उभर रही है। भारत के वर्षा आधारित या सूखा ग्रस्त क्षेत्रों के किसान भाई नकदी फसल के रूप में गुआरफल्ली की खेती अपना कर मनबांक्षित मुनाफा कमा सकते है ।
इस ब्लाग में बहुपयोगी दलहन फसल ग्वार फली से अधिकतम उपज एवं लाभ अर्जित करने के लिए सस्य तकनीक प्रस्तुत है।
आदर्श जलवायु
अत्यंत ठन्डे स्थानों को छोड़ कर भारत के सभी राज्यों में गुआरफल्ली की खेती सफलता पूर्वक की जा सकती है। ग्वार मुख्यतः खरीफ मौसम (वर्षा ऋतु) की फसल है परन्तु सिंचित अवस्था में इसकी खेती ग्रीष्म ऋतु में भी की जा रही है। इसे गर्म जलवायु की आवश्यकता होती है। इसकी खेती बारानी परिस्थितियों में 250 से 500 मिमी. वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में सफलतापूर्वक की जाती है। यह एक लम्बे दिन वाली फसल है। ग्वार की फसल वृद्धि हेतु चमकीले तथा गर्म दिन की आवश्यकता होती है। सामान्य वृद्धि के लिए फसल को 25 से 35 डिग्री सेल्सियस तापक्रम की आवश्यकता होती है। अधिक नमी वाले क्षेत्रों में ग्वार की वृद्धि रूक जाती है। अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में गुआर की वानस्पतिक वृद्वि अधिक तथा फल्लियाँ कम बनती है।
मृदा एवं खेत की तैयारी
इसकी खेती समुचित जल निकास वाली मध्यम से हल्की भूमियों (पीएच मान 7.5 से 8.5) मे की जा सकती है। विभिन्न राज्यों की जलोढ़ एवं बलुई मृदा में ग्वार की खेती व्यापक स्तर पर की जा सकती है। भूमि का पीएचमान 7-8.5 तक अच्छा रहता है। भारी चिकनी मिट्टी (जल भराव वाली) ग्वार के लिए अच्छी नहीं रहती है। खेत तैयार करने के लिए एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से तथा दो जुताइयाँ देशी हल से करने के बाद पाटा चलाकर खेत समतल कर लेते हैं।
करें उन्नत किस्मो का प्रयोग
ग्वार की खेती दाना, सब्जी व चारे के लिए की जाती है । भारत के विभिन्न क्षेत्रो के लिए ग्वार की उन्नत किस्मो की संस्तुति निम्न प्रकार से की जाती हैः
1.उत्तर भारतः पूसा नवबहार, पूसा मौसमी, पूसा सदाबहार, जीएच-10, एचएफजी-119, अगेता ग्वार-111, ग्वार न.-2,एफएस-277, दुर्गापुरा सफेद, एस-299-7, जी-1,जी-4, एचजी-12, डी-128, एचजी-75, बी-2796,आईजीएफआरआई-5212
2.दक्षिण भारतः पूसा नवबहार, पूसा सदाबहार, जीएच-10, एचएफजी-119, आईसी-11704, आईसी-11521, आईसी-11388,सीपी-78
दानों के लिए उपयुक्त ग्वार की उन्नत किस्मों की विशेषतायें
1.दुर्गापुरा सफेदः यह अगेती किस्म (100-105 दिन) है जिससे 14-15 क्विं./हे. दाना प्राप्त होता है। दाने गोंद बनाने के लिए उपयुक्त हैं।
2. एफ.एस.-277: ग्वार की यह किस्म 130 दिन में तैयार ह¨ती है तथा पंजाब, हरियाना, दिल्ली व उत्तर प्रदेश की सिंचित व असिंचित अवस्था हेतु उपयुक्त पाई गई है । इसके बीज सफेद रंग के होते है जिनमे 30-32 प्रतिशत गोंद पाया जाता है । सिंचित परिस्थितियो में इस किस्म से प्रति हैैक्टर 8-9 क्विंटल दाना और 300 क्विंटल हरा चारा प्राप्त किया जा सकता है।
3.अगेता ग्वार-111: इस किस्म के पौधे छोटे फल्लियों से भरे हुए होते है । यह एक शीघ्र तैयार (लगभग 95 दिन) होने वाली बेहतर किस्म है जिससे सामान्य दशा में 30 क्विंटल प्रति हैक्टर तक दाना उपज प्राप्त ह¨ती है । इसके दाने छोटे भूरे-कत्थैइ रंग के होते है जिनमें 30-76 प्रतिशत गोंद पाया जाता है । पंजाब, हरियाना, उत्तर प्रदेश व राजस्थान राज्यों में खेती के लिए उपयुक्त पाई गई है ।
4.जीएच-10: व्यापक अनुकूलता वाली यह किस्म देर से बोने के लिए उपयुक्त है । यह 130 दिन में पक कर तैयार ह¨ती है तथा जिससे लगभग 18 क्विंटल दाना उपज प्रति हैैक्टर प्राप्त की जा सकती है ।
5.एच.एफ.जी.-119: देर से पकने वाली यह किस्म उत्तर भारत की जलवायु के लिए उपयुक्त है। दाने व चारे के लिए उत्तम किस्म है जो कि 130 दिन में तैयार होती है। प्रति हैक्टर 350 क्विंटल हरा चारा व 16-18 क्विंटल दाना उपज ली जा सकती है। इसके बीज भूरे, मध्यम आकार के होते है जिनमे 30 प्रतिशत गोंद पाया जाता है।
6.आर.जी.सी.-1003: यह किस्म 85-95 दिन में पक कर तैयार हो कर औसतन 8-12 क्विंटल दाना पैदावार देती है। दानो में 29-32 प्रतिशत गोंद होता है।
7. आर.जी.सी.-1017: ग्वार की यह किस्म 90 से 100 दिन में तैयार होती है जिससे 10-12 क्विंटल दाना प्राप्त होता है।
हरी फल्लियो (सब्जी) हेतु ग्वार की किस्में
1.पूसा मौसमीः सब्जी उत्पादन हेतु पंजाब, हरियाना व उत्तर प्रदेश के लिए संस्तुत किस्म है। इसकी फल्लियों में रेशे कम ह¨ते है। बुवाई के 80 दिन बाद फल्लियों की प्रथम तुड़ाई की जाती है। सिंचित व असिंचित दोनों परिस्थितियों के लिए अनुकूल किस्म है। इससे लगभग 50 क्विंटल हरी फल्लियो की उपज प्राप्त होती है।
2.पूसा नवबहारः सम्पूर्ण भारत वर्ष में वर्षा ऋतु में उगाने के लिए उपयुक्त किस्म है । इसमें शाखाएं नहीं ह¨ती है तथा गुच्छो में फल्लिया लगती हैं। दक्षिण भारत में लंबे समय तक हरी फलियां ली जा सकती है। फल्लिययो में रेशे कम होते है। लगभग 60 क्विंटल हरी फल्लियों की उपज आती है।
3.पूसा सदाबहारः हरी फल्लियो के लिए आदर्श किस्म है जो कि लंबे समय तक हरी फल्लियां प्रदान करती है। इसकी मार्च में बुवाई की जा सकती है। बुवाई के 45 दिन बाद फल्लियां बनने लगती है तथा सितम्बर तक हरी फल्लियां प्राप्त की जा सकती है। दक्षिण भारत के लिए उपयुक्त है। ओसतन 60-70 क्विंटल प्रति हैक्टर हरी फल्लियां प्राप्त होती है।
हरे चारे के लिए ग्वार की प्रमुख उन्नत किस्में
1. बुन्देल ग्वार-1: यह किस्म रोग प्रतिरोधी एव कीट सहनशील है। औसतन 22-35 टन हरा चारा प्राप्त होता है।
2. ग्वार-80: यह पूर्ण ब्लाइट रोग के लिए सहनशील किस्म है जो कि 30-35 टन तक हरा चारा देती है।
3. बुन्देल ग्वार-2: यह किस्म पर्ण ब्लाइट रोग सहनशील है जिससे 28-40 टन हरा चारा प्राप्त होता है।
बीज दर, बीजोपचार एवं बोआई
वर्षा ऋतु प्रारंभ होते ही ग्वार की बोनी (जून-जुलाई) करना चाहिए परन्तु सिंचित क्षेत्रों मे मार्च-अप्रैल मे बुआई की जा सकती है । चारे के लिए अप्रैल से मध्य जुलाई तथा दाना के लिए जुलाई के प्रथम सप्ताह से 25 जुलाई तक का समय बोआई हेतु सर्वोत्तम पाया गया है । दाने के लिए 15-20 कि.ग्रा. तथा चारे व हरी खाद के लिए 40-45 किग्रा. बीज प्रति हेक्टेयर पर्याप्त होता हैं । बुआई पूर्व बीज क¨ कवकनाशी थाइरम 3 ग्राम प्रति किग्रा. बीज की दर से उपचारित करें । इसके पश्चात बीज को ग्वार राइजोबियम कल्चर (600 ग्राम) से उपचारित कर छयादार स्थान में सुखाने के बाद बोया जाना चाहिए।
आमतौर पर ग्वार की बोआई छिटक कर की जाती है। परन्तु अच्छी उपज के लिए सीड ड्रिल अथवा नारी हल की सहायता से कतार ब¨नी करना चाहिए । ग्वार की बुआई कतार से कतार की दूरी 45-50 सेमी. तथा पौध से पौध की दूरी 10-15 सेमी. पर करना चाहिए । सब्जी के लिए उगाई जाने वाली फसल कतार में 60 सेमी. की दूरी पर बोना उचित रहता है । चारे वाली फसल को कम दूरी पर(घना) लगाया जाता है ।
थोड़ा सा खाद व उर्वरक
यदि उर्वर भूमि में ग्वार लगाना है तो खाद डालने की आवश्यकता नहीं होती। खेत की तैयारी के समय 5 टन गोबर की खाद या कम्पोस्ट खाद 2-3 वर्ष में एक बार अवश्य प्रयोग करना चाहिए। दलहनी फसल होने के नाते ग्वार को नत्रजन की आपूर्ति वातावरण की नत्रजन से हो जाती है। सामान्य भूमियो में फसल बुआई के समय 20-25 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40-50 किलोग्राम फाॅस्फोरस प्रति हेक्टेयर कूड़ों में डालने से उपज में काफी वृद्धि होती है।
मामूली सिंचाई
खरीफ की अन्य फसलों की तुलना में ग्वार सबसे कम पानी चाहने वाली सूखा सह फसल है। ग्रीष्म ऋतु की फसल में पलेवा लगाकर बोनी करना चाहिए। इसके बाद 15-20 दिन के अन्तर से सिंचाईयाॅ करते है । सामान्य तौर पर खरीफ की फसल को सिंचाई की आवश्यकता नहीं रहती परंतु खेत में अच्छा जल निकास होना आवश्यक रहता है। सूखे की स्थिति में ग्वार की बुवाई के 25 व 45 दिन बाद 0.10 प्रतिशत थायोयूरिया के घोल का छिड़काव करने से उपज में बढ़ोत्तरी होती है ।
खरपतवार नियंत्रण
ग्वार फसल को आरम्भिक अवस्था में निराई की आवश्यकता पड़ती है। पंक्तियों में बोई गई फसल की गुड़ाई भी की जा सकती है। दाने वाली फसल में खरपतवार नियंत्रण के लिए बुआई के 2 दिन पश्चात तक पैन्डीमेथालीन (स्टोम्प) खरपतवारनाशी की बाजार में उपलब्ध 3.30 लीटर मात्रा को 500 लीटर पानी में घ¨ल बनाकर प्रति ह¨क्टर की दर से छिड़काव करना चाहिए। फसल के 25-30 दिन होने पर एक गुड़ाई करना चाहिए । गुड़ाई करना संभव न ह¨ त¨ इमेजीथाइपर (परसूट) की 750 मिली मात्रा को 500 लीटर पानी में घोल बना कर प्रति हैक्टर की दर से बुवाई के 20-25 दिन बाद छिड़काव करने से खरपतवार नियंत्रित रहते है ।
कटाई, उपज एवं शुद्ध लाभ
ग्वार के पौधे जब भूरे रंग के पड़ने लगे तथा फलियां सूखने लगें तो हंसिया या दराती की सहयता से फसल की कटाई कर लेनी चाहिए तथा दाना भूसे से अलग कर साफ कर लेना चाहिए। उपर¨क्तानुसार ग्वार की खेती करने पर औसतन 8-10 क्विंटल दाना तथा 12-14 क्विंटल भूसा प्राप्त हो जाता है । प्रति हैक्टर ग्वार उत्पादन के लिए लगभग 20 हजार रूपये की लागत आती है । यदि ग्वार दानो का बाजार मूल्य 100 रूपये प्रति किग्रा भी है तो किसान ग्वार की खेती से लगभग 60 से 80 हजार रूपये प्रति हैक्टर की आमदनी प्राप्त कर सकते है।
चारे वाली फसल से असिंचित अवस्था में 80-120 क्विंटल तथा सिंचित फसल से 160-200 क्विंटल हरा चारा प्राप्त होता है। सब्जी हेतु उगाई गई ग्वार से हरी फलियों की उपज 50-60 क्विंटल प्रति हेक्टेयर मिल जाती है।
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