डॉ गजेन्द्र
सिंह तोमर,
प्रोफ़ेसर
(सस्य विज्ञान)
इंदिरा गाँधी
कृषि विश्व विद्यालय,
कृषि
महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र, अंबिकापुर (छत्तीसगढ़)
फसलोत्पादन में जल एक महत्त्वपूर्ण एवं अत्यावश्यक आदान है जिसकी अधिकता और कमी दोनों ही फसल
की बढ़वार और उपज को प्रभावित करती है। देश में 60 प्रतिशत से अधिक क्षेत्र बारानी
खेती की परिधि में आता है जिसमे वर्षा की मात्रा और वितरण के अनुसार फसल उत्पादन
कम/ज्यादा होता रहता है। इन क्षेत्रों में सुनिश्चित उत्पादन के लिए किसान भाइयों
को फसलोत्पादन की उन्नत तकनीक का सहारा लेना होगा। कम और असामयिक वर्षा वाले
क्षेत्रों में नमीं सरंक्षण करते हुए फसल उत्पादन तकनीक को इस प्रकार अपनाना जिससे
अधिक से अधिक उत्पादन हो सकें, बारानी कृषि कहलाता है। जलवायु परिवर्तन के कारण
दिन प्रति दिन वर्षा के दिन और मात्रा कम
होती जा रही है। अब वर्षा के दिन गिनती के रह गए है और वर्षा का विभाजन भी
अनिश्चित होता जा रहा है, कभी तो इतनी अधिक वरिश होती है जिसके चलते एक तरफ
तो कृषि कार्य संपन्न करने का मौका भी
नहीं मिलता है और भूमि कटाव से उपजाऊ भूमि भी नष्ट हो जाती है। कभी कभी वर्षा केवल
छिडकाव की भांति होती है। मानसून कभी समय से पहले या फिर बुआई समय निकल जाने के
बाद आता है। इसके अलावा कई बार वर्षाकाल में भी लम्बा सूखा पड़ने से फसल चौपट हो
जाती है। इन परिस्थितिओं में वर्षा आश्रित क्षेत्रों में खेती बाड़ी करना मानसून
पर जुआ खेलने जैसा ही है। इन विषम परिस्थितिओं में बारानी क्षेत्रों में खेती से
अधिकतम उत्पादन प्राप्त करने के लिए फसलोत्पादन की उन्नत विधियां अपनानी चाहिए तभी
हमें खेती की लागत का भरपूर प्रतिसाद मिल सकता है।
खेत की तैयारी में समझदारी
बारानी खेती से अधिकतम उत्पादन भूमि में संचित नमी पर
निर्भर करता है। इसके लिए रबी फसल कटने के तुरंत बाद अथवा पड़ती पड़े खेतों की
ग्रीष्म ऋतु में मिट्टी पलटने वाले हल से गहरी जुताई करने से भूमि की जल धारण
क्षमता बढती है तथा खरपतवार भी नियंत्रित रहते है। अल्प वर्षा वाले रेतीले
क्षेत्रों में गर्मी जुताई नहीं करना
चाहिए। खेत की तैयारी से सम्बंधित निम्न बाते ध्यान में रखना चाहिए।
Ø खेतों की जुताई
कर पाटा के माडल से समतल बनाकर, वर्षा जल को समान रूप से फैलने देवे जिससे वर्षा
जल खेत में सरंक्षित हो सके, बहकर नहीं जावें। इस सरंक्षित नमीं से लम्बे तक वर्षा
नहीं होने पर भी फसल पर सूखे का प्रभाव कम होता है।
Ø खेतों में ढाल
के विपरीत जुताई करे जिससे कूड में पानी इकट्ठा होगा जिससे मृदा को पानी सोखने का
अधिक समय मिलेगा।
Ø खेतो में ढाल
के विपरीत थोड़ी थोड़ी दूरी पर डोलियाँ बनाये और वानस्पतिक अवरोध लगाये जिससे वर्षा
जल रूककर भूमि में प्रवेश कर सके।
Ø पड़ती खेतो में
खरपतवार नियंत्रण तथा मृदा में जल धारण की क्षमता बढ़ाने हेतु वर्षा ऋतु में दो-तीन
बार जुताई कर खेत में पाटा लगाना चाहिए
जिससे नमी का सरंक्षण अधिक होगा जो की आगामी फसल के लिए लाभकारी होती है।
Ø प्रत्येक तीसरी
वर्ष खेत में वर्षा पूर्व 20-25 टन प्रति हेक्टेयर की दर से सड़ी हुई गोबर की
खाद/कम्पोस्ट डालना चाहिए जिससे भूमि में जीवांश कार्बन में वृद्धि के साथ साथ
मृदा में नमीं संचयन में भी उपयोगी सिद्ध होती है।
सही फसल एवं किस्म का चयन
वर्षाधीन क्षेत्रों हेतु शीघ्र तैयार होने वाली, सूखा
सहनशील तथा अधिक उत्पादन देने वाली फसलें एवं उनकी उन्नत किस्मों का चयन करना चाहिए।
फसलों के चयन में भूमि की किस्म और संभावित वर्षा को भी ध्यान में रखना चाहिए।
हलकी एवं बलुई मिट्टी में खरीफ ऋतु में जुआर, बाजरा,मूंग, उड़द बरवटी,ग्वारफली आदि
की शीघ तैयार होने वाली किस्मो को लगाना चाहिए. रबी में गहरी हल्की और दोमट मिट्टी
में सरसों, चना, कुसुम आदि की फसलें लगाना चाहिए. अच्छी वर्षा तथा माध्यम से भारी
मिट्टी में खरीफ में सोयाबीन, अरहर, मक्का, तिल, मूंगफली,अरंडी आदि तथा रबी में
गेंहू, चना, जौ,अलसी, धनियाँ आदि फसलें अधिक उत्पादन देती है। अन्न वाली फसलों की अपेक्षा दलहनी फसलें सूखे को अधिक सहन करती है. मक्का,
जुआर, सोयाबीन, मूंगफली आदि उन्ही क्षेत्रों लगाये जहाँ की मृदाओ की जल धारण
क्षमता अच्छी होती है तथा पर्याप्त वर्षा
होती है। औसत वर्षा वर्षा वाले क्षेत्रों की भारी भुमिओं में जुआर तथा कम वर्षा
और बलुई मिट्टी में बाजरा की खेती करना चाहिए. रबी में बारानी क्षेत्रों में चना
और सरसों की खेती अच्छी रहती है।
उचित समय पर करें बुआई
कृषि क्षेत्र की लोकप्रिय कहावत ‘का वर्षा जब कृषि सुखाने’ बारानी क्षेत्रों के लिए सटीक बैठती है। वर्षा आश्रित क्षेत्रों में फसलों की
बुआई सही समय पर करना अत्यावश्यक है.खरीफ फसलों की बुआई मानसून की प्रथम वर्षा के
साथ ही कर देना चाहिए। इससे बीजों का जमाव और पौध स्थापन सही होगा, साथ ही फसल को
वर्षा का पूरा लाभ मिलेगा। सामान्यतौर पर खरीफ फसलों का बुआई का समय मध्य जून से
जुलाई का प्रथम सप्ताह है। यदि समय पर वर्षा हो तो सबसे पहले खाद्यान्न फसलें तथा
इसके बाद दलहनी-तिलहनी फसलों की बुआई संपन्न करना चाहिए। रबी में बारानी क्षेत्रों में गेंहूँ और जौ की बुआई अक्टूबर अंत से मध्य
नबम्बर तक, चने की बुआई अक्टूबर प्रथम सप्ताह में और राई-सरसों की बुआई मध्य
सितम्बर से मध्य अक्टूबर तक मौसम तथा तापमान को ध्यान में रखते हुए संपन्न करें.
अपनाये बुआई की कतार विधि
बारानी क्षेत्रो
में फसलों की बुआई छिटकवा पद्धति से की जाती है जो की अवैज्ञानिक है और इन
क्षेत्रों में कम उत्पादन के लिए उत्तरदायी है। अतः भरपूर उत्पादन के लिए देशी हल
की सहायता से पोरा विधि या सीड ड्रिल से बीज की बुआई कतारों में करें. पानी की कमी
होने पर कतारों के बीच की दूरी बढ़ाना लाभकारी होता है। बीज की बुआई ऊर कर (कतारों
में) करने से बीज उपयुक्त गहराई पर मृदा के नमीं क्षेत्र में गिरता है जिससे बीज
का अंकुरण सुनिश्चित हो जाता है. ढालू खेतों में बीज की बुआई ढाल की विपरीत दिशा
में कतारों में करना चाहिए।
खेत में हो ईष्टतम पौध संख्या
सफल फसल उत्पादन के लिए प्रति इकाई क्षेत्र में पौधों की
समुचित संख्या स्थापित होना अत्यावश्यक है. वर्षा आश्रित क्षेत्रों में बीज अंकुरण
प्रायः कम होता है और इसी वजह से प्रति हेक्टेयर बीज दर सामान्य से 20 % अधिक रखी
जाती है. अंकुरण पश्चात पास-पास घने उगे पौधों में से कमजोर/बीमारू पौधों एवं साथ
उगे खरपतवारों को उखाड़ देना चाहिए। पौधों की अधिक संख्या होने से उनमे आपस में
नमी और पोषक तत्वों को ग्रहण करने हेतु प्रतिस्पर्धा होती है जिससे पौधों का पूर्ण
विकास नहीं हो पाता है. ऐसे पौधो में फूल और फलन भी कम हो पाता है जिससे उपज बहुत कम होती है. अतः प्रति इकाई
पौधों की संख्या कम रखना चाहिए, परन्तु यह कतारों के मध्य दूरी बढाकर करना चाहिए.
इससे भूमि में दीर्धकाल तक नमी बनी रहती
है।
भूमि को दें पोषक तत्वों की संतुलित खुराक
बारानी क्षेत्रो की भूमियाँ न केवल प्यासी है वरन वे भूखी
भी है. अतः बेहतर फसल उत्पादन के लिए फसलों में उचित पोषक तत्व प्रबंधन आवश्यक है.
पोषक तत्वों की पूर्ती रासायनिक उर्वरकों के स्थान पर जैविक खादों से करना चाहिए।
जैविक खाद के आभाव में समन्वित पोषक तत्व प्रबंधन के माध्यम से पोषक तत्वों की
पूर्ती करना चाहिए. इससे फसलोत्पादन में बढ़ोत्तरी होने के साथ साथ भूमि की उर्वरा
शक्ति भी बरकरार रहती है. संतुलित पोषक तत्व प्रबंधन के लिए खेत की मिट्टी का
परिक्षण करवा कर आवश्यकतानुसार खाद एवं उर्वरकों का इस्तेमाल करना चाहिए।
फसलोत्पादन में नत्रजन उर्वरक की पूर्ती हेतु बहुधा यूरिया
का इस्तेमाल किया जाता है जिसमे केवल 45 % नत्रजन पाया जाता है, जबकि हमारे
वायुमंडल में लगभग ७८% नत्रजन विद्यमान होती है.प्रकृति प्रदत्त इस नत्रजन को
राइजोबियम और एजोटोबेक्टर नामक जीवाणु खाद
की मदद से पौधो को उपलब्ध कराया जा सकता है। राइजोबियम जीवाणु दलहनी फसलों की जड़ों
में वायुमंडलीय नत्रजन स्थिर कर पौधों को उपलब्ध करा देते है। एजोटोबेक्टर
स्वतंत्र रूप से भूमि में रहते है तथा वायुमंडल की नत्रजन को पौधों (अनाज वाली
फसलों) को उपलब्ध करा देते है. इसी प्रकार से फॉस्फेट विलेयक जीवाणु खाद के प्रयोग
से भूमि में बेकार पड़ी फॉस्फोरस पौधो को उपलब्ध करते है ।इससे पूर्व में उपयोग
किये गए सिंगल सुपर फॉस्फेट और डी ए पी उर्वरको का भी समुचित उपयोग हो जाता है।
बीज को जीवाणु कल्चर से उपचारित करने हेतु २५० ग्राम गुड को आवश्यकतानुसार पानी गरम कर उसका घोल बना लेवे । इस घोल के ठंडा होने पर इसमें
६०० ग्राम जीवाणु खाद मिला देना चाहिए.इस मिश्रण से एक हेक्टेयर में बोये जाने
वाले बीज में इस प्रकार से मिलाये कि बीजों पर एक समान परत चढ़ जाये । इसके बाद
बीजों को छाया में सुखाकर बुआई की जा सकती है।
फसल पद्धति में बदलाव
बारानी खेती में एकल फसल पद्धति की बजाय मिश्रित और
अंतरवर्ती फसल प्रणाली लाभदायक होती है। अतः विभिन्न फसलों को अलग अलग कतारों में
एक निश्चित अनुपात में बोना चाहिए. उपयुक्त अंतरवर्ती फसलें लेने से मुख्य फसल की
उपज पर कोई विपरीत प्रभाव नही पड़ता है वल्कि लाभ में वृद्धि होती है और सूखे के
कुप्रभाव से भी बचा जा सकता है। अंतरवर्ती खेती हेतु एक फसल अधिक ऊँची हो तथा
दूसरी कम ऊंचाई वाली, या एक फसल गहरी जड़ वाली तथा दूसरी उथली जड़ो वाली होना
चाहिए.खाद्यान्न फसलो की डॉ कतारों के बीच
एक कतार दलहनी फसलों की बोई जा सकती है।
रबी में सरसों, चना और अलसी की बुआई की जा सकती है. ढलवां खेतों में खाद्यान्न व् तिलहनी फसलों को एक के बाद दूसरी पट्टी में ढाल के विपरीत बोना चाहिए जिससे पानी को खेत में रोकने में मदद मिलेगी साथ ही विभिन्न वर्ग की फसलें भूमि के अलग-अलग स्तरों से नमी और पोषक तत्व ग्रहण करेगी। इस प्रकार अंतरवर्ती खेती से भूमि की उर्वरा शक्ति कायम रहती है तथा किसानों को अतरिक्त आमदनी भी हो जाती है।
रबी में सरसों, चना और अलसी की बुआई की जा सकती है. ढलवां खेतों में खाद्यान्न व् तिलहनी फसलों को एक के बाद दूसरी पट्टी में ढाल के विपरीत बोना चाहिए जिससे पानी को खेत में रोकने में मदद मिलेगी साथ ही विभिन्न वर्ग की फसलें भूमि के अलग-अलग स्तरों से नमी और पोषक तत्व ग्रहण करेगी। इस प्रकार अंतरवर्ती खेती से भूमि की उर्वरा शक्ति कायम रहती है तथा किसानों को अतरिक्त आमदनी भी हो जाती है।
खरपतवार नियंत्रण एवं गुड़ाई
बारानी क्षेत्र की
फसलों में खरपतवार प्रकोप से
उत्पादन घट जाता है। खरपतवार फसल से अधिक तेजी से भूमि से नमी और पोषक
तत्वों का अवशोषण करते है। अतः फसल बुआई से २०-२५ दिन बाद निदाई-गुड़ाई कर खेत से
खरपतवारों को निकाल देना चाहिए। सूखे की स्थिति में भूमि की उपरी परत की गुड़ाई कर
देने से नमीं सरंक्षित रहती है।
नोट:
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